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________________ 110] [उपासकवशांगसूत्र हजार गुना अधिक महत्त्व दिया है / ' तैत्तिरीयोपनिषद् में उल्लेख है, अध्ययन सम्पन्न कराने के पश्चात् प्राचार्य जब शिष्य को भावी जीवन के लिए उपदेश करता है, तो वहाँ वह उसे विशेष रूप से कहता है, तुम अपनी माता को देवता के तुल्य समझना, पिता को देवता के तुल्य समझना, प्राचार्य को देवता के तुल्य समझना, अतिथि को देवता के तुल्य समझना, अनवद्य-अनिंद्य या निर्दोष कर्म करना, इतर-निंद्य या सदोष कर्म मत करना, गुरुजनों द्वारा सेवित शुभ आचरण या उत्तम चरित्र का पालन करना / जैन-साहित्य और बौद्ध-साहित्य में भी माता का बहुत उच्च स्थान माना गया है। यहाँ प्रयुक्त इस विशेषण में भारतीय चिन्तनधारा के इस पक्ष की स्पष्ट झलक है। 134. तए णं से चुलणीपिया समणोवासए तेणं देवेणं एवं वुत्ते समाणे अभीए जाव विहरइ / उस देव द्वारा यों कहे जाने पर भी श्रमणोपासक चुलनीपिता निर्भयता से धर्मध्यान में स्थित रहा। 135. तए णं से देवे चुलणोपियं समणोवासयं अभीयं जाव' विहरमाणं पासइ, पासित्ता चुलणीपियं समणोवासयं दोच्चपि तच्चपि एवं वयासी-हं भो! चुलणीपिया! समणोवासया ! तहेव जाव (अट्ट-दुहट्ट-वस? अकाले चेव जीवियाओ) ववरोविज्जसि। उस देव ने श्रमणोपासक चुलनीपिता को निर्भय देखा तो दूसरी बार, तीसरी बार फिर वैसा ही कहाश्रमणोपासक चुलनीपिता ! तुम (प्रार्तध्यान एवं विकट दुःख से पीड़ित होकर असमय में ही) प्राणों से हाथ धो बैठोगे। चुलनी पिता का क्षोभ : कोलाहल 136. तए णं तस्स चुलणीपियस्स समणोवासयस्स तेणं देवेणं दोच्चपि तच्चंपि एवं वुत्तस्स समाणस्स इमेयारूवे अज्झथिए 5, अहो णं इमे पुरिसे अणारिए, अणारिय-बुद्धी, अणारियाई, पावाई कम्माइं समायरइ, जेणं ममं जेट्ठ पुत्तं साओ गिहाओ नीणेइ, नीणेत्ता ममं अम्गओ घाएइ, धाएत्ता जहा कयं तहा चितेइ जाव (तओ मंससोल्लए करेइ, करेत्ता आदाणभरियसि कडाहयंसि अद्दहेइ, अहहेत्ता) ममं गायं मंसेण य सोणिएण य आयंचइ, जेणं ममं मज्झिमं पुत्तं साओ गिहाओ जाव 1. उपाध्यायान्दशाचार्य प्राचार्याणां शतं पिता / सहस्त्रं तु पितृन्माता गौरवेणातिरिच्यते // --मनुस्मृति 2. 145 2. मातृदेवो भव / पितृदेवो भव / प्राचार्यदेवो भव / अतिथिदेवो भव / यान्यनवद्यानि कर्माणि, तानि सेवितव्यानि, नो इतराणि / यान्यस्माकं सुचरितानि, तानि त्वयोपास्यानि / --तैत्तिरीयोपनिषद् वल्ली 1. अनुवाक् 11.2 3. देखें सूत्र-संख्या 98 4. देखें सूत्र-संख्या 97 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003475
Book TitleAgam 07 Ang 07 Upashak Dashang Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages276
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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