________________ प्रथम अध्ययन : गाथापति आनन्द [19 रहित थे, अकिंचन थे, भव-प्रवाह को उच्छिन्न कर चुके थे-जन्म-मरण से अतीत हो चुके थे निरुपलेप----द्रव्य-दृष्टि से निर्मल देहधारी तथा भाव-दृष्टि से कर्मबन्ध के हेतु रूप उपलेप से रहित थे, प्रेम, राग, द्वेष और मोह का नाश कर चुके थे, निर्ग्रन्थ--प्रवचन के उपदेष्टा, धर्म-शासन के नायक-शास्ता, प्रतिष्ठापक तथा श्रमण-पति थे, श्रमणवृन्द से घिरे हुए थे, जिनेश्वरों के चौंतीस बुद्ध-अतिशयों से तथा पैतीस सत्य-वचनातिशयों से युक्त थे, आकाशगत चक्र, छत्र तीन], आकाशगत चंवर, आकाश के समान स्वच्छ स्फटिक से बने पादपीठ सहित सिंहासन, धर्मध्वज-ये उनके आगे चल रहे थे, चौदह हजार साधु तथा छत्तीस हजार साध्वियों से संपरिवृत-घिरे हुए थे, आगे से आगे चलते हुए, एक गांव से दूसरे गांव होते हुए सुखपूर्वक विहार करते हुए, भगवान् वाणिज्यग्राम नगर में दूतीपलाश चैत्य में पधारे। ठहरने के लिए यथोचित स्थान ग्रहण किया, संयम व तप से आत्मा को अनुभावित करते हुए विराजमान हुए-टिके, परिषद् जुड़ी, राजा जितशत्रु राजा कूणिक की तरह भगवान के दर्शन, वन्दन के लिए निकला, [दूतीपलाश चैत्य में पाया / आकर भगवान् के न अधिक दूर न अधिक निकट---समुचित स्थान पर रुका / तीर्थकरों के छत्र आदि अतिशयों को देख कर अपनी सवारी के प्रमुख उत्तम हाथी को ठहराया, हाथी से नीचे उतरा, उतर कर तलवार, छत्र, मुकुट, चंवर-इन राज-चिह्नों को अलग किया, जूते उतारे / भगवान् महावीर जहां थे वहां आया / प्राकर, सचित्त--पदार्थों का व्युत्सर्जन-अलग करना, अचित्तअजीव पदार्थों का अव्युत्सर्जन–अलग न करना अखण्ड--अनसिले वस्त्र--का उत्तरासंग-उत्तरीय की तरह कन्धे पर डाल कर धारण करना, धर्म-नायक पर दृष्टि पड़ते ही हाथ जोड़ना, मन को एकाग्र करना—इन पांच नियमों के अनुपालनपूर्वक राजा जितशत्रु भगवान् के सम्मुख गया। भगवान् को तीन बार आदक्षिण--प्रदक्षिणा कर वन्दना की, नमस्कार किया। वन्दना, नमस्कार कर कायिक, वाचिक, मानसिक रूप से पर्युपासना की। कायिक पर्युपासना के रूप में हाथ-पैरों को संकुचित किए हुएसिकोड़े हुए, शुश्रूषा-सुनने की इच्छा करते हुए, नमन करते हुए भगवान् की ओर मुह किये, विनय से हाथ जोड़े हुए स्थित रहा / वाचिक पर्युपासना के रूप में जो-जो भगवान् बोलते थे, उसके लिए यह ऐसा ही है भन्ते ! यही तथ्य है भगवन् ! यही सत्य है प्रभो ! यही सन्देह-रहित है स्वामी ! यही इच्छित है भन्ते ! यही प्रतीच्छित स्वीकृत है, प्रभो ! यही इच्छित-प्रतीच्छित है भन्ते ! जैसा आप कह रहे हैं ! इस प्रकार अनुकूल वचन बोलता रहा / मानसिक पर्युपासना के रूप में अपने में अत्यन्त संवेग-मुमुक्षु भाव उत्पन्न करता हुआ तीव्र धर्मानुराग से अनुरक्त रहा। आनन्द द्वारा वन्दन 10. तए णं से आणंदे गाहावई इमोसे कहाए लट्ठ समाणे--एवं खलु समणे जाव (भगवं महावीरे पुब्वाणुपुन्दि चरमाणे गामाणुग्गामं दूइज्जमाणे इहमागए, इह संपत्ते, इह समोसढे, इहेव वाणियगामस्स नयरस्स बहिया दूइपलासए चेइए अहापडिरूवं ओग्गहं ओगिण्हित्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे) विहरइ, तं महप्फलं जाव (खलु भो! देवाणुप्पिया ! तहारूवाणं अरहंताणं भगवंताणं णाम-गोयस्स वि सवणयाए, किमंग पुण अभिगमण-बंदण-णमंसण-पडिपुच्छण-पज्जुवासणयाए ! एगस्स वि आरियस्स धम्मियस्स सुवयणस्स सवणयाए, किमंग पुण विउलस्स अट्ठस्स गहणयाए ? तं गच्छामि णं देवाणुप्पिया! समणं भगवं महावीरं वदामि णमंसामि सक्कारेमि सम्मामि कल्लाणं मंगलं देवयं चेइयं पज्जुवासामि) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org