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________________ [उपासकदशांगसूत्र अशोक, किंशुक, तोते की चोंच, घुघची के आधे भाग के रंग के सदृश लालिमा लिए हुए, कमल-वन को उद्बोधित-विकसित करने वाले, सहस्र-किरणयुक्त, दिन के प्रादुर्भावक सूर्य के उदित होने पर, अपने तेज से उद्दीप्त होने पर मैं पूरण' की तरह [बड़े परिमाण में अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य-आहार तैयार करवा कर मित्र-वृन्द, स्वजातीय लोग, अपने पारिवारिक जन, बन्धु-बान्धव, सम्बन्धि-जन तथा दास-दासियों को आमन्त्रित कर उन्हें अच्छी तरह भोजन कराऊंगा, वस्त्र, सुगन्धित पदार्थ-इत्र आदि, माला तथा आभूषणों से उनका सत्कार करुंगा, सम्मान करुंगा एवं उनके सामने अपने ज्येष्ठ पुत्र को अपने स्थान पर नियुक्त करुंगा-कुटुम्ब का भार सौपूगा, अपने मित्र-गण [जातीय जन, पारिवारिक सदस्य, बन्धु-बान्धव, सम्बन्धी, परिजन] तथा ज्येष्ठ पुत्र को पूछ कर-उनकी अनुमति लेकर कोल्लाक-सग्निवेश में स्थित ज्ञातकुल की पोषध-शाला का प्रतिलेखन कर भगवान् महावीर के पास अंगीकृत धर्म-प्रज्ञति के अनुरूप प्राचार का परिपालन करुंगा। यों अानन्द ने ण- सम्यक चिन्तन किया। वैसा कर. दसरे दिन अपने मित्रों, जातीय जनों आदि को भोजन कराया / तत्पश्चात् उनका प्रचुर पुष्प, वस्त्र, सुगन्धित पदार्थ, माला एवं आभूषणों से सत्कार किया, सम्मान किया / यों सत्कार-सम्मान कर, उनके समक्ष अपने ज्येष्ठ पुत्र को बुलाया। बुलाकर, जैसा सोचा था, वह सब तथा अपनी सामाजिक स्थिति एवं प्रतिष्ठा आदि समझाते हुए उसे कहा----पुत्र ! वाणिज्य ग्राम नगर में मैं बहुत से मांडलिक राजा, ऐश्वर्यशाली पुरुषों आदि से सम्बद्ध हूं, [इस व्याक्षेप के कारण, श्रमण, भगवान महावीर के पास अंगीकृत धर्मप्रज्ञप्ति के अनुरूप] समुचित धर्मोपासना कर नहीं पाता / अतः इस समय मेरे लिए यही श्रेयस्कर है कि तुमको अपने कुटुम्ब के मेढि, प्रमाण, आधार एवं आलम्बन के रूप में स्थापित कर मैं [मित्र-वृन्द, जातीय जन, परिवार के सदस्य, बन्धुबान्धव, सम्बन्धी, परिजन-इन सबको तथा तुम को पूछकर कोल्लाक-सनिवेश-स्थित ज्ञातकुल की पौषध-शाला का प्रतिलेखन कर, भगवान् महावीर के पास अंगीकृत धर्म-प्रज्ञप्ति के अनुरूप] समुचित धर्मोपासना में लग जाऊं / 67. तए णं जेठ्ठपुत्ते आणंदस्स समणोवासगस्स 'तह त्ति एयमझें विणएणं पडिसुणेइ। तब श्रमणोपासक आनन्द के ज्येष्ठ पुत्र ने 'जैसी आपकी आज्ञा' यों कहते हुए अत्यन्त विनयपूर्वक अपने पिता का कथन स्वीकार किया। 68. तए णं से आणंदे समणोवासए तस्सेव मित्त जाव' पुरओ जेठ्ठपुत्तं कुडुम्बे ठवेइ, ठवित्ता एवं वयासी मा णं, देवाणुप्पिया ! तुब्भे अज्जप्पभिई केइ ममं बहुसु कज्जेसु जाव (य कारणेसु य मंतेसु य कुडुबेसु य गुज्झेसु य रहस्सेसु य निच्छएसु य ववहारेसु य ) आपुच्छउ वा, पडिपुच्छउ वा, ममं अट्ठाए असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा उवक्खडेउ वा उपकरेउ वा।। श्रमणोपासक अानन्द ने अपने मित्र-वर्ग, जातीय जन आदि के समक्ष अपने ज्येष्ठ पुत्र को कुटम्ब में अपने स्थान पर स्थापित किया उत्तर-दायित्व उसे सौंपा। वैसा कर उपस्थित जनों से उसने कहा-महानुभावो ! [देवानुप्रियो] आज से आप में से कोई भी मुझे विविध कार्यों [कारणों, मंत्रणाओं, पारिवारिक समस्याओं, गोपनीय बातों, एकान्त में विचारणीय विषयों, किए गए 1. देखिये--भगवती सूत्र / 2. देखें सूत्र-संख्या 66 / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003475
Book TitleAgam 07 Ang 07 Upashak Dashang Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages276
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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