________________ प्रथम अध्ययन : गाथापति आनन्द] [51 अर्थात् सामायिकोचित मानसिक, वाचिक, कायिक प्रवृत्तियों से उसे दूर नहीं हटना है। ये भूलें सामायिक का अतिचार हैं, जिसके मूल में प्रमाद, अजागरूकता या असावधानी है। सामायिक-अनवस्थित-करणता अवस्थित का अर्थ यथोचित रूप में स्थित रहना है। वैसे न करना अनवस्थितता है / सामायिक में कभी अनवस्थित-अव्यवस्थित नहीं रहना चाहिए / कभी सामायिक कर लेना कभी नहीं करना, कभी सामायिक के समय से पहले उठ जाना--यह व्यक्ति के अव्यवस्थित एवं अस्थिर जीवन का सूचक है। ऐसा व्यक्ति सामायिक साधना में तो असफल रहता ही है. अपने लौकिक जीवन में भी विकास नहीं कर पाता। सामायिक के नियत काल के पूर्ण हए बिना ही सामायिक व्रत पाल लेना-यह इस अतिचार का मुख्य प्राशय है। देशावकाशिक व्रत के अतिचार 54. तयाणंतरं च णं देसावगासियस्स समणोवासएणं पंच अइयारा जाणियव्वा, न समायरियब्वा, तंजहा-आणवणप्पओगे, पेसवणप्पओगे, सदाणुवाए, रूवाणुवाए, बहिया पोग्गलपक्खेवे। तदनन्तर श्रमणोपासक को देशावकाशिक व्रत के पांच अतिचारों को जानना चाहिए, उनका आचरण नहीं करना चाहिए। वे इस प्रकार हैं ग्रानयन-प्रयोग, प्रेष्य-प्रयोग, शब्दानुपात, रूपानुपात तथा बहिःपुद्गल-प्रक्षेप / विवेचन देश और अवकाश इन दो शब्दों के मेल से देशावकाशिक शब्द बना है। देश का अर्थ यहाँ एक भाग है / अवकाश का अर्थ जाने या कोई कार्य करने की चेष्टा है। एक भाग तक अपने को सीमित रखना देशावकाशिक व्रत है / छठे दिक व्रत में दिशा संबंधी परिमाण या मर्यादा जीवन भर के लिए की जाती है, उसका एक दिन-रात के समय के लिए या न्यूनाधिक समय के लिए और अधिक कम कर लेना देशावकाशिक व्रत है / अवकाश का अर्थ निवृत्ति भी होता है। अतः अन्य व्रतों का भी इसी प्रकार हर रोज समय-विशेष के लिए जो संक्षेप किया जाता है, वह भी इस व्रत में आ जाता है। इसको और स्पष्ट यों समझा जाना चाहिए / जैसे एक व्यक्ति चौबीस घंटे के लिए यह मर्यादा करता है कि वह एक मकान से बाहर के पदार्थों का उपभोग नहीं करेगा, बाहर के कार्य संपादित नहीं करेगा, वह मर्यादित भूमि से बाहर जाकर पंचास्रवों का सेवन नहीं करेगा, यदि वह नियत क्षेत्र से बाहर के कार्य संकेत से अथवा दूसरे व्यक्ति द्वारा करवाता है, तो वह ली हुई मर्यादा का उल्लंघन करता है / यह देशावकाशिक व्रत का अतिचार है। यह उपासक की मानसिक चंचलता तथा व्रत के प्रति अस्थिरता का द्योतक है। इससे व्रत-पालन की वृत्ति में कमजोरी पाती है / व्रत का उद्देश्य नष्ट हो जाता है। इस व्रत के पांच अतिचारों का स्पष्टीकरण इस प्रकार है-- आनयन-प्रयोग--जितने क्षेत्र की मर्यादा की है, उस क्षेत्र में उपयोग के लिए मर्यादित क्षेत्र के बाहर की वस्तुएं अन्य व्यक्ति से मंगवाना। प्रेष्य-प्रयोग--मर्यादित क्षेत्र से बाहर के क्षेत्र के कार्यों को संपादित करने हेतु सेवक, पारिवारिक व्यक्ति आदि को भेजना। शब्दानुपात-मर्यादित क्षेत्र से बाहर का कार्य सामने आ जाने पर, ध्यान में आ जाने पर, छींक कर, खाँसी लेकर या कोई और शब्द कर पड़ोसी आदि से संकेत द्वारा कार्य कराना / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org