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________________ त्रुटिरहित एवं प्रामाणिक पाठ ग्रहण करने का प्रयास किया गया है / संख्याक्रम, पैरेग्राफ, विरामचिह्न प्रादि के रूप में विभाजन, सुव्यवस्थित उपस्थापन का पूरा ध्यान रखा गया है। प्राकृत अपने युग की जीवित भाषा थी। जीवित भाषा में विविध स्थानीय उच्चारण-भेद से एक ही शब्द के एकाधिक उच्चारण बोलचाल में रहते संभावित हैं, जैसे नगर के लिए नयर, गयरदोनों ही रूप सम्भव हैं / प्राचीन प्रतियों में भी दोनों ही प्रकार के रूप मिलते हैं। यों जिन-जिन शब्दों के एकाधिक रूप हैं, उनको उपलब्ध प्रतियों की प्रामाणिकता के आधार पर उसी रूप में रखा गया है। 'जाव' से सूचित पाठों के सम्बन्ध में ऐसा क्रम रखा गया है 'जाब' से संकेतित पाठ को पहली बार तो सम्बद्ध पूरक आगम से लेकर यथावत् रूप में कोष्ठक में दे दिया गया है, आगे उसी पाठ का सूचक 'जाव' जहाँ-जहाँ आया है, वहाँ पाद-टिप्पण में उस पिछले सूत्र का संकेत कर दिया गया है, जहाँ वह पाठ उद्धृत है / प्रायः प्रकाशित संस्करणों में 'जाव' से सूचित पाठ को कोष्ठक आदि में उद्धृत करने का क्रम नहीं रहा है। विस्तार से बचने के लिए संभवतः ऐसा किया गया हो। अधिक विस्तार न हो वाञ्छित है पर यह भी आवश्यक है कि 'जाव' द्वारा अमुक विषय का जो वर्णन अभीप्सित है, उससे पाठक अवगत हों / उसे उपस्थित किये बिना पाठकों को पठनीय विषय का पूरा ज्ञान नहीं हो पाता / अतः 'जाव' से सूचित पाठ की सर्वथा उपेक्षा नहीं की जानी चाहिए / हाँ, इतना अवश्य है, एक ही 'जाव' के पाठ को जितने स्थानों पर वह आया हो, सर्वत्र देना वाञ्छित नहीं है / इससे ग्रन्थ का अनावश्यक कलेवर बढ़ जाता है / 'जाव' से सूचित पाठ इतना अधिक हो जाता है कि पढ़ते समय पाठकों को मूल पाठ स्वायत्त करने में भी कठिनाई होती है। हिन्दी अनुवाद में भाषा का क्रम ऐसा रखा गया है, जिससे पाठक मूल पाठ के बिना भी उसको स्वतन्त्र रूप से पढ़े तो एक जैसा प्रवाह बना रहे / प्रत्येक अध्ययन के प्रारम्भ में उसका सार-संक्षेप में दिया गया है, जिसमें अध्ययनगत विषय का संक्षिप्त विवरण है। जिन सूत्रों में वर्णित विषयों की विशेष व्याख्या अपेक्षित हुई, उसे विवेचन में दिया गया है / यह ध्यान रखा गया है, विवेचन में अनावश्यक विस्तार न हो, आवश्यक बात छूटे नहीं / प्रस्तुत आगम के सम्पादन, अनुवाद एवं विवेचन में अनिश पाठ मास तक किये गये श्रम की यह फलनिष्पत्ति है / इस बीच परम श्रद्धेय युवाचार्य श्री मधुकर मुनिजी महाराज तथा वयोवृद्ध एवं ज्ञानवृद्ध मनीषी विद्वद्वर पं० शोभाचन्द्रजी भारिल्ल की ओर से मुझे सतत स्फूतिप्रद प्रेरणाएं प्राप्त होती रहीं, जिससे मेरा उत्साह सर्वथा वृद्धिंगत होता रहा / मैं हृदय से आभारी हूँ। इस कार्य में प्रारम्भ से ही मेरे साहित्यिक सहकर्मी प्रबुद्ध साहित्यसेवी श्री शंकरलालजी पारीक, लाडनू कार्य के समापन पर्यन्त सहयोगी रहे हैं / प्रेस के लिए पाण्डुलिपियाँ तैयार करने में उनका पूरा साथ रहा / [32] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003475
Book TitleAgam 07 Ang 07 Upashak Dashang Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages276
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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