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________________ 176] [उपासकदशांगसूत्र एक दिन आधीरात के समय गाथापति महाशतक की पत्नी रेवती के मन में, जब वह अपने पारिवारिक विषयों की चिन्ता में जग रही थी, यों विचार उठा-मैं इन अपनी बारह सौतों के विघ्न के कारण अपने पति श्रमणोपासक महाशतक के साथ मनुष्य-जीवन के विपुल विषय-सुख भोग नहीं पा रही हूं। अतः मेरे लिए यही अच्छा है कि मैं इन बारह सौतों की अग्नि-प्रयोग, शस्त्र-प्रयोग या विष-प्रयोग द्वारा जान ले लू। इससे इनकी एक-एक करोड़ स्वर्ण-मुद्राएँ और एक-एक गोकुल मुझे सहज ही प्राप्त हो जायगा / मैं श्रमणोपासक महाशतक के साथ मनुष्य-जीवन के विपुल विषय-सुख भोगती रहूँगी। यों विचार कर वह अपनी बारह सौतों को मारने के लिए अनुकूल अवसर, सूनापन एवं एकान्त की टोह में रहने लगी। 239. तए णं सा रेवई गाहावइणी अन्नया कयाइ तासि दुवालसण्हं सवत्तीणं अंतरं जाणित्ता छ सवत्तीओ सत्थप्पओगेणं उद्दवेइ, उद्दवेत्ता छ सवत्तीओ विसप्पओगेणं उद्दवेइ, उद्दवेत्ता तासि दुवालसण्हं सवत्तीणं कोल-घरियं एगमेगं हिरण्ण-कोडिं, एममेगं वयं सयमेव पडिवज्जइ, पडिवज्जित्ता महासयएणं समणोवासएणं सद्धि उरालाई भोगभोगाई भुजमाणी विहरइ / एक दिन गाथापति की पत्नी रेवती ने अनुकल अवसर पाकर अपनी बारह सौतों में से छह को शस्त्र-प्रयोग द्वारा और छह को विष-प्रयोग द्वारा मार डाला। यों अपनी बारह सौतों को मार कर उनकी पीहर से प्राप्त एक-एक करोड़ स्वर्ण-मुद्राएँ तथा एक-एक गोकुल स्वयं प्राप्त कर लिया और वह श्रमणोपासक महाशतक के साथ विपुल भोग भोगती हुई रहने लगी। रेवती की मांस-मद्य-लोलुपता 240. तए णं सा रेवई गाहावइणी मंस-लोलुया, मंसेसु मुच्छिया, गिद्धा, गढिया, अज्झोववन्ना बहु-विहेहिं मंसेहि य सोल्लेहि य तलिएहि य भज्जिएहि य सुरं च महुं च मेरगं च मज्जं च सीधुच पसन्नं च आसाएमाणी, विसाएमाणी, परिभाएमाणी, परिभुजेमाणी विहरइ।। गाथापति की पत्नी मांस-भक्षण में सोलुप, आसक्त, लुब्ध तथा तत्पर रहती / वह लोहे की सलाखा पर सेके हुए, घी आदि में तले हुए तथा आग पर भूने हुए बहुत प्रकार के मांस एवं सुरा, मधु, मेरक, मद्य, सीधु व प्रसन्न नामक मदिराओं का आस्वादन करती, मजा लेती, छक कर सेवन करती। विवेचन प्रस्तुत सूत्र में सुरा, मधु, मेरक, मद्य, सीधु तथा प्रसन्न नामक मदिरामों का उल्लेख है, जिन्हें रेवती प्रयोग में लेती थी। आयुर्वेद के ग्रन्थों में प्रसवों तथा अरिष्टों के साथ-साथ मद्यों का भी वर्णन है / वैसे पासव एवं अरिष्ट में भी कुछ मात्रा में मद्यांश होता है, पर उनका मादक द्रव्यों या मद्यों में समावेश नहीं किया जाता / मदिरा की भिन्न स्थिति है। उसमें मादक अंश अधिक मात्रा में होता है, जिसके कारण मदिरासेवी मनुष्य उन्मत्त, विवेकभ्रष्ट और पतित हो जाता है / आयुर्वेद में मद्य को आसव एवं अरिष्ट के साथ लिए जाने का मुख्य कारण उनकी निर्माणविधि की लगभग सदृशता है / वनौषधि, फल, मूल, सार, पुष्प, कांड, पत्र, त्वचा आदि को कूट-पीस कर जल के साथ मिला कर उनका घोल तैयार कर घड़े या दूसरे बर्तन में संधित कर-कपड़मिट्टी से Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003475
Book TitleAgam 07 Ang 07 Upashak Dashang Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages276
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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