________________ प्रथम अध्ययन : गाथापति आनन्द] ये तीनों वर्ण अप्रशस्त भाव के सूचक हैं / इनसे अगले तीन वर्ग प्रशस्त भाव के सूचक हैं। पहली तीन लेश्याओं को अशुभ तथा अगली तीन को शुभ माना गया है। जैसे बाह्य वातावरण, स्थान, भोजन, रहन-सहन आदि का हमारे मन पर भिन्न-भिन्न प्रकार का असर पड़ता है, उसी प्रकार भिन्न-भिन्न प्रकार के पुद्गलों का आत्मा पर भिन्न-भिन्न प्रकार का प्रभाव होना अस्वाभाविक नहीं है / प्राकृतिक चिकित्सा-क्षेत्र में भी यह तथ्य सुविदित है / अनेक मनोरोगों की चिकित्सा में विभिन्न रंगों की रश्मियों का अथवा विभिन्न रंगों की शीशियों के जलों का उपयोग किया जाता है। कई ऐसे विशाल चिकित्सालय भी बने हैं। गुजरात में जामनगर का 'सोलेरियम' एशिया का इस कोटि का सुप्रसिद्ध चिकित्सा केन्द्र है। जैनदर्शन के अतिरिक्त अन्यान्य भारतीय दर्शनों में भी अन्तर्भावों या आत्म-परिणामों के सन्दर्भ में अनेक रंगों की परिकल्पना है। उदाहरणार्थ. सांख्यदर्शन में सत्त्व. र तमस् ये तीन गुण माने गए हैं। तीनों के तीन रंगों की भी अनेक सांख्य-ग्रन्थों में चर्चा है। ईश्वरकृष्णरचित सांख्यकारिका की सुप्रसिद्ध टीका सांख्य-तत्व-कौमुदी के लेखक वाचस्पति मिश्र ने अपनी टीका के प्रारंभ में अजा-अन्य से अनुत्पन्न-प्रकृति को अजा-बकरी से उपमित करते हुए उसे लोहित, शुक्ल तथा कृष्ण बतलाया है।' लोहित-लाल, शुक्ल-सफेद और कृष्ण काला, ये सांख्यदर्शन में स्वीकृत रजस्, सत्त्व, तमस्-तीनों गुणों के रंग हैं। रजोगुण मन को रागरंजित या मोह-रंजित करता है, इसलिए वह लोहित है, सत्त्वगुण मन को निर्मल या मल रहित बनाता है, इसलिए वह शुक्ल है, तमोगुण अन्धकार-रूप है, ज्ञान पर प्रावरण डालता है, इसलिए वह कृष्ण है / लेश्याओं से सांख्यदर्शन का यह प्रसंग तुलनीय है। पतंजलि ने योगसूत्र में कर्मों को शुक्ल, कृष्ण तथा शुक्ल-कृष्ण (अशुक्लाकृष्ण)-तीन प्रकार का बतलाया है / कर्मों के ये वर्ण, उनकी प्रशस्तता तथा अप्रस्तता के सूचक हैं / ऊपर पुद्गलात्मक द्रव्य-लेश्या से आत्मा के प्रशस्त-अप्रशस्त परिणाम उत्पन्न होने की जो बात कही गई है, इसे कुछ और गहराई से समझना होगा। द्रव्य-लेश्या के साहाय्य से प्रात्मा में जो परिणाम उत्पन्न होते हैं, अर्थात् भाव-लेश्या निष्पन्न होती है, तात्त्विक दृष्टि से उनके दो कारण हैं-मोह-कर्म का उदय अथवा उसका उपशम, क्षय या क्षयोपशम / मोह-कर्म के उदय से जो भावलेश्याएं निष्पन्न होती हैं, वे अशुभ या अप्रशस्त होती हैं तथा मोह-कर्म के उपशम, क्षय या क्षयोपशम से जो भाव-लेश्याएं होती हैं, वे शुभ या प्रशस्त होती हैं। कृष्णलेश्या, नीललेश्या और कापोतलेश्या-~ये मोह-कर्म के उदय से होती हैं, इसलिए अप्रशस्त हैं। तेजोलेश्या, पद्मलेश्या एवं शुक्ललेश्या-ये उपशम. क्षय या क्षयोपशम से होती हैं, इसलिए शुभ या प्रशस्त हैं। प्रात्मा में एक ओर ग्रौदयिक, औपशमिक, क्षायिक या क्षायोपशमिक भाव उद्भूत होते हैं, दूसरी ओर वैसे पुद्गल या 1. अजामेकां लोहितशुक्लकृष्णा, वह्वीः प्रजाः सृजमानां नमामः / अजा ये तां जुषमाणां भजन्ते, जहत्येना भुक्तभोगां नुमस्तान् / 2. कर्माशुक्लाकृष्णं योगिनस्त्रिविधमितरेषाम् / -पातंजलयोगसूत्र 4. 7 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org