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________________ 72] [उपासकदशांगसूत्र देवलोक तक तथा अधोदिशा में प्रथम नारक-भूमि रत्नप्रभा में चौरासी हजार वर्ष की स्थिति युक्त, लोलुपाच्युत नामक नरक तक जानने लगा, देखने लगा। विवेचन लेश्याएं-प्रस्तुत सूत्र में श्रमणोपासक आनन्द को अवधि-ज्ञान उत्पन्न होने के सन्दर्भ में शुभ अध्यवसाय तथा शुभ परिणाम के साथ-साथ विशुद्ध होती हुई लेश्याओं का उल्लेख है / लेश्या जैन दर्शन का एक विशिष्ट तत्त्व है, जिस पर बड़ा गहन विश्लेषण हुआ है। लेश्या का तात्पर्य पुद्गल द्रव्य के संसर्ग से होने वाले आत्मा के परिणाम या विचार हैं। प्रश्न हो सकता है, प्रात्मा चेतन है, पुद्गल जड़ है, फिर जड़ के संसर्ग से चेतन में परिणाम-विशेष का उद्भव कैसे संभव है ? यहाँ ज्ञातव्य है कि यद्यपि प्रात्मा जड़ से सर्वथा भिन्न है, पर संसारावस्था में उसका जड़ पुद्गल के साथ गहरा संसर्ग है / अतः पुद्गल-जनित परिणामों का जीव पर प्रभाव पड़े बिना नहीं रहता। जिन पुद्गलों से आत्मा के परिणाम प्रभावित होते हैं, उन पुद्गलों को द्रव्य-लेश्या कहा जाता है / आत्मा में जो परिणाम उत्पन्न होते हैं, उन्हें भाव-लेश्या कहा जाता है। ___ द्रव्य-लेश्या पुद्गलात्मक है, इसलिए उसमें वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श स्वीकार किया गया है। द्रव्य-लेश्याओं के जो वर्ण माने गए हैं, लेश्याओं का नामकरण उनके आधार पर हुअा है / लेश्याएं छह हैं : कृष्ण-लेश्या, नील-लेश्या, कापोत-लेश्या, तेजो-लेश्या, पद्म-लेश्या तथा शुक्ल-लेश्या। कृष्णलेश्या का वर्ण काजल के समान काला, रस नीम से अनन्त गुना कटु, गन्ध मरे हुए सांप की गन्ध से अनन्त गुनी अनिष्ट तथा स्पर्श गाय की जिह्वा से अनन्त गुना कर्कश है। नीललेश्या का वर्ण नीलम के समान नीला, रस सौंठ से अनन्त गुना तीक्ष्ण, गन्ध एवं स्पर्श कृष्णलेश्या जैसे होते हैं। कापोतलेश्या का वर्ण कपोत -कबूतर के गले के समान, रस कच्चे आम के रस से अनन्त गुना तिक्त तथा गन्ध व स्पर्श कृष्ण व नील लेश्या जैसे होते हैं। तेजोलेश्या का वर्ण हिंगुल या सिन्दूर के समान रक्त, रस पके आम के रस से अनन्त गुना मधुर तथा गन्ध सुरभि-कुसुम की गन्ध से अनन्त गुनी इष्ट एवं स्पर्श मक्खन से अनन्त गुना सुकुमार होता है। पद्मलेश्या का रंग हरिद्रा-हल्दी के समान पीला, रस मधु से अनन्त गुना मिष्ट तथा गन्ध व स्पर्श तेजोलेश्या जैसे होते हैं। शुक्ललेश्या का वर्ण शंख के समान श्वेत, रस सिता--मिश्री से अनन्त गुना मिष्ट तथा गन्ध व स्पर्श तेजोलेश्या व पद्मलेश्या जैसे होते हैं / लेश्याओं का रंग भावों को प्रशस्तता तथा अप्रशस्तता पर आधृत है। कृष्णलेश्या अत्यन्त कलुषित भावों की परिचायक है। भावों का कालुष्य ज्यों ज्यों कम होता है, वर्गों में अन्तर होता जाता है / कृष्णलेश्या से जनित भावों की कलुषितता जब कुछ कम होती है तो नीललेश्या की स्थिति आ जाती है, और कम होती है तब कापोतलेश्या की स्थिति बनती है। कृष्ण, नील और कापोत Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003475
Book TitleAgam 07 Ang 07 Upashak Dashang Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages276
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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