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________________ पांचवां अध्ययन : चुल्लशतक] [127 उस देव द्वारा यों कहे जाने पर भी श्रमणोपासक चुल्लशतक निर्भीकतापूर्वक अपनी उपासना में लगा रहा। 162. तए णं से देवे चुल्लसयगं समणोवासयं अभीयं जाव' पासइ, पासित्ता दोच्चं पि तच्चं पि तहेव भणइ, जाव ववरोविज्जसि / जब उस देव ने श्रमणोपासक चल्लशतक को यों निर्भीक देखा तो उससे दूसरी बार, तीसरी बार फिर वैसा ही कहा और धमकाया---अरे ! प्राण खो बैठोगे ! विचलन : प्रायश्चित्त 163. तए णं तस्स चुल्लसयगस्स समणोवासयस्स तेणं देवेणं दोच्चंपि तच्चपि एवं वुत्तस्स समाणस्स अयमेयारूवे अज्झथिए ४-अहो णं इमे पुरिसे अणारिए जहा चुलणीपिया तहा चितेइ जाव' कणीयसं जाव' आयंचइ, जाओ वि य गं इमाओ ममं छ हिरण्ण-कोडीओ निहाणपउत्ताओ, छ वड्ढि-पउत्ताओ, छ पवित्थर-पउत्ताओ, ताओ वि य णं इच्छइ ममं साओ गिहाओ नीणेत्ता आलभियाए नयरीए सिंघाडग जाव' विप्पइरित्तए, तं सेयं खलु ममं एवं पुरिसं गिहित्तए त्ति कटु उद्घाइए, जहा सुरादेवो / तहेव भारिया पुच्छइ, तहेव कहेइ / उस देव ने जब दूसरी बार, तीसरी बार श्रमणोपासक चुल्लशतक को ऐसा कहा, तो उसके मन में चुलनीपिता की तरह विचार आया, इस अधम पुरुष ने मेरे बड़े, मंझले और छोटे---तीनों पुत्रों को बारी-बारी से मार कर, उनके मांस और रक्त से सींचा। अब यह मेरी खजाने में रखी छह करोड़ स्वर्ण-मुद्राओं, व्यापार में लगी छह करोड़ स्वर्ण-मुद्राओं तथा घर के वैभव एवं साज-सामान में लगी छह करोड़ स्वर्ण-मुद्राओं को निकाल लाना चाहता है और उन्हें पालभिका नगरी के तिकोने आदि स्थानों में बिखेर देना चाहता है / इसलिए, मेरे लिए यही श्रेयस्कर है कि मैं इस पुरुष को पकड़ लू। यों सोचकर वह उसे पकड़ने के लिए सुरादेव की तरह दौड़ा। आगे वैसा ही घटित हुआ, जैसा सुरादेव के साथ घटित हुआ था। सुरादेव की पत्नी की तरह उसकी पत्नी ने भी उससे सब पूछा / उसने सारी बात बतलाई / दिव्य-गति 164. सेसं जहा चुलणीपियस्स जाव' सोहम्मे कप्पे अरुणसिद्धे विमाणे उववन्ने / चत्तारि पलिओवमाई ठिई। सेसं तहेव जाव (से णं भंते ! चुल्लसयए ताओ देवलोगाओ आउक्खएणं, भवक्खएणं, ठिइक्खएणं अणंतरं चयं चइत्ता कहिं गमिहिइ ? कहि उववज्जिहिइ ? गोयमा !) महाविदेहे वासे सिज्झिहिइ / 1. देखें सूत्र-संख्या 97 2. देखें सूत्र-संख्या 154 3. देखें सूत्र-संख्या 154 4. देखें सूत्र-संख्या 160 5. देखें सूत्र-संख्या 149 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003475
Book TitleAgam 07 Ang 07 Upashak Dashang Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages276
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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