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________________ 20] [उपासकदशांगसूत्र एवं संपेहेइ, संपेहित्ता हाए, सुद्धप्पाबेसाई मंगलाई वत्थाई पवर-परिहिए, अप्पमहग्याभरणालंकिय-सरीरे सयाओ गिहाओ पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमित्ता सकोरेण्ट-मल्ल-दामेणं छत्तेणं धरिज्जमाणेणं मणुस्स-वग्गुरा-परिक्खित्ते पाय-विहारचारेणं वाणियग्गामं नयरं मज्झं मोणं निग्गच्छद, निग्गच्छित्ता जेणामेव दूइपलासे चेइए, जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करेइ, करेत्ता बंदइ नमसइ जाव' पज्जुवासइ / तब प्रानन्द गाथापति को इस वार्ता से-प्रसंग से नगर के प्रमुख जनों को भगवान् की वन्दना के लिए जाते देख कर ज्ञात हुआ, श्रमण भगवान् महावीर [यथाक्रम आगे से आगे विहार करते हुए, ग्रामानुग्नाम विचरण करते हुए–एक गांव से दूसरे गांव का स्पर्श करते हुए यहां आए हैं, संप्राप्त हुए हैं, समवसृत हुए हैं-पधारे हैं / यहीं वाणिज्यग्राम नगर के बाहर दूतीपलाश चैत्य में यथोचित स्थान में टिके हैं,] संयम और तपपूर्वक आत्म-रमण में लीन हैं। इसलिए मैं उनके दर्शन का महान् फल प्राप्त करू / [ऐसे अर्हत् भगवान् के नाम, गोत्र का सुनना भी बहुत बड़ी बात है, फिर अभिगमनसम्मुख जाना, वन्दना, नमन, प्रतिपृच्छा—जिज्ञासा करना उनसे पूछना, पर्युपासना करना-इनका तो कहना ही क्या ? सद्गुण-निष्पन्न, सद्धर्ममय एक सुवचन का श्रवण भी बहुत बड़ी बात है; फिर विपुल–विस्तृत अर्थ के ग्रहण की तो बात ही क्या ? इसलिए अच्छा हो, मैं जाऊं और श्रमण भगवान् महावीर को वन्दन करू, नमन करू, सत्कार करू तथा सम्मान करू / भगवान् कल्याण हैं, मंगल हैं, देव हैं, तीर्थ-स्वरूप हैं, इनकी पर्युपासना करू / ] आनन्द के मन में यों विचार पाया। उसने स्नान किया, शुद्ध तथा सभा-योग्य मांगलिक वस्त्र अच्छी तरह पहने। थोड़े से किन्तु बहुमूल्य आभरणों से शरीर को अलंकृत किया, अपने घर से निकला, निकल कर कुरंट-पुष्पों की माला से युक्त छत्र धारण किये हुए, पुरुषों से घिरा हुआ, पैदल चलता हुआ, वाणिज्य ग्राम नगर के बीच में से गुजरा, जहां दूतीपलाश चैत्य था, भगवान् महावीर थे, वहां पहुंचा। पहुंचकर तीन बार आदक्षिण-प्रदक्षिणा की, वन्दन किया नमस्कार किया, पर्युपासना की। धर्म-देशना 11. तए णं समणे भगवं महावीरे आणंदस्स गाहावइस्स तोसे य महइ-महालियाए परिसाए जाव धम्म-कहा (इसि-परिसाए, मुणि-परिसाए, जइ-परिसाए, देव-परिसाए, अणेग-सयाए, अणेग-सयवंदाए, अणेय-सय-वंद-परिवाराए, ओहबले,अइबले, महब्बले, अपरिमिय-बल-धीरिय-तेय-माहप्पकंतिजुत्ते, सारद-नवत्थणिय-महुर-गंभीर-कोंच-णिग्धोस-दुदुभिस्सरे, उरे वित्थडाए, कंठेऽवट्ठियाए, सिरे समाइण्णाए, अगर-लाए, अमम्मणाए, सव्वक्खर सण्णिवाइयाए, पुण्णरत्ताए, सव्वभासाणुगामिणीए सरस्सईए, जोयणणीहारिणा सरेणं अद्धमागहाए भासाए भासति, अरिहा धर्म परिकहेइ तेसि सम्वेसि आरियमणारियाणं अगिलाए धम्ममाइक्खइ / सा वि य णं अद्धमागहा भासा तेसि सव्वेसि आरियमणारियाणं अप्पणो सभासाए परिणमइ / तं जहा-अस्थि लोए, अत्थि अलोए, एवं जीवा, अजीवा, बंधे, मोक्खे, पुण्णे, पावे, आसवे, संवरे, वेयणा, णिज्जरा, अरिहंता, चक्कबट्टी, बलदेवा, वासुदेवा, नरगा, नेरइया, तिरक्खजोणिया, तिरिखजोणिणीओ, माया, पिया, रिसयो, देवा, देवलोया, सिद्धी, सिद्धा, परिणिव्वाणं, परिणिव्वुया, अस्थि पाणाइवाए, मुसावाए, अदिण्णादाणे, 1. देखें सूत्र-संख्या 2 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003475
Book TitleAgam 07 Ang 07 Upashak Dashang Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages276
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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