________________ प्रथम अध्ययन : गाथापति आनन्द] न अधिक निकट संस्थित हो, घुटने ऊंचे किये, मस्तक नीचे किए, ध्यान की मुद्रा में, संयम और तप से प्रात्मा को भावित करते हुए अवस्थित थे। तब आर्य जम्बू अनगार के मन में श्रद्धापूर्वक इच्छा पैदा हुई, संशय---अनिर्धारित अर्थ में शंका-जिज्ञासा एवं कुतूहल पैदा हुआ। पुनः उनके मन में श्रद्धा का भाव उमड़ा, संशय उभरा, कुतूहल समुत्पन्न हुया / वे उठे, उठकर जहाँ स्थविर आर्य सुधर्मा थे, आए / पाकर स्थविर आर्य सुधर्मा को तीन बार आदक्षिण प्रदक्षिणा की, वंदन-नमस्कार किया। वैसा कर भगवान् के न अधिक समीप, न अधिक दूर शुश्रूषा-सुनने की इच्छा रखते हुए, प्रणाम करते हुए, विनयपूर्वक सामने हाथ जोड़े हुए, उनकी पर्युपासना-अभ्यर्थना करते हुए बोले-भगवन् ! श्रमण भगवान् महावीर ने [जो आदिकर--सर्वज्ञता प्राप्त होने पर पहले पहल श्रुत-धर्म का शुभारम्भ करने वाले, तीर्थकर--श्रमण-श्रमणी-श्रावक-श्राविका रूप चविध धर्म-तीर्थ के संस्थापक, स्वयंसंबद्ध किसी बाह्य निमित्त या सहायता के बिना स्वयं बोध प्राप्त, विशिष्ट अतिशयों से सम्पन्न होने के कारण पुरुषोत्तम, शूरता की अधिकता के कारण पुरुषसिंह, सर्व प्रकार की मलिनता से रहित होने से पुरुषवरपुंडरीक-पुरुषों में श्रेष्ठ श्वेत कमल के समान, पुरुषों में श्रेष्ठ गंधहस्ती के समान, लोकोत्तम, लोकनाथ-जगत् के प्रभु, लोक-प्रतीप-लोक-प्रवाह के प्रतिकूलगामी-अध्यात्म-पथ पर गतिशील, अथवा लोकप्रदीप अर्थात् जनसमूह को प्रकाश देने वाले, लोक-प्रद्योतकर-लोक में धर्म का उद्योत फैलानेवाले, अभयप्रद, शरणप्रद, चक्षुःप्रद–अन्तर्-चक्षु खोलने वाले, मार्गप्रद, संयम-जीवन तथा बोधि प्रदान करने वाले, धर्मप्रद, धर्मोपदेशक, धर्मनायक, धर्म-सारथि, तीन ओर महासमुद्र तथा एक ओर हिमवान् की सीमा लिये विशाल भूमण्डल के स्वामी चक्रवर्ती की तरह उत्तम धर्म-साम्राज्य के सम्राट्, प्रतिघात विसंवाद या अवरोध रहित उत्तम ज्ञान व दर्शन के धारक, घातिकर्मों से रहित, जिन-राग-द्वेषविजेता, ज्ञायक-राग आदि भावात्मक सम्बन्धों के ज्ञाता अथवा ज्ञापक-राग आदि को जीतने का पथ बताने वाले, बुद्ध-बोधयुक्त, बोधक-बोधप्रद, मुक्त-बाहरी तथा भीतरी ग्रन्थियों से छूटे हुए, मोचक मुक्तता के प्रेरक, तीर्ण-संसार-सागर को तैर जाने वाले, तारक-संसा जाने की प्रेरणा देने वाले, शिव-मंगलमय, अचल-स्थिर, अरुज्–रोग या विघ्न रहित, अनन्त, अक्षय, अव्याबाध-बाधा रहित, पुनरावर्तन रहित सिद्धि-गति नामक शाश्वत स्थान के समीप पहुंचे हुए हैं, उसे संप्राप्त करने वाले हैं,] छठे अंग नायाधम्मकहाओ का जो अर्थ बतलाया, वह मैं सुन चुका हूँ / भगवान् ने सातवें अंग उपासकदशा का क्या अर्थ व्याख्यात किया ? - आर्य सुधर्मा बोले-जम्बू ! श्रमण भगवान् महावीर ने सातवें अंग उपासकदशा के दस अध्ययन प्रज्ञप्त किये-बतलाए, जो इस प्रकार हैं 1. आनन्द, 2. कामदेव, 3. गाथापति चुलनीपिता, 4. सुरादेव, 5. चुल्लशतक, 6. गाथापति कुडकौलिक, 7. सद्दालपुत्र, 8. महाशतक, 9. नन्दिनीपिता, 10. शालिहीपिता / जम्बू ने फिर पूछा-भगवन् ! श्रमण भगवान् महावीर ने सातवें अंग उपासकदशा के जो दस अध्ययन व्याख्यात किए, उनमें उन्होंने पहले अध्ययन का क्या अर्थ-तात्पर्य कहा? विवेचन सामान्य वर्णन के लिए जैन आगमों में 'वण्णओ' द्वारा सूचन किया जाता है, जिससे अन्यत्र Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org