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________________ [उपासकदशांगसूत्र उस समय आर्य सुधर्मा [श्रमण भगवान् महावीर के अन्तेवासी, जाति-सम्पन्न-उत्तम निर्मल मातृपक्षयुक्त, कुल-सम्पन्न-उत्तम निर्मल पितृपक्षयुक्त, बल-सम्पन्न-उत्तम दैहिक शक्तियुक्त, रूप-सम्पन्न-रूपवान् सर्वांग सुन्दर, विनय-सम्पन्न, ज्ञान-सम्पन्न, दर्शन-सम्पन्न, चारित्र-सम्पन्न, लज्जा-सम्पन्न, लाघव-सम्पन्न-हलके-भौतिक पदार्थ और कषाय आदि के भार से रहित, ओजस्वी, तेजस्वी, वचस्वी-प्रशस्त भाषी अथवा वर्चस्वी-वर्चस् या प्रभाव युक्त, यशस्वी, क्रोधजयी, मानजयी, मायाजयी, लोभजयी, निद्राजयी, इन्द्रियजयी, परिषहजयी-कष्टविजेता, जीवन की इच्छा और मृत्यु के भय से रहित, तप-प्रधान, गुण-प्रधान-संयम आदि गुणों की विशेषता से युक्त, करण-प्रधान-आहार-विशुद्धि आदि विशेषता सहित, चारित्र-प्रधान-उत्तम चारित्रसम्पन्न- दशविध यति-धर्मयुक्त, निग्रह-प्रधान राग आदि शत्रुओं के निरोधक, निश्चय-प्रधान-सत्य तत्त्व के निश्चित विश्वासी या कर्म-फल की निश्चितता में प्राश्वस्त, आर्जव-प्रधान-सरलतायुक्त, मार्दव-प्रधान-मृदुतायुक्त, लाघव-प्रधान–प्रात्मलीनता के कारण किसी भी प्रकार के भार से रहित या स्फति-शील, शान्ति-प्रधान-क्षमाशील, गुप्ति-प्रधानमानसिक, वाचिक तथा कायिक प्रवृत्तियों के गोपक-विवेकपूर्वक उनका उपयोग करनेवाले, मुक्तिप्रधान--कामनाओं से छूटे हुए या मुक्तता की ओर अग्रसर, विद्या-प्रधान-ज्ञान की विविध शाखाओं के पारगामी, मंत्र-प्रधान-सत मंत्र, चिन्तना या विचारणायूक्त, ब्रह्मचर्य-प्रधान, वेद-प्रधानवेद ग्रादि लौकिक, लोकोत्तर शास्त्रों के ज्ञाता, नय-प्रधान-नैगम आदि नयों के ज्ञाता, नियमप्रधान—नियमों के पालक, सत्य-प्रधान, शौच-प्रधान-आत्मिक शुचिता या पवित्रतायुक्त, ज्ञानप्रधान-ज्ञान के अनुशीलक, दर्शन-प्रधान-क्षायिक सम्यक्त्वरूप विशेषता से युक्त, चारित्र-प्रधानचारित्र की परिपालना में निरत, उराल-प्रबल-साधना में सशक्त, घोर-अद्भुत शक्ति-सम्पन्न, घोरगुण --परम उत्तम, जिन्हें धारण करने में अद्भुत शक्ति चाहिए, ऐसे गुणों के धारक, घोरतपस्वी-उग्र तप करने वाले, घोरब्रह्मचर्यवासी—कठोर ब्रह्मचर्य के पालक, उत्क्षिप्त-शरीर-दैहिक सार-संभाल या सजावट आदि से रहित, विशाल तेजोलेश्या अपने भीतर समेटे हुए, चतुर्दश पूर्वधरचौदह पूर्व-ज्ञान के धारक, चार–मति, श्रुत, अवधि तथा मनःपर्याय ज्ञान से युक्त स्थविर आर्य सुधर्मा, पांच सौ श्रमणों से संपरिवृत--घिरे हुए पूर्वानुपूर्व–अनुक्रम से आगे बढ़ते हुए, एक गांव से दूसरे गांव होते हुए, सुखपूर्वक विहार करते हुए, जहाँ चम्पा नगरी थी, पूर्णभद्र चैत्य था, पधारे। पूर्णभद्र चैत्य चम्पा नगरी के बाहर था, वहाँ भगवान् यथाप्रतिरूप-समुचित–साधुचर्या के अनुरूप आवास-स्थान ग्रहण कर ठहरे, संयम एवं तप से आत्मा को भावित करते हुए रहे। उसी समय की बात है, आर्य सुधर्मा के ज्येष्ठ अन्तेवासी आर्य जम्बू नामक अनगार, जो काश्यप गोत्र में उत्पन्न थे, जिनकी देह की ऊंचाई सात हाथ थी, जो समचतुरस्रसंस्थान-संस्थितदेह के चारों अंशों की सुसंगत, अंगों के परस्पर समानुपाती, सन्तुलित और समन्वित रचना-युक्त शरीर के धारक थे, जो वज्र-ऋषभ-नाराच-संहनन—सुदढ़ अस्थिबंधयुक्त विशिष्ट देह-रचनायुक्त थे, कसौटी पर अंकित स्वर्ण-रेखा की आभा लिए हुए कमल के समान जो गौरवणं थे, जो उग्र तपस्वी थे, दीप्त तपस्वी कर्मों को भस्मसात् करने में अग्नि के समान प्रदीप्त तप करने वाले थे, तप्त तपस्वीजिनकी देह पर तपश्चर्या की तीव्र झलक थी, जो महातपस्वी, प्रबल, घोर, घोर-गुण, घोर-तपस्वी, घोर-ब्रह्मचारी, उत्क्षिप्त-शरीर एवं संक्षिप्त-विपुल-तेजोलेश्य थे, स्थविर आर्य सुधर्मा के न अधिक दूर, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003475
Book TitleAgam 07 Ang 07 Upashak Dashang Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages276
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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