________________ 30] [उपासकदशांगसूत्र शुद्धिकारक फलों के उपयोग के अर्थ में है। आंवले की इस कार्य में विशेष उपादेयता है। बालों के लिए तो वह बहुत ही लाभप्रद है, एक टॉनिक है / आंवले में लोहा विशेष मात्रा में होता है। अतः बालों की जड़ को मजबूत बनाए रखना, उन्हें काला रखना उसका विशेष गुण है। बालों में लगाने के लिए बनाए जाने वाले तैलों में प्रांवले का तैल मुख्य है / यहाँ प्रांवले में क्षीर आमलक या दूधिया आंवले का जो उल्लेख पाया है, उसका भी अपना विशेष प्राशय है / क्षीर आमलक का तात्पर्य उस मुलायम, कच्चे प्रांवले से है, जिसमें गुठली नहीं पड़ी हो, जो विशेष खट्टा नहीं हो, जो दूध जैसा मिठास लिए हो / अधिक खट्टे प्रांवले के प्रयोग से चमड़ी में कुछ रूखापन आ सकता है। जिनकी चमड़ी अधिक कोमल होती है, विशेष खट्ट पदार्थ के संस्पर्श से वह फट सकती है / क्षीर आमलक के प्रयोग में यह आशंकित नहीं है। ___ यहाँ फल शब्द खाने के रूप में काम में आनेवाले फलों की दृष्टि से नहीं है, प्रत्युत वृक्ष, पौधे आदि पर फलने वाले पदार्थ की दृष्टि से है / वृक्ष पर लगता है, इसलिए प्रांवला फल है, परन्तु वह फल के रूप में नहीं खाया जाता / उसका उपयोग विशेषतः औषधि, मुरब्बा, चटनी, अचार आदि * में होता है। आयुर्वेद की काष्ठादिक औषधियों में आंवले का मुख्य स्थान है / आयुर्वेद के ग्रन्थों में इसे फल-वर्ग में न लेकर काष्ठादिक औषधि-वर्ग में लिया गया है। भावप्रकाश में हरीतक्यादि वर्ग में प्रांवले का वर्णन आया है। वहाँ लिखा है--- "आमलक, धात्री, त्रिष्वफला और अमृता-ये प्रांवले के नाम हैं / आंवले के रस, गुण एवं विपाक आदि हरीतकी-हरड़ के समान होते हैं / आंवला विशेषत: रक्त-पित्त और प्रमेह का नाशक, शुक्रवर्धक एवं रसायन है / रस के खट्टेपन के कारण यह वातनाशक है, मधुरता और शीतलता के कारण यह पित्त को शान्त करता है, रूक्षता और कसैलेपन के कारण यह कफ को मिटाता है।" __ चरकसंहिता चिकित्सास्थान के अभयामलकीय रसायनपाद में आंवले का वर्णन है / वहाँ लिखा है “जो गुण हरीतकी के हैं, प्रांवले के भी लगभग वैसे ही हैं / किन्तु प्रांवले का वीर्य हरीतकी से भिन्न है / अर्थात् हरीतकी उष्णवीर्य है, आंवला शीतवीर्य / हरीतकी के जो गुण बताए गए हैं, उन्हें देखते, हरीतकी तथा तत्सदृश गुणयुक्त प्रांवला अमृत कहे गये हैं।"२ 1. त्रिष्वामलकमाख्यातं धात्री त्रिष्बफलाऽमृता। हरीतकीसमं धात्री-फलं किन्तु विशेषतः // रक्तपित्तप्रमेहघ्नं परं वृष्यं रसायनम् / हन्ति वातं तदम्लत्वात् पित्तं माधुर्यशैत्यतः / / कर्फ रूक्षकषायत्वात् फलं धान्यास्त्रिदोष जित् / ---भावप्रकाश हरीतक्यादि वर्ग 37-39 / / 2. तान गुणांस्तानि कर्माणि विद्यादामलकेष्वपि / यान्युक्तानि हरीतक्या वीर्यस्य तु विपर्ययः / / प्रतश्चामृतकल्पानि विद्यात्कर्मभिरीदृशैः / हरीतकीनां शस्यानि भिषगामलकस्य च // ---चरकसंहिता चिकित्सास्थान 1 / 35-36 / / Jain Education International For Private & Personal Use Only For Private & Personal use only www.jainelibrary.org