________________ 166] [उपासकदशांगसूत्र पत्नी से पति को सेवा, प्यार, ममता--ये सब तो प्राप्य हैं, पर आवश्यक होने पर धार्मिक प्रेरणा, आध्यात्मिक उत्साह, साधन का सम्बल प्राप्त हो सके, यह एक अनूठी बात होती है / बहुत कम पत्नियां ऐसी होंगी, जो अपने पति के जीवन में सूखते धार्मिक स्रोत को पुनः सजल बना सकें। अग्निमित्रा को यह अद्भुत विशेषता थी। अतएव उसके लिए प्रयुक्त 'धर्म-वैद्या, विशेषण अत्यन्त सार्थक है / यही कारण है, जो सकडालपुत्र तीनों बेटों की निर्मम, नृशंस हत्या के समय अविचल, अडोल रहता है, वह अग्निमित्रा की हत्या की बात सुनते ही कांप जाता है, धीरज छोड़ देता है, क्षुब्ध हो जाता है / शायद सकडालपुत्र के मन में आया हो-अग्निमित्रा का, जो मेरे धार्मिक जीवन की अनन्य सहयोगिनी ही नहीं, मेरे में आने वाली धार्मिक दुर्बलताओं को मिटाकर मुझे धर्मिष्ठ बनाए रखने में अनुपम प्रेरणादायिनी है, यों दुःखद अन्त कर दिया जाएगा? मेरे भावी जीवन में यों घोर अन्धकार छा जाएगा। 228. तए णं से सद्दालुपुत्ते समणोवासए तेणं देवेणं एवं वुत्ते समाणे अभीए जाव' विहरइ / देव द्वारा यों कहे जाने पर भी सकडालपुत्र निर्भीकतापूर्वक धर्म-ध्यान में लगा रहा। 229. तए णं से देवे सद्दालपुत्तं समणोवासयं दोच्चंपि तच्चंपि एवं वयासी-हं भो ! सद्दालपुत्ता ! समणोवासया ! तं चेव भणइ / तब उस देव ने श्रमणोपासक सकडालपुत्र को पुनः दूसरी बार, तीसरी बार वैसा ही कहा / अन्तःशुद्धि : आराधना : अन्त 230. तए णं तस्स सद्दालपुत्तस्स समणोवासयस तेणं देवेणं दोच्चपि तच्चंपि एवं वुत्तस्स समाणस्स अयं अज्झथिए समुप्पन्ने 4 एवं जहा चुलणीपिया तहेब चितेइ / जेणं ममं जेठे पुत्तं ममं मज्झिमयं पुत्तं, जेणं ममं कणीयसं पुत्तं जाव आयंचइ, जा वि य णं ममं इमा अग्गिमित्ता भारिया सम-सुह-दुक्खसहाइया, तं पि य इच्छइ साओ गिहाओ नोणेत्ता ममं अग्गओ घाएत्तए। तं सेयं खलु ममं एयं पुरिसं गिण्हित्तए त्ति कटु उद्घाइए। जहा चुलणीपिया तहेव सव्वं भाणियध्वं / नवरं अग्गिमित्ता भारिया कोलाहलं सुणित्ता भणई। सेसं जहा चुलणीपिया वत्तन्वया, नवरं अरुणभूए विमाणे उववन्ने जाव (चत्तारि पलिओवमाई ठिई पण्णता) महाविदेहे वासे सिज्झिहिइ। निक्खेवो // सत्तमस्स अंगस्स उवासगदसाणं सत्तमं अज्झयणं समत्तं // उस देव द्वारा पुनः दूसरी बार, तीसरी बार वैसा कहे जाने पर श्रमणोपासक सकडालपूत्र के मन में चुलनीपिता की तरह विचार उत्पन्न हुआ। वह सोचने लगा-जिसने मेरे बड़े पुत्र को, मंझले पुत्र को तथा छोटे पुत्र को मारा, उनका मांस और रक्त मेरे शरीर पर छिड़का, अब मेरी सुख-दुःख में 1. देखें सूत्र-संख्या 98 2. देखें सूत्र-संख्या 136 3. एवं खलु जम्बू! समणेणं जाव संपत्तेणं सत्तमस्स अज्झयणस्स अयमठे पण्णत्तेत्ति बेमि / Jain Education International Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org