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________________ अपने प्रमुख अन्तेवासी गौतम को भेजकर महाशतक को सावधान किया / महाशतक पुनः आत्मस्थ हुआ। छठे अध्ययन का चरितनायक कुण्डकौलिक एक तत्त्वनिष्णात श्रावक के रूप में चित्रित किया गया है। एक देव और कुण्डकौलिक के बीच नियतविाद तथा पुरुषार्थवाद पर चर्चा होती है। कुण्डकौलिक के न्यायपूर्ण और युक्तियुक्त प्रतिपादन से देव निरुत्तर हो जाता है / भगवान् महावीर विज्ञ कुण्डकौलिक का नाम श्रमण-श्रमणियों के समक्ष एक उदाहरण के रूप में उपस्थित कुण्डकौलिक का जीवन श्रावक-श्राविकाओं के लिए तत्त्वज्ञान के क्षेत्र में आगे बढ़ने हेतु एक प्रेरणास्पद उदाहरण है। यथार्थ को ओर रुझान उपासकदशा के दसों अध्ययनों के चरितनायकों का लौकिक जीवन अत्यन्त सुखमय था। उन्हें सभी भौतिक सुख-सुविधाएँ प्रचुर और पर्याप्त रूप में प्राप्त थीं / यदि यही जीवन का प्राप्य होता तो उनके लिए और कुछ करणीय रह ही नहीं जाता। क्यों वे अपने प्राप्त सुखों को घटातेघटाते बिलकुल मिटा देते ? पर वे विवेकशील थे। भौतिक सुखों की नश्वरता को जानते थे / अतः जीवन का यथार्थ प्राप्य, जिसे पाए बिना और सब कुछ पा लेना अन्तर्विडम्बना के अतिरिक्त और कुछ होता नहीं, को प्राप्त करने की मानव में जो एक अव्यक्त उत्कण्ठा होती है, वह उन सबमें तत्क्षण जाग उठती है, ज्यों ही उन्हें भगवान महावीर का सान्निध्य प्राप्त होता है। जागरित उत्कण्ठा जब क्रियान्विति के मार्ग पर आगे बढ़ी तो उत्तरोत्तर बढ़ती ही गई और उन साधकों के जीवन में एक ऐसा समय आया, जब वे देहसुख को मानो सर्वथा भूल गये / त्याग में, आत्मस्वरूप के अधिगम में अपने आपको उन्होंने इतना खो दिया कि अत्यन्त कृश और क्षीण होते जाते अपने शरीर की भी उन्हें चिन्ता नहीं रही / भोग का त्याग में यह सुखद पर्यवसान था / साधारणतया जीवन में ऐसा सध पाना बहुत कठिन लगता है / सुख-सुविधा और अनुकूलता के वातावरण में पला मानव उन्हें छोड़ने की बात सुनते ही घबरा उठता है। पर, यह दुर्बलचेता पुरुषों की बात है। उपनिषद् के ऋषि ने 'नायमात्मा बलहीनेन लभ्यः' यह जो कहा है, बड़ा मार्मिक है / बलहीन-अन्तर्बलरहित व्यक्ति आत्मा को उपलब्ध नहीं कर सकता। पर, बलशील-अन्तःपराक्रमशाली पुरुष वह सब सहज ही कर डालता है,जिससे दुर्बल जन काँप उठते हैं / सामाजिक दायित्व से मुक्ति : अवकाश मनुष्य जीवन भर अपने पारिवारिक, सामाजिक तथा लौकिक दायित्वों के निर्वाह में ही लगा रहे, भारतीय चिन्तनधारा में यह स्वीकृत नहीं है। वहाँ यह वाञ्छनीय है कि जब पुत्र घर का, परिवार का, सामाजिक सम्बन्धों का दायित्व निभाने योग्य हो जाएँ, व्यक्ति अपने जीवन का अन्तिम भाग आत्मा के चिन्तन, मनन, अनुशीलन आदि में लगाए / वैदिकधर्म में इसके लिए ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ, संन्यास-यों चार आश्रमों का क्रम है / ब्रह्मचर्याश्रम विद्याध्ययन और योग्यतासंपादन का काल है / गृहस्थाश्रम सांसारिक उत्तरदायित्व-निर्वाह का समय है / वानप्रस्थाश्रम गृहस्थ और संन्यास के बीच का काल है, जहाँ व्यक्ति लौकिक आसक्ति से क्रमशः दूर होता हुआ संन्यास के निकट पहुँचने का प्रयास करता है / 'ऋणानि त्रीण्यपाकृत्य मनो मोक्षे निवेशयेत्' ऐसा वैदिकधर्म [25] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003475
Book TitleAgam 07 Ang 07 Upashak Dashang Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages276
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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