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________________ तृतीय अध्ययन : चुलनीपिता] [111 (नीणेइ, नीणेत्ता ममं अग्गओ धाएइ, घाएता तओ मंस-सोल्लए करेइ, करेत्ता आदाण-भरियसि कडाहयंसि अद्दहेइ, अहहेत्ता) ममं गायं मंसेण य सोणिएण य आयंचइ, जेणं ममं कणीयसं पुत्तं साओ गिहाओ तहेव जाव' आयंचइ, जा वियणं इमा ममं माया भट्टा सत्थवाही देवय-गुरु-जणणी, दक्करदुक्कर-कारिया तं पि य णं इच्छइ साओ गिहाओ नीणेत्ता मम अग्गओ घाएत्तए, तं सेयं खलु ममं एवं पुरिसं गिहित्तए त्ति कटु उद्धाइए, से वि य आगासे उप्पइए, तेणं च खंभे आसाइए, महया महया सद्देणं कोलाहले कए। उस देव ने जब दूसरी बार, तीसरी बार ऐसा कहा, तब श्रमणोपासक चुलनीपिता के मन में विचार प्राया—यह पुरुष बड़ा अधम है, नीच-बुद्धि है, नीचतापूर्ण पाप-कार्य करने वाला है, जिसने मेरे बड़े पुत्र को घर से लाकर मेरे आगे मार डाला (उसके तीन मांस-खण्ड किए, उबलते पानी से भरी कढ़ाही में खौलाया) उसके मांस और रक्त से मेरे शरीर को सींचा-छींटा, जो मेरे मंझले पुत्र को घर से ले आया, (लाकर मेरे सामने उसकी हत्या की, उसके तीन मांस-खण्ड किए, उबलते पानी से भरी कढ़ाही में खौलाया, उसके मांस और रक्त से मेरे शरीर को सींचा-छींटा,) जो मे पुत्र को घर से ले आया, उसी तरह उसके मांस और रक्त से मेरा शरीर सींचा, जो देव और गुरु सदृश पूजनीय, मेरे हितार्थ अत्यन्त दुष्कर कार्य करने वाली, अति कठिन क्रियाएं करने वाली मेरी माता भद्रा सार्थवाही को भी घर से लाकर मेरे सामने मारना चाहता है / इसलिए, अच्छा यही है, मैं इस पुरुष को पकड़ लू। यों विचार कर वह पकड़ने के लिए दौड़ा / इतने में देव आकाश में उड़ गया / चुलनीपिता के पकड़ने को फैलाए हाथों में खम्भा आ गया / वह जोर-जोर से शोर करने लगा। माता का आगमन : जिज्ञासा 137. तए णं सा भद्दा सत्थवाही तं कोलाहल-सदं सोच्चा, निसम्म जेणेव चुलणीपिया समणोवासए, तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता चुलणीपियं समणोवासयं एवं वयासी-किण्णं पुत्ता ! तुमं महया महया सद्देणं कोलाहले कए ? भद्रा सार्थवाही ने जब वह कोलाहल सुना, तो जहाँ श्रमणोपासक चुलनीपिता था, वहाँ वह आई, उससे बोली-पुत्र ! तुम जोर-जोर से यों क्यों चिल्लाए ? चुलनीपिता का उत्तर 138. तए णं से चुलणीपिया समणोवासए अम्मयं भदं सत्थवाहिं एवं बयासी-एवं खलु अम्मो ! न जाणामि के वि पुरिसे आसुरत्ते 4, एगं महं नीलुप्पल जाव' असि गहाय ममं एवं वयासी हं भो ! चुलणीपिया ! समणोवासया ! अपत्थिय-पत्थिया! 4. जइ णं तुमं जाव (अज्ज सीलाई, वयाई, वेरमणाई, पच्चक्खाणाई, पोसहोववासाइं न छड्डेसि, न भंजेसि, तो जाव तुमं अट्टदुहट्ट-वसट्टे अकाले चेव जीवियाओ) ववरोविज्जसि / अपनी माता भद्रा सार्थवाही से श्रमणोपासक चुलनीपिता ने कहा-मां ! न जाने कौन 1. देखें सूत्र-संख्या 136 2. देखें सूत्र-संख्या 116 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003475
Book TitleAgam 07 Ang 07 Upashak Dashang Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages276
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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