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________________ 70] [उपासकांगसूत्र हुमा उपासक इस प्रतिमा में प्रारम्भ का परित्याग कर देता है / अर्थात् वह स्वयं प्रारम्भ नहीं करता, औरों से नहीं कराता, किन्तु प्रारम्भ करने की अनुमति देने का उसे त्याग नहीं होता। __ अपने उद्देश्य से बनाए गए भोजन का वह परिवर्जन नहीं करता, उसे ले सकता है। इस प्रतिमा की आराधना की न्यूनतम अवधि एक दिन, दो दिन या तीन दिन है तथा उत्कृष्ट नौ मास है। 10. उद्दिष्ट-भक्त-वर्जन-प्रतिमा पूर्वोक्त नियमों का अनुपालन करता हुआ उपासक इस प्रतिमा में उद्दिष्ट—अपने लिए तैयार किए गए भोजन आदि का भी परित्याग कर देता है। वह अपने आपको लौकिक कार्यों से प्रायः हटा लेता है / उस सन्दर्भ में वह कोई आदेश या परामर्श नहीं देता / अमुक विषय में वह जानता है अथवा नहीं जानता----केवल इतना सा उत्तर दे सकता है / इस प्रतिमा का आराधक उस्तरे से सिर मुडाता है, कोई शिखा भी रखता है। इसकी आराधना की समयावधि न्यूनतम एक, दो या तीन दिन तथा उत्कृष्ट दस मास है। 11. श्रमणभूत-प्रतिमा--पूर्वोक्त सभी नियमों का परिपालन करता हुआ साधक इस प्रतिमा में अपने को लगभग श्रमण या साधु जैसा बना लेता है। उसकी सभी क्रियाएं एक श्रमण की यतना और जागरूकतापूर्वक होती हैं। वह साध जैसा वेश धारण करता है, वैसे ही पात्र, उपकरण आदि रखता है। मस्तक के बालों को उस्तरे से मुडवाता है, यदि सहिष्णुता या शक्ति हो तो लुचन भी कर सकता है / साधु की तरह वह भिक्षा-चर्या से जीवन-निर्वाह करता है। इतना अन्तर है--साधु हर किसी के यहाँ भिक्षा हेतु जाता है, यह उपासक अपने सम्बन्धियों के घरों में ही जाता है, क्योंकि तब तक उनके साथ उसका रागात्मक सम्बन्ध पूरी तरह मिट नहीं पाता। इसकी आराधना का न्यूनतम काल-परिमाण एक दिन, दो दिन या तीन दिन है तथा उत्कृष्ट ग्यारह मास है। इसे श्रमणभूत इसीलिए कहा गया है यद्यपि वह उपासक श्रमण की भूमिका में तो नहीं होता, पर प्रायः श्रमण-सदृश होता है। ___ 72. तए णं से आणंदे समणोवासए इमेणं एयारवेणं उरालेणं, विउलेणं पयत्तेणं, पग्गहिएणं तवोकम्मेणं सुक्के जाव (लुक्खे, निम्मंसे, अट्ठिचम्मावणद्धे, किडिकिडियाभूए, किसे) धमणिसंतए जाए। ___इस प्रकार श्रावक-प्रतिमा आदि के रूप में स्वीकृत उत्कृष्ट, विपुल साधनोचित प्रयत्न तथा तपश्चरण से श्रमणोपासक आनन्द का शरीर सूख गया, [रूक्ष हो गया, उस पर मांस नहीं रहा, हड्डियां और चमड़ी मात्र बची रहीं, हड्डियां आपस में भिड़-भिड़ कर अावाज करने लगीं,] शरीर में इतनी कृशता या क्षीणता आ गई कि उस पर उभरी हुई नाड़ियां दीखने लगीं। 73. तए णं तस्स आणंदस्स समणोवासगस्स अन्नया कयाई पुव्य-रत्तावरत्तकालसमयंसि धम्मजागरियं जागरमाणस्स अयं अज्झथिए-एवं खलु अहं इमेणं जाव (एयारवेणं, उरालेणं, विउलेणं, पयत्तेणं, पग्गहिएणं तवोकम्मेणं सुक्के, लुक्खे, निम्मंसे, अट्ठि-चम्मावणद्धे किडिकिडियाभूए, किसे,) धमणिसंतए जाए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003475
Book TitleAgam 07 Ang 07 Upashak Dashang Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages276
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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