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________________ 182] [उपासकदशांगसूत्र आमाशय के भीतर ही कफ से रुद्ध हो कर अटक जाता है, अलसीभूत-पालस्ययुक्त-गतिशून्य हो जाता है, जिससे शल्य चुभने जैसी भयानक पीड़ा उठती है, तीव्र, दुःसह शूल उत्पन्न हो जाते हैं, वमन और शौच अवरुद्ध रहते हैं, जिससे विकृत अन्न बाहर नहीं निकल पाता / अर्थात् प्रामाशय में कफरुद्ध अन्नपिण्ड जाम हो जाता है। उसे अलस या अलसक रोग कहा जाता है।" उसी प्रसंग में वहाँ दण्डकालसक की चर्चा है जो अलसक का भीषणतम रूप है, लिखा है "अत्यन्त दूषित या विकृत हुए दोष, दूषित प्राम- कच्चे रस से बंधकर देह के स्रोतों को रोक देते हैं, तिर्यगामी हो जाते हैं, सारे शरीर को दंड की तरह स्तंभित बना देते हैं-देह का फैलना-सिकुड़ना बन्द हो जाता है उसे दंडकालसक कहा जाता है / वह असाध्य है, रोगी को शीघ्र ही समाप्त कर देता है। माधवनिदान में भी अजीर्ण निदान के प्रसंग में अलसक की चर्चा है / वहां लिखा है "जिस रोग में कुक्षि या प्रामाशय बंधा सा रहे अर्थात् प्राफरा आ जाय, खिंचावट सी बनी रहे, इतनी पीड़ा हो कि आदमी कराहने लगे, पवन का वेग नीचे की ओर न चल कर ऊपर आमाशय की ओर दौड़े, शौच व अपानवायु बिलकुल रुक जाय, प्यास लगे, डकारें आएं, उसे अलसक कहते अष्टांगहृदय तथा माधवनिदान के बताए लक्षणों से स्पष्ट है कि अलसक बड़ा कष्टकर रोग है। 1. विशेषाद् दुर्बलस्याऽल्पवह वेगविधारिणः / पीडितं मारुतेनान्नं श्लेष्मणा रुद्धमन्तरा।। अलसं क्षोभित दोषः शल्यत्वेनैव संस्थितम् / शूलादीकुरुते तीवाश्छद्यतीसारवजितान / / सोऽलस: दुर्बलत्वादियुक्तस्य यन्मारुतेन विशेषादन्न पीडितमन्तराऽऽमाशयमध्य एव श्लेष्मणा रुद्धमलसीभूतं, तथा दोषः क्षोभितमाकुलितमत एवाऽतिपीडाकारित्वाच्छल्यरूपत एव स्थिते, तीव्रान् दुःसहान् शूलादीन् छादिवजितान् कुरुते / छर्घतीसाराभ्यां विसूचिकोक्ता / सोऽलससंज्ञो रोगः। दुर्बलो ह्यनुपचितधातुः, स न कदाचिदाहारं सोढुं शक्तः / अल्पाग्नेश्चाहारं सम्यङ् न जीर्य ति ! यतो वेगधारणशीलस्य प्रतिहतो वायुर्विमार्गग: पित्तकफावपि विमार्गगो कुरुत इत्येतद्विशेषेण निर्देशः / अष्टांगहृदय 7. 10, 11 टीकासहित 2. ...प्रत्यर्थदुष्टास्तु दोषा दुष्टाऽऽमबद्धखाः / यान्तस्तियक्तनुं सर्वां दण्डवत्स्तम्भयन्ति चेत् / / अष्टाङ्गहृदय 8. 12 3. कुक्षि राहन्यतेऽत्यर्थं प्रताम्येत् परिकूजति / निरुद्धो मारुतश्चैव कुक्षावपरि धावति / / वातव!निरोधश्च यस्यात्यर्थं भवेदपि / तस्यालसकमाचष्टे तृष्णोद्गारौ च यस्स तु / / माधवनिदान, अजीर्णनिदान 17, 18 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003475
Book TitleAgam 07 Ang 07 Upashak Dashang Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages276
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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