________________ 74] - [उपासकदशांगसूत्र द्रव्य-लेश्याएं निष्पन्न होती हैं। इसलिए एकान्त रूप से न केवल द्रव्य-लेश्या भाव-लेश्या का कारण है और न केवल भाव-लेश्या द्रव्य-लेश्या का कारण है / ये अन्योन्याश्रित हैं / ऊपर द्रव्य-लेश्या से भाव-लेश्या या प्रात्म-परिणाम उद्भूत होने की जो बात कही गई है, वह स्थूल दृष्टि से है। द्रव्य-लेश्या और भाव-लेश्या की अन्योन्याश्रितता को आयुर्वेद के एक उदाहरण से समझा जा सकता है। प्रायुर्वेद में पित्त, कफ तथा वात-ये तीन दोष माने गए हैं। जब पित्त प्रकुपित्त होता है या पित्त का देह पर विशेष प्रभाव होता है तो व्यक्ति क्रुद्ध होता है, उत्तेजित हो जाता है। क्रोध एवं उत्तेजना से फिर पित्त बढ़ता है। कफ जब प्रबल होता है तो शिथिलता, तन्द्रा एवं आलस्य पैदा होता है। शिथिलता, तन्द्रा एवं आलस्य से पुनः कफ बढ़ता है / वात की प्रबलता चांचल्य-अस्थिरता व कम्पन पैदा करती है / चंचलता एवं अस्थिरता से फिर वात की वृद्धि होती है / यों पित्त आदि दोष तथा इनसे प्रकटित क्रोध आदि भाव अन्योन्याश्रित हैं। द्रव्य-लेश्या और भाव-लेश्या का कुछ इसी प्रकार का सम्बन्ध है। जैन वाङमय के अनेक ग्रन्थों में लेश्या का यथा-प्रसंग विश्लेषण हुया है। प्रज्ञापनासूत्र के 17 वें पद में तथा उत्तराध्ययनसूत्र के 34 वें अध्ययन में लेश्या का विस्तृत विवेचन है, जो पठनीय है। आधुनिक मनोविज्ञान के साथ जैनदर्शन का यह विषय समीक्षात्मक एवं तुलनात्मक दृष्टि से अनुशीलन करने योग्य है / अस्तु / प्रस्तुत सूत्र में आनन्द के उत्तरोत्तर प्रशस्त होते या विकास पाते अन्तर्भावों का जो संकेत है, उससे प्रकट होता है कि आनन्द अन्तःपरिष्कार या अन्तर्मार्जन की भूमिका में अत्यधिक जागरूक था / फलतः उसकी लेश्याएं, आत्म-परिणाम प्रशस्त से प्रशस्ततर होते गए और उसको अवधि-ज्ञान उत्पन्न हो गया। आनन्द : अवधि-ज्ञान अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त सुख तथा अनन्त वीर्य-शक्ति प्रात्मा का स्वभाव है / कर्म आवरण है, जैनदर्शन के अनुसार वे पुद्गलात्मक हैं, मूर्त हैं / आत्म-स्वभाव को वे आवृत करते हैं / आत्मस्वभाव उनसे जितना, जैसा प्रावृत होता है, उतना अप्रकाशित रहता है। कर्मों के प्रावरण आत्मा के स्वोन्मुख प्रशस्त अध्यवसाय, उत्तम परिणाम, पवित्र भाव एवं तपश्चरण से जैसे-जैसे हटते जाते हैं-मिटते जाते हैं, वैसे-वैसे आत्मा का स्वभाव उद्भासित या प्रकट होता जाता है / ज्ञान को आवत करने वाले कर्म ज्ञानावरण कहे जाते हैं / जैनदर्शन में ज्ञान के पांच भेद हैं-मति-ज्ञान; श्रुत-ज्ञान, अवधि-ज्ञान, मन:-पर्याय-ज्ञान तथा केवल-ज्ञान / इनका आवरण या आच्छादन करने वाले कर्म-पुद्गल क्रमशः मति-ज्ञानावरण, श्रुत-ज्ञानाबरण, अवधि-ज्ञानावरण, मनःपर्याय-ज्ञानावरण तथा केवल-ज्ञानावरण कहे जाते हैं / इन आवरणों के हटने से ये पांचों ज्ञान प्रकट होते हैं / परोक्ष और प्रत्यक्ष के रूप में इनमें दो भेद हैं / प्रत्यक्षज्ञान किसी दूसरे माध्यम के बिना आत्मा द्वारा ही ज्ञेय को सीधा ग्रहण करता है / परोक्षज्ञान की ज्ञेय तक सीधी पहुँच नहीं होती। मति-ज्ञान और श्रुत-ज्ञान परोक्ष हैं, क्यों कि वहाँ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org