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________________ प्रथम अध्ययन : गाथापति आनन्द] कल्पना करें, अनाज के एक बहुत बड़े कोठे को कूष्मांडों-कुम्हड़ों से भर दिया गया / ' सामान्यतः देखने में लगता है, वह कोठा भरा हुआ है, उसमें कोई स्थान खाली नहीं है, पर यदि उसमें नीबू और भरे जाएं तो वे अच्छी तरह समा सकते हैं, क्योंकि सटे हुए कुम्हड़ों के बीच में स्थान खाली जो है। यों नींबुनों से भरे जाने पर भी सूक्ष्म रूप में और खाली स्थान रह जाता है, बाहर से वैसा लगता नहीं / यदि उस कोठे में सरसों भरना चाहें तो वे भी समा जाएं। सरसों भरने पर भी सूक्ष्म रूप में और स्थान खाली रहता है / यदि नदी के रजःकण उसमें भरे जाएं, तो वे भी समा सकते हैं। दूसरा उदाहरण दीवाल का है / चुनी हुई दीवाल में हमें कोई खाली स्थान प्रतीत नहीं होता पर उसमें हम अनेक खूटियाँ, कीलें गाड़ सकते हैं। यदि वास्तव में दीवाल में स्थान खाली नहीं होता तो यह कभी संभव नहीं था। दीवाल में स्थान खाली है, मोटे रूप में हमें मालूम नहीं पड़ता / अस्तु / क्षेत्र-पल्योपम की चर्चा के अन्तर्गत यौगलिक के बालों के खंडों के बीच-बीच में जो आकाशप्रदेश होने की बात है, उसे भी इसी दृष्टि से समझा जा सकता है। यौगलिक के बालों के खंडों को संस्पृष्ट करने वाले अाकाश-प्रदेशों में से प्रत्येक को प्रतिसमय निकालने की कल्पना की जाय / यों निकालते-निकालते जब सभी आकाश-प्रदेश निकाल लिये जाएं, कुआँ बिलकुल खाली हो जाय, वैसा होने में जितना काल लगे, उसे क्षेत्र-पल्योपम कहा जाता है / इसका काल-परिमाण असंख्यात उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी है। क्षेत्र-पल्योपम दो प्रकार का है-व्यावहारिक एवं सूक्ष्म / उपर्युक्त विवेचन व्यावहारिक क्षेत्र-पल्योपम का है। सूक्ष्म-क्षेत्र-पल्योपम इस प्रकार है :-कुएं में भरे यौगलिक के केश-खंडों से स्पृष्ट तथा अस्पृष्ट सभी आकाश--प्रदेशों में से एक-एक समय में एक-एक प्रदेश निकालने की र की जाय तथा यों निकालते-निकालते जितने काल में वह कनाँ समग्र आकाश-प्रदेशों से रिक्त हो जाय, वह कालपरिमाण सूक्ष्म-क्षेत्र-पल्योपम है / इसका भी काल-परिमाण असंख्यात उत्सर्पिणी-अवपिणी है / व्यावहारिक क्षेत्र-पल्योपम से इसका काल असंख्यात गुना अधिक होता है। अनुयोगद्वार सूत्र 138-140 तथा प्रवचन-सारोद्धारद्वार 148 में पल्योपम का विस्तार से विवेचन है। 63. तए णं समणे भगवं महावीरे अन्नया कयाइ बहिया जाव (वाणियगामाओ नयराओ दूइपलासाओ चेइयाओ पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमित्ता बहिया जणवयविहारं) विहरइ। तदनन्तर श्रमण भगवान महावीर वाणिज्य ग्राम नगर के दूतीपलाश चैत्य से प्रस्थान कर एक दिन किसी समय अन्य जनपदों में विहार कर गए / 64. तए णं से आणंदे समणोवासए जाए अभिगयजीवाजीवे जाव (उवलद्ध-पुण्णपावे आसवसंवरनिज्जरकिरियाअहिगरणबंधमोक्खकुसले, असहेज्जे, देवासुरणागसुवण्णजक्खरक्खसकिण्णर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003475
Book TitleAgam 07 Ang 07 Upashak Dashang Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages276
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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