________________ सम्पत्ति देने का रिवाज था, जिस पर उन्हीं [पुत्रियों का अधिकार रहता। महाशतक की सभी पत्नियों को वैसी सम्पत्ति प्राप्त थी। जहाँ अनेक पत्नियाँ होती, वहाँ सौतिया डाह भी होता, जो महाशतक की प्रमुख पत्नी रेवती के चरित्र से प्रकट है / उसने अपनी सभी सौतों की हत्या करवा डाली और उनके हिस्से की सम्पत्ति हड़प ली। प्रायः प्रत्येक नगर के बाहर उद्यान होता जहाँ सन्त-महात्मा ठहरते। ऐसे उद्यान लोगों के सार्वजनिक उपयोग के लिए होते। छठे और सातवें अध्ययन में सहस्राम्रवन-उद्यान का उल्लेख है। ऐसा प्रतीत होता है, ऐसे उद्यान भी उन दिनों रहे हों, जहाँ आम के हजार पेड़ लगे हों। यह सम्भव भी है क्योंकि जिन प्रदेशों का प्रसंग है, वहाँ अाम की बहुतायत से पैदावार होती थी, आज भी होती है। ध्यान, चिन्तन, मनन तथा आराधना के लिए शान्त स्थान चाहिए। अतः श्रमणोपासक विशेष उपासना हेतु पोषधशालाओं का उपयोग करते / इसके अतिरिक्त ध्यान एवं उपासना के लिए वे वाटिकाओं के रूप में अपने व्यक्तिगत शान्त वातावरणमय स्थान भी रखते / छठे और सातवें अध्ययन में कुण्डकौलिक और सकडालपुत्र द्वारा अपनी अशोक वाटिकाओं में जाकर धर्मोपासना करने का उल्लेख है / श्रमणोपासक अानन्द के व्रतग्रहण के सन्दर्भ में उपभोग-परिभोग-परिमाणवत के अतिचारों के अन्तर्गत 15 कर्मादानों का वर्णन है, जो श्रावक के लिए अनाचरणीय हैं / वहाँ जिन कामों का निषेध है, उनसे उस समय प्रचलित व्यवसाय, व्यापार आदि पर पर्याप्त प्रकाश पड़ता है। कर्मादानों में पाँचवाँ स्फोटन-कर्म है। इसमें खाने खोदना, पत्थर फोड़ना आदि का समावेश है / इससे प्रकट होता है कि खनिज व्यवसाय उन दिनों प्रचलित था / समृद्ध व्यापारी ऐसे कार्यों के ठेके लेते रहे हों, उन्हें करवाने की व्यवस्था करते रहे हों / / हाथी-दाँत, हड्डी, चमड़े आदि का व्यापार भी तब चलता था, जो दन्त-वाणिज्यसंज्ञक छठे कर्मादान से व्यक्त है। दास-प्रथा का तब भारत में प्रचलन था। दसवाँ कर्मादान केश-वाणिज्य इसका सूचक है। केश-वाणिज्य में गाय, भैंस, बकरी, भेड़, ऊँट, घोड़े आदि जीवित प्राणियों की खरीद-विक्री के साथ-साथ दास-दासियों की खरीद-बिक्री का धन्धा भी शामिल था। सम्पत्ति में चतुष्पद प्राणियों के साथ-साथ द्विपद प्राणियों की भी गिनती होती थी। द्विपदों में मुख्यतः दास-दासी आते थे। इस काम को कर्मादान के रूप में स्वीकार करने का यह प्राशय है कि एक श्रावक दास-प्रथा के कुत्सित काम से बचे, मनुष्यों का क्रय-विक्रय न करे। इससे यह भी ध्वनित होता है, जैन परम्परा दास-प्रथा के विरुद्ध थी। उपर्युक्त वर्णन से स्पष्ट है कि जैन आगम न केवल जैनधर्म के सिद्धान्त, आचार, रीतिनीति आदि के ज्ञान हेतु ही पढ़ने आवश्यक हैं वरन् अब से ढाई हजार वर्ष पूर्व के भारतीय समाज के व्यापक अध्ययन की दृष्टि से भी उनका अनुशीलन आवश्यक और उपयोगी है। वास्तव में प्राकृत जैन आगम तथा पालि त्रिपिटक ही उस काल से सम्बद्ध ऐसा साहित्य है, जिसमें जन-जीवन के सभी अंगों का वर्णन, विवेचन हुा / यह ऐसा साहित्य नहीं है, जिसमें केवल राजन्यवर्ग या [ 28 ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org