________________ आठवां अध्ययन : महाशतक] [181 गया। फलतः वह पूर्व, पश्चिम तथा दक्षिण दिशा में एक-एक हजार योजन तक का लवण समुद्र का क्षेत्र, उत्तर दिशा में हिमवान् वर्षधर पर्वत तक क्षेत्र तथा अधोलोक में प्रथम नारकभूमि रत्नप्रभा में चौरासी हजार वर्ष की स्थिति वाले लोलुपाच्युतनामक नरक तक जानने देखने लगा / रेवती द्वारा पुनः असफल कुचेष्टा 254. तए णं सा रेवई गाहावइणी अन्नया कयाइ मत्त जाव (लुलिया, विष्णकेसी) उत्तरिज्जय विकट्टमाणी 2 जेणेव महासयए समणोवासए जेणेव पोसहसाला तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता महासयय तहेव भणइ जाव' दोच्चंपि तच्चपि एवं क्यासी-हं भो तहेव / तत्पश्चात् एक दिन महाशतक गाथापति की पत्नी रेवती शराब के नशे में उन्मत्त (लड़खड़ाती हुई, बाल बिखेरे) बार-बार अपना उत्तरीय फेंकती हुई पोषधशाला में, जहाँ श्रमणोपासक महाशतक था, आई / पाकर महाशतक से पहले की तरह बोली। (तुम मेरे साथ मनुष्यजीवन के विपुल विषय-सुख नहीं भोगते, देवानुप्रिय ! तुम्हें धर्म, पुण्य, स्वर्ग तथा मोक्ष से क्या मिलेगा?) उसने दूसरी बार, तीसरी बार, फिर वैसा ही कहा। महाशतक द्वारा रेवती का दुर्गतिमय भविष्य-कथन 255. तए णं से महासयए समणोवासए रेवईए गाहावइणीए दोच्चंपि, तच्चंपि एवं वृत्ते समाणे आसुरत्ते 4 ओहि पउंजइ, पउंजित्ता ओहिणा आभोएइ, आमोइत्ता रेवई गाहावइणि एवं वयासी-हं भो रेवई ! अपत्थिय-पत्थिए 4 एवं खलु तुम अंतो सत्त-रत्तस्स अलसएणं वाहिणा अभिभूया समाणी अट्ट-दुहट्ट-वसट्टा असमाहिपत्ता कालमासे कालं किच्चा अहे इसीसे रयणप्पभाए पुढवीए लोलुयच्चुए नरए चउरासोइ-वाससहस्सटिइएसु नेरइएसु नेरइयत्ताए उवजिहिसि / अपनी पत्नी रेवती द्वारा दूसरी बार, तीसरी बार यों कहे जाने पर श्रमणोपासक महाशतक को क्रोध आ गया। उसने अवधिज्ञान का प्रयोग किया, प्रयोग कर उपयोग लगाया। अवधिज्ञान द्वारा जानकर उसने अपनी पत्नी रेवती से कहा-मौत को चाहने वाली रेवती! तू सात रात के अन्दर अलसक नामक रोग से पीडित होकर आत-व्यथित, दुःखित तथा विवश होती हुई आयु-काल पूरा होने पर अशान्तिपूर्वक मरकर अधोलोक में प्रथम नारकभूमि रत्नप्रभा में लोलुपाच्युत नामक नरक में चौरासी हजार वर्ष के अायुष्यवाले नैरयिकों में उत्पन्न होगी। __ प्रस्तुत सूत्र में अलसक रोग का उल्लेख हुआ है, जिससे पीड़ित होकर अत्यन्त कष्ट के साथ रेवती का मरण हुआ। अलसक आमाशय तथा उदर सम्बन्धी रोगों में भीषण रोग है / अष्टांगहृदय में मात्राशितीय अध्याय में इसका वर्णन है / वहां लिखा है-- "दुर्बल, मन्द अग्निवाले, मल-मूत्र आदि का वेग रोकने वाले व्यक्ति का वायु विमार्गगामी हो जाता है, वह पित्त और कफ को भी बिगाड़ देता है / वायु विकृत हो जाने से खाया हुआ अन्न 1. देखें सूत्र-संख्या 246 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org