________________ [उपासकदशांगसूत्र किंपुरिसगरुलगंधब्वमहोरगाइएहि देवगणेहिं निग्गंथाओ पावयणाओ अणइक्कमणिज्जे, निग्गंथे पावयणे णिस्संकिए, णिक्कंखिए, निवितिगिच्छे, लट्ठ, गहिय?, पुच्छिय?, अभिगयट्ठ, विणिच्छियट्ठ अद्धिमिजपेमाणुरागरत्ते, अयमाउसो ! निग्गंथे पावयणे अट्ठ, अयं परम?; सेसे अण?, ऊसियफलिहे, अवंगुयदुवारे, चियत्तंतेउरपरघरदारप्पवेसे चाउद्दसट्ठमुद्दिठ्ठपुण्णमासिणीसु पडिपुण्णं पोसहं सम्म अणुपालेत्ता समणे निग्गथे फासुएसणिज्जेणं असणपाणखाइमसाइमेणं वत्थपडिग्गहकंबलपायछणेणं ओसहभेसज्जेणं पाडिहारिएण य पीढफलगसेज्जासंथारएणं) पडिलाभेमाणे विहरइ / तब प्रानन्द श्रमणोपासक हो गया / जिसने जीव, अजीव आदि पदार्थों के स्वरूप को अच्छी तरह समझ लिया था, [पुण्य और पाप का भेद जान लिया था, आस्रव, संवर, निर्जरा, क्रिया, अधिकरण-जिसके आधार से क्रिया की जाए, बन्ध एवं मोक्ष को जो भली-भांति अवगत कर चुका था, जो किसी दूसरे की सहायता का अनिच्छुक आत्मनिर्भर था, जो देव, असुर, नाग, सुपर्ण, यक्ष, राक्षस, किन्नर, किंपुरुष, गरुड़, गन्धर्व, महोरग आदि देवताओं द्वारा निर्ग्रन्थ-प्रवचन से अनतिक्रमणीय न विचलित किए जा सकने योग्य था, निर्ग्रन्थ-प्रवचन में जो निःशंक-शंका रहित, निष्कांक्ष-ग्रात्मोत्थान के सिवाय अन्य आकांक्षा-रहित, विचिकित्सा संशय रहित, लब्धार्थ धर्म के यथार्थ तत्त्व को प्राप्त किये हए, गहीतार्थ --उसे ग्रहण किये हए, पष्टार्थ-जिज्ञासा या प्रश्न द्वारा उसे स्थिर किये हुए, अभिगतार्थ-स्वायत्त किये हुए, विनिश्चितार्थ निश्चित रूप में आत्मसात् किए हुए था एवं जो अस्थि और मज्जा पर्यन्त धर्म के प्रति प्रेम व अनुराग से भरा था, जिसका यह निश्चित विश्वास था कि यह निग्रन्थ प्रवचन ही अर्थ—प्रयोजनभूत है, यही परमार्थ है, इसके सिवाय अन्य अनर्थ---अप्रयोजनभूत हैं / 'ऊसिय-फलिहे' उठी हुई अर्गला है जिसकी, ऐसे द्वार वाला अर्थात् सज्जनों के लिये उसके द्वार सदा खुले रहते थे / अवंगुयदुवारे = खुले द्वार वाला अर्थात् दान के लिये उसके द्वार सदा खुले रहते थे / चियत्त का अर्थ है उन्होंने किसी के अन्तःपुर और पर-घर में प्रवेश को त्याग दिया था अथवा वह इतना प्रामाणिक था कि उसका अन्तःपुर में और परघर में प्रवेश भी प्रीति-जनक था, अविश्वास उत्पन्न करने वाला नहीं था / चतुर्दशी, अष्टमी, अमावस्या तथा पूर्णिमा को जो [प्रानन्द] परिपूर्ण पोषध का अच्छी तरह अनुपालन करता हुआ, श्रमण निर्ग्रन्थों को प्रासुक-अचित्त या निर्जीव, एषणीय-उन द्वारा स्वीकार करने योग्य-निर्दोष, न,पान, खाद्य, स्वाद्य आहार, वस्त्र, पात्र, कम्बल, पाद-प्रोञ्छन, औषध, भेषज, प्रातिहारिक-- लेकर वापस लौटा देने योग्य वस्तु, पाट, बाजोट, ठहरने का स्थान, बिछाने के लिए घास आदि द्वारा श्रमण निर्ग्रन्थों को प्रतिलाभित करता हुआ] धार्मिक जीवन जी रहा था। 65. तए णं सा सिवनंदा भारिया समणोवासिया जाया जाव' पडिलाभमाणी विहरइ / आनन्द की पत्नी शिवनन्दा श्रमणोपासिका हो गई। यावत् [जिसे तत्वज्ञान प्राप्त था, श्रमण-निर्ग्रन्थों को प्रासुक और एषणीय पदार्थों द्वारा प्रतिलाभित करती हुई] धार्मिक जीवन जीने लगीं। 1. देखें सूत्र....संख्या 64 / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org