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________________ 50] [उपासकदशांगसूत्र संयुक्ताधिकरण-शस्त्र आदि हिंसामूलक साधनों को इकट्ठा करना। उपभोग-परिभोगातिरेक-उपभोग तथा परिभोग का अतिरेक-अनावश्यक वृद्धि–उपभोगपरिभोग संबंधी सामग्री तथा उपकरणों को बिना आवश्कता के संगृहीत करते जाना। ये इस व्रत के अतिचार हैं / सामायिक व्रत के अतिचार 53. तयाणंतरं च णं सामाइयस्स समणोवासएणं पंच अइयारा जाणियन्वा, न समायरियव्वा तंजहा~मणदुप्पणिहाणे, वयदुप्पणिहाणे, कायदुप्पणिहाणे, सामाइयस्स सइअकरणया, सामाइयस्स अणवट्टियस्स करणया / तत्पश्चात् श्रमणोपासक को सामायिक व्रत के पांच अतिचारों को जानना चाहिए, उनका आचरण नहीं करना चाहिए / वे इस प्रकार हैं--- मन-दुष्प्रणिधान, वचन-दुष्प्रणिधान, काय-दुष्प्रणिधान, सामायिक-स्मृति-अकरणता, सामायिक-अनवस्थित-करणता / विवेचन ___ मन-दुष्प्रणिधान यहाँ प्रणिधान का अर्थ ध्यान या चिन्तन है / दूषित चिन्तन मन-दुष्प्रणिधान कहा जाता है / सामायिक करते समय राग, द्वेष, ममता, आसक्ति संबंधी बातें मन में लाना, घरेलू समस्याओं की चिन्ता में व्यग्र रहना, यह सामायिक का अतिचार है। सामायिक का उद्देश्य जीवन में समता का विकास करना है, क्रोध, मान, माया, लोभ जनित विषमता को क्रमशः मिटाते जाना है। यों करते हुए शुद्ध प्रात्मस्वरूप में तन्मयता पाना सामायिक का चरम लक्ष्य है / जहाँ सामायिक का यह उद्देश्य बाधित होता है, वहाँ सामायिक एक पारम्परिक विधि के रूप में तो सधती है, उससे जीवन में जो उपलब्धि होनी चाहिए, हो नहीं पाती। इसलिए साधक के लिए यह अपेक्षित है कि वह अपने मन को पवित्र रखे, समता की अनुभूति करे, मानसिक दुश्चिन्तन से बचे। वचन-दुष्प्रणिधान-सामायिक करते समय वाणी का दुरुपयोग या मिथ्या भाषण करना, दूसरे के हृदय में चोट पहुँचाने वाली कठोर बात कहना, अध्यात्म के प्रतिकूल लौकिक बातें करना वचन-दुष्प्रणिधान है / सामायिक में जिस प्रकार मानसिक दुश्चिन्तन से बचना आवश्यक है, उसी प्रकार वचन के दुष्प्रयोग से भी बचना चाहिए / काय-दुष्प्रणिधान-मन और वचन की तरह सामायिक में देह भी व्यवस्थित, सावधान और सुसंयत रहनी चाहिए / देह से ऐसी चेष्टाएँ नहीं करनी चाहिए, जिससे हिंसा आदि पापों की आशंका हो / सामायिक-स्मृति-प्रकरणता-- वैसे तो सामायिक सारे जीवन का विषय है, जीवन की साधना है. पर अभ्यास-विधि के अन्तर्गत उसके लिए जैसा पहले सूचित हा है, 48 मिनिट का एक इकाई का समय रक्खा गया है। जब उपासक सामायिक में बैठे, उसे पूरी तरह जागरूक और सावधान रहना चाहिए, समय के साथ-साथ यह भी नहीं भूलना चाहिए कि वह सामायिक में है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003475
Book TitleAgam 07 Ang 07 Upashak Dashang Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages276
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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