________________ में जो शास्त्र-वचन है, उसका आशय ब्रह्मचर्याश्रम द्वारा ऋषिऋण, गृहस्थाश्रम द्वारा पितृऋण तथा वानप्रस्थाश्रम द्वारा देवऋण अपाकृत कर चुकाकर मनुष्य अपना मन मोक्ष में लगाए / अर्थात् सांसारिक वाञ्छाओं से सर्वथा पृथक् होकर अपना जीवन मोक्ष की आराधना में लगा दे। जैनधर्म में ऐसी आश्रम-व्यवस्था तो नहीं है पर श्रावक-जीवन में क्रमश: मोक्ष की ओर आगे बढ़ने का सुव्यवस्थित मार्ग है / श्रावक-प्रतिमाएँ इसका एक रूप है, जहाँ गृही साधक उत्तरोत्तर मोक्षोन्मुखता, तितिक्षा और संयत जीवन-चर्या में गतिमान् रहता है। भगवान् महावीर के ये दसों श्रावक विवेकशील थे / भगवान् से उन्होंने जो पाया, उसे सुनने तक ही सीमित नहीं रखा, जो उन सब द्वारा तत्काल श्रावक-व्रत स्वीकार कर लेने से प्रकट है। उन्होंने मन ही मन यह भाव भी संजोए रखा कि यथासमय लौकिक दायित्वों, सम्बन्धों और आसक्तियों से मुक्त होकर वे अधिकांशतः धर्म की आराधना में अपने को जोड़ दें / आनन्द के वर्णन में उल्लेख है कि भगवान् महावीर से व्रत ग्रहण कर वह 14 वर्ष तक उस ओर उत्तरोत्तर प्रगति करता गया। १५वें वर्ष में एक रात उसके मन में विचार पाया कि अब उसके पुत्र योग्य हो गये हैं / अब उसे पारिवारिक और सामाजिक दायित्वों से अवकाश ले लेना चाहिए। उस समय के लोग बडे दढनिश्चयी थे / सद विचार को क्रियान्वित करने में वे विलम्ब नहीं करते थे / आनन्द ने नन्द ने भी विलम्ब नहीं किया। दूसरे दिन उसने अपने पारिवारिकों, मित्रों तथा नागरिकों को दावत दी, अपने विचार से सब को अवगत कराया और उन सब के साक्ष्य में अपने बड़े पुत्र को पारिवारिक एवं सामाजिक दायित्व सौंपा / बहुत से लोगों को दावत देने में प्रदर्शन की बात नहीं थी / उसके पीछे एक मनोवैज्ञानिक तथ्य है / समाज के मान्य तथा सम्भ्रान्त व्यक्तियों के बीच उत्तरदायित्व सौंपने का एक महत्त्व था। उन सबकी उपस्थिति में पुत्र द्वारा दायित्व स्वीकार करना भी महत्त्वपूर्ण था / यो विधिवत् दायित्व स्वीकार करने वाला उससे मुकरता नहीं / बहुत लोगों का लिहाज, उनके प्रति रही श्रद्धा, उनके साथ के सुखद सम्बन्ध उसे दायित्व-निर्वाह की प्रेरणा देते रहते हैं। जैसा आनन्द ने किया, वैसा ही अन्य नौ श्रमणोपासकों ने किया / अर्थात् उन्होंने भी सामहिक भोज के साथ अनेक सम्भ्रान्त जनों की उपस्थिति में अपने-अपने पत्रों को सामाजिक व पारिवारिक कार्यों के संवहन में अपने-अपने स्थान पर नियुक्त किया। बहुत सुन्दर चिन्तन तथा तदनुरूप आचरण उनका था। इस दृष्टि से भारत का प्राचीन काल बहुत ही उत्तम और स्पृहणीय था / महाकवि कालिदास ने अपने सुप्रसिद्ध महाकाव्य रघुवंश में भगवान् राम के पूर्वज सूर्यवंशी राजाओं का वर्णन करते हुए लिखा है-- 'सूर्यवंशी राजा बचपन में विद्याध्ययन करते थे, यौवन में सांसारिक सुख भोगते थे, वृद्धावस्था में मुनिवृत्ति-मोक्षमार्ग का अवलम्बन करते थे और अन्त में योग या समाधिपूर्वक देहत्याग करते थे।" 1. शैशवेऽभ्यस्तविद्यानां यौवने विषयैषिणाम् / वार्धक्ये मुनिवृत्तीनां योगेनान्ते तनुत्यजान् / / -रघुवंश सर्ग 1 [26] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org