________________ प्रथम अध्ययन : गाथापति आनन्द] [35 घास चरने वाली के धृत में गुणात्मकता की दृष्टि से विशेषता रहती है / आयुर्वेद यह भी मानता है कि एक वर्ष तक का पुराना घृत परिपक्व घृत होता है / यह स्वास्थ्य की दृष्टि से विशेष लाभप्रद एवं पाचन में हल्का होता है / ताजा घृत पाचन में भारी होता है। भाव-प्रकाश में घृत के सम्बन्ध में लिखा है- “एक वर्ष व्यतीत होने पर घत की संज्ञा प्राचीन हो जाती है / वैसा घृत त्रिदोष नाशक होता है--वात, पित्त कफ-तीनों दोषों का समन्वायक होता है / वह मूर्छा, कुष्ट, विष-विकार, उन्माद, अपस्मार तथा तिमिर [आँखों के आगे अंधेरी आना] इन दोषों का नाशक है।" भाव-प्रकाश के इस उल्लेख से यह स्पष्ट है कि एक वर्ष तक घृत अखाद्य नहीं होता। वह उत्तम खाद्य है / पोषक के साथ-साथ दोषनाशक भी है / यदि घृत को खूब गर्म करके छाछ आदि निकाल कर छान कर रखा जाय तो एक वर्ष तक उसमें दुर्गन्ध, दुःस्वाद आदि विकार उत्पन्न नहीं होते। औषधि के रूप में तो घृत जितना पुराना होता है, उतना ही अच्छा माना गया है / भावप्रकाश में लिखा है-- "घृत जैसे-जैसे अधिक पुराना होता है, वैसे-वैसे उसके गुण अधिक से अधिक बढ़ते जाते हैं।” कल्याणकघृत, महाकल्याणकघृत, लशुनाद्यघृत, पंचगव्यघृत, महापंचगव्यघृत, ब्राह्मीघृत, आदि जितने भी आयुर्वेद में विभिन्न रोगों को चिकित्सा हेतु धृत सिद्ध किए जाते हैं, उन में प्राचीन गो-घृत का ही प्रयोग किया जाता है, जैसे ब्राह्मीघृत के सम्बन्ध में चरक-संहिता में लिखा है ___ "ब्राह्मी के रस, वच, कूठ और शंखपुष्पी द्वारा सिद्ध पुरातन गो-धृत ब्राह्मीघृत कहा जाता है। यह उन्माद, अलक्ष्मी-कान्ति-विहीनता, अपस्मार तथा पाप-देह-कलुषता-इन रोगों को नष्ट करता है / "3 इस परिपार्श्व में चिन्तन करने से यह स्पष्ट होता है कि आनन्द वर्ष भर शरद् ऋतु के गोघृत का ही उपयोग करता था। आज भी जिनके यहाँ गोधन की प्रचुरता है, वर्ष भर घृत का संग्रह रखा जाता है / एक विशेष बात और है, वर्षा आदि अन्य ऋतुओं का धृत टिकाऊ भी नहीं होता, शरद् ऋतु का ही घृत टिकाऊ होता है / इस टिकाऊपन का खास कारण गाय का आहार है, जो शरद् ऋतु में अच्छी परिपक्वता और रस-स्निग्धता लिए रहता है। 1. वर्षादूर्वं भवेदाज्यं पुराणं तत् त्रिदोषनुत् / मूळकूष्टविषोन्मादापस्मारतिमिरापहम् / / ___-भावप्रकाश, घृतवर्ग 15 2. यथा यथाऽखिलं सपि: पुराणमधिकं भवेत् / तथा तथा गुणैः स्वः स्वैरधिकं तदुदाहृतम् / / -भावप्रकाश, घृतवर्ग 16 3. ब्राह्मीरसवचाकुष्ठशङ्खपुष्पीभिरेव च / पुराणं घृतमुन्मादालक्ष्म्यपस्मारपाप्मजित् // ...चरकसंहिता, चिकित्सास्थान 10.24 4. किन्हीं मनीषी ने दिन के विभाग विशेष को 'शरद' माना है और उस विभाग विशेष में निष्पन्न धी को 'शारदिक' घृत माना है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org