________________ 140] [उपासकदशांगसूत्र भगवान् महावीर-सकडालपुत्र ! एक बात बताओ। तुम्हारे ये बर्तन प्रयत्न, पुरुषार्थ तथा उद्यम से बने हैं या अप्रयत्न, अपुरुषार्थ और अनुद्यम से ? ___ सकडालपुत्र-भगवन् ! अप्रयत्न, अपुरुषार्थ और अनुद्यम से। क्योंकि प्रयत्न, पुरुषार्थ और उद्यम का कोई महत्त्व नहीं है / जो कुछ होता है, सब निश्चित है / भगवान् महावीर-सकडालपुत्र ! जरा कल्पना करो कोई पुरुष तुम्हारे हवा लगे, सूखे बर्तनों को चुरा ले, उन्हें बिखेर दे, तोड़ दे, फोड़ दे या तुम्हारी पत्नी अग्निमित्रा के साथ बलात्कार करे, तो तुम उसे क्या दण्ड दोगे ! सकडालपुत्र-भगवन् ! मैं उसको फटकारूंगा, बुरी तरह पीटगा, अधिक क्या, जान से मार डालूगा। भगवान् महावीर--सकडालपुत्र ! ऐसा क्यों ? तुम तो प्रयत्न और पुरुषार्थ को नहीं मानते। सब भावों को नियत मानते हो। तब फिर जो पुरुष वैसा करता है, उसमें उसका क्या कर्तृत्व है ? वैसा तो पहले से ही नियत है। उसे दोषी भी कैसे मानोगे ? यदि तुम कहो कि वह तो प्रयत्नपूर्वक वैसा करता है, तो प्रयत्न और पुरुषार्थ को न मानने का, सब कुछ नियत मानने का तुम्हारा सिद्धान्त गलत है, असत्य है। सकडालपुत्र एक मेधावी और समझदार पुरुष था। इस थोड़ी सी बातचीत से यथार्थ तत्त्व उसकी समझ में आ गया / उसने संबोधि प्राप्त कर ली। उसका मस्तक श्रद्धा से भगवान महावीर के चरणों में झुक गया। जैसा उस समय के विवेकी पुरुष करते थे, उसने भगवान महावीर से बारह प्रकार का श्रावकधर्म स्वीकार किया। उसकी प्रेरणा से उसकी पत्नी अग्निमित्रा ने भी वैसा ही किया। यों पति-पत्नी सद्धर्म को प्राप्त हुए तथा अपने गृहस्थ जीवन के साथ-साथ धार्मिक आराधना में भी अपने समय का सदुपयोग करने लगे। सकडालपुत्र मंखलिपुत्र गोशालक का प्रमुख श्रावक था। जब गोशालक ने यह सुना तो साम्प्रदायिक मोहवश उसे यह अच्छा नहीं लगा। उसने मन ही मन सोचा, मुझे सकडालपुत्र को पुनः समझाना चाहिए और अपने मत में वापस लाना चाहिए। इस हेतु वह पोलासपुर में आया / आजीविकों के उपाश्रय में रुका / अपने पात्र, उपकरण आदि वहां रखे तथा अपने कुछ शिष्यों के साथ सकडालपुत्र के यहां पहुंचा। सकडालपुत्र तो सत् तत्त्व और सद्गुरु प्राप्त कर चुका था, इसलिए गोशालक के आने पर पहले वह जो श्रद्धा, आदर एवं सम्मान दिखाता था, उसने वैसा नहीं किया, चुपचाप बैठा रहा / गोशालक खूब चालाक' था, झट समझ गया। उसने युक्ति निकाली। सकडालपुत्र को प्रसन्न करने के लिए उसने भगवान् महावीर की खूब गुण-स्तवना की। गोशालक के इस कूटनीतिक व्यवहार को वह समझ नहीं सका / गोशालक की मंशा यह थी कि किसी प्रकार पुनः मुझे सकडालपुत्र के साथ धार्मिक बातचीत का अवसर मिल जाय तो मैं इसकी मति बदलू। सकडालपुत्र ने भगवान महावीर के प्रति गोशालक द्वारा दिखाए गए पादर-भाव के कारण शिष्टतावश अनुरोध किया-आप मेरी कर्मशाला में रुकें, आवश्यक वस्तुएं लें। गोशालक तो बस यही चाहता था। उसने झट स्वीकार कर लिया और वहां गया। वहां के प्रवास के बीच उसको सकडालपुत्र के साथ तात्त्विक वार्तालाप करने का अनेक बार अवसर मिला। उसने सकडालपुत्र को बदलने का बहुत प्रयास किया, पर वह सर्वथा विफल रहा। सकडालपुत्र तो खूब विवेक और समझदारी के साथ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org