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________________ तीसरे अध्ययन में चुलनीपिता का प्रसंग है / चुलनीपिता को भी ऐसे ही विघ्न का सामना करना पड़ा / पुत्रों की हत्या से तो वह अविचल रहा पर देव ने जब उसकी पूजनीया माँ की हत्या की धमकी दी तो वह विचलित हो गया / माँ के प्रति रही अपनी ममता वह जीत नहीं सका / वह तो अध्यात्म की ऊँची साधना में था, जहाँ ऐसी ममता बाधा नहीं बननी चाहिए, पर बनी / चुलनीपिता भूल का प्रायश्चित्त कर शुद्ध हुआ। __ चौथे अध्ययन में श्रमणोपासक सुरादेव का कथानक है / उसकी साधना में भी विघ्न आया। पुत्रों की हत्या से उपसर्गकारी देव ने जब उसे अप्रभावित देखा तो उसने उसके शरीर में भीषण सोलह रोग उत्पन्न कर देने की धमकी दी। मनुष्य मौत को स्वीकार कर सकता है, पर अत्यन्त भयानक रोगों से जर्जर देह उसके लिए मौत से कहीं अधिक भयावह बन जाती है, सुरादेव के साथ भी यही घटित हुआ / उसका व्रत भग्न हो गया। उसने आत्म-परिष्कार किया। पांचवें अध्ययन में चुल्लशतक सम्पत्ति-नाश की धमकी से व्रत-च्युत हुआ / कुछ लोगों के लिए धन पुत्र, माता, प्राण-इन सबसे प्यारा होता है / वे और सब सह लेते हैं पर धन के विनाश की अाशंक त अातुर तथा प्राकूल बना देता है / चल्लशतक तीनो पूत्रीको हत्या तक चुप रहा पर पालभिका [नगरी की गली-गली में उसकी सम्पत्ति बिखेर देने की बात से वह कांप गया। सातवें अध्ययन में सकडालपुत्र का कथानक है / वह भी पुत्रों की हत्या तक तो अविचल रहा पर उसकी पत्नी अग्निमित्रा जो न केवल गृहस्वामिनी थी, उसके धार्मिक जीवन में अनन्य सहयोगिनी भी थी, की हत्या की धमकी जब सामने आई तो वह हिम्मत छोड़ बैठा। यहाँ एक बात विशेष महत्त्वपूर्ण है / व्यक्ति अपने मन में रही किसी दुर्बलता के कारण एक बार स्थानच्युत होकर पुनः आत्मपरिष्कार कर, प्रायश्चित कर, शुद्ध होकर ध्येयनिष्ठ बन जाय तो वह भूल फिर नहीं रहती। भूल होना असंभव नहीं है पर भूल हो जाने पर उसे समझ लेना, उसके लिए अन्तर-खेद अनुभव करना, फिर अपने स्वीकृत साधना-पथ पर गतिमान् हो जाना----यह व्यक्तित्व की उच्चता का चिह्न है / छनों उपासकों के भूल के प्रसंग इसी प्रकार के हैं। जीवन में अवशिष्ट रही ममता, आसक्ति आदि के कारण उनमें विचलन तो आया पर वह टिक नहीं पाया। आठवें अध्ययन में श्रमणोपासक महाशतक के सामने एक विचित्र अनुकूल विघ्न आता है। उसकी प्रमुख पत्नी रेवती, जो घोर मद्य-मांस-लोलुप-और कामुक थी, पोषधशाला में पोषध और ध्यान में स्थित पति को विचलित करना चाहती है। एक अोर त्याग का तीव्र ज्योतिर्मय सूर्य था, दूसरी ओर पाप की कालिमामयी तमिस्रा / त्याग की ज्योति को ग्रसने के लिए कालिमा खूब झपटी पर वह सर्वथा अकृतकार्य रही। रेवती महाशतक को नहीं डिगा सकी। पर, एक छोटी-सी भूल महाशतक से तब बनी। रेवती की दुश्चेष्टाओं से उसके मन में क्रोध का भाव पैदा हुआ / उसे अवधिज्ञान प्राप्त था। रेवती की सात दिन के भीतर भीषण रोग, पीडा एवं वेदना के साथ होने वाली मृत्यु की भविष्यवाणी उसने अपने अवधिज्ञान के सहारे कर दी / मृत्यु के भय से रेवती अत्यन्त मर्माहत और भयभीत हो गई / भविष्यवाणी यद्यपि सर्वथा सत्य थी पर सत्य भी सब स्थितियों में व्यक्त किया जाए, यह वांछनीय नहीं है। जो सत्य दूसरों के मन में भय और आतंक उत्पन्न कर दे, वक्ता को वह बोलने में विशेष विचार तथा संकोच करना होता है। इसलिए भगवान् महावीर ने [ 24 ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003475
Book TitleAgam 07 Ang 07 Upashak Dashang Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages276
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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