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________________ 152] [उपासकदशांगसूत्र तथा उद्यम के बिना बनते हैं / प्रयत्न, पुरुषार्थ एवं उद्यम का कोई अस्तित्व या स्थान नहीं है, सभी भाव--होने वाले कार्य नियत-निश्चित हैं / 200. तए णं समणे भगवं महावीरे सद्दालपुत्तं आजीविओवासयं एवं वयासीसद्दालपुत्ता ! जइ णं तुभं केइ पुरिसे वायाहयं वा पक्केल्लयं वा कोलालभंडं अवहरेज्जा वा विक्खरेज्जा वा भिदेज्जा वा अच्छिदेज्जा वा परिवेज्जा वा, अम्गिमित्ताए वा भारियाए सद्धि विउलाई भोगभोगाइं भुजमाणे विहरेज्जा, तस्स णं तुमं पुरिसस्स कि दंडं वत्तेज्जासि ? भंते ! अहं णं तं पुरिसं निब्भच्छेज्जा वा हणेज्जा वा बंधेज्जा वा महेज्जा वा तज्जेज्जा वा तालेज्जा वा निच्छोडेज्जा वा निब्भच्छेज्जा वा अकाले जेव जीवियाओ ववरोवेज्जा। सद्दालपुत्ता! नो खलु तुम्भं केइ पुरिसे वायाहयं वा पक्केल्लयं वा कोलालभंडं अवहरइ वा जाव (विक्खरइ वा भिदइ वा अच्छिदइ वा) परिदुवइ वा, अग्गिमित्ताए वा भारियाए सद्धि विउलाई भोगभोगाइं भुजमाणे विहरइ, नो वा तुमं तं पुरिसं आओसेज्जसि वा हणेज्जसि वा जाव ( बंधेज्जसि वा महेज्जसि वा तज्जेज्जस्सि वा तालेज्जसि वा निच्छोडेज्जसि वा निब्भच्छेज्जसि वा ) अकाले चेव जीवियाओ ववरोवेज्जसि; जइ नत्थि उट्ठाणे इ वा जाव' परक्कमे इ वा, नियया सव्वभावा। अह णं तुम्भं केइ पुरिसे वायाहयं जाव ( वा पक्केल्लयं वा कोलालभंडं अवहरइ वा विक्खरइ वा भिवइ बा अच्छिदइ वा ) परिढुवेइ वा, अग्गिमित्ताए वा जाव ( भारियाए सद्धि विउलाई भोगभोगाई भुजमाणे ) विहरइ, तुमं वा तं पुरिसं आओसेसि वा जाव (हणेसि वा बंधेसि वा महेसि वा तज्जेसि वा तालेसि वा निच्छोडेसि वा निब्भच्छेसि वा अकाले चेव जीवियाओ) ववरोवेसि / तो जं बदसि-नत्थि उट्ठाणे इ वा जाव' नियया सव्वभावा, तं ते मिच्छा।। तब श्रमण भगवान महावीर ने आजीविकोपासक सकडालपुत्र से कहा-सकडालपुत्र ! यदि कोई पुरुष तुम्हारे हवा लगे हुए या धूप में सुखाए हुए मिट्टी के बर्तनों को चुरा ले या बिखेर दे या उनमें छेद कर दे या उन्हें फोड़ दे या उठाकर बाहर डाल दे अथवा तुम्हारी पत्नी अग्निमित्रा के साथ विपुल भोग भोगे, तो उस पुरुष को तुम क्या दंड दोगे? ___सकडालपुत्र बोला-भगवन् ! मैं उसे फटकारूगा या पीटूगा या बांध दूगा या रौंद डालगा या जित करूगा--धमकाऊंगा या थप्पड़-घूसे मारू गा या उसका धन आदि छीन लगा या कठोर वचनों से उसकी भर्त्सना करूगा या असमय में ही उसके प्राण ले लूगा। _ भगवान् महावीर बोले-सकडालपुत्र! यदि प्रयत्न, पुरुषार्थ एवं उद्यम नहीं है, सभी होने वाले कार्य निश्चित हैं तो कोई पुरुष तुम्हारे हवा लगे हुए या धूप में सुखाए हुए मिट्टी के बर्तनों को नहीं चुराता है, (नहीं बिखेरता है, न उनमें छेद करता है, न उन्हें फोड़ता है), न उन्हें उठाकर बाहर डालता है और न तुम्हारी पत्नी अग्निमित्रा के साथ विपुल भोग ही भोगता है, न तुम उस पुरुष को फटकारते हो, न पीटते हो, (न बांधते हो, न रौंदते हो, न तजित करते हो, न थप्पड-घूसे मारते हो, न उसका धन छीनते हो, न कठोर वचनों से उसकी भर्त्सना करते हो), न असमय में ही उसके प्राण लेते हो (क्योंकि यह सब जो हुआ, नियत था)। 1. देखें सूत्र-संख्या 169 2. देखें सूत्र-संख्या 169 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003475
Book TitleAgam 07 Ang 07 Upashak Dashang Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages276
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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