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________________ 160] [उपासकदशांगसूत्र सकडालपुत्र-देवानुप्रिय ! श्रमण भगवान् महावीर को महामाहन किस अभिप्राय से कहते हो ? गोशालक-सकडालपुत्र ! श्रमण भगवान महावीर अप्रतिहत ज्ञान-दर्शन के धारक हैं, तीनों लोकों द्वारा सेवित एवं पूजित हैं, सत्कर्मसम्पत्ति से युक्त हैं, इसलिए मैं उन्हें महामाहन कहता हूं / गोशालक ने फिर कहा-क्या यहां महागोप आए थे ? सकडालपुत्र-देवानुप्रिय ! कौन महागोप ? (महागोप से आपका क्या अभिप्राय ?) गोशालक-श्रमण भगवान् महावीर महागोप हैं। सकडालपुत्र-देवानुप्रिय ! उन्हें आप किस अर्थ में महागोप कह रहे हैं ? गोशालक-देवानुप्रिय ! इस संसार रूपी भयानक वन में अनेक जीव नश्यमान हैं—सन्मार्ग से च्युत हो रहे हैं, विनश्यमान हैं-प्रतिक्षण मरण प्राप्त कर रहे हैं, खाद्यमान हैं-मृग आदि की योनि में शेर-बाघ आदि द्वारा खाए जा रहे हैं, छिद्यमान हैं-मनष्य प्रादि योनि में तलवार ग्रादि से काटे जा रहे हैं, भिद्यमान हैं-भाले आदि द्वारा बींधे जा रहे हैं, लुप्यमान हैं—जिनके कान, नासिका आदि का छेदन किया जा रहा है, विलुप्यमान हैं--जो विकलांग किए जा रहे हैं, उनका धर्म रूपी दंड से रक्षण करते हुए, संगोपन करते हुए बचाते हुए, उन्हें मोक्ष रूपी विशाल बाड़े में सहारा देकर पहुंचाते हैं / सकडालपुत्र ! इसलिए श्रमण भगवान् महावीर को मैं महागोप कहता हूं। गोशालक ने फिर कहा--देवानुप्रिय ! क्या यहाँ महासार्थवाह आए थे ? सकडालपुत्र-महासार्थवाह आप किसे कहते हैं ? गोशालक—सकाडलपुत्र ! श्रमण भगवान् महावीर महासार्थवाह हैं / सकडालपुत्र-किस प्रकार ? गोशालक--देवानुप्रिय ! इस संसार रूपी भयानक वन में बहुत से जीव नश्यमान, विनश्यमान, (खाद्यमान, छिद्यमान, भिद्यमान, लुप्यमान) एवं विलुप्यमान हैं, धर्ममय मार्ग द्वारा उनकी सुरक्षा करते हुए--धर्ममार्ग पर उन्हें आगे बढ़ाते हुए, सहारा देकर मोक्ष रूपी महानगर में पहुंचाते हैं / सकडालपुत्र ! इस अभिप्राय से मैं उन्हें महासार्थवाह कहता हूं। गोशालक--देवानुप्रिय ! क्या महाधर्मकथी यहां आए थे ? सकडालपुत्र-देवानुप्रिय ! कौन महाधर्मकथी ? (आपका किनसे अभिप्राय है ?) गोशालक-श्रमण भगवान् महावीर महाधर्मकथी हैं। सकडालपुत्र-श्रमण भगवान् महावीर महाधर्मकथी किस अर्थ में हैं ? गोशालक-देवानुप्रिय ! इस अत्यन्त विशाल संसार में बहुत से प्राणी नश्यमान, विनश्यमान, खाद्यमान, छिद्यमान, भिद्यमान, लुप्यमान हैं, विलुप्यमान हैं, उन्मार्गगामी हैं, सत्पथ से भ्रष्ट हैं, मिथ्यात्व से ग्रस्त हैं, आठ प्रकार के कर्म रूपी अन्धकार-पटल के पर्दे से ढके हुए हैं, उनको अनेक प्रकार से सत तत्त्व समझाकर, विश्लेषण कर. चार-देव, मनुष्य, तिर्यञ्च, नरक गतिमय संसार रूपी भयावह वन से सहारा देकर निकालते हैं, इसलिए देवानुप्रिय ! मैं उन्हें महाधर्मकथी कहता हूं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003475
Book TitleAgam 07 Ang 07 Upashak Dashang Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages276
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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