________________ अया द्वितीय अध्ययन : गायापति कामदेव] [91 श्रमणोपासक कामदेव ने उस तीव्र (विपुल-अत्यधिक, कर्कश-कठोर, प्रगाढ, रौद्र, कष्टप्रर्द) तथा दुःसह वेदना को सहनशीलता (क्षमा और तितिक्षा) पूर्वक भेला / हाथी के रूप में उपसर्ग 101. तए णं से देवे पिसाय-रूवे कामदेवं समणोवासयं अभीयं जाव विहरमाणं पासइ, पासित्ता जाहे नो संचाएइ कामदेवं समणोवासयं निग्गंथाओ पावयणाओ चालित्तए वा, खोभित्तए वा, विपरिणामित्तए वा, ताहे संते, तंते, परितते सणियं सणियं पच्चोसक्कइ, पच्चोसक्कित्ता, पोसहसालाओ पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमित्ता दिन्वं पिसाय-रूवं विप्पजहइ, विप्पजहित्ता एगं महं हि हत्थि-रूवे विउव्वइ, सत्तंग-पइट्रियं, सम्मं संठियं, सुजायं, पुरओ उदग्गं, पिट्टओ वराह, कच्छि. अलंब-च्छि. पलंब-लंबोदराधर- करं. अब्भग्गय-मउल-मल्लिया-विमल-धवल-दंतं. कंचणकोसीपविट्ठ-दंतं, आणामिय-चाव-ललिय-संवल्लियग्ग-सोण्डं, कुम्म-पडिपुण्ण-चलणं, वीसइ-नक्खं अल्लोण-पमाण-जुत्तपुच्छं, मत्तं मेहमिव गुलगुलेन्तं मण-पवण-जइणवेगं दिव्यं हत्थिरूवं विउव्यइ / जब पिशाच रूप धारी देव ने देखा, श्रमणोपासक कामदेव निर्भीक भाव से उपासना में रत है, वह श्रमणोपासक कामदेव को निर्ग्रन्थ प्रवचन-जिन-धर्म से विचलित, क्षभित, विपरिणामितविपरीत परिणाम युक्त नहीं कर सका है, उसके मनोभावों को नहीं बदल सका है, तो वह श्रान्त, क्लान्त और खिन्न होकर धीरे-धीरे पीछे हटा / पीछे हटकर पोषधशाला से बाहर निकला / बाहर निकल कर देवमायाजन्य (विक्रिया-विनिर्मित) पिशाच-रूप का त्याग किया। वैसा कर एक विशालकाय, देवमाया-प्रसुत हाथो का रूप धारण किया। वह हाथी सूपूष्ट सात अंगों (चार पैर, सूड, जननेन्द्रिय और पूछ) से युक्त था। उसकी देह-रचना सुन्दर और सुगठित थी / वह आगे से उदन-ऊंचा या उभरा हुआ था, पीछे से सूअर के समान झुका हुआ था। उसकी कुक्षि- जठर बकरी की कुक्षि की तरह सटी हुई थी। उसका नीचे का होठ और सूड लम्बे थे / मुह से बाहर निकले हुए दांत बेले की अधखिली कली के सदृश उजले और सफेद थे / वे सोने की म्यान में प्रविष्ट थे अर्थात् उन पर सोने की खोल चढ़ी थी। उसकी सूड का अगला भाग कुछ खींचे हुए धनुष की तरह सुन्दर रूप में मुडा हा था। उसके पैर कछए के समान प्रतिपूर्ण-परिपष्ट और चपटे थे। उसके बीस नाखून थे। उसकी पूछ देह से सटी हुई—सुन्दर तथा प्रमाणोपेत-समुचित लम्बाई आदि आकार लिए हुए थी। वह हाथी मद से उन्मत्त था / बादल की तरह गरज रहा था। उसका वेग मन और पवन के वेग को जीतने वाला था। 102. विउव्वित्ता जेणेव पोसह-साला, जेणेव कामदेवे समणोवासए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता कामदेवं समणोवासयं एवं वयासी-हं भो ! कामदेवा ! समणोवासया ! तहेव भणइ जाव (जइ णं तुम अज्ज सीलाई, वयाई वेरमणाई, पच्चक्खाणाई पोसहोववासाइं न छड्डेसि,) न भंजेसि, तो ते अज्ज अहं सोंडाए गिण्हामि, गिण्हित्ता पोसह-सालाओ नीणेमि, नीणित्ता उड्ढं वेहासं उविहामि, उविहित्ता, तिकोहि दंत-मुसलेहि पडिच्छामि, पडिच्छित्ता अहे धरणि-तलंसि तिक्खुत्तो पाएसु लोलेमि, जहा णं तुमं अट्ट-दुहट्ट-वसट्टे अकाले चेव जीवियाओ क्वरोविज्जसि / 1. देखें सूत्र संख्या 97 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org