Book Title: Adhyatma Pad Parijat
Author(s): Kanchedilal Jain, Tarachand Jain
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म-पद-पारिजात (संगीतात्मक आध्यात्मिक पदों का अनुपम संकलन ) 23 सम्पादक - डॉ० कच्छेदी लाल जैन सहसम्पादक - श्री तासचन्द्र जैन श्री गणेश वर्णी दिगम्बर जैन संस्थान नरिया, वाराणसी-५ For Personal & Private Use Only Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Hindi poets have been considerably influenced by the philosophical thoughts and spiritual writings of the great Jain guru's like Kund Kund, Battaker, Kartikeya and others; These writings mostly in Saurseni Prakrit language lie undermeath the devotional songs/poems written in the most cornmonly used form of Hindi of those times..... ........... These composers cum singers wandered from Kashmir to Kanyakumari and from Assam to Rajasthan, singing their musical compositions and contributed to the unity and integrity of India. For Personal & Private Use Only Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री गणेश वर्णी दिगम्बर जैन ग्रन्थमाला प्रकाशन संख्या - ३५ रजत जयन्ती वर्ष-प्रकाशन अध्यात्म-पद-पारिजात (१६वीं सदी से २०वीं सदी तक के हिन्दी के प्रतिनिधि जैन कवियों के भक्ति एवं आध्यात्मिक पदों का संकलन) सम्पादक प्रो० डॉ० कन्छेदी लाल जैन प्राचार्य, राजकीय संस्कृत महाविद्यालय, रायपुर (म०प्र०) सह सम्पादक श्री ताराचन्द्र जैन भूतपूर्व प्राचार्य, रेलवे उच्च विद्यालय, बिलासपुर (म०प्र०) प्रस्तावना डॉ श्रीमती विद्यावती जैन रीडर एवं अध्यक्ष, हिन्दी विभाग म०म० महिला महाविद्यालय, आरा, बिहार प्रकाशक श्री गणेश वर्णी दिगम्बर जैन संस्थान नरिया, वाराणसी - २२१००५ For Personal & Private Use Only Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रन्थमाला सम्पादक : प्रो० डॉ० राजाराम जैन, आरा, बिहार प्रो० उदय चन्द जैन, वाराणसी प्रकाशक : श्री गणेश वर्णी दिगम्बर जैन संस्थान नरिया, वाराणसी-२२१००५ © श्री गणेश वर्णी दिगम्बर जैन संस्थान, वाराणसी प्रथम संस्करण- सितम्बर १९९६, वी०नि०सं०-२५२३ मूल्य : रु० मुद्रक : वर्द्धमान मुद्रणालय। जवाहरनगर-कालोनी, वाराणसी-१० For Personal & Private Use Only Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shree Ganesh Varni Granthmala Series - 35 ADHYATM-PADA-PĀRIJĀT (A Unique Collection of devotional poems & Songs (Pad-Samgrah) Written by Jain Hindi poets during 16th century to 20th century) Editor Prof. Dr. Kanchedi Lal Jain Ex-Principal, Govt. Sanskrit College, Raipur (M.P.) Co-Editor Tore Chand Jain Ex-Principal, Railway Higher Secondary School, Bilaspur (M.P.) Preface Written by : Dr. Smt. Vidjeveti Jain Reader & Head, Hindi Department M.M Girls College, Arrah (Bihar). Published By : Shree Ganesh Varni Digamber Jain Sansthan Naria, Varanasi-221005. For Personal & Private Use Only Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Granthmala Editors : Prof. Dr. Raja Ram Jain, Arran, (Bihar) Prof. Udai Chand Jain, Varanasi. Published by : Shree Ganesh Varni Dig. Jain Sansthan Naria, Varanasi-221005. © Shree Ganesh Varni Dig. Jain Sansthan, Varanasi. First Edition : September 1996, Veer Nirvan Samvat - 2523. Price Rs. Price Rs. 100/= Vardañan porânalaya, Jawahar Nagar. Varnasi-10 For Personal & Private Use Only Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ PUBLISHER'S NOTE "Adhyatam Pada Parijat” is a stream of soothing spiritual and musical compositions which strikes the right chords of one's heart and dissolves the impurities of soul lifting it to greater heights. Jain Hindi poets have been considerably influenced by the philosophical thoughts and spiritual writings of the great Jain guru's like Kund Kund, Battaker, Kartikeya and others; these writings mostly in Saurseni Prakrit language lie underneath the devotional songs/poems written in the most commonly used form of Hindi of those times. These devotional songs, about 600 of them presented in this book, became popular among the rich and the poor alike. These pieces of devotion also contributed to a continuous refinement and enrichment of Hindi which ultimately led to its recognition as the National language of free India. These composers cum singers wandered from Kashmir to Kanyakumari and from Assam to Rajasthan, singing their musical compositions and contributed to the unity and integrity of India. Late Shri Dr. Kanchedilal Jain had collected these devotional poems and songs at the request of late Pandit Phoolchandra Shastri; Shri Tarachand Jain assisted him in all possible ways. Although Panditji and Dr. Kanchedilalji, both are not with us today, we are extremely grateful to both of them for the initiative. We are also grateful to Shri Tarachandji for rendering selfless service in preparing the manuscript. Sudden and tragic demise of Dr. Kanchedilal ji deprived us of his critical and comparative Introduction which he proposed to write. However, it is a matter of great satisfaction that, on our special request, the noted Hindi scholar Dr. (Smt.) Vidyavati Jain, Head, Hindi Department, M.M.Women's College (Vir Kunwar Singh University), Aara (Bihar), has filled up this gap. Her preface to the book and also the index have certainly enhanced the importance of the book. Shri Ganesh Varni Dig. Jain Institute is grateful to her for the valuable contribution. For Personal & Private Use Only Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Smt. Kranti Devi Jain, wife of Late Dr. Kanchedilalji, has contributed generously towards the publication of the book. We are thankful to her for the interest and generosity. It is a matter of great satisfaction that Shri Pushpabhadra Jain (son of Late Dr. Kanchedilalji) and his wife Smt. Rashmi Jain, both engineers, also take keen interest in continuing the legacy left behind by Dr. Kanchedilal Jain. The typesetting of the book on computer was done at Jaipur and all the expenses for this were met by Sidhantacharya Pandit Phoolchandra Shastri Foundation, Roorkee; Sansthan is grateful to the Foundation for this help. 25th July 1996 University of Roorkee Roorkee-247 667 Prof. Ashok Kumar Jain Trustee and Vice-Presiden Shri Ganesh Vami Dig. Jain Sansthar For Personal & Private Use Only Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रो० (डॉ०) कन्छेदीलाल जैन (सन् १९२९-१९८९ ई०) मध्यप्रदेश के बिलानी ग्राम (पथरिया, जिला दमोह) में पौष कृष्ण अमावास्या वि०सं० १९८६ को एक सामान्य किन्तु सुसंस्कृत परिवार में जन्म प्राप्त प्रो० (डॉ०) कन्छेदीलाल जी का जीवन कठोर परिश्रम, प्राच्यविद्या तथा जिनवाणी के प्रति समर्पण का जीवन्त इतिहास है। अपने मूल्याधारित आदर्शों, कर्तव्यनिष्ठा, शिक्षा-प्रसार, निर्भीक पत्रकारिता एवं समाजसेवा को सर्वोपरि मानने के कारण उन्होंने जो धवल यशार्जन किया, वह नवीन पीढ़ी के लिए प्रेरणा एवं उत्साह का स्रोत बन गया। सन्तान की निरभिमानता, सच्चरित्रता एवं गगनचुम्बी प्रगतिशीलता वस्तुत: उनके माता-पिता के कठिन त्याग, तपस्या एवं बच्चों के जीवन-निर्माण के प्रति उनके दृढ़संकल्प का प्रतिफल माना गया है। डॉ० कन्छेदीलाल जी एवं उनकी धर्मपत्नी श्रीमती क्रान्ति जैन पर यह उक्ति पूर्णतया घटित होती है। उनके ज्येष्ठ पुत्र श्री पुष्पभद्र जैन जहाँ भारत सरकार के एन०एच०पी०सी० में वरिष्ठ इंजिनियर पदाधिकारी है, वहीं उनकी धर्मपत्नी श्रीमती रश्मि जैन एक मल्टी नेशनल कम्पनी में वरिष्ठ कम्प्यूटर इंजिनियर है। इसी प्रकार उनके कनिष्ठ पुत्र श्री यशोभद्र, मध्यप्रदेश शासन में विद्युत विभाग के इंजिनियर है तथा उनकी धर्मपत्नी श्रीमती नीरुप्रभा सागर वि०वि० के रसायनशास्त्रविभाग में यू०जी०सी०फैलो के रूप में शोध कार्यरत हैं। इसी प्रकार डॉ० सा० की एक पुत्री मध्यप्रदेश शासन में भौतिकशास्त्र की वरिष्ठ व्याख्याता तथा अन्य दो सुपुत्रियाँ मेडिकल डॉक्टर हैं और समाज सेवा में कार्यरत हैं। आज डॉ० कन्छेदीलाल जी का भौतिक शरीर हमारे बीच नहीं है किन्तु उनका यशस्वी जीवन सभी की प्रेरणा का स्रोत बना हुआ है। For Personal & Private Use Only Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रधान सम्पादकीय प्राच्य विद्याजगत को जैन साहित्य की विपुलता, विविधता तथा उसके भाषागत एवं अन्य अनेकविध वैशिष्ट्य की जबसे जानकारी प्राप्त हुई है, तभी से उसने देश-विदेश के प्राच्य विद्याविदों का अपनी ओर ध्यान आकर्षित किया है। इतिहासकारों को यह देखकर बड़ा आश्चर्य हुआ कि जिस प्राच्य एवं मध्यकालीन जैन साहित्य में नन्द, मौर्य, एल, गुप्त, राष्ट्रकूट एवं चालुक्य, यहाँ तक कि मुगलकालीन सम्राटों एवं अन्य अनेक स्थानीय राजाओं के प्रामाणिक तथ्य उपलब्ध है और भारतीय इतिहास, एवं संस्कृति के निर्माण में जिनकी अहं भूमिका रही है, उस विशिष्ट कोटि के साहित्य को सम्प्रदायवादी साहित्य की श्रेणी में डालकर उसे उपेक्षित कैसे कर दिया गया? जिसने अपने भाषा-सौष्ठव और समता एवं समन्वय के आदर्शों को प्रचारित किया, जात-पाँत तथा गरीब-अमीर की भेद-भावना से दूर रहकर, जिसने उन सभी को समान रूप से सामाजिक विकास की प्रक्रिया का मूल आधार माना, ऐसे राष्ट्रिय महत्त्व के साहित्य की उपेक्षा कैसे कर दी गई? आधुनिक भारतीय भाषाओं की जननी, पार्श्व तथा महावीरकालीन लोकप्रिय जनभाषा को जिस साहित्य ने भारतीय संस्कृति एवं इतिहास-दर्शन को मुखर करने का माध्यम बनाया, उसी जनभाषा में लिखित वह महत्त्वपूर्ण साहित्य उपेक्षा का शिकार कैसे हो गया? आदि अनेक प्रश्न उठ खड़े हो गए। किन्तु धन्यवादाह है प्राच्य विद्याविदों में डॉ० हर्मन याकोवी, डॉ० बेवर, प्रो० हटेंल, प्रो० आल्सडोर्फ, डॉ० के०पी० जायसवाल, पं० हजारीप्रसाद द्विवेदी, डॉ० भण्डारकर, पं० गौ०हि० ओझा, डॉ० सुनीति कुमार चटर्जी, पं० बलदेव उपाध्याय प्रभृति विद्वान्, जिन्होंने जैन साहित्य में प्रयुक्त विविध भाषाओं का विधिवत अध्ययन कर तथा उनमें ऐतिहासिक तथ्यों को खोजकर उसका निर्भीक तथा निष्पक्ष होकर मूल्यांकन किया और पूर्व में व्याप्त सन्देहों के धुन्ध से उसे मुक्त किया। यही कारण है कि पिछले लगभग ७-८ दशकों से जैन साहित्य के विविध पक्षों पर पर्याप्त शोध-खोज के कार्य हुए हैं और आगे भी होते रहने की पूर्ण सम्भावना है। प्राच्य जैन विद्या का भाषा की दृष्टि से परवर्ती विकसित प्रमुख भेद ही “हिन्दी जैन-साहित्य' है। यहाँ “हिन्दी' शब्द बृहद् अर्थ में प्रयुक्त किया जा रहा है अर्थात् For Personal & Private Use Only Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चाहे वह राजस्थानी हो या हरयाणवी, ब्रजमण्डल, मध्यदेशीय या पूर्वी बोलियाँ हो, सभी को हिन्दी माना गया है। इसका आदिकाल पं० राहुल सांकृत्यायन तथा मिश्रबन्धुओं ने महाकवि स्वयम्भू (आठवीं सदी) के काल से माना है। किन्तु अन्य हिन्दी साहित्य के इतिहासकारों के अनुसार १०वी ११वीं सदी से हिन्दी का आदिकाल माना गया है। इस काल में जैन कवियों ने चतुर्विध अनुयोगों पर सैकड़ों ग्रन्थों की रचनाएँ कर हिन्दी को पूर्ण सामर्थ्य प्रदान करने का प्रयत्न किया। सुविधा की दृष्टि से इन रचनाओं का वर्गीकरण निम्न प्रकार किया जा सकता है (१) पुराण, चरित, आख्यान एवं लघु तथा बृहत् कथा-ग्रन्थ । (२) सैद्धान्तिक-ग्रन्थ। (३) पूजा-विधान, स्तुति, स्तोत्र, सुभाषित, आदि। तथा, (४) भक्ति एवं अध्यात्मपरक पद-साहित्य। इन विधाओं में से अन्तिम चतुर्थ विद्या के भक्ति एवं अध्यात्मपरक कुछ प्रमुख पदों का संकलन प्रस्तुत ग्रन्थ में किया गया है। इन पदों के लेखक वे कवि हैं, जिन्होंने पूर्ववर्ती प्राकृत, अपभ्रंश एवं संस्कृत के मूल जैन साहित्य का गहन अध्ययन कर उनका दीर्घकाल तक मनन एवं चिन्तन किया, तत्पश्चात् युग की माँग के अनुसार अपने चिन्तन को विविध संगीतात्मक स्वर-लहरी में उनका चित्रण किया है। इन पदों की गेयता, शब्द-गठन, आरोह-अवरोह तथा वह इतना सामान्य जनानुकूल, सुव्यवस्थित एवं माधुर्य-रस समन्वित है कि उन्हें भौगोलिक सीमाएँ बाँध सकने में असमर्थ रहीं। राजस्थान, गुजरात, हरियाणा, पंजाब, महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश, दक्षिणभारत एवं आसाम, बंगाल, आदि में उन्हें समान स्वरलहरी तथा आरोह-अवरोह के साथ गाया-पढ़ा जाता है। वर्तमान में तो विदेशों में भी ये पद लोकप्रिय हो रहे हैं। प्रस्तुत गन्थ के प्रायः समस्त पद गीतिकाव्य की शैली पर चित्रित है। इन पदों में संगीत एवं अध्यात्म का अभूतपूर्व संयोजन मिलता है और उनमें अहिंसा, अपरिग्रह एवं अनेकान्त के साथ-साथ समताभाव एवं संसार के प्रति असारता सम्बन्धी गूढ़ से गूढ़तर विषयों को भी सरलतम भाषा एवं रोचक शैली में दैनिक व्यवहार में आने वाले उदाहरणों के साथ व्यक्त करने का प्रयास किया गया है। पद-साहित्य की मानव जीवन के लिए आवश्यकता, उनका महत्त्व, उनके भेद तथा प्रस्तुत ग्रन्थ For Personal & Private Use Only Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में संग्रहीत पदों का वर्गीकरण और उनकी विशेषताओं पर प्रस्तुत ग्रन्थ की प्रस्तावना में विस्तृत प्रकाश डाला गया हैं अतः यहाँ उनकी चर्चा अनावश्यक है। ___संकलित पद १६वीं सदी से २०वीं सदी तक के प्रमुख हिन्दी कवियों द्वारा रचित हैं, जिनका परिचय प्रस्तावना में अंकित है। संग्रहीत पदों में निम्नलिखित प्रमुख विशेषताएँ परिलक्षित होती हैं(१) आधुनिक हिन्दी साहित्य के इतिहासकार, हिन्दी के काल-विभाजन में जिसे रीतिकाल कहकर उस काल में महाकवि बिहारी, देव, एवं घनानन्द द्वारा विरचित साहित्य के सम्भोग-शृङ्गार के लेखन का साहित्यकाल मानते हैं, उसी भौतिकवादी शृङ्गार-रस में सिक्त वातावरण में जैन हिन्दी कवियों ने दरबारी भोग-ऐश्वर्य की संस्कृति से परे रहकर विदेशी आक्रान्ताओं द्वारा जर्जरित राष्ट्र एवं भयाक्रान्त समाज के उत्थान हेतु राष्ट्रिय एवं सामाजिक चरित्र-निर्माण की कल्याणकामना से अध्यात्म रस की निर्भीक एवं निर्बाध अमृत-स्रोतस्विनी को प्रवाहित किया है। इन पदों में सुख-भोग की भौतिक सामग्रियों की उपलब्धि की चाहना व्यक्त नहीं की गई है। बल्कि उनके माध्यम से कवियों ने केवल आत्मगुणों के विकास, समस्त प्राणियों के कल्याण तथा बिना किसी भेदभाव के सभी के प्रति समताभाव की प्राप्ति की कामना की है। (३) इन भक्ति पदों में व्यक्ति को यही प्रेरणा दी गई है कि वह दूसरों के केवल सदगणों को ग्रहण करे तथा अपने दोषों को सिंहावलोकन कर उन्हें दूर करने का प्रयत्न करे। (४) सम्प्रदाय-भेद, जाति-भेद, ऊँच-नीच, गरीब-अमीर तथा देशी-विदेशी के भेदभाव से ऊपर उठकर समता एवं सर्व-धर्म-समन्वय की भावना पर इन पदों में विशेष जोर दिया गया है। (५) इतर धर्मों एवं धर्मायतनों को आदरसम्मान देने के लिए प्रेरणा दी गई है। (६) विश्व के कल्याण की दृष्टि से अहिंसा, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, स्याद्वाद एवं अनेकान्त के सिद्धान्तों को जीवन में उतारने पर विशेष बल दिया गया है। (७) साहित्य विधा की दृष्टि से समस्त पदों की प्रकृति शान्तरसमय है। (८) भाषा की दृष्टि से इन पदों पर ब्रज, राजस्थानी, गुजराती, मराठी या बुन्देली का प्रभाव परिलक्षित भले ही हों, किन्तु बृहदर्थ में वे सभी हिन्दी पद हैं। For Personal & Private Use Only Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यह दुर्भाग्य का विषय है कि राष्ट्र के इन समुन्नत तथा चरित्र-निर्माण के एक विशेष अंश के रूप में ज्ञात इस साहित्य को विश्वविद्यालयों, महाविद्यालयों तथा राष्ट्रिय महत्त्व के अन्य पाठ्यक्रमों में स्थान नहीं दिया गया। जबकि वर्तमान के सन्दर्भो में यह साहित्य राष्ट्र एवं सामाजिक निर्माण में एक विशिष्ट भूमिका अदा कर सकता है। वर्णी संस्थान प्रस्तुत महत्त्वपूर्ण पदों के संग्रहकर्ता डॉ० कन्छेदीलाल जी के प्रति अपना आभार व्यक्त करता है, जिन्होंने विविध कवियों की रचनाओं से विविध विषयक प्रमुख पदों का संकलन किया। इन पदों के मूल्याकंन एवं तुलनात्मक अध्ययन करने की भी उनकी प्रबल इच्छा थी, किन्तु क्रूर काल को यह स्वीकार्य न था। अत: वे असमय में ही हमारे बीच से उठ गए। ____संस्थान के प्रकाशनों के नियमानुसार प्रत्येक ग्रन्थं का उच्चस्तरीय मूल्यांकन एवं समीक्षात्मक तथा तुलनात्मक अध्ययन होना आवश्यक है। अत: उसकी तुलनात्मक एवं समीक्षात्मक विस्तृत प्रस्तावना के लेखन हेतु संस्थान के उपाध्यक्ष डॉ० अशोककुमार जैन ने अनेक विद्वानों से सम्पर्क किया किन्तु उसमें उन्हें सफलता नहीं मिल सकी। अन्ततः डॉ० (श्रीमती) विद्यावती जैन से उन्होंने विशेष अनुरोध किया और यह कहते हुए प्रसन्नता का अनुभव हो रहा है कि उन्होंने उनका अनुरोध स्वीकार कर प्रस्तावना एवं पद्यानुक्रमणिका आदि तैयार कर दी। उनके इस सौजन्यपूर्ण सहयोग के लिए संस्थान उनके प्रति आभार व्यक्त करता है। ____डॉ० कन्छेदीलाल जी की धर्मपत्नी श्रीमती क्रान्ति जैन ने तथा उनके प्रिय पुत्र एवं पुत्रवधू श्री पुष्पभद्र जैन (सिविल कार्यपालक इंजिनियर, एन०एच०पी०सी०) (भारत सरकार) तथा श्रीमती रश्मि जैन (वरिष्ठ कम्प्यूटर इंजिनियर) ने उसकी २०० प्रतियाँ वर्णी ग्रन्थमाला से लागत मूल्य में खरीदकर उन्हें समाज के स्वाध्यायशील श्रावकों, एवं विद्वानों को वितरित करने की इच्छा व्यक्त की है। संस्थान उनकी इस आदर्श प्रेरक एवं उत्साहवर्धक प्रवृत्ति का हार्दिक स्वागत करता है। जिनवाणी के प्रचार-प्रसार का यह एक सर्वोत्तम साधन है। श्रुतपञ्चमी पर्व- २२/५/९५ महाजन टोली नं०२ आरा (बिहार)-८०२३०१ प्रो०(डॉ0) राजाराम जैन प्रो0 उदयचन्द्र जैन, वाराणसी For Personal & Private Use Only Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना डॉ०(श्रीमती) विद्यावती जैन "अध्यात्मपद-पारिजात'. एक संग्रह-ग्रन्थ है, जिसमें १६ वीं सदी से लेकर २० वीं सदी तक के प्रमुख हिन्दी जैन भक्त-कवियों की रचनाएँ संकलित हैं। इनमें कवियों ने भक्ति के उन्मेष में जिस पद-साहित्य की रचना की, वह जन-मानस को आध्यात्मिक जीवन की ओर अग्रसर होने की प्रभावक प्ररेणा देनेवाली प्रणम्य प्रकाश-किरणें समाहित हैं। जिस अहिंसा-दर्शन और अनेकान्त-दृष्टि का इन पदों में सरल भाषा-शैली में हृदयग्राह्य वर्णन किया गया है, वह सार्वजनीन, सार्वभौमिक, शाश्वत और सनातन सत्य है। हमारे महान् सन्त साधकों के उदात्त-चिन्तन, अध्यात्म-साधना और आत्मशोधन की प्रवृत्ति द्वारा निस्यूत जिस आत्मानन्दरूपी अमृतसिन्धु को भक्त कवियों ने अनुभव किया, उसी की शब्दमय अभिव्यक्ति हैं ये पद। इनमें आध्यात्म और संगीत का अनूठा समन्वय है और है दर्शन के गूढ से गूढतर विषयों को भी सरल शब्दों में समझाने की अद्भुत शक्ति। इनमें मानवता को अनुप्राणित करने वाली भावनाओं की प्रचुरता है एवं हृदय को आन्दोलित कर देने वाली नव रसमय पिच्छिल रसधारा सतत सर्वत्र प्रवाहित है। सभी पद गीतिकाव्य की पद्धति पर आधारित है। गीतिकाव्य मुक्तक-श्रेणी का काव्य होता है, जिसमें गीतिकार की अपनी आवेशपूर्ण भावनाओं का प्रकाशन होता है। गीतिकार अपनी ही मानसिक अनुभूतियों की गीतिरूप में अभिव्यञ्जना करता है। वह अभिव्यञ्जना भाव के अनुकूल ही उस कोमल कान्त, स्वाभाविक और सरल भाषाशैली में होती है, जिसमें हृदयगत भावना का सौन्दर्य और माधुर्य व्याप्त रहता है। भावावेश में ही गीतों का जन्म होता है। उनका आकार निश्चित नहीं होता। वह भावानुसार ही छोटा या बड़ा हो सकता है। इस गीति-विधान का स्वरूप विभिन्न समयानुकूल राग-रागनियों पर आधारित रहता है। For Personal & Private Use Only Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२) गीत में संगीत की प्रधानता रहती हैं। यद्यपि संगीत के लिए काव्यत्व अपेक्षित नहीं , क्योंकि उसका प्रधान आधार स्वर-लहरी है, किन्तु जब गीत में काव्यत्व होता है तभी वह गीतिकाव्य का नाम ग्रहण कर लेता है। गीति-काव्य में कवि अपने ही अन्तस् के सूक्ष्म भावजगत का वर्णन करता है। उसकी वृत्ति प्रधानतया अन्तर्मुखी होती है। अपनी अनुभूति का या भाव के आवेश का ही संगीतमय वर्णन उसका लक्ष्य होता है। प्रस्तुत संग्रह-ग्रन्थ के प्राय: सभी कवि संगीत के पारखी कवि हैं। इनके पद विभिन्न शास्त्रीय राग-रागनियों पर आधारित हैं, जिनमें गौरी, सारंग, विलावल, यमन, रामकली, काफी, धनाश्री, खम्माज, केदार, आसावरी, पीलू, सोरठ, मलार आदि प्रमुख हैं। इन पदों का संगीत, भावसंगीत की प्रतिध्वनि सा प्रतीत होता है। इस संगीत-प्रधान काव्य-पद्धति में कवि शब्दचयन, शब्द-माधुर्य और कला-विधान के सौन्दर्य के साथ अपनी भावनाओं का प्रकाशन करता है। किन्तु जब इन गीतों में आराध्यदेव सम्बन्धी अनुभूतियों का वर्णन होने लगता है, तो उनकी संज्ञा महत् हो जाती है। प्रस्तुत संकलन के पदसाहित्य को बीस विषयों में विभक्त किया गया है१. जिनस्तुति, २. जिनदेव-दर्शन-पूजन, ३. जिनवाणी,४. गुरुस्तुति,५. सम्यग्दर्शन, ६. सम्यग्ज्ञान, ७. सदुपदेश,८. विनय, ९. आत्मस्वरूप,१०. बारह भावना, ११.कर्मफल, १२. बधाईगीत, १३. उत्तम नरभव, १४. होली, १५. भोग-विलास, १६.संसार-असार, १७ सप्तव्यसन, १८. मन, १९. कषाय एवं २०. भाव-परिणाम। उक्त पदों में अध्यात्म, भक्ति, नीति, आचार, स्वकर्तव्य-निरूपण, आत्मसम्बोधन और वैराग्य की शिक्षा के साथ-साथ मन, इन्द्रिय और शरीर की स्वाभाविक प्रवृत्ति का दिग्दर्शन कराकर मानव को सावधान कर आत्मालोचन की प्रवृत्ति जगाने का प्रयास किया गया है। इनकी विशेषता है-। संगीतात्मकता, आत्मनिष्ठा, अनुभूति की तीव्रता और रागात्मक अनुभूति की अभिव्यञ्जना। संगीतात्मकता गीतिकाव्य की पहली विशेषता है संगीतात्मकता। संग्रहीत सभी पद गेय हैं। इनके वर्ण-विन्यास में एक ओर कोमलता विद्यमान हैं तो दूसरी ओर वह संगीत माधुरिमा से ओत-प्रोत हैं। इनमें संगीत की अक्षुण्ण धारा प्रवाहित है, जिसमें संगीत का माधुर्य छलक रहा है। तुक, गति, यति, और लय के साथ नाद-सौन्दर्य का For Personal & Private Use Only Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उनमें सुन्दर समन्वय है। स्वर और ताल के साथ संगीत अपने मूर्त रूप में साकार हुआ है। जो अपने सौन्दर्य में मानस के अन्तस् को निमग्न कर देता है। संगीत के साथ भावनात्मक सौन्दर्य का उचित समन्वय भी मिलता है। महाकवि बनारसीदास, द्यानतराय, भैया भगवती दास, भूधरदास, बुधजन, दौलतराम और भागचन्द्र आदि के पदों में संगीत का निखरा स्वरूप स्पष्टरूपेण देखने को मिलता है। ___कविवर बुधजन ने स्वर और लय का सुन्दर विधान कर राग भैरवी और तीन ताल में निम्नपद कितने अनूठे ढंग से प्रस्तुत किया है? मृत्यु जीवन का शाश्वत नियम है। कवि हर क्षण इस सत्य में सतर्क रहता है और मानव को भी उसकी चेतावनी देता है। उनकी यह अनुभूति निस्सन्देह ही विश्वजनीन है "काल अचानक ही ले जायगा गाफिल होकर रहना क्या रे ? छिनकू तोकू नाँहि बचावै, तो सुभटन का रखना क्या रे ?(पद०४४६) इसी प्रकार के कवि दौलतराम के पदों में संगीत की अद्भुत अवतारणा हुई है। उनकी पदावलियाँ संगीत के स्वरों में बँधकर अत्यन्त बेगवती सिद्ध हुई हैं। उन्होंने राग काफी में होली के रूपक द्वारा शरीर के अंग-प्रत्यंगों एवं भावों का वाद्ययन्त्रों का स्वरूप देकर इस प्रकार अभिव्यक्ति की है कि समस्त स्वर-तन्त्रियाँ स्वत: झंकृत हो उठती हैं और कल्पना और अनुभूति के उचित समन्वय से आन्तरिक संगीत का अद्वितीय भाव-चित्र प्रस्तुत हो उठा है, शब्दों के मानों मूर्त रूप धारण कर लिया है और लेखनीरूपी कूची ने उसमें मनोहर रंगों की आकर्षक छटा बिखेर दी है। यथा"मेरो मन ऐसी खेलत होरी। मन मिरदंग साज करि ला री तन को तमूरा बनो री।। (पद० ५१५) आत्मनिष्ठा जैन-पदों में आत्मनिष्ठा भी उपलभ्य है, जो गीतिकाव्य की दूसरी विशेषता है। प्रस्तुत संग्रह के सभी जैनकवि अध्यात्म-प्रेमी थे। उन्होंने संसार की असारता को लक्ष्यकर अपने अन्तर्मन की शान्त एवं निश्छल भाव निर्झरिणी में निमग्न होकर गीतों की मधुर तान छेड़ी है। आत्मानुभूति का आलोक सर्वत्र विद्यमान है। क्योंकि आत्मानुभूति की अभिव्यक्ति ही इन पदों का प्रधान ध्येय है। For Personal & Private Use Only Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. (४) मानव बाह्य से विमुख होकर जब अन्तस् की ओर मुड़ता है, तब उसका मन सन्तुष्ट हो जाता है, उसकी निरर्थक भ्रमणशीलता समाप्त हो जाती है और वह आत्मोन्मुखी हो उठता है। उसके अन्तस् का रस उमड़ पड़ता है, वह अपनी सुध-बुध, खोकर अपनी आत्मा का साक्षात्कार करने लगता है। कवि दौलत अपनी कोमल कमनीय भाषा में कह उठते हैं "आतम रूप अनूपम। " (पद० ४२५) तथा द्यानतराय भी अपनी आत्मा में रमण करके प्रसन्नता का अनुभव करते हैं "हम लागे आतम राम सौ" (पद० ४०४) एक अन्य पद में कवि ज्योति ने अपनी अमरता का कितना दुर्लभ मनौवैज्ञानिक वर्णन किया है, __ "अब हम अमर भये न मरेंगे। (पद० ४४०) उनकी यह अभिव्यक्ति आत्माभिव्यक्ति न होकर सार्वजनिक है। सभी कवियों ने अपने पदों में आत्मानुभूति की गहनता का परिचय दिया है और आत्मनिष्ठा-परक अनूठे पद प्रस्तुत किए हैं। इन पदों में आत्मनिष्ठा के साथ-साथ आत्मनिवेदन की भावना भी व्यञ्जित हुई है और उसमें गम्भीरता, प्रबलवेग और तीव्रता विद्यमान है। अपने आराध्य की भक्ति में वह इतना तल्लीन हो जाता है कि भक्ति रूपी जल उसके समस्त कालुष्य का प्रक्षालन कर देता है और वह अपने प्रभु का सानिध्य पाकर शान्ति प्राप्त करता है। कवि की यह अनुभूति इन्द्रियातीत है, अलौकिक हैं हमारी वीर हरो भव पीर। (पद० ८७) गुरु के उपदेश में अपने भ्रम का निवारण कर वह अपने अन्तस् में उज्ज्वल वैराग्य धारण करता है और संसार से ममत्व छोड देने पर भी यदि उसमें स्व-पर का ज्ञान जागृत न हो तो उसके समस्त कार्य निरर्थक रहते हैं। इसलिए कवि बार-बार अपनी आत्मा को सम्बोधित करता हुआ कहता है कि गुरु के भेद-विज्ञान को समझो और अपनी आत्मा से प्रेम करो "गुरु कहत सीख इमि बार-बार।। (दौल० ५२७) For Personal & Private Use Only Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५) भेद-विज्ञान हो जाने पर आत्मा अपने शुद्धात्म-स्वरूप के साथ विचरण करने लगता है, चेतन हर्ष के झूले में झूलने लगता है और आत्मशक्ति का प्रादुर्भाव होने लगता है मैं देखा आतम रामा।। (पद०-३८९) "अब मेरे समकित सावन आयो।" (पद०२१७) "देखो भाई आतम देव............. (पद० ४४५) अनुभूति की तीव्रता__अनुभूति की तीव्रता गीतिकाव्य की तीसरी विशेषता है। तीव्र अनुभूति से जब संवेदनशीलता और ऊर्जस्विता आती है, सभी गेय-पद अभिव्यक्तिपूर्ण और सरस बन पाते हैं। अनुभूति की अभिव्यञ्जना में सतर्कता अत्यावश्यक है अन्यथा पदों में विकृति आने का संशय बना रहता है। संसारिक उलझनों में डूबे हुए मानव-जीवन में ऐसे क्षण कम ही आते हैं, जब उनकी वृत्तियाँ अन्तस् की ओर उन्मुखी हो पाती हैं। अत: कवि उन्हीं क्षणों को समेटकर अपनी प्रतिक्रिया सामाजिक आधार पर गतिशील बनाता है। जैन-पद इसके उच्छे उदाहरण हैं। कवि भागचन्द्र का मन सांसारिक -स्वार्थों से उदास हो चुका है। इसलिए अनुभूति की तीव्रता से अन्तस् में आत्मबुद्धि जागृत करते हुए वे कह उठते हैं "जे दिन तुम विवेक बिन खोये।।" (पद० २७७) इसी प्रकार अन्य कवियों ने भी मनुष्य-पर्याय को आत्मकल्याण में सहायक मान कर उसे श्रेष्ठ माना है और सांसारिक सम्बन्धों की नश्वरता से परिचित कराया है। यथा "छाँड़ दे अभिमान जिय रे"।।(पद० ३३९) " जीव तू भ्रमत सदैव अकेला।। "संग साथी कोई नहीं तेरा।।''(पद० २७६) रागात्मक-अनुभूति रागात्मक अनुभूति गीतिकाव्य की चौथी विशेषता है। काव्य के भावपक्ष में बुद्धि, राग और कल्पना-तत्त्व की प्रधानता रहती है। बुद्धि-तत्त्व में कवि के विचारों का, कल्पना-तत्त्व में वस्तु का चित्रांकन एवं निर्माण तथा रागात्मक-तत्त्व में कवि की हृदयस्पर्शिता एवं तन्मयता की प्रधानता रहती है। इन तीनों के उचित समञ्जन For Personal & Private Use Only Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६) से काव्य परिपूर्ण होता है । उक्त पदों में रागात्मक - तत्त्व अपनी पूर्ण तन्मयता और हृदय-स्पर्शिता से साकार हो उठा है। उनमें एक साथ तन्मयता, सहज सुकोमलता, सरलता, विचित्रता और सौन्दर्य के दर्शन होते हैं। सीधी सादी सरल भाषा में भक्त की करुण पुकार हृदय को रससिक्त कर डालती है - दुविधा कब जैहे मन की । कब रुचि सौ पीवें दुगचातक, बूँद अखय पद धन की ।। " (पद० ५८७) कवि ज्योति के निम्न पद में अनुभूति और कल्पना का समुचित सन्तुलन देखने योग्य है— 44 " चेतन अँखियाँ खोलो नर । (पद० ४३८) पदों का विषयानुरूप वर्गीकरण जैन कवियों के पदों की प्रेरणा का स्रोत जिनेन्द्र-भक्ति या शुद्ध जीवात्मा है । कवि प्रमुखतः पहले अपनी जीवात्मा को सन्मार्ग में लगाने के लिए पदों की संरचना करते हैं। तत्पश्चात् उनकी भावना यह भी है कि सांसारिक प्राणी भी उनका अनुसरण कर अपना आत्मकल्याण कर सकें। जैनदर्शन में भक्ति का स्वरूप सगुन - निर्गुण, दास, सख्य और माधुर्य से भिन्न है। अतः कोई भी साधक अपनी चाटुकारिता - पूर्ण प्रशंसात्मक या निन्दात्मक स्तुतियों द्वारा वीतरागी प्रभु को प्रसन्न या अप्रसन्न नहीं कर सकता। बल्कि उनके गुणों का स्मरण कर, स्वयं अपने में उन्हीं गुणों को विकसित करने की प्ररेणा प्राप्त करता है और कर्म - बन्धन से मुक्त होता है। उसकी भक्ति का एक ही लक्ष्य रहता है— आत्मा को कर्म - बन्धन से मुक्त कराकर शुद्ध, बुद्ध परमात्मा की श्रेणी में पहुँचा देना । इन पदों के चिन्तन और मनन से एक प्रकार की अपूर्व शान्ति की प्राप्ति होती है और आत्मिक सुख का अनुभव होता है। वे भक्ति-भावना पर आधारित होकर भी अपने में अनेक विशेषताओं को समाहित किए हुए हैं। यद्यपि उनके विषय और भावों की दृष्टि से उन्हें सामान्यतः पूर्वोक्त २० श्रेणियों में विभक्त किया जा सकता है किन्तु अध्ययन की सुविधा की दृष्टि से उनका प्रधान रूप से निम्न प्रकार वर्गीकरण किया जा सकता है (१) भक्तिपरक पद (२) आध्यात्मिक पद (३) रहस्यात्मक पद For Personal & Private Use Only Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७) (४) उपदेशप्रद पद (५) संसार की असारता सम्बन्धी पद (६) दार्शनिक एवं सैद्धान्तिक पद, और (७) विरहात्मक पद भक्तिपरक पद जैन कवियों ने भक्तिपरक पदों की रचना विशेष रूप से की है। जिनेन्द्र प्रभु की भक्ति का अवलम्बन पाकर मानव-मन क्षण भर को स्थिर हो जाता है। वह अपने आराध्य के गुणों में कुछ इस तरह मस्त हो जाता है कि अपनी सुध-बुध भूल जाता है। किन्तु यह भक्ति नैराश्य जनक नहीं अपितु इससे भक्त की आत्मा निर्मल हो जाती है। वह जानता है कि कर्मों का कर्ता या भोक्ता स्वयं वही है। अपने उत्थान या पतन का दायित्व उसी पर है इसलिए जैन कवि इसी भक्ति-भावना से. उन जिनेन्द्र प्रभु की आराधना करते हैं, जिन्होंने आत्म-संयम, तप और ध्यान के द्वारा कर्म-बन्धन को नष्ट कर सिद्धावस्था प्राप्त कर ली है। इसी भावना से अनुप्राणित कुछ पदों की झाँकी द्रष्टव्य है। कवि दौलत कहते हैं कि मानव अपने आत्मस्वरूप की विस्मृति के कारण ही संसार में अनेक कष्टों को सहन कर रहा है "अपनी सुधि भूलि आप आप दुख पायो।''( पद० ४१७) जब भक्त अपने उपास्य में अनन्तशक्ति और सामर्थ्य देखता है, तब उसे अपनी असमर्थता का भान होता है, तभी उसका अहंभाव दूर हो जाता है और वह आत्मसमर्पण कर देता है। वह अपने समस्त दोषों को जिनेन्द्र देव के सम्मुख खोल-खोलकर गिनाता है। इस आशय के अनेक पद उक्त रचना में उपलब्ध है। कवि दौलत कहते हैं कि भक्तों के एकमात्र शरण जिनेन्द्र-प्रभु ही है। "जाऊँ कहाँ तजि शरण तिहारे।।" (पद० ३७५) कविवर बुधजन अपने आराध्य के प्रति यह भावना व्यक्त करते हैं कि आप भवोदधि से पार उतारनेवाली नौका है।" "भवोदधि तारक नवका जग माँही।।" (पद० १५०) For Personal & Private Use Only Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८) भक्ति का निखरा हुआ रूप निम्न पदों में दिखलाई पड़ता है। ज्यों-ज्यों भक्त जिनेन्द्र देव की महत्ता और अपनी स्थिति पर विचार करता है, त्यों-त्यों उसे अपनी लघुता का बोध होने लगता है। वह अपने समस्त दोषों को जिनेन्द्र देव के सम्मुख खोलकर रख देता है। इस आशय के अनेक पद उक्त रचना में उपलब्ध है "भजन बिन यों ही जनम गंवायो।" (पद०३) "भला होगा तेरा यों ही जिनगुन पालक।।" (पद० ११) "अब नित नेमिनाथ भज्यों।।" (पद० ४१) आध्यात्मिक पद प्रस्तुत कोटि के पदों में अध्यात्म-तत्त्व की सुन्दर अभिव्यञ्जना हुई है। कवि अपने अन्तस् में आत्मतत्त्व की महत्ता का वर्णन करता है। वह अनुभव करता है कि आत्मा तो अजर, अमर है किन्तु रागद्वेष, मोह, और अज्ञानता अनन्तकाल तक आत्मा को आवागमन के चक्कर में उलझाए रखती है। अत: इस जन्म-मरण के चक्कर से बचने का एकमात्र उपाय है- भेदानुभूति। भेदानुभूति होते ही यह अनुभव हो जाता है कि शरीर और आत्मा अलग-अलग है और उसकी दृष्टि बाह्य-सौन्दर्य की अपेक्षा आन्तरिक-सौन्दर्य पर केन्द्रित हो जाती है। इसी आत्म-भाव का चित्रांकन बड़ी यथार्थता के साथ हिन्दी जैन कवियों ने किया है। सभी कवि आत्म-रसिक थे। उन्होंने आत्मा का विश्लेषण बड़ी भावुकता एवं सरसता के साथ किया है। आत्मा से परिचय हो जाने के पश्चात् कवि बुधजन कह उठते हैं "मैं देखा आतम रामा। रूप फरस रस गन्ध तै न्यारा दरस ज्ञान गुन धामा।" (पद०-३८९) उक्त पद में आत्मिक अनुभूति की अभिव्यक्ति अत्यन्त मार्मिकता के साथ हुई है। कवियों ने रूपकों के माध्यम से अपनी जिस विराट कल्पना का दर्शन कराया, वह भी श्लाघनीय है। "अन्तर उज्ज्वल करना रे भाई। कपट कृपान तजे नहिं तब लौ करती काज न सरना रे।।" (पद० २९४) For Personal & Private Use Only Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९) " म्हांरे घर जिनधुनि ।। " ( पद० १८१ ) "आज मैं परम पदारथ पायो । अष्ट कर्म रिपु जोधा जीते शिव अकूंर जमायो । । " ( पद० १३५ ) कवि दौलतराम भी आत्मा का साक्षात्कार कर आनन्द से भर जाते हैं और उनके मुख से निम्न पंक्तियाँ निकल पड़ती है— "निरखत सुख पायो जिन मुख चन्द । चकवी कुमति विछुर अति बिलखे, आतम सुधा स्त्रवायो ।। " (पद०१३७) आत्मतत्त्व की प्राप्ति में प्रमुख साधन स्वानुभूति है। स्वानुभूति का प्रादुर्भाव होते ही कवि हर्ष के झूले में झूलने लगता है और अपनी अमरता का उद्घोष इस प्रकार करने लगता है " अब हम अमर भए न मरेंगे।" (पद० ४४०) में आध्यात्मिक शान्ति की प्राप्ति के लिए कवि सुखसागर अपने अन्तस् गुनगुनाते हैं । उस कमनीय अनुभूति की अभिव्यक्ति अत्यन्त कोमल - कान्त - पदावलि में निम्न रूप में हुई है "परम रस है मेरे घर में ।। (पद० ४३६) प्रभुभक्ति रूपी अमृत-जल-प्रवाह सारी चेतना का प्रक्षालन कर देता है। वह अपने आराध्य के सन्निकट पहुँचकर उसका सान्निध्य प्राप्त कर शान्ति लाभ करता है— , "आतम जानो रे भाई । जैसी उज्ज्वल आरसी रे, तैसी आतम जोत । " (पद० ४०५ ) तब अन्तस्तल का रस उमड़ पड़ता है और वह अपनी सुध-बुध खोकर पूरी तरह से आत्म-भाव में निमग्न हो जाता है - "हम लागे आतमराम सो । विनासीक पुल की छाया कौन रमै धनवान सो ? (पद० ४०४) रहस्यात्मक-पद एक प्रसिद्ध आलोचक के अनुसार रहस्यवाद आत्मा की उस अन्तर्निहित प्रवृत्ति का प्रकाशन है, जिसमें वह दिव्य और अलौकिक शक्ति से अपना शान्त और निश्छल For Personal & Private Use Only Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०) सम्बन्ध जोड़ती है और यह सम्बन्ध यहाँ तक बढ़ जाता है कि दोनों में कुछ अन्तर नहीं रह जाता। महाकवि बनारसीदास के शब्दों में "रस-स्वाद सुख उपजै, अनुभौ याको नाम । (नाटक समयसार) तात्पर्य है कि रहस्य-भावना एक ऐसा आध्यात्मिक साधन है, जिसके माध्यम से साधक स्वानुभूति पूर्वक आत्म-तत्त्व से परमात्म-तत्त्व में लीन हो जाता है। इसी भावना को अभिव्यक्ति के क्षेत्र में रहस्यवाद कहा जाता है। __"अध्यात्म-पद-पारिजात' में संग्रहीत पद उपर्युक्त भावना से अनुप्राणित हैं। उनमें उच्चकोटि के रहस्यवाद के दर्शन होते हैं। अध्यात्म की चरम सीमा ही रहस्यवाद की जननी है। जैन कवियों ने शाश्वत-पद की प्राप्ति के लिए रहस्यवाद को स्थान दिया है। उनके अनुसार आत्मा अमूर्त सूक्ष्म, ज्ञान-दर्शन और अनन्त गुणों से समृद्ध एवं रहस्यमय है। इसकी उपलब्धि भेदानुभूति द्वारा ही सम्भव है। जैन दर्शन के अनुसार शुद्ध आत्मा ही परमात्मा है। इस आत्मा और परमात्मा की एकता का सुन्दर निरूपण इन पदों में हुआ है। सभी कवि आध्यात्मिक विवेचन करते हुए कहते हैं कि जिस परमात्मा को हम अन्यत्र खोजते हुए भटकते रहते है, वह अन्यत्र नहीं, अपितु, अपने घट में ही विराजमान है। वह रहस्यवाद की पहली अवस्था है। साढ़े तीन हाथ के शरीर रूपी मन्दिर में केवलज्ञान रूपी आत्मा विराजमान है। अत: सभी भ्रमों को छोड़कर इसे सावधानीपूर्वक जानने के प्रयत्न की सलाह दी गई है "देखों भाई आतमदेव विराजै। इसही हूठ हाथ देवल में केवलरूपी राजै।। -(पद०४४५) इस प्रकार द्यानतराय भी अपने घट में परमात्मा का निवास बतलाते हुए उसी की आराधना पर जोर देते हुए कहते हैं कि- “यह ज्ञान का भण्डार है उसकी उपमा किसी अन्य वस्तु से नहीं दी जा सकती। वह अनुपम है। तू उसी को प्राप्त करने का प्रयत्न कर"। यथा"घट में परमात्मा ध्याइये हो, परम धरम धन हेत ।।" (पद० ३०६) आत्मा की यथार्थ अनुभूति हो जाने पर वह उसका विश्लेषण बड़ी ही भावुकता एवं सरसता के साथ करने लगता है For Personal & Private Use Only Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मैं देखा आतम रामा । रूप फरस रस गन्ध तै न्यारा दरस ज्ञान गुण धामा । । (पद० ३८९) (११) रहस्यवाद की दूसरी अवस्था वह है, जब चारों ओर के पर- पदार्थों से अपना ममत्व हटाकर भव्यात्मा केवल शुद्धात्मा के दर्शन कर अपने को कृतकृत्य करना चाहता है। आत्मा के साथ अनन्त काल से लगी हुई कर्म - धूल को ज्ञान रूपी मेघवृष्टि से बहा देना चाहता है। इसी को कवि भूधरदास ने इस प्रकार व्यक्त किया हैनैननि को बान परी दरसन की । 44 जिन मुखचन्द्र चकोर चित्त मुझ ऐसी प्रीति करी । । (पद० ११८) "नैन शान्त छवि देखे दृग । " ( पद० ३४५) रहस्यवाद दो प्रकार का होता है । ( १ ) साधनात्मक रहस्यवाद और (२) भावनात्मक रहस्यवाद । जैन कवियों ने इन पदों में भावनात्मक रहस्यवाद को ही महत्ता देकर उसी का चित्रण किया है। उन्होंने विविध रूपकों के द्वारा आत्मा और परमात्मा की स्थिति को स्पष्ट किया है । कवि दौलतराम ने मन के द्वारा होली खेलने का कितना भावपूर्ण और मनोरम चित्र निम्नलिखित पद्य में उपस्थित किया है, जिसमें आत्मा और परमात्मा मिलकर एक हो जाते हैं 11 " मैरो मन ऐसो खेलत होरी । (पद० ५१५) कविवर बुधजन ने होली के प्रसंग में रहस्यवाद की निराली छटा दर्शायी है। एक ओर हर्षित होकर आत्मा और दूसरी ओर सुबुद्धि रूपी नारी किस प्रकार होली खेलती है उनका अनुपम दृश्य प्रस्तुत पद में देखिए "निजपुर में आज मची होरी | " ( पद० ५०८ ) कविवर बनारसी दास, भूधरदास, द्यानतराय, भागचन्द्र, कुन्जीलाल एवं न्यामत सिंह ने भी रूपकों के द्वारा रहस्यवाद की मर्मानुभूति व्यक्त है रहस्यवाद की तीसरी अवस्था वह है, जिसमें भेद - विज्ञान की अनुभूति होते ही आत्मा अपने शुद्ध रूप में विचरण करने लगती है । मिथ्यात्म-रूपी ग्रीष्म ऋतु समाप्त हो जाती है और सहज आनन्दमय वर्षाऋतु का आगमन हो जाता है। अनुभवरूपी दामिनी अपने प्रकाश से समस्त दिशाओं को प्रकाशित कर देती है, सुमति - सुहागिन हर्षित हो उठती है । साधक का मन विहसित हो जाता है और आनन्दरूप चेतन स्वात्म - सुख में समाधित्थ हो जाता है । कवि कहता है For Personal & Private Use Only Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२) " अब मेरे समकित सावन आयो।" (पद०२१७) रहस्यवाद की चौथी दशा मोक्षलक्ष्मी से वरण होने की स्थिति है उस तक पहुँचने पर आत्मानुभूति के ये स्वर नि:सृत होने लगते हैं "दिवि दीपक लोय बनी।" (पद०५७०) इसप्रकार उपर्युक्त पदों में रहस्यवाद का उत्तम स्वरूप उपलब्ध है। उपदेशप्रद-पद इस श्रेणी के पदों में उपदेश-प्रधान की बहुलता है। इनमें सत्य एवं सात्विक हृदय से कही गई उपदेशप्रद-शिक्षाएँ अत्यन्त प्रभविष्णु हैं। सभी कवि बहुश्रुत होने के साथ अनुभवी भी थे। संसार का उन्हें पूर्ण अनुभव था। इसलिए व्यावहारिक सिद्धान्तों का जो निरूपण उन्होंने किया, उसमें उन्हें अत्यधिक सफलता प्राप्त हुई। सभी कवि गृहस्थ थे और गृहस्थ-जीवन में रहते हुए भी अपनी स्वानुभूति के द्वारा उन्होंने शुद्धात्मा को सम्यक् रीति से जान-परख लिया था और उसे प्राप्त करने के लिए उन्होंने सबसे अधिक बल अहिंसा, आत्मिक-शुद्धि और सरल-जीवन पर बल दिया। अनन्तकाल से यह आत्मा राग-द्वेष, माया-मोह के चंगुल में फँसी हुई है और जनम-मरण के चक्कर लगा रही है। शाश्वत-सुख प्राप्त करने में मिथ्यात्व, कषाय, माया-मोह और राग-द्वेष उसमें अवरोधक का कार्य करते आ रहे हैं। इन्हीं अवरोधकों को दूर करने के लिए उन्होंने मानव को समय-समय पर चेतावनी दी और उनसे बचने के लिए उन्होंने अपनी पद-गीतियों के माध्यम से उपदेश दिए। कवि भूधरदास जी हंस के रूपक द्वारा मन को हितकारी शिक्षा देते हुए कहते हैं कि हे मन रूपी हंस, तू विषय वासना का त्याग कर हृदय रूपी पिंजड़े में भगवान् के चरणों में निवास क्यों नहीं करता? तु संसार रूपी स्त्री का क्यों सेवन कर रहा है? शिव रूपी सरोवर में विचरण क्यों नहीं करता? अब हमारी शिक्षा मान ले, इसी में तेरा कल्याण है "मनहंस हमारी लै शिक्षा हितकारी ।।(पद० २९४) इसीप्रकार कवि महाचन्द्र विषय-भोगों से दूर रहने की चेतावनी देते हुए कहते "मति भोगन राची जी। " (पद० ५२०) For Personal & Private Use Only Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३) इन अभिव्यक्तियों से यह स्पष्ट है कि आन्तरिक वृत्तियों के विश्लेषण में उक्त कवियों को महारत प्राप्त है। अपनी एक-एक आन्तरिक वृत्ति की गणना एवं उनके अवगुणों को दर्शाकर उनसे बचने की चेतावनी सभी ने दी है। मान और मोह दोनों ही मानव-जीवन के शत्रु हैं। जिस प्रकार शराब पीने वाला व्यक्ति अपना अस्तित्व भूलकर ओछी हरकतें करने में लग जाता है, उसी प्रकार मद और मोह के वशीभूत होकर मानव अपने आत्मिक गुणों को पूरी तरह भूल जाता है। इसका सुन्दर विश्लेषण कवि न्यामतसिंह के निम्न पद में किया है "मद मोह की शराब ने आपा भुला दिया।।" (पद० ५६८) कवि का कथन है कि यह मानव-जन्म अत्यन्त दुर्लभ है। इसलिए इसे प्राप्त कर आत्म-कल्याण हेतु प्रभु का भजन कर लेना ही उपयुक्त है। क्योंकि मनुष्य गति ही एक ऐसी गति है, जिसमें शाश्वत-पद की प्राप्ति हो सकती है। प्रभु के गुणों का स्मरण करके अपने अन्तस् के गुणों को उसी माध्यम से प्राप्त किया जा सकता है और उसी से शुद्धात्मा की प्राप्ति सम्भव है__ "प्रभु गुन गाये रे वह औसर फेर न आये रे। (पद०२९७) कवि के अनुसार इस दुर्लभ मानव-शरीर को प्राप्त कर अपने अन्तस् का यदि अवलोकन नहीं किया और नाना आसक्तियों को हृदय से नहीं निकाला, तो इस शरीर को प्राप्त करना निरर्थक है। इसलिए उन्होंने क्रोध, मान आदि विकारी भावों का विश्लेषण करने के लिए मानव को उद्बोधन दिया "रे जिय क्रोध काहे करें। देखि कै अविवेक प्रानी क्यों विवेक न घरे।।" (पद०५९६) प्रज्ज्वलित अग्नि में ईधन डाले जाने के सदृश मानव की तृष्णा भौतिक साधनों की प्राप्ति से उत्तरोत्तर वृद्धि को प्राप्त होती है। इसका मूल कारण अज्ञानता ही है। इसलिए निम्न पद में कुमति को छोड़ने का आग्रह किया गया है "कुमति को छाड़ो भाई हो।"(पद०२३३) एक अन्य पद में कुमति और सुमति का रूपक उपस्थित कर अपने-आप को सम्बोधित किया गया है For Personal & Private Use Only Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४) " न मानत यह जिय निपट अनारी। कुमति कुनारि संग रति मानत, सुमति सुनारि बिसारि।।" (पद०३२४) तथा "मान लो या सिख मोरी झुकै मति भोगन ओरी।।" (पद०३१८) संसार की असारता प्रस्तुत पदों में संसार की असारता का बहुत ही सजीव चित्रण हुआ है। उक्त तथ्य से सम्बन्धित सभी पद मनोहर, सरस और रोचक बन पड़े हैं। संसार की वास्तविकता का चित्रण दृष्टान्तों के माध्यम से इस प्रकार किया गया है कि वस्तु का चित्र मूर्तिमान होकर नेत्रों के समक्ष उपस्थित हो जाता है। उनकी चुभती हुई उक्तियाँ सीधे हृदय में प्रवेश कर जीवन की अस्थिरता, नश्वरता और अपूर्णता का अनुभव कराती है "जगत में कोई नहीं मेरा ।" (पद०५४८) संसार रात्रि के स्वप्न की भाँति क्षणिक है। यह शरीर, यौवन और धन सभी पानी के बुलबुले की तरह क्षण भर में विलीन हो जानेवाले हैं "भगवन्त भजन क्यों भूला रे, यह संसार रैन का सुपना तन धन वारि बबूला रे।।" (पद० ५३४) संसार के सभी रिश्ते-नाते भ्रम-जाल हैं, एक आत्मा ही सत्य है। संसार के खोखलेपन का विश्लेषण करता हुआ कवि कहता है "अरे जिया जग धोखे की टाटी।।" (पद० ३२२) कवि संसार की वास्तविकता से परिचय कराते हुए कहता है __ जीव तू भ्रमत सदैव अकेला।। (पद० २७६) जीवन का शाश्वत सत्य मृत्यु है और मृत्यु सदैव हमारे सिर पर मँडराती रहती है। उसका हौआ हर क्षण सभी को भयभीत करता रहता है अत: प्रत्येक क्षण इससे सतर्क रहकर मानव को आत्म-कल्याण के कार्य करके अपना जन्म सार्थक कर लेना चाहिए। For Personal & Private Use Only Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५) "काल अचानक ही ले जायगा, गाफिल, होकर रहना क्या रे ? छिनको तोडूं नाहीं बचावै, तो सुभटन का रखना क्या रे।।" (पद० ४४६) भैया भगवतीदास ने शरीर को परदेशी का रूपक देकर अपने भावों को जो व्यञ्जना की है, वह अद्भुत है उसमें एक कवि कलाकार की सूक्ष्म आन्तरिक दृष्टि और कुशल सूझ-बूझ विद्यमान है"कहा परदेशी को पतियारो। मनमाने तब चलै पंन्थ को साझ गिने ना सकारो। (पद० ४५९) दार्शनिक-सैद्धान्तिक-पद दार्शनिक और सैद्धान्तिक पदो में दर्शन और सिद्धान्त के तत्त्वों को प्रमुखता दी गई है। जैन-दर्शन में आत्मा को अनादि अनन्त माना गया है। उसे कर्मों के कारण संसार में परिभ्रमण करना पड़ता है। यदि इससे छुटकारा मिल जाये तो शरीर धारण का क्रम समाप्त हो जाता है। इन सन्दर्भो में कवियों द्वारा जीव-पुद्गल, तत्त्व, मोह, राग-द्वेष, अनेकान्त-स्यावाद आदि का निरूपण किया गया है। यद्यपि दार्शनिक-तत्त्वों के निरूपण में विचार और चिन्तन की प्रधानता रहती है, जिससे उक्त विषयक वर्णनों में शुष्कता एवं दुरूहता आ जाती है, किन्तु ये पद कवि-कौशल के कारण शुष्क न रहकर माधुर्य से ओत-प्रोत है। रूपक और उत्प्रेक्षा अंलकारों के सहयोग ने उन्हें रस से सराबोर कर दिया गया है मैं देखा आतम रामा। रूप फरस रस गन्ध तै न्यारा दरसन ज्ञान गुन धामा।। (पद० ३८९) और जब आत्मा को अच्छी तरह से जान लिया जाता है, तब समरसता प्राप्त होती जाती है "हम बैठे अपनी मौन सौ। दिन दस के महिमान जगत जन बोल बिगारै कौन-सौ।" (पद० ४१९) कवि के अन्य पद से जीव के विभिन्न रूपों के सम्बन्धों का वर्णन किया है। यह जीव जिस समय जिस रूप का होता है, उसी रस में लिप्त हो जाता। एक और अनेक, “अस्ति" और "नास्ति' रूप बनने में इसे क्षण भर की देर नहीं लगती, लेकिन इतना सब होते हुए भी इसके वास्तविक स्वरूप में काई अन्तर नहीं आता For Personal & Private Use Only Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१६) "तुम परम पावन देख जिन, अरिरज रहस्य बिनाशनं ।।" (पद०३०) कवि द्यानतराय ने भगवान की मूर्ति का जो चित्र अपने पद में उत्कीर्ण किया है, वह हृदय के बिम्ब-प्रतिबिम्ब-भाव उपस्थित करता है " देखो भाई, श्री जिनराज विराजै।" (पद० ७९) कवि महाचन्द्र शरीर और आत्मा की भिन्नता का दिग्दर्शन कराते हुए कहते हैं "देखो पुद्गल का परिवारा जामें-चेतन है एक न्यारा।।" (पद० २२८) विरहात्मक-पद संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश एवं हिन्दी-साहित्य में विप्रलम्भ-काव्य की एक सुदीर्घ परम्परा रही है। इससे हिन्दी जैन साहित्य भी अछूता नहीं है। पुराणेतिहास-प्रसिद्ध घटना के अनुसार “यदुवंशी श्रीकृष्ण के चचेरे भाई नेमिनाथ विवाह के तोरणद्वार तक पहुँच कर 'पिंजड़े में बन्द पशुओं की पुकार से अत्यन्त द्रवित हो उठे, उसी क्षण अपनी भावी पत्नी राजुल का परित्याग कर वैराग्य धारण कर वे ऊर्जयन्तगिरि पर तपस्या करने चले गये। __ भारतीय इतिहास में यह एकमात्र अनूठी घटना है। इस घटना को आधार बनाकर जैन रचनाकारों ने प्रचुर साहित्य की रचना की, जिनसें बारह-मासा, षड्ऋतुवर्णन, जैसे खण्डकाव्य आदि ग्रन्थों का प्रणयन किया। उनमें वियोग की सभी दशाओं का मार्मिक चित्रण काव्यात्मक शैली में किया गया है। वे रचनाएँ किसी भाँति भी हिन्दी-साहित्य के विरह-काव्य से कम नहीं हैं। इस शैली में कुछ स्फुट पदों की रचना भी हुई है। प्रस्तुत कृति में उक्त विषयक अनेक पद उपलब्ध है, जिनमें राजुल की विरहदशा का पारावार नहीं है। प्रिय विरह में तड़फते-तड़फते वह अन्तत: उन्हीं की साधना में रत होकर, उन्हीं के मार्ग का अनुशरण कर वैराग्य धारण कर लेती है और उसी पथ की पथिक बन जाती है। राजकुमारी राजुल युवराज नेमिनाथ के विरह से संतप्त हो उठती है और कहती है कि कोई जाकर उन्हें समझाता क्यों नहीं? वे विवाह रचाने के लिए आए For Personal & Private Use Only Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१७) थे। उन्हें मूक-पशुओं पर तो दया आ गई और मैं, जो उनके वियोग में तड़प रही हूँ, मेरे आँसुओं पर उनकी करुणा कहाँ चली गई? अब वे मेरे इस विरह-दुख: को दूर करने क्यों नहीं आते? यथा"समझाओ जी आज कोई करुनाधरन आये थे व्याहन काज।।"(पद०२७) राजुल का विरह-ताप इतना तीव्र हो जाता है कि चन्दन, कर्पूर और चन्द्रमा भी उसे शीतलता प्रदान नहीं कर पाते बल्कि उस पर विपरीत प्रभाव छोड़ते हैं। जब तक नेमिप्रभु नहीं मिलेगें, उसका हृदय शीतल नहीं होगा नेमि बिना न रहे मोरा जियरा ।। (पद० ३४) वह सोचती है कि अब मेरे प्रियतम मुझे छोड़कर चले गए, तब मैं भी घर में नहीं रहूँगी। संसार की मर्यादा छोड़कर मैं उन्हें खोनँगी और लेकर आऊँगी नाथ भए ब्रह्मचारी सखी घर में न रहूँगी ।। (पद०२८) और बड़बड़ाती हुई वह सुकुमार राजकुमारी विरह में व्याकुल होकर घर से निकल पड़ती है और जड़-चेतन सभी से पूछती है कि क्या मेरे प्राणाधार नेमिकुमार को कहीं देखा है? मैं उनके वियोग में हल्दी की भाँति पीली हो गई हूँ। विरह रूपी इस प्रबल बेगवती नदी का जल बढ़ता ही जा रहा है और उसमें मैं निराधार होकर बह रही हूँ ___ "देख्यौ री ! कहीं नेमिकुमार ?।।" (पद० ३६) विवश राजुल के हृदय से निकले उसके ये विरहोद्गार अत्यन्त मार्मिक बन पड़े हैं और उसकी विरहदशा सभी को मर्माहत कर देनेवाली है। भाषा उक्त सन्दर्भित पदों की भाषा १७ वी, १८वीं, एवं १९वीं, सदी की खड़ी बोली है जिस पर राजस्थानी, ब्रज एवं उर्दू आदि बोलियों का प्रभाव पाया जाता है। उदाहरणार्थ - राजस्थानी म्हेते, थापर (पद०१२७), वारी (पद०३४२), जाकी (पद०१२९), थानै (पद०३६३),वादी (पद० ३४२), थांका (पद०३६२), उभा (पद०३६३),जिवड़ा (पद०४२५), मोगरा, लोभीड़ा (पद०५२१), ढारी (पद०१२८), आदि। For Personal & Private Use Only Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१८) ब्रज मीता (पद०२१५), डगर (पद०२२५),सो (पद०२२५), केइ, कोटन (पद०४५६), राचि (पद०४१४), संभार (पद०४९४), बलाय (पद०४९६) इत्यादि। उर्दू तलफत (पद०२७), सराय (पद०५८२), गाफिल (पद०५८२) अरबी-फारसी____ सौदा (पद०२७१), मौका (पद०१०१), तसलीम (पद०३५४), उबारो (पद०३५५), साहिब (पद०३४९), अरज (पद०३४९), गोता (पद०५८९) आदि। इसका प्रमुख कारण है कि उनके रचयिताओं का सम्बन्ध उन-उन क्षेत्रों से रहा है जहाँ-जहाँ उक्त बोलियों का प्राबल्य था। अतः भाषा में वहाँ के प्रभाव का आ जाना स्वाभाविक है। तयुगीन जैन कवियों की सबसे बड़ी विशेषता यह रही है कि जिस समय हिन्दी साहित्य में काव्य-रचना केवल ब्रजभाषा में ही हो रही थी, उस समय वे कवि खड़ी बोली में काव्य-रचना कर रहे थे और वह भाषा अपनी शैशवावस्था में न होकर परिष्कृत और परिमार्जित थी। सभी कवि भाषा के पारखी विद्वान् थे। इसलिए इनकी भाषा-प्रभविष्णु, प्राजंल, प्रसादगुण युक्त, लाक्षणिकता एवं चित्रमयता से परिपूर्ण है। वह प्रभावोत्पादक, मनोरम और भावानुगामिनी है। इनकी भाषा संगीत-सौन्दर्य से समन्वित है। उसकी लोच-लचक और हृदयद्रावकता ने उसकी प्रभावोत्पादकता को दुगुना कर दिया है। उसमें रोचकता और चमत्कृत कर देने की शक्ति विद्यमान है। उनका वर्ण-विन्यास भी अत्यन्त आकर्षक है। कोमल वर्णों की आवृत्ति से पदों में श्रुति-माधुर्य उत्पन्न हुआ है और उसने संगीत की झंकार को निनादित कर दिया है, ऐसे वर्ण है- “च" "त" "र" "ल'' "व" आदि का एक उदाहरण यहाँ दृष्टटष्य है "चल सखि देखन नाभिराय घर नाचत हरी नटवा।।" (पद० ४८४) "चन्द्रानन जिन चन्द्रनाथ के चरन चतुर चित ध्यावतु है।।" (पद० १०७) For Personal & Private Use Only Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१९) इसी प्रकार इन पदों की शब्द-योजना भी अद्भुत है, जो अपने शब्द-सौन्द्रर्य से आन्तरिक भावों को अत्यन्त प्रेषणीय बना देने की सामर्थ्य रखती है और जिनसे पाठक भाव-विभोर हुए बिना नहीं रह सकता। "भगवंत भजन क्यो भूला रे । यह संसार रैन का सपना तन धन बारि-बबूला रे।। (पद०५३४) उपयुक्त पद में "३" की आवृत्ति से प्रवाह में तीव्रता आ गई है। कवि ने भाषा के रूप को कुशलता पूर्वक सँवारा है। ग्रहणशीलता और प्रसादगुण इसकी अपनी विशेषता है। वाक्य-गठन एवं पद-योजना भी उक्त पदों में अनूठी बन पड़ी है"पद्मसद्म पद्मा मुक्ति पद्म दरशावन है। कलिमल गंजन मन अलि रंजन मुनिजन शरन सुपावन है।।" (पद०१०५) मुहावरों और लोकोक्तियों के प्रयोग भी भाषा-सौन्दर्य को द्विगुणित करने में सहायक हुए हैं-कथनी बिनु करनी (पद० ५८४), मुँह होय न मीठा (पद०५८४) नैन चकोरा (पद० ५१४), निपट दो अक्षर, (पद०२२१), नींव बिना मन्दिर चुनना (पद०२३८), चन्द्र बिहूनी रजनी (पद०२३८), अन्ध हाथे बटेर आई (पद०४९८), संशय बेलिहरी (पद०१९४), आदि। इस प्रकार हिन्दी जैन साहित्य कई दृष्टियों से अपनी स्वतन्त्र पहिचान बनाये रखने में सक्षम है। उपलब्ध हिन्दी जैन रचनाओं के अध्ययन से यह विदित होता है कि प्राचीन हिन्दी-साहित्य की शायद ही कोई ऐसी विधा हो, जो उसमें उपलब्ध न हो। फिर भी, उसमें काव्यगुणों के अतिरिक्त उसके लोक-कल्याणकारी सन्देश, सार्वजनीनता, सार्वकालिकता एवं सार्वलौकिकता की दृष्टि से अनुपम है। इनका विश्लेषण स्थानाभाव के कारण यहाँ सम्भव नहीं, क्योंकि वह स्वतन्त्र रूप से एक प्रवृत्तिपरक भाषा-वैज्ञानिक, तुलनात्मक, समीक्षात्मक, लाक्षणिक एवं साहित्यिक इतिहास-लेखन का विषय है। इस दृष्टि से दुर्भाग्य से अभी तक उसके लेखन की ओर किसी का ध्यान नहीं गया और इसी कारण हिन्दी जैन साहित्य एवं साहित्यकार अभी तक हिन्दी के क्षेत्र में उपेक्षितावस्था में ही चल रहे हैं और इसके बिना हिन्दी-साहित्य का इतिहास सर्वांगीण नहीं माना जा सकता। For Personal & Private Use Only Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२०) प्रस्तुत संग्रह ग्रन्थ में जिन कवियों की रचनाएँ संग्रहीत हैं, उनका संक्षिप्त परिचय आवश्यक समझकर काल क्रमानुसार यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा हैमहाकवि बनारसी दास महाकवि बनारसीदास हिन्दी जैन-साहित्य में विलक्षण प्रतिभा सम्पन्न कवि माने जाते हैं। साहित्यिक गुण इन्हें अपने पितामह से विरासत में प्राप्त हुए थे। प्रारम्भ में इनकी अभिरुचि शृङ्गार-प्रधान रचनाओं के प्रणयन की ओर रही, किन्तु बाद में उन्होंने अपनी नवरस सम्बन्धी रचना गोमती नदी में प्रवाहित कर दी और वे अध्यात्मवादी कवि बन गए। उनके पदों में कल्पना, अनुभूति भाव एवं भाषा का समुचित समाहार है और वे माधुर्य-रस से ओत-प्रोत हैं। इनकी रचनाएँ इनके समय में ही प्रसिद्धि को प्राप्त हो गई थीं। इनकी प्रमुख रचनाओं में नाममाला, नाटक-समयसार, बनारसी-विलास और अर्द्धकथानक प्रमुख है। नाममाला कवि का १७५ दोहों का सुन्दर शब्दाकोष (Dictionary) है। ___ नाटक-समयसार इनकी अत्यन्त महत्त्वपूर्ण आध्यात्मिक रचना हैं जो आचार्य कुन्दकुन्द कृत समयसार-प्राभृत का हिन्दी पद्य-शैली का भावानुवाद है। बनारसी-विलास में कवि की ५७ फुटकर रचनाएँ संग्रहीत हैं और अर्द्धकथानक में कवि की आत्मकथा वर्णित है, जो कि हिन्दी का आद्य जीवन-चरित माना गया है। प्रस्तुत ग्रन्थ में संग्रहीत कवि कृत पद्यों में अध्यात्म-रस की पिच्छलधारा मन्त्रमुग्ध कर देनेवाली है। हिन्दी-साहित्य में ये सभी रचनाएँ अपना अनूठा स्थान रखती हैं। संस्कृति, इतिहास एवं भाषा शास्त्रीय दृष्टि से इनका अपना विशेष महत्त्व है। जैन-साहित्य में हिन्दी-भाषा का इतना बहुमुखी प्रतिभा सम्पन्न महाकवि दूसरा नहीं हुआ। इनके विषय में सम्पादकाचार्य पं० बनारसी दास चतुर्वेदी का यह कथन मननीय है कविवर बनारसी के आत्म-चरित “अर्ध-कथानक" को आद्योपान्त पढ़ने के बाद हम इस परिणाम पर पहुँचे हैं कि हिन्दी-साहित्य के इतिहास में इस ग्रन्थ का एक विशेष स्थान तो होगा ही साथ ही इसमें वह संजीवनी शक्ति विद्यमान है, जो इसे अभी कई सौ वर्ष जीवित रखने में सर्वथा समर्थ होगी। सत्यप्रियता, स्पष्टवादिता, निरभिमानता और स्वाभाविकता का ऐसा जबर्दस्त पुट इसमें विद्यमान है, भाषा इस पुस्तक की इतनी सरल है और साथ ही यह इतनी संक्षिप्त भी है, For Personal & Private Use Only Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२१) कि साहित्य की चिरस्थायी सम्पत्ति में इसकी गणना अवश्यमेव होगी। हिन्दी का तो यह सर्वप्रथम आत्मचरित है ही, पर अन्य भारतीय भाषाओं में इस प्रकार की और इतनी पुरानी पुस्तक मिलना आसान नहीं और सबसे अधिक आश्चर्य की बात यह है कि कविवर बनारसी दास का दृष्टिकोण आधुनिक आत्म-चरित लेखकों के दृष्टिकोण से बिलकुल मिलता जुलता है।" कवि बनारसी दास का जन्म जौनपुर के एक सम्भ्रान्त परिवार में सम्वत् १६४३ (सन्१५८६ई०) की माघ सुदी ११ को हुआ था। इनके पिता का नाम खड़गसेन था। इनका गोत्र श्रीमाल था। सुगल-सम्राट अकबर, सम्राट जहाँगीर एवं शाहजहाँ के साथ इनके घनिष्ठ सम्बन्ध थे। उनके विषय में अनेक प्रेरक घटनाएँ प्रसिद्ध हैं, जिनका उल्लेख महाकवि ने स्वयं ही अपने अर्धकथानक में किया है। भैया भगवती दास भैया भगवतीदास की समस्त रचनाओं का संग्रह ब्रह्मविलास नाम का गन्थ में किया गया है, जिसमें इनकी ६७ रचनाएँ संग्रहीत हैं। वे अध्यात्मरसिक कवि थे। उन्होंने विविध रूपकों के माध्यम से आत्मतत्त्व का परिचय दिया है। इनकी भाषा प्रवाहपूर्ण प्रांजल, प्रसाद-गुण युक्त एवं भावानुगामिनी है। उसमें उर्दू और गुजराती का पुट भी उपलब्ध होता है। भैया भगवती दास ने अपने पदों में अपने अनेक उपनामों का उल्लेख किया है। जैसे भैया, भविक, दास, भगोतीदास और किशोर आदि। इन्होंने ब्रह्मविलास के अन्त में अपना जो परिचय दिया है, उसी से यह जानकारी मिलती है, कि ये आगरा-निवासी लालजी के पुत्र थे। ये ओसवाल जैन थे। इनका गोत्र कटारिया था। इनके जन्म-सम्वत् या मृत्यु-सम्वत् के सम्बन्ध में कोई निश्चित जानकारी प्राप्त नहीं होती। केवल इनकी रचनाओं में वि० सं० १७३१ से १७५५ तक का उल्लेख उपलब्ध होता है, इससे यह निश्चित हो जाता है कि वे वि० सं० १७३१ से १७५५ (सन् १६७४-१६९८) तक इस नश्वर संसार में अपनी साहित्य-साधना में संलग्न रहे। द्यानतराय द्यानतराय हिन्दी-भाषा के महान् सन्त कवि थे। इनका प्रमुख कार्य काव्य-रचना ही था। इनकी प्राय: सभी रचनाओं का संग्रह “धर्मविलास' के नाम से प्रसिद्ध है, जिसमें छोटे-बड़े ३३३ पद-पूजाएँ एवं ४५ विविध विषयों पर फुटकर रचनाएँ, For Personal & Private Use Only Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२२) संग्रहीत हैं। इनका संकलन स्वयं कवि ने किया है । इनकी रचनाओं में उपदेश - शतक, अक्षर-बावनी एवं आगम - विलास, अध्यात्मनीति एवं भाषा - विज्ञान की दृष्टि से विशेष रूप से अध्ययनीय हैं। कवि का जन्म वि० सं० १७३३ (सन् १६७६) में आगरा में हुआ था। इनके पिता का नाम श्यामदास था । भूधरदास कवि भूधरदास ने अपने जीवन में तीन रचनाओं का प्रणयन किया— (१) पार्श्वपुराण, (२) जैनशतक एवं (३) पद - संग्रह। उनकी ये तीनों रचनाएँ यद्यपि काव्य - गुणों से परिपूर्ण हैं, फिर भी, हिन्दी जैन साहित्य में उक्त पार्श्वपुराण उत्कृष्ट कोटि का चरित-काव्य माना गया है। इसमें २३ वें तीर्थकर "पार्श्वनाथ " का चरित्र वर्णित है। आचार्य हजारीप्रसाद जी द्विवेदी ने प्रस्तुत रचना को हिन्दी साहित्य का उत्कृष्ट कोटि का चरित - काव्य माना है । " जैन - शतक में जैसा उसके नाम से ही स्पष्ट है, इसमें १०७ दोहा, कवित्त, सवैया और छप्पय-छन्दों में नीति सम्बन्धी रचनाएँ समाहित हैं । " पद - संग्रह" में ८० पदों का संकलन है। ये सभी पद आध्यात्मिकता से आप्लावित हैं तथा ससार की यथार्थता से मानव का परिचय कराते हैं । इनके पदों के रूपक एक से एक मार्मिक चित्र - चित्रित करने में समर्थ हैं। कवि भूधरदास आगरा के निवासी थे। इनका जन्म समय अनुमानतः १८वीं सदी का पूर्वार्द्ध माना गया है। कविबुधजन कवि बुधजन की काव्य-प्रतिभा अद्भुत थी। इनकी रचनाएँ वि० सं० १८७१ से १८९५ (सन् १८१४-१८३८) तक की उपलब्ध होती हैं, जिससे उनका समय वि० सं०१८३० से लगभग १८९५ तक (सन् १७७३ - १८३८) माना जा सकता है। ये जयपुर के निवासी खण्डेलवाल जैन थे। इनकी १७ रचनाएँ उपलब्ध हो चुकी हैं। इनमें से ( १ ) तत्त्वार्थबोध (वि०सं० १८७१), (२) बुधजन - सतसई (वि० सं० १८८१), (३) पंचास्तिकाय (वि० सं० १८९१), (४) बुधजन - विलास (वि० सं० १८९२) और ( ५ ) योगसार - भाषा ( वि० सं० १८९५) आदि प्रमुख हैं। इनकी भाषा राजस्थानी और हिन्दी है जिनेन्द्र की महत्ता, For Personal & Private Use Only Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२३) आत्मालोचन और जीवन को उन्नत बनाने वाले अनमोल-सन्देशों से इनकी रचनाएँ परिपूर्ण हैं। कवि दौलतराम पद्मपुराण आदि गन्थों के प्रणेता पं० दौलतराम काशलीवाल से भिन्न तथा उनके परवर्ती कवि दौलतराम (पल्लीवाल) हिन्दी के मूर्धन्य कवि माने गये हैं। इन्होंने अपनी उत्कृष्ट रचनाओं से माँ भारती के भण्डार को अक्षय बनाया है।" "छहढाला” और “पद-संग्रह' ने तो अपनी सार्वजनीनता से कवि को अमरत्व प्रदान कर दिया है। भाषा, भाव और अनुभूति की दृष्टि से ये रचनाएँ हिन्दी की भक्तिपरक रचनाओं में अद्वितीय हैं। इनके माध्यम से कवि ने जैनदर्शन, सिद्धान्त और अध्यात्म की त्रिवेणी प्रवाहित की है। कवि का हिन्दी-भाषा पर पूर्ण अधिकार था। उनकी भाषा में लाक्षणिकता, चित्रमयता एवं शब्दलालित्य सर्वत्र विद्यमान है। उसके साथ ही पदों में संगीत की अवतारणा से उनके आन्तरिक और बाह्य सौन्दर्य को निखारने का सफल प्रयास किया गया है। कवि की स्मरण-शक्ति अत्यन्त विलक्षण थी। ये छीट छापने का कार्य करते थे। अपना व्यवसाय करते हुए भी प्रतिदिन वे १०० श्लोक या गाथाएँ कण्ठस्थ कर लेते थे। पं० दौलतराम जी के छहढाले के पूर्व यद्यपि महाकवि द्यानतराय कृत छहढाला (सन् १७२१) तथा बधुजन कृत छहढाला (सन् १८०२) भी प्रसिद्धि प्राप्त थे। किन्तु पं० दौलतमराम कृत छहढाला (सन् १८३४) के पदलालित्य-सरसता, गेयता एवं सर्वागीणता के कारण उसने सर्वाधिक लोकिप्रियता अर्जित की है। पं० दौलतराम का जन्म वि० सं० १८५५ (सन् १७९८) में हाथरस में हुआ था। इनके पिता का नाम टोडरमल था, जो पल्लीवाल जाति के सिरमौर माने जाते थे। उनका गोत्र गंगीरीवाल था, किन्तु कहीं-कहीं उन्हें फतहपुरिया भी कहा गया है। उनका विवाह अलीगढ़ के सेठ चिन्तामणि बजाज की सुपुत्री से हुआ था। इनके दो पुत्र थे। अपने अन्तिम दिनों में कवि दौलतराम जी दिल्ली रहने लगे थे। इनकी मृत्यु तिथि का पता नहीं चलता। कवि मंगल कवि मंगल ने मानव-जीवन की तीन अवस्थाओं का विर्णन कवि दौलतराम कृत छहढाला की तरह किया है। For Personal & Private Use Only Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२४) "बालपने में खेला खाया यौवन व्याह रचाया। अर्द्धमृतक सम जरा अवस्था यों ही जनम गँवाया।।" (पद० सं० ४५३) मिलान किजिएबालपने में ज्ञान न लहो तरुण समय तरुणीरत रहो। अद्धमृतक सम बूढापनो कैसे रूप लखे आपनों ? ।। (छहढाला १/१४) कवि के चिन्तन के अनुसार यह शरीर धोखे की टाटी है और दर्पण की छाया मात्र है, जिसका पोषण करने हेतु पाँचों इन्द्रियाँ निरन्तर लगी रहती हैं, फिर भी, इनका अन्त मृत्यु ही है, उससे कोई उसे बचा नही सकता। कवि मंगल १८वीं सदी के कवि थे। पद-साहित्य के अतिरिक्त इनकी "कर्मविपाक" नामक हिन्दी रचना भी उपलब्ध है। कवि भागचन्द्र "भाईजी' के नाम से विख्यात कवि भागचन्द्र २०वीं सदी के लब्धप्रतिष्ठ विद्धान् साहित्यकार थे। इनका संस्कृत और हिन्दी भाषा पर समानाधिकार था। साथ ही ये प्राकृत-भाषा के मर्मज्ञ भी थे। इनके अतिरिक्त वे एक छन्दशास्त्री थे। इन्होंने (१) उपदेशसिद्धान्तरत्नमाला (२) प्रमाण-परीक्षा, (३) अमितगति-श्रावकाचार, (४) नेमिनाथपुराण और (५) ज्ञानसूर्योदय-नाटक पर वचनिकाएँ लिखी तथा संस्कृत-भाषा में शिखरिणी छन्दबद्ध “महावीराष्टक-स्तोत्र' की रचना की, जो राष्ट्रिय भावात्मक एकता तथा अखण्डता का प्रतीक है तथा देश एवं विदेश के जैन-समाज का कण्ठहार बना हुआ है। कवि भागचन्द्र ने हिन्दी पद-साहित्य की रचना भी की। वे एक सहृदय कवि के रूप में ख्याति प्राप्त हैं, और यावज्जीवन आत्मचिन्तन में लीन रहे। इनके पदों में रसमग्न बना देने की अद्भुत क्षमता-शक्ति है। साथ ही, है उनमें भौतिकवाद की विगर्हणा और दार्शनिक, सैद्धान्तिक-चिन्तन की प्रधानता। इनकी सभी कृतियाँ वि०सं० १९०७ से वि० सं० १९१३ (सन् १८५०-१८७६) तक लिखी गईं। ये ईसागढ़ (गुना, मध्यप्रदेश ) के रहनेवाले थे। उनकी कर्मभूमियाँ ग्वालियर, मन्दसौर एवं जयपुर रही। कवि भागचन्द्र जीवन भर अर्थसंकटों से जूझते रहे, किन्तु उनसे हार न मानकर वे अपनी साहित्य-साधना एकरस होकर करते रहे। For Personal & Private Use Only Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२५) कवि महाचन्द्र कवि महाचन्द्र ने प्रथम भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम-काल सन् १८५७ ई० (वि० सं० १९१४) में सुगन्धदशमीव्रत-कथा और वि० सं० १९१५ ( सन् १८५८) में “त्रिलोकसार-पूजा' की रचना की। यह इनकी महत्त्वपूर्ण तथा लोकप्रिय रचना मानी गई है। साथ ही इनके द्वारा लिखित “तत्त्वार्थसूत्र” की हिन्दी-टीका भी उपलब्ध है। इन रचनाओं के अतिरिक्त अन्य ५२ भक्तिपरक, शिक्षापद्र एवं आत्मोपदेशपरक हिन्दी-पद सरल एवं सुबोध भाषा-शैली में लिखित है।। ___ वे सीकर (राजस्थान) के रहने वाले थे एवं श्रावको के क्रिया-काण्डों का सफल सम्पादन भी कराते थे। कवयित्री चम्पादेवी १९वीं सदी में चम्पादेवी नाम की प्रसिद्ध कवयित्री हुई, जो सम्भवतः प्रथम जैन हिन्दी-कवियित्री हैं। इन्होंने अपने जीवन की सान्ध्य-वेला में साहित्यिक क्षेत्र में प्रवेश करके १०१ पदों का प्रणयन कर हिन्दी-जगतको एक सुन्दर प्राभृत (उपहार) चम्पाशतक के रूप में प्रदान किया हैं। इन पदों की प्रेरणा-स्रोत उनकी गहन अर्हद् भक्ति है, जैसा कि कवियित्री ने अपने पदों में स्वयं ही लिखा है "मेरी उम्र ६६ वर्ष की है। मुझे असाध्य बीमारी हो गयी है। हाथ-पैर के जोड़ शिथिल हो गए हैं। मैं शरीर की असमर्थता के कारण पृथ्वी पर पड़ी हुई परमात्मा का स्मरण कर रही थी। उन्हीं आर्तस्वर में मैने जिनदेव की विनती की और उस दुख की घड़ी के समय मेरे मुख से स्वयंमेव निकल पड़ा-पड़ी मझधार मेरी नैया और उसी समय संयोगवश एक पद की रचना हो गई। मैने चिन्तन किया कि मेरे मन में जिनेन्द्रदेव के दर्शन की तीव्र अभिलाषा है, वह कैसे पूरी होगी? उसी समय एक आश्चर्य जनक दृश्य दिखलाई पड़ा कि जिनेन्द्रदेव की श्वेत वर्ण की पद्मासन-प्रतिमा मेरे नेत्रों के समक्ष उपस्थित है और उसी समय से मेरे हाथ और पैरों की सन्धियाँ (जोड़) खुलने लगी और मैं धीरे-धीरे स्वस्थ होने लगी। तभी से मेरे अन्तर में भक्ति का उद्रेक हुआ और मैं अर्हद्भक्ति में लीन रहने लगी। भक्ति की तन्मयता में जो शब्द निःसृत हुए, उन्होंने ही पदों का रूप धारण कर लिया।" हिन्दी-जगत में मीरा के पश्चात् यही कवयित्री हुई, जिसके पद भक्ति की तल्लीनता और आध्यात्मिकता के रस से सराबोर हैं। For Personal & Private Use Only Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२६) चम्पादेवी का जन्म सम्वत् १९०० (सन् १८४३) के लगभग अलीगढ़ में हुआ था। उनका विवाह दिल्ली निवासी श्री सुन्दरलाल के साथ हुआ था। उनकी मृत्यु वि० सं० १९७० (सन् १९१३) में हुई। कवि न्यामत सिंह इनका पूरा नाम कवि न्यामत सिंह जैनी था। इन्होंने सन् १९१९ ई० में "भविष्यदत्त-तिलकसुन्दरी' नामक नाटक का प्रणयन किया था। ये अविभाजित पंजाब के हिसार-जिले के रहनेवाले अग्रवाल जैन थे। जैन समाज में इनके थियेट्रिकल गानों की बड़ी धूम थी। इनके पद आध्यात्मिक, सरस, सरल गेय और भावपूर्ण है, तथा उनमें दार्शनिक विचारों का समावेश है। कवि नयनानन्द राजस्थान के नीबागढ़ में सदानन्द नाम के यति रहते थे। जो वैद्यक, ज्योतिष, व्याकरण एवं अरबी, फारसी के विद्वान् थे। वहाँ के राजा ने उनकी विद्वत्ता से प्राभावित होकर उन्हें पद प्रदान किया था। उन्हीं यति सदानन्द के द्वितीय पुत्र उक्त कवि नयनानन्द थे। कवि की माता का नाम लाड़ली था। उनकी दो बहिनें और पाँच भाई थे। उन्होंने अपना कुछ समय नगर काँधली में भी बिताया। कवि नयनानन्द ने हिन्दी पद-रचना के साथ ही “गुणधर-चरित्र' नामक एक क्रान्तिकारी चरित्र-काव्य की रचना भी की, जो ऐतिहासिक दृष्टि से विशेष महत्त्वपूर्ण है। उससे कवि के समय की दिल्ली की राजनैतिक स्थिति का यथार्थ परिचय प्राप्त होता है। उसमें कवि ने सन् १८५७ की गदर का वर्णन किया है एवं अंग्रेजों ने तत्कालीन सम्राट बहादुरशाह जफर तथा उनके दो शाहजादों की कैसी दुर्गति की, इसका भी मार्मिक वर्णन किया गया है। उक्त रचना के अनुसार वि० सं० १९१४ (सन् १८५७) में ईस्ट इण्डिया की ओर से अंग्रेज लोग भारत में राज्य कर रहे थे। दुर्नीति के वशीभूत होकर सेना को धर्म-विमुख करने के लिए अंग्रेजों ने युद्ध छेड़ दिया था। दोनो पक्षों में साढ़े चार मास तक लगातार युद्ध चलता रहा, जिसमें दिल्ली नगरी तहस-नहस हो गई। कम्पनी सरकार की ओर से सम्राट बहादुरशाह जफर को काले पानी की सजा दी गई और उसके दो शाहजादों को गला घोंटकर मार डाला गया। For Personal & Private Use Only Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२७) कवि नयनसुख नयनसुख ने अपने पदों के माध्यम से अध्यात्म एवं भक्ति की सरिता प्रवाहित की। इनके पद मानव को सांसारिक भौतिक चकाचौंध से सावधान करते हैं। काव्यात्मक दृष्टि से भी वे उपादेय हैं। भावों के साथ उनमें प्रकृति के रम्य उपादानों का अनुपम समन्वय है। कवि द्वारा इन पदों का प्रणयन वि० सं० १९१६ (सन् १८५९) में किया गया, जिससे ज्ञात होता है कि कवि १९वीं सदी के मध्य में कभी हुआ था। रायचन्द्र भाई (राजचन्द्र भाई) रायचन्द्र भाई का व्यक्तित्व विलक्षण आकर्षक प्रभावक आदर्श प्रेरक एवं अनोखा था। वे बहुमूल्य रत्नों के जौहरी व्यापारी थे। देश-विदेश में उनकी व्यापारिक कोठियाँ थीं, जहाँ से रत्न का व्यापार होता था। उस कार्य को विधिवत् गरिमापूर्ण तथा अपनी पूर्ण सत्यनिष्ठा के साथ व्यवस्थित रखते हुए भी वे आत्म-संशोघन तथा गहन आत्मचिन्तन में संलग्न रहे। अपनी संयत-साधना एवं एकाग्रता के कारण - वे शतावधानी भी बन सके थे। उनके विराट एवं प्रभावक व्यक्तित्व का पता इसी से चल जाता है कि महात्मा गाँधी जैसी पारखी परीक्षा-प्रधानी व्यक्ति ने अपने तीन गुरुओं में से रायचन्द्र भाई को ही प्रधान गुरु माना और अपनी विश्व प्रसिद्ध “आत्मकथा' में उनके साधनापूर्ण प्रधान व्यक्तितत्व की श्रद्धासमन्वित चर्चा की है। एक स्थान पर गान्धी ने स्वयं लिखा है : "मेरे जीवन पर श्रीमद् राजचन्द्र भाई का ऐसा स्थायी प्रभाव पड़ा है कि . मैं उसका वर्णन नहीं कर सकता। उनके विषय में मेरे गहरे विचार हैं। मैं कितने ही वर्षों से भारत में धार्मिक पुरुष की शोध में हूँ, परन्तु मैने ऐसा धार्मिक पुरुष भारत में अब तक नहीं देखा, जो श्रीमदं राजचन्द्र भाई के साथ प्रतिस्पर्धा में खड़ा हो सकें। उनमें ज्ञान, वैराग्य और भक्ति थी, ढोंग, पक्षपात या राग-द्वेष न थे। उनमें एक ऐसी महती शक्ति थी कि जिसके द्वारा वे प्राप्त हुए प्रसंग का पूर्ण लाभ उठा सकते थे। उनके लेख अग्रज तत्त्व-ज्ञानियों की अपेक्षा भी विचक्षण, भावनामय और आत्मदर्शी हैं। यूरोप के तत्त्व-ज्ञानियों में मैं टालस्टाँय को प्रथम श्रेणी का और रस्किन को दूसरी श्रेणी का विद्वान् समझता हूँ, पर श्रीमद् राजचन्द्र भाई का अनुभव इन दोनों से भी बढ़ा-चढ़ा है।" For Personal & Private Use Only Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२८) रायचन्द्र भाई गुजरात के निवासी थे। अत: उनकी समस्त रचनाएँ गुजराती में लिखी गईं। उनका “आत्म-सिद्धि” नामक आध्यात्मिक ग्रन्थ लोक-प्रसिद्ध है तथा वह जनसामान्य का कण्ठहार बना हुआ है। उनकी डायरी तथा भक्तजनों के लिखे गए शताधिक पत्र भी अध्यात्म-चिन्तकों के लिए अमृत-कलश के समान सिद्ध हुए हैं। रायचन्द्र भाई का कुल जीवन काल ३२ वर्ष (सन् १८६६-१८९८) का रहा किन्तु इस अल्पकाल में भी उन्होंने एक ओर भौतिक जगत की आकाशीय श्रेष्ठता का स्पर्श किया, तो दूसरी ओर अध्यात्म-साधना एवं आत्म-चिन्तन के सुमेरु-शिखर का भी स्पर्श किया। इस विषय में उनके समकालीन “बम्बई समाचार" (दैनिक, ९दिस० १८८६ ई०), "टाइम्स आफ इण्डिया' (दैनिक, २४ जन० १८८७ ई०) तथा "इण्डियन स्पैक्टेटर" (दैनिक, १८ नव० १९०९) के विशेष अग्रलेख पठनीय हैं जिनमें उनके अल्पकाल में ही विकसित विराट व्यक्तितत्व की मुक्तकण्ठ से प्रशंसा की गई। . प्रस्तुत ग्रन्थ में उनके एक पद (सं० ५०३) को संग्रहीत किया गया है, जो आत्मतत्त्व के विषय-विवेचन से सम्बन्धित है और जो उनकी गम्भीर आत्मानुभूति तथा आत्मचिन्तन का प्रभावक उदाहरण है। कवि सुखसागर कवि सुखसागर ने प्रमुखत: जैनदर्शन को अपनी लेखनी का विषय बनाया है। इस प्रसंग में कवि ने कर्म तत्त्व को जड़ मानते हुए कहा है कि - "हे चेतन, तुझे कर्मों से भयभीत होने की कोई आवश्यकता नहीं, क्योंकि ये तो जड़ है और तुम चैतन्य हो, यदि इसे भली-भाँति समझ लिया जाय, तो तुझे कर्म-बन्धन से शीघ्र ही छुटकारा मिल सकता है।" कवि का जन्म स्थान एवं समय अज्ञात है किन्तु अनुमानत: वह २०वीं सदी के मध्यकाल का रहा होगा। कवि जिनेश्वर कवि के अनुसार अष्ट-कर्म जड़ होते हुए भी आत्मा के साथ लगकर उसे चारों गतियों में भटकाने वाले हैं। उनकी चंचलता से मानव बच नहीं सकता। For Personal & Private Use Only Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२९) जिनेन्द्र प्रभु की भक्ति में लीन उनके रूप व सौन्दर्य का वर्णन बड़े भाव-विभोर होकर करता है। कवि जिनेश्वर का समय सम्भवत: २०वीं सदी का मध्यकाल है। कविवर कुंजीलाल मुनि तपस्या से प्रभावित होकर कवि कुंजीलाल अपना रूपक प्रस्तुत करते हुए कहते हैं कि महामुनि वन में अपनी तपस्या में इस प्रकार लीन हैं, कि उन्हें इस तथ्य का भी भान न रहा कि अब फाग का वातावरण उपस्थित हो गया है और "चेतन आत्मा किशोरी रूप में सुमति के साथ होली का खेल खेल रही है।" कवि कुन्जीलाल २०वीं शदी के मध्यकाल में अपनी साहित्य-साधना करते रहे। कवि कुन्दनलाल उक्त कविवर ने प्रस्तुत ग्रन्थ में संग्रहीत अपने पद सं० ५५४ में मानव को शरीर की नश्वरता दर्शाते हुए आत्म-ज्ञान की ओर उन्मुख करने का प्रयास किया है___तन नहीं छूता कोई चेतन निकल जाने के बाद।" इस तथ्य को कवि ने अनेक दृष्टान्तों के द्वारा स्पष्ट करने का प्रयत्न किया है। यथा-" जिस प्रकार निर्जल सरोवर को देखकर हंस वहाँ से पलायन कर जाता है और वृक्ष के पत्ते झड़ जाने पर जिस प्रकार पक्षीगण उसे छोड़कर चले जाते हैं, ठीक उसी प्रकार आत्मा के निकल जाने पर इस शरीर की भी वही दशा होती है। कवि-परिचय अज्ञात है किन्तु वे वर्तमान सदी के मध्यकालीन कवि प्रतीत होते हैं। कवि मक्खनलाल ललितपुर (उत्तरप्रदेश) निवासी पं० मक्खनलाल २०वीं सदी के मध्यवर्ती एक कुशल उपदेशक-कवि एवं संगीतकार के रूप में प्रसिद्ध रहे हैं। उनके द्वारा रचित पद अत्यन्त मार्मिक एवं भक्ति-प्रसूत हैं। कवि के अनुसार मानव-जीवन की इच्छाएँ अनन्त हैं और इन्हीं इच्छाओं को आत्म-सन्तोष के द्वारा सीमित करना For Personal & Private Use Only Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३०) मानव का परमधर्म है और इसी माध्यम से वह आत्म-कल्याण करने में समर्थ हो सकता है। उनका एक पद भाव की दृष्टि से ही नहीं बल्कि भाषा की दृष्टि से भी सन्त कबीर के पद से साम्य रखता है।यथापानी बिच मीन प्यासी मोहि सुन-सुन आवे हाँसी । आतम ज्ञान बिन सब सूना क्या मथुरा क्या काशी । मृग की नाभि माँहि कस्तूरी वन-वन फिरत उदासी ।। (कबीर०) मोहि सुन-सुन आवे हाँसी पानी में मीन प्यासी । ज्यों मृग दौड़ा फिरे वनन में ढूँढे गन्ध वसे निज तन में। कोई अंग भभूत लगावें कोई शिर पर जटा चढ़ावै । कोई चढ़ा गिरनार द्वारिका कोई मथुरा कोई काशी ।। (पद० २३९) कवि चुन्नीलाल___आधुनिक युग के भक्त कवि चुत्रीलाल ने अपने पद (सं० ५५२) में आत्मा के कल्याण को ही सर्वोपरि माना है। उसके अनुसार यह सांसारिक-जीवन जल के बुलबुले के समान क्षणिक है। अत: मानव को चाहिए कि वह आत्म-ज्ञान को प्राप्त करे और अप्रमत्त रहकर आत्म-उद्धार की ओर अग्रसर हो। कवि चुन्नी लाल का समय अज्ञात है। किन्तु वे २०वीं सदी के मध्यकाल के कवि प्रतीत होते हैं। कवि कुमरेश___ कवि कुमरेश का पूरा नाम पं० राजेन्द्र कुमार जैन है। किन्तु वे कवि कुमरेश के उपनाम से अधिक प्रसिद्ध रहे। __ कवि कुमरेश ने आयुर्वेदिक पद्धति की जन-चिकित्सा सेवा से समाज में ख्याति अर्जित की। उन्होंने आयुर्वेदिक कालेज कानपुर से आयुर्वेदाचार्य की उपाधि प्राप्त की थी। कवि कुमरेश ने सन् १९३२ ई० में साहित्य-लेखन कार्यारम्भ किया तथा आध्यात्मिक एवं भक्तिपरक पदों की रचना की। इनके अतिरिक्त भी पौराणिक एवं ऐतिहासिक काव्यों में उनके द्वारा लिखित “अञ्जना” एवं “सम्राट चन्द्रगुप्त" नाम खण्डकाव्य साहित्य जगत में बहुचर्चित रहे। For Personal & Private Use Only Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३१) कवि ने उक्त ग्रन्थ में संग्रहीत अपने एकमात्र पद (सं०५५१) में संसार की अस्थिरता, अनित्यता, नश्वरता और क्षणिकता का दिग्दर्शन करते हुए बतलाया है कि जीवन में मात्र धर्म-साधन ही एक ऐसा शाश्वत सत्य है जो अजर, अमर है और वही प्राणी का उद्धार कर सकता है। कवि कुमरेश का जन्म उत्तरप्रदेश के एटा जिले के विलराम नामक ग्राम में लाला झुन्नीलाल के यहाँ हुआ था। उनकी रचनाओं को ध्यान में रखते हुए उनका जन्म लगभग सन् १९१० ई० के आस-पास रहा होगा। कवि भूरामल कवि भूरामल का राजस्थानी, संस्कृत-प्रकृत और हिन्दी भाषा पर समान अधिकार था। इनके तीन पद प्रस्तुत ग्रन्थ में संग्रहीत हैं, जो खड़ी बोली में रचित है। इन पर राजस्थानी भाषा का प्रभाव भी परिलक्षित होता है। इन्होंने अपने पदों में वीर प्रभु की आराधना की है और अपने उत्थान हेतु उनकी शरण में जाने की सलाह दी है और कहा है कि समस्त विकारी भावों का त्याग कर मनुष्य को चाहिए कि वे वीर प्रभु की भक्ति में लीन होकर आत्म-कल्याण करे। कवि ने अपने पदों में बड़ी ही विनय पूर्वक अपनी निरहंकारिता और दीनता को प्रकट किया है तथा वीर प्रभु की महानता और गुणों का सरस वर्णन किया हैं। कवि का समय वर्तमान सदी का मध्यकाल रहा है। कवि शिवराम कवि शिवराम के पदों का अध्ययन करने से प्रतीत होता है ये अच्छे शायर थे और गज़ल तथा शायरी की शैली में आध्यात्मिक एवं भक्तिपरक पदों की रचना किया करते थे। प्रस्तुत ग्रन्थ में उनके तीन पद संग्रहीत हैं। (पद १८६, ४३८, ५५०) उन्होंने इनमें चेतन को सम्बोधित करते हुए, उपलब्ध मनुष्य-जन्म आत्म-चिन्तन द्वारा सार्थक बना लेने की शिक्षा दी है। यथा - "समझ कर देख ले चेतन जगत बादल की छाया है।" कवि शिवराम २०वीं शताब्दी के मध्यकालीन कवि थे और अविभाजित पंजाब के निवासी थे। वे सम्भवतः प्रज्ञाचक्षु थे। For Personal & Private Use Only Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३२) कवि रामकृष्ण कवि रामकृष्ण ने अपने पद (पद० ४२६) में आत्मा की खोज स्वयं अपने ही हृदय में करने की सलाह दी है। उन्होंने आत्मा को अमर, निरञ्जन, अरूप, अगम और अपार माना है तथा काठ में अग्नि और दूध में घृत के उदाहरण द्वारा उसका स्पष्टीकरण करने का प्रयत्न किया है । कवि रामकृष्ण के बाह्याडम्बर का विरोध करते हुए विवेक पूर्वक तीर्थ, जप, तप, संयम और भेद - विज्ञान के द्वारा आत्मा को पहचान कर मानव को आत्म-कल्याण की ओर प्रवृत्त करने का प्रयत्न किया है। कवि रामकृष्ण का समय अज्ञात है किन्तु अनुमानत: वे २० वीं सदी के मध्यकाल के कवि प्रतीत होते हैं । कवि भंवरलाल - सन्त कवियों के सदृश कवि भंवरलाल ने आत्मा और शरीर की भिन्नता का ज्ञान करानेवाले सतगुरु को श्रेष्ठ माना है । कवि के अनुसार शुद्ध, बुद्ध एवं निर्मल आत्मा ही परमात्मा है। उसके उद्बोधन में भूत, वर्तमान, भविष्य तीनों ही एक साथ झलकने लगते हैं। उक्त कवि भी वर्तमान सदी में मध्यकाल के साधक प्रतीत होते हैं। कवि नाथूराम - कवि के दो पद (सं०५५८, ५५९) प्रस्तुत ग्रन्थ में संग्रहीत है उन्होंने संसार की क्षणिकता और नश्वरता पर अच्छा प्रकाश डाला है। उसके लिए “मधुविन्दु” का दृष्टान्त प्रस्तुत करते हुए मनुष्य की लोलुप - वृत्ति को दर्शाया है, साथ ही उन्होंने सतगुरु की शिक्षा को शिरोधार्य कर मानव को विषय-भोगों का त्याग करने की सलाह दी है। कवि का समय इस सदी का मध्यकाल प्रतीत होता है। कवि बाजूराय बाजूराय एक अध्यात्मवादी सन्त कवि है । उसने धर्म साधना को ही मनुष्य के लिए कल्याणकारी मार्ग बतलाया है और उसे उसकी शरण ग्रहण करने की सलाह दी है। कवि ने आत्मा की अमरता का उद्घोष करते हुए बतलाया है कि यह न तो पानी में डूबती है और न ही अग्नि में जलाए जाने पर जलती है। इसका कल्याण धर्म के द्वारा ही सम्भव है । कवि का समय अनुमानत: वर्तमान सदी का मध्यकाल होना चाहिए । For Personal & Private Use Only Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३३) नन्दब्रह्म ___कवि नन्द ब्रह्म ने अपने संग्रहीत छोटे से पद (सं०२३४) में जैन दर्शन के गूढ़ रहस्य का समावेश करके उसके माध्यम से मानव को कल्याणकारी सन्देश दिया है। इसके अनुसार हृदय के मध्य सिद्धस्वरूपी वह सार वस्तु विद्यमान है जिसे आत्म-ज्ञान के द्वारा प्राप्त किया जा सकता है। कवि ने मन के लिए हाथी का रूपक देकर उसकी निरंकुशता का हृदयग्राही वर्णन किया है और बताया है कि वह हाथी सुमति रूपी संकल को खण्ड-खण्ड कर ज्ञान रूपी महावत को भी पछाड़ देता है और इन्द्रिय रूपी चपलता के वशीभूत होकर स्वच्छन्द डोलता फिरता है। प्रस्तुत ग्रन्थ में संग्रहीत पद सं० ५९१-५९२ में कवि नन्द कहते हैं कि इस मन रूपी मातंग को वैराग्य रूपी स्तम्भ से बाँध कर सावधानी पूर्वक उसे वश में कर लो। जीवन की सार्थकता इसी उद्यम में है। एक अन्य पद में कवि ने मन को सम्बोधित करते हुए स्पष्ट कहा है कि मन तो हमेशा उल्टा चाल से चलता है लेकिन विवेक का पल्ला पकड़कर भेद-ज्ञान के द्वारा विवेकी जीव परमात्म-पद प्राप्त कर सकता है। कवि नन्द का दूसरा नाम नरेन्द्र ब्रह्म भी प्रतीत होता है। इनका समय अज्ञात है। कविवर ज्योति कविवर ज्योति के संग्रहीत चार (पद०सं० ४३६,४३८,४४०,एवं ५५०) पद आत्मतत्त्व की शाश्वतता तथा अध्यात्म की भवना से प्रपूरित हैं। उन्होंने अपने पदों में अन्य जैन हिन्दी कवियों की अपेक्षा विविध प्रकार के उदाहरण देकर आत्मा को अनादि-निधन माना है और बताया है कि आत्मा को किसी भी प्रकार नष्ट नहीं किया जा सकता। उनका यह कथन गीता से पूर्णतया प्रभावित है। यथा नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः। न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः।। २/२३ कवि का समय वर्तमान सदी का मध्यकाल प्रतीत होता है। For Personal & Private Use Only Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयगत पद-सूची १. जिनस्तुति २. जिनदेव दर्शन पूजन ३. जिनवाणी ४. गुरुस्तुति ५. सम्यग्दर्शन ६. सम्यग्ज्ञान ७. सदुपदेश ८. विनय ९. आत्मस्वरूप १०. बारह-भावनाएँ ११. कर्मफल १२. बधाई-गीत १३. उत्तम नरभव १४. होली १५. भोग-विलास १६. संसार-असार १७. सप्त व्यसन १८. मन १९. कषाय २०. भाव (परिणाम) २१. पदानुक्रमणिका पृष्ठसंख्या १-३७ ३८-५० ५०-६२ ६२-७३ ७३-८४ ८४-९० ९०-१२१ १२२-१३७ १३८-१६२ १६२-१६८ १६८-१७५ १७५-१७९ १८०-१८७ १८८-१९३ १९३-१९७ १९७-२१० २११-२१८ २१९-२२४ २२४-२२६ २२७-२२९ १- २४ For Personal & Private Use Only Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ For Personal & Private Use Only Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म-पद- पारिजात For Personal & Private Use Only Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ For Personal & Private Use Only Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनस्तुति (पद १-१०८) (१) राग - अलहिया चन्द जिनेसुर नाथ हमारा, महासेनसुत लगन पियारा' । चन्द.। टेक । सुरपति फनपति नरपति सेवन, मानि महा उत्तम उपगारा' । मुनिजन ध्यान धरत उर' मांही, चिदानन्द पदवी का धारा। चन्द. ॥ १ ॥ चरन शरन 'बुधजन' जे आए, तिन पायो पद सारा । मंगलकारी भवदुखहारी, स्वामी अद्भुत उपमावारा । चन्द. ॥ २ ॥ राग - लहरी अहो ! देखो केवलज्ञानी, ज्ञानी छवि भली या विराजै हो - भली या विराजै हो ॥ अहो ॥ टेक ॥ सुर नर मुनि याकी सेव करत हैं करम हरन के काजै ॥ अहो ॥ १ ॥ परिग्रह रहित प्रतिहार जुत, जग नायकता छाजै हो । दोष बिना गुन सकल सुधारस, दिविधुनि' ° मुखतै गाजे हो। अहो ॥ २ ॥ चितमें चितवत ही छिनमांहीं,१ जन्म - जन्म अघ२ भाजै१३ हो । याकों कबहुँ न विसरो, अपने हित के काजै५ हो। अहो ॥ २ ॥ राग - पूरवी भजन बिन यौँ ही६ जनम गमायो७ ॥ भजन. ॥ टेक ॥ पानी पैल्यां८ पाल न बांधी, फिर पीछे पछतायो ॥ भजन. ॥ १ ॥ १. प्यारा २. उपकारी ३. हृदय में ४. उत्तम पद ५. संसार का दुःख हरने वाले ६. उपमा वाला ७. अच्छी ८. प्रातिहार्य सहित ९. सुशोभित होती है । १०. दिव्य ध्वनि ११. क्षण में १२. पाप १३. भाग जाते हैं १४. भूलो १५. लिए १६. व्यर्थ में १७. खोया १८. पहले। For Personal & Private Use Only Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२) रामा' मोह भये दिन खोवत, आशारे पाश बँधायो । जप तप संजम दान न दीनौं, मानुष जनम हरायो। भजन. ॥ २ ॥ देह सीस जब कांपन लागी, दसन चलाचल थायो । लागी आग बुझावन' कारन, चाहत कूप खुदायो॥ भजन. ॥ ३ ॥ काल अनादि गमायो भ्रमतां, कबहुँ न थिर चित ल्यायो । हरी विजय सुख भरम भुलानो, मृग - तिसना वश धायो । भजन. ॥ ३ ॥ याद प्यारी हो, म्हांनै थांकी याद प्यारी ॥ हो म्हाने.। टेक । मात तात अपने स्वारथ के, तुम हितु पर उपगारी । हो म्हानै. ॥ १ ॥ नगन छवी सुन्दरतां जापै, कोटि काम दुति वारी१२ । जन्म जन्म अबलो कौं, निशिदिन 'बुधजन' जा वलिहारी। हो म्हांनै. ॥ २ ॥ राग कनड़ी निरखै१३ नाभिकुमार जी, मेरे नैन'४ सफल भये ॥निरखै. ॥ टेक ॥ नये नये वर५ मंगल आये, पाई निज रिधिसार ६॥ निरखै. ॥१॥ रूप निहारन७ कारन हरिने,८ कीनी आंख हजार । बैरागी मुनिवर हूं लखिकै, ल्यावत९ हरष अपार ॥ निरखै. ॥ २ ॥ भरम° गयो तत्वारथ पायो, आवत ही दरबार । 'बुधजन' चरन शरन गहि जांचल नहि जाऊं परद्वार' । निरखै. ॥ ३ ॥ राग - टोडी ताल होली की कंचन २ दुति व्यंजन लच्छन जुत, धनुष पांच सौ ऊंची काया२३ ॥ कंचन. ॥ टेक ॥ नाभिराय मरुदेवी के सुत, पद्मासन जिन ध्यान लगाया। ॥कंचन. । ये तिन२४ सुत व्योहार२५ कथन में, निश्चय२६ एक चिदानन्द गाया ॥ १ ॥ अपरस, अवरन, अरस अगंधित, 'बुधजन' जानिसुसीसनवाया ॥वंचन ॥ २ ॥ १. स्त्री २. आशा रूपी जाल ३. खोया ४. हिलने लगे (दांत) ५. बुझाने के लिए ६. घूमते हुए ७. दौड़ा ।८. मुझको ९. आपकी १०. परोपकारी ११. करोड़ १२. न्योछावर १३. देखे १४. नेत्र १५. अच्छे १६. वृद्धि १७. देखने के लिए १८. इन्द्र ने १९. लाते हैं २०. भ्रम २१. दूसरे का घर २२. सोना २३. शरीर २४. उनके पुत्र २५. व्यवहार नय २६. निश्चय नय २७. बिना स्पर्श २८. बिना वर्ण २९. बिना रस ३०. बिना गंध । For Personal & Private Use Only Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३) (७) राग खंमाच सुनियो हो प्रभु आदि - जिनंदा, दुख पावत है बंदा' । सुनियो. ॥ टेक ॥ खोसिरे ज्ञान धन कीनो जिन्दा (?) डारि ठगौरी धंदा। सुनियो. ॥ १ ॥ कर्म दुष्ट मेरे पीछे लाग्यो,' तुम हो कर्म निकंदा । सुनियो. ॥ २ ॥ बुधजन अरज करत है साहिब, काटि कर्म के फन्दा । सुनियो. ॥ ३ ॥ (८) राग - सारंग हम शरन गयो जिन चरन को ॥ हम. ॥ टेक ॥ अब औरन की मान न मेरे, डरहु रह्यो नहि मरन को हम. ॥ १ ॥ भरम १ विनाशन २ तत्व प्रकाशन, भवदधि१३ तारन तरन को । सुरपति नरपति ध्यान धरत वर, करि निश्चय दुख हरन को ॥ हम. ।। २ ।। या प्रसाद ज्ञायक'५ निज मान्यौ, जान्यौ तन जड़६ परन को । निश्चय" सिध सो पै कषायतै, पात्र भयो दुख भरन को ॥ हम. ॥ ३ ॥ प्रभु बिन और नहीं या जगमैं, मेरे हितके करन को । बुधजन की अरदास यही है, हर संकट भव° फिरन को ॥ हम. ॥ ४ ॥ राग - खंमाच छबि जिनराई राजै२१ छै ॥छबि. ॥टेक ॥ तरु अशोकतर सिंहासन पै, बैठे धुनि२२ घन गाजै छै । छबि. ॥ १ ॥ चमर छत्र भामंडल दुति पै, कोटि भानदुति२३ लाजै२४ छ । पुष्पवृष्टि सुर नभतै दुन्दुभि, मधुर मधुर सुर बाजै छै॥ छबि. ॥ २ ॥ सुर नर मुनि मिलि पूजन आवै, निरखत५ मनड़ो२६ छाजै छै । तीन काल उपदेश होत है, भवि बुधजन हित काजै छै ॥ छबि. ॥ ३ ॥ १. जिनेन्द्र २. भक्त ३. छीनकर ४. ठग का काम ५. लगा है ६. नष्ट करने वाले ७. प्रार्थना ८. जाल ९. ग्रहण किया १०. दूसरे की ११. भ्रम १२. नाश करने वाले १३. संसार सागर १४. अच्छी तरह १५. स्वयं ज्ञायक स्वरूप १६. शरीर जड़ स्वरूप १७. निश्चय से सिद्ध १८. कषायों से १९. प्रार्थना २०. संसार भ्रमण २१. सुशोभित होता है २२. मेघ की गर्जना २३. सूर्य की कांति २४. लज्जित होता है २५. देखने से २६. मन । For Personal & Private Use Only Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४) (१०) राग - गारो कान्हरो थांका' गुण गांस्यां' जी आदि जिनंदा ॥ थांका. ॥ टेक ॥ थांका वचन सुण्यां प्रभु मून, म्हारा निज गुण भास्याजी ॥ आदि. ॥ १॥ . म्हांका सुमन कमल में निशिदिन, थांका चरन वसास्यां जी ॥ आदि. ॥ २ ॥ याही मनै लगन लगी छै, सुख छो दुःख नसास्यां जी ॥ आदि. ॥ ३ ॥ बुधजन हरष हिये° अधिकाई शिवपुरवासा१ पास्यां१२ जी ॥ आदि. ॥ ४ ॥ (११) राग - कनड़ी भला होगा, तरो यों ही, जिनगुन पल न भुलाय हो ॥ भला. ॥ टेक ॥ दुःख मेटनसुख दैन सदा ही, नभिकै मन बच काय हो ॥ भला. ॥ १ ॥ शकी५ चक्री६ इन्द्र फनिंद्र सु, बरन करत थकाय हो । केवलज्ञानी त्रिभुवन स्वामी, ताकौं निशिदिन ध्याय हो॥ भला. ॥ २॥ आवागमन सुरहित निरंजन, परमातम जिनराय हो । 'बुधजन' विधितै पूजि चरन जिन, भव भव में सुखदाय हो ॥ भला. ॥३॥ राग - कनड़ी एकतालो त्रिभुवन नाथ हमारो हो, जी ये तो जगत उजियारो। त्रिभुवन. । टेक । परमौदारिक९ देह के मांही, परमातम हितकारौ ॥ त्रिभुवन. ॥ १॥ सहजै ही जगमांहि रह्यो छै,२० दुष्ट मिथ्याल२१ अंधारौ । ताको हरन२२ करन समकित२३ रवि, केवलज्ञान निहारौ २४ ॥ त्रिभुवन. ॥ २ ॥ त्रिविध शुद्ध भवि' इनकौ पूजौ, नाना२६ भक्ति उचारौ । क्रमकाटि२७ बुधजन शिवलै हो, तजि संसार दुखारौ२८ ॥ त्रिभुवन. ॥ ३ ॥ (१३) थांका गुन गास्यांजी जिनजी राज, थांका दरसन” अघ नास्या ॥ थांका. ॥ टेक ॥ १. आपका २. गाऊंगा ३. सुनने से ४. मैंने ५. मेरा ६. प्रकट हो गया ७. हमारा ८. बसाऊंगा ९. नसाऊंगा १०. हृदय में ११.मोक्ष निवास १२. पाऊंगा १३.पार हो १४ नमस्कार करके १५ इन्ट चक्रवर्ती १७ = बिना १८. विधि पूर्वक १९. परम औदारिक शरीर में २०. है २१. मिथ्यात्व २२. दूर करने को २३. सम्यक्त्व रूपी सूर्य २४. देखो २५. भव्य जीव २६. अनेक प्रकार से २७. कर्म काटकर २८. दुःख २९. आपका ३०. गाऊंगा। For Personal & Private Use Only Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५) यां' सरीखा तीनलोक में, और न दूजा भास्या' जी ॥ जिनजी. ॥ १ ॥ अनुभव रसलैं सींचि सींचि कै, भव आलाप बुझास्यां जी । बुधजन को विकलप सब भाग्यौ, अनुक्रमतें शिव पास्यां जी ॥ जिनजी. ॥२॥ (१४) धनि चन्द्रप्रभ देव, ऐसी सुबुधि उपाई६ ॥ धनि. ॥ टेक ॥ जग में कठिन विराग दशा है, सो दरपन लखि तुरत उपाई ॥ धनि. ॥१॥ लौकान्तिक आये ततखिन ही चढ़ि सिविका वन ओर चलाई । भये नगन सब परिग्रह तजिकै नग चम्पातर लौंच २ लगाई ॥ धनि. ॥ २ ॥ महासेन धनिधनि लच्छमना, जिनके तुमसे सुत३ भये सांई ॥ बुधजन बन्दत पाप निकन्दत, ऐसी सुबुधि करो समुझाई ।। धनि. ॥ ३ ॥ (१५) मोहि१४ आपनाकर जान ऋषभ जिन। तेरा हो ॥ मोहि. ॥ टेक ॥ इस भवसागर मांहि फिरत हूं, करम रह्या करि घेरा हो। मोहि. ।। १ ।। तुम सा साहिब" और न मिलिया,६ सह्या भौत" भट" मेरा हो । मोहि.॥ २ ॥ 'बुधजन' अरज करै निशिवासर, राखौ चरननचेरा हो ॥ मोहि. ॥ ३ ॥ (१६) राग - सोरठ एकतालो चंदाप्रभु देव देख्या दुख भाग्यौ ॥ चंदा. टेक ॥ धन्य . दहाड़ो२१ मन्दिर आयौ, भाग अपूरब जाग्यौ ॥ चंदा. ॥ १॥ रह्यो भरम तब गति डोल्यो,२२ जनम-मरन दौं३ दाग्यौ । तुमको देखि अपनपौ देख्यौ, सुख समता रस पाग्यौ ॥ चन्दा. ॥ २ ॥ अब निरभय पद बेग हि पास्यों,२५ हरष हिये यौर लाग्यौ । चरन सेवा करै निरंतर, 'बुधजन' गुन अनुराग्यौ ॥ चंदा. ॥ ३ ॥ (१७) भज जिन चतुर्विंशति नाम ॥ भजि.॥ टेक ।। १. आपके जैसा २. भासित हुआ ३. बुझाऊंगा ४. पाऊंगा ५. सदुद्धि ६. उत्पन्न हुई ७. दर्पण ८. लौकान्तिक जाति के देवता ९. तत्काल १०. पालकी ११. चम्पा वृक्ष के नीचे १२. केशलोंच किये १३. पुत्र १४. मुझको १५. स्वामी, मालिक १६. मिला १७. बहुत १८. कर्म-योद्धाओं का काज १९. प्रार्थना २०. सेवक २१. समय २२. फिरा २३. दोनों २४. जलाया २५. पाऊंगा २६. इस प्रकार । For Personal & Private Use Only Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६) जे भजे ते उतरि भवदधि, लयौ' शिवसुख धाम ॥ भज. ॥ १ ॥ ऋषभ अजित संभव, अभिनंदन अभिराम । सुमति पदम सुपास चंद्रा, पुष्पदंत प्रनाम ॥ भज. ॥२॥ शीत श्रेयान् बासु पूजा, विमल नन्त सुठाम । धर्म शांति जु कुन्थु अरहा, मल्लि राखें माम' ॥ भज. ॥ ३ ॥ मुनिसुव्रत नमि नमिनाथा, पास सन्मति स्वाम राखि निश्चयजपौ बुधजन, पुरै सबकी काम ॥ भज. ॥४॥ (१८) हो जी म्हें निशिदिन ध्यावां ले ले वलहारियां ॥ होजी. ॥ टेक ॥ लोकालोक निहारक स्वामी, दी है नैन हमारिया ॥ होजी. ॥ १ ॥ षट चालीसौं गुनके धारक, दोष अठारह टालियां । 'बुधजन' शरनै आयो थांके, थे शरणागत पालियां । होजी. ॥ २ ॥ राग - कालिंगड़ो आज मनरी १ बनी१२ छै जिनराज ॥ आज. ॥ टेक ॥ थांको१३ ही सुमरन थांको ही पूजन थांको तत्व विचार ॥ आज. ॥ १ ॥ थांके विछुड़े अति दुख पायौ, मोपै५ कह्यो न जाय । अब सनमुख तुम नयनौं निरखे, धन्य मनुष१६ परजाय ॥ आज. ॥ २ ॥ आजहिं पातक नास्यौ८ मेरौ, ऊतरस्यौं भवपार । यह प्रतीत° 'बुधजन' उर आई, लेस्यौं' शिवसुखसार ॥ आज. ॥ ३ ॥ (२०) आयौ जी प्रभु थांपै,२२ करमा २३ पीड़यौ आयौ ॥ आयौ. ॥ टेक ॥ जे देखे तेई करमनि बश, तुम ही करम न सायौ ॥ आयौ. ॥१॥ सहज स्वभाव नीर शीतलको, अगनिकषाय२५ तपायौ । सहे कुलाहल२६ अनतकाल मैं, नरक निगोद डुलायौ ॥ आयौ. ॥ २ ॥ १. प्राप्त किया २. मुझे ३. पूरा करो ४. इच्छा ५. देखने वाला, दिखाई देना ६. छयालीस ४६ ७. टालकर ८. आपकी ९. आप १०. पाला ११. मन की १२. बन आई है १३. आपकी ही १४. बिछुड़ने पर १५. मुझसे १६. मनुष्य पर्याय १७. पाप १८. नष्ट हो गये १९. उतरूंगा २०. विश्वास २१. लूंगा २२. आपके पास २३. कमों का पीड़ित २४. जिन्होंने देखा २५. कषाय रूपी अग्नि २६. कोलाहल (हल्ला)। For Personal & Private Use Only Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुम मुखचंद निहारत ही अब, सब आताप मिटायो । बुधजन हरष भयौ उर ऐसैं, रतन चिन्तामनि पायौ ॥ आयौ. ॥ ३ ॥ (२१) राग - परज महाराज, थां. सारी लाज हमारी, छत्र त्रय धारी । महाराज. ॥ टेक ।। मैं तौ थारी' अद्भुत रीति, निहारी हितकारी ॥ महाराज. ॥१॥ निंदक तौ दुख पावै सहजै, बंदकर ले सुख भारी । असी अपूरव बीतरागता, तुम छवि मांहिं विचारी ॥ महाराज. ॥ २ ॥ राज त्यागिकैं दीक्षा लीनी, परजन प्रीति निवारी । भये तीर्थंकर महिमाजुत अब, संग लिये रिधि सारी ॥महाराज. ॥ ३ ॥ मोह लोभ क्रोधादिक भारे, प्रगट दया के धारी । बुधजन बिनवे चरन कमल कौं, दीजे भक्ति तिहारी। महाराज. ॥ ४ ॥ (२२) श्रीजिनवर पद ध्यानै जो नर श्री जिनवर पद ध्यावें ॥ टेक ॥ तिनकी कर्मकालिमा विनशै, परम ब्रह्म हो जावें । उपल' अग्नि संयोग पाप जिमि, कंचन विमल कहावै । श्रीजिनवर. ॥ १ ॥ चन्द्रोज्ज्वल जस तिनको जग में, पंडित जन नित गावैं । जैसे कमल सुगंध दशो दिश, पवन सहज फैलावै । श्रीजिनवर. ॥ २ ॥ तिनहिं मिलन को मुक्ति सुंदरी चित अभिलाषा ल्यावै । कृषि में तृण जिमि सहज ऊपजै त्यो स्वर्गादिक पायै ॥ श्रीजिनवर. ॥ ३ ॥ जनम जरामृत दावानल ये, भाव सलिल”° बुझावै । 'भागचन्द' कहाँ ताई११ वरनै तिनहिं इन्द्र सिर नावै। श्रीजिनवर. ॥ ४ ॥ (२३) राग - जंगला तुम गुन मनि निधि हौ अरहंत ॥ टेक॥ पार न पावत तुमरो गनपति, चार ज्ञान धरि संत ॥ तुम गुन. ॥१॥ आनकोष सब दोष रहित तुम, अलख अमूर्ति अन्वित ॥ तुम गुन. ॥ २ ॥ १. आपसे २. आपकी ३. बंदना करने वाला ४. परिवार भी ५. विनय करता है ६. कंडे की आग ७. जिस प्रकार ८. खेत में ९. उसी प्रकार १०. पानी से ११. उनको। For Personal & Private Use Only Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८) हरिगन' अरचत तुम पद' वारिज, परमेष्ठी भगवंत ॥ तुम गुन. ॥ ३ ॥ 'भागचंद' के घट' मंदिर में, वसहु सदा जयवंत ॥ तुम गुन. ॥ ४ ॥ (२४) राग-सोरठ स्वामी जी तुम गुन अपरंपार, चन्द्रोज्ज्वल अविकार ॥ टेक ॥ जबै तुम गर्भ मांहि आये, तबै सब सुरगन' मिलि आये । रतन नगरी में बरसाये, अमित अमोघ सुढार ॥ स्वामी जी. ॥ १ ॥ जन्म प्रभु तुमने जब लीना, न्हवन मंदिरपै हरि कीना । भक्त करि सची सहित भीना, बोला जय जयकार ॥ स्वामी जी. ॥ २ ॥ जगत छनभंगुर जब जाना, भये तब नगनवृती बाना । स्तवन लौकांतिकसुर ठाना, त्याग राज को भार ॥ स्वामी जी. ॥ ३ ॥ घातिया प्रकृति जबै नासी, चराचर वस्तु सबै भासी । धर्म की वृष्टि करी खासी, केवल ज्ञान भंडार ॥ स्वामी जी. ॥ ४ ॥ अघाती प्रकृति सु विघयई, मुक्तिकान्ता तब ही पाई । निराकुल आनंद असहाई, तीन लोक सरदार ॥ स्वामी जी. ॥ ५ ॥ पार गनधर हूनहि पावै, कहां लगि° भागचंद गावै । तुम्हारे चरनांबुजर ध्यावै, भवसागर सो तार ॥ स्वामी जी. ॥६॥ (२५) राग-धनाश्री प्रभू थांको२ लखि३ मम चित हरषायो ॥टेक ॥ सुन्दर चिन्तारतन अमोलक, रंक'४ पुरुष जिमि५ पायो॥ प्रभू. ॥ १ ॥ निर्मल रूप भयो अब मेरो, भक्ति नदीजल न्हायो ॥ प्रभू. ॥ २ ॥ भागचंद अब मम करतल'६ में, अविचल शिवथल आयो ॥ प्रभू. ॥ ३ ॥ (२६) राग-मल्हार प्रभू, म्हांकी सुधि, करुना कर लीजे ॥टेक ।। मेरे इक अबलम्बन तुम ही, अब न विलम्ब करीजे ॥ प्रभू. ॥ १ ॥ १. इन्द्र २. चरण-कमल ३. हृदय में ४. जब ५. देवता ६. सुन्दर ७. इन्द्राणी ८. दिगम्बर भेष ९. मोक्षलक्ष्मी १०. कहां तक ११. चनण कमल १२. आपको १३. देखकर १४. गरीब १५. जिसप्रकार १६. हाथ में १७. मेरी। For Personal & Private Use Only Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्य कुदेव तजै तजै सब मैंने, तिनतै निजगुन छीजे ॥ प्रभू. ॥ २ ॥ ‘भागचन्द' तुम शरन लियो है, अब निश्चल पद दीजे ॥ प्रभू, ॥ ३ ॥ . (२७) समझाओजी आज कोई करुनाधरन, आये थे ब्याहिन काज, वे तो भये हैं विरागी पशु दया लख-लख ॥ टेक ॥ विमल चरन पागी, करन बिजय त्यागी, उनने परम ज्ञानानंद चख-चख ॥ समझाओ. ॥ १ ॥ सुभग मुकति नारी, उनहिं लगी प्यारी हमसों नेह । कछु नहिं रख-रख ॥ समझाओ. ॥२॥ वे त्रिभुवन सामी, मदन रहित नामी, उनके अमर पूजे पद नख-नख ॥ समझाओ. ॥३॥ 'भागचन्द' मैं तो तलफत अति जैसे, जलसों तुरत न्यारी जक झख-झख१ ॥ समझाओ. ॥४॥ (२८) राग-दीपचन्दी परज नाथ भये ब्रह्मचारी, सखी घर में न रहूँगा ॥ टेक ॥ पाणिग्रहण२ काज प्रभु आये, सहित समाज अपारी । ततछिन ही वैराग भये हैं, पशु करुना उरधारी ॥ नाथ. ॥१॥ एक सहस्र३ अष्ट लच्छनजुत, वा छवि बलिहारी । ज्ञानानंद मगन निशिवासर, हमरी सुरत विसारी५ ॥ नाथ. ॥ २ ॥ मैं भी जिनदीक्षा धरि हों अब जाकर श्री गिरनारी । 'भागचन्द' इमि६ भनत सखिनसों, उग्रसेन की कुमारी ॥ नाथ. ॥ ३ ॥ (२९) गिरनारी पै ध्यान लगाया, चल सखि नेमिचन्द मुनिराया ॥ टेक ॥ संग भुजंग रंग उन लखि तजि शत्रू अनंग° भगाया । बाल ब्रह्मचारी व्रतधरी, शिवनारी चित लाया गिर. ॥ १ ॥ १. उनसे २. नष्ट होना ३. दयालु, ४. देख-देखकर ५. इन्द्रिय ६. सुन्दर ७. प्रेम ८. कामदेव ९. देवता १०. तड़फते है ११. मछली १२. विवाह १३. १००८ १४. याद १५. भुलादी १६. इस प्रकार १७. कहती है १८. राजुल १९. सर्प २०. कामदेव। For Personal & Private Use Only Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०) मुद्रा नगर मोहनिद्रा बिन नासा दृग मन भाया । आसन धन्य अनन्य बन्य चित, पुष्ट(?) धूल' सम थाया' ॥ गिर. ॥ २ ॥ जाहि पुरन्दर पूजन आये सुन्दर पुण्य उपाया । 'भागचन्द' मम प्राणनाथ सों, और न मोह सुहाया ॥ गिर. ॥ ३ ॥ (३०) गीतिका तुम परम पावन देख जिन, अरि-रज-रहस्य विनाशनं । तुम ज्ञान-दृग-जलवीच त्रिभुवन कमलवत' प्रतिभासनं ॥ आनंद निजज अनंत अन्य, अचिंत संतल परनये । बल अतुल कलित स्वभावतें नहिं, खलित गुन अमिलित थये ॥ १ ॥ सब राग रुष हनि परम श्रवन स्वभाव धन निर्मल दशा । इच्छा रहित भवहित खिरत, वच सुनत ही भुमतम नशा ॥ एकान्त-सहन-सुदहन स्याल्पद, बहन मय निजपर दया । ज़ाके प्रसाद विषाद बिन, मुनिजन सपदि शिवपद लया ॥ २ ॥ भूजन वसन सुमनादिविन तन, ध्यानमय मुद्रा दियै । नासाग्र नयन सुपलक हलयन, तेज लखि खगगन छिपै ॥ पुनि वदन निरखत प्रशमजल, वरखत५ सुहरखत उर धरा । वुधि स्वपर परखत पुन्य आकर, कलि कलिल दुरखतजरा ॥ ३ ॥ इत्यादि वहिरंतर असाधरन, सुविभव निधान जी । इन्द्रादिविंद पदारविंद, अनिंद तुम भगवान जी ॥ मैं चिर दुखी पर चाहते, तुम धर्म नियत न उर धरो । परदेव सेव करी. बहुत, नहिं काज एक तहाँ सरो" ॥४॥ अब भागचन्द्र उदय भयो, मैं शरन आयो तुम तने । इक दीजिये वरदान तुम जस, स्वपद दायक वुध भने । परमाहिं इष्ट, अनिष्ट-मति-तजि, मगन निज गुन में रहों । दृगज्ञान-चर संपूर्ण पाऊं, भागचंद न पर चहों ॥५॥ N १. स्थूल २. हुआ ३. इन्द्र ४. कर्म-धूलि ५. कमल की तरह ६. प्रतिभासित होता है ७. सुंदर ८. पतिल (दुष्ट) ९. अलग हो गये १०. द्वेष, ११. नष्ट करके १२. खिरते हुए १३. एकान्त सिद्धान्त को जलाने वाला स्याद्बाद १४. शीघ्र १५. बरसने से १६. प्रसन्न होता है १७. पर द्रव्यों की चाह से १८. पूरा हुआ १९. पास । For Personal & Private Use Only Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११ ) (३१) राग - दीपचन्दी ईमन (यमन) स्वामीरूप अनूप विसाल, मन मेरे बसा || हरिगन चमरवृन्द ढोरत तहां, उज्जवल जेम' मराल' छत्रत्रय ऊपर राजत पुनि, सहित सुमुक्तामाल ' भागचन्द' ऐसे प्रभुजी को, नावत नित्य त्रिकाल (३२) महाकवि भूधरदास [पद ३२-५४] राग सोरठ टेक ॥ ॥ स्वामी ॥ १ ॥ स्वामी ॥ २ ॥ स्वामी ॥ ३ ॥ लगी लों नाभिनंदनसों ! जपत जेभ चकोर चकई, बन्द भरताको । लगी ॥ १ ॥ जाउ तन धन जाउ जोवन, प्रान जाउ न क्यों । (33) राग-काफी || एक प्रभु की भक्ति मेरे और देव अनेक सेये', ज्ञान खोयो गांठिको, धन रहों ज्यों की त्यों कुछ न पायो हौं करत कुबनिज ज्यों ३ ॥ लगी लों० ॥ पुत्र- मित्र- कलत्र ये सब सगे अपनी गों । नरक कूप उद्धरन श्री जिन, समझ 'भूधर 'यों ॥ ४ ॥ लगी लों. ॥ ॥ ११ सीमंधर स्वामी मैं चरन का चेरा ॥टेक॥ इस संसार असार में कोई, और न रच्छक' मेरा ॥ लख चौरासी जोनिमें मैं, फिरिफिरि कीनो तुम महिमा जानी नहीं प्रभु, देख्या दुःख घनेरा ॥ भाग उदय तैं पाइया अब, कीजे नाथ बेगि दया कर दीजिए मुझे, अविचल थान नाम लिये अध १३ ना कहैं, 'भूधर' चिन्ता क्या रही, ऐसा समरथ साहिब ज्यों ऊगे For Personal & Private Use Only ॥ २ ॥ लगी लों. ॥ । वसेरा ॥ भान १४ तेरा समीधर ॥ १ ॥ फेरा सीमंधर ॥ २॥ निवेरा १२ 1 o ॥ सीमं ॥ ३ ॥ अंधेरा । १. जिस प्रकार २. हंस ३. नवाते हैं ४. जाय ५. सेवा की ६. खोटा व्यापार ७. सेवक ८. रक्षक ९. बार-बार १०. भ्रमण ११. बहुत अधिक १२. निर्णय १३. पाप १४. सूर्य । सीमं ॥ ४ ॥ Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२) (३४) राग-विहागरो नेमि बिन न रहै मेरा जियरा ॥ टेक ॥ हेकरी हेली तपत उर कैसो, लावत क्यों निज हाथ न नियरा । नेमि. ॥१॥ करि करि दूर कपूर कमल दल, लगत करूर कलाधर सियरा ॥ नेमि. . ॥ २ ॥ 'भूधर' के प्रभु नेमि पिया बिन, शीतल होय न राजुल हियरा ॥ नेमि. ॥ ३ ॥ (३५) राग-ख्याल माँ विलंब न लाव पठाव तहाँरी, अँह जगपति पिय प्यारो ॥ टेक ॥ और न मोहि सुहाय कछु अब, दीसै२ जगत अंधारों री ॥ माविलंब ॥ १ ॥ मैं श्री नेमिदिवाकर३ को कब, देखों वदन उजारो । बिन देखें मुरझाय रह्यो है, उरवाकर अरविंद हमारो री। मा विलंब ॥ २ ॥ तन छाया ज्यों संग रहौंगी, वे छांडहिं५ तो छारो । बिन अपराध दंड मोहि दीनो, कहा चलै मेरो चारो६ ॥ मा विलंब०॥ ३ ॥ इह विधि राग उदय राजुल नैं, सह्यो विरह दुख भारो । पीछे ज्ञानभान बल विनश्यो, मोह महातम कागे री। मा विलंब०॥ ४ ॥ पिय के पैंडे८ पैंडो कीनों, देखि अधिर जग सारो । 'भूधर' के प्रभु नेमि पिया सौं, पाल्यौ नेह करारो री ॥ मा विलंब० ॥ ५ ॥ (३६) राग-ख्याल देख्यों री! कहीं नेमिकुमार ॥टेक ॥ नैननि प्यारो नाम हमारो, प्रानजीवन प्रानन आधार ॥ देख्यो.॥ १॥ . पीव विथा बहु पीकी पीरी भई हल्दी२९ उनहार । होऊ हरीर तबही जब भेदौं, श्यामवरन सुंदर भरतार ॥ देख्यो. ॥ २ ॥ विरह नदी असरोल२३ वहै उर, बूढ़त हौं वामै२४ निरधार । 'भूधर' प्रभु पिय खेवटिया विन, समरथ कौन उतारनहार ॥ देख्यो. ॥ ३ ॥ १. जिय (हृदय) २. देख ३. सखी ४. कड़वा ५. चन्द्रमा ६. शीतल ७. हिय (हृदय) ८. राजुल की मां ९. लाओ १०. भेजो ११. वहां १२. दिखता है १३. नेमिरूपी सूर्य १४. हृदय रूपी कमल १५. वे छोड़े तो छोड़ दें १६. वस १७. बहुत अधिक १८. कदमों पर १९. प्रिय व्यथा २०. पीली पीली २१. हल्दी की तरह २२. प्रसन्न २३. लगातार २४. उसमें। For Personal & Private Use Only Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३) (३७) राग-विलावल रटि रसना मेरी रिषभ जिनन्द, सुर-नर जच्छ' चकोरन चन्द ॥ टेक॥ नामी नाभि नृपति के बाल मरुदेवी के कुँवर कृपाल ॥ रटि. ॥१॥ पूज्य प्रजापति पुरुष पुरान, केवल' किरन धरै जगभान ॥ रटि. ॥२॥ नरक. निवारन विरद विख्यात, तारन तइन जगत के लाल ॥ रटि. ॥ ३॥ भूधर भजन किये निरवाह, श्री पद-पदम भँवर हो जाह ॥ रटि ॥ ४ ॥ (३८) राग-गौरी . मेरी जीभ आठौं जाम, जपि जपि ऋषभ जिनिंदजी का नाम ॥ टेक॥ नगर अजुध्या उत्तम ठाम', जनमैं नाभि नृपति के धाम ॥ मेरी. ॥ १ ॥ सहस अठोत्तर अति अभिराम, लसत सुलच्छन लाजतकाम ॥ मेरी. ॥ २ ॥ करि थुति गान थके हरि राम, गनि न सके गनधर गुन ग्राम ॥ मेरी. ॥ ३ ॥ 'भूधर' सार भजन परिनाम, अर सब खेल-खेल के खांम (?) ॥ मेरी. ॥ ४ ॥ (३९) देखो गरबगेली री हेली १ । जादोंपति१२ की नारी ॥ टेक । कहां नेमि नायक निज मुखसौं टहल१३ कहै बड़भागी ।। तहां गुमान कियो मतिहीनी, सुनि उर दौसी५ लागी ॥ देखो. ॥ १ ॥ जाकी चरण धूलिको तरसै, इन्द्रादिक अनुरागी । ता प्रभुको तन-वसन न पीड़े, हा ! हा! परम अभागी॥ देखो. ॥२॥ कोटि जनम अघभंजन जाके, नामतनी बलि जइये । श्री हरिवंश तिलक तिस६ सेवा, भाग्य बिना क्यों पइये ॥ देखो. ॥ ३ ॥ . धनि वह देश धन्य वह धरनी, जग में तीरथ सोई । 'भूधर' के प्रभु नेमि नवल निज, चरन धरै जहाँ बोई१८ ॥ देखो. ॥ ४ ॥ १. यक्ष २. प्रसिद्ध ३. केवलज्ञान ४.पहर ५.स्थान ६.घर ७.कामदेव भी शर्माता है ८.श्रुति ९.खम्भा १०.घमंडी ११.सखी १२.यादव पति १३.सेवा १४.घमंड १५.अग्नि सी १६.उसकी १७.पृथ्वी १८.दोनों। For Personal & Private Use Only Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४) (४०) राग-ख्याल कान्हड़ी एजी मोहि तारिये शान्ति जिनंद ॥ टेक ॥ तारिये-तारिये अधम' उधारिये, तुम करुना के कंद एजी. ॥१॥ हथनापुर जनमैं जग जानें विश्वसेन नृपनंद ॥एजी. ॥२॥ धनि वह माता एरादेवी, जिन जाये जगचंद ॥एजी. ॥३॥ 'भूधर' विनवै दूर करो प्रभु, सेवक के भव द्वंद ॥एजी. ॥४॥ राग-ख्याल अब नित नेमि नाम भजौ ॥ टेक ॥ सच्चा साहिब यह निज जानौ, और अदेव तजौ ॥ अब. ॥१॥ चंचल चित्त चरन थिर राखो, विषयन” वरजौ ॥ अब. ॥ २॥ आनन से गुन गाय निरन्तर, पानन पांय जजौ ॥ अब. ॥ ३ ॥ 'भूधर' जो भवसागर तिरना, भक्ति जहाज सजौ ॥ अब. ॥ ४ ॥ (४२) राग-प्रभाती अजित जिन विनती हमारी मान जी, तुम लागै मेरे प्रानजी ॥ टेक ॥ तुम त्रिभुवन में कलप तरोवर, आस भरों भगवान जी ॥अजित. ॥१॥ वादि अनादि गयो भवभ्रमतै, भयो बहुत कुल कानजी ॥ भाग संजोग मिले अब दीजे, मनवांछित वरदानजी ॥अजित. ॥२॥ ना हम मां- हाथी घोड़ा ना कछु संपति आनजी । 'भूधर' के उर बसो जगतगुर, जबलौ पद निरवानजी ॥अजित. ॥३॥ (४३) राग-ख्याल बरवा 'देखन को आई लाल मैं तो तेरे देखन को आई' यह चाल। म्हें तो थाकी २ आज महिमा जानी ॥ टेक । १.पापी का उद्धार कीजिए २.विनय करता है ३.स्वामी ४.स्थिर ५.रोको ६. मुँह से ७.हाथों से ८.कल्पतरु ९.व्यर्थ १०.दूसरी ११.मैंने तो १२.आपकी । For Personal & Private Use Only Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५) अवलों नहिं उरआनी ॥ म्हें तो. ॥ १॥ काहे को भव वन में भ्रमते, क्यों होते दुखदानी ॥ म्हें तो. ॥ २ ॥ नाम प्रताप तिरे अजंन से, कीचक से अभिमानी ॥ म्हें तो. ॥३॥ ऐसी साख बहुत सुनियत है, जैन पुराण वखानी ॥ म्हें तो. ॥ ४ ॥ 'भूधर' को सेवा वर दीजें, मैं जाचक तुम दानी ॥ म्हें तो. ॥५॥ (४४) राग-विहाग तहां लैं चल री। जहां जादौपति प्यारो ॥ टेक॥ नेमि निशाकर' बिन यह चन्दा तन-मन दहत' सकल री ॥ तहो. ॥ १ ॥ किरन किधौं नाविक-शर तति कै, ज्यों पावक' की झलरी । तारे हैं कि अंगारे सजनी, रजनी राक सदल री। तहां. ॥ २ ॥ इह विधि राजुल राजकुमारी, विरह तपी केवल री । 'भूधर' धन्न शिवासुत वादर, बरसायो समजल री ॥ तहां. ॥३॥ (४५) राग-सोरठ स्वामीजी सांची सरन तुम्हारी ॥ टेक ॥ समरथ शांत सकल गुन पूरे, भयो भरोसो भारी ॥स्वामी. ॥१॥ जनम जरा जग बैरी जीते, टेव भरनं की टारी । हमहूं को अजरामर करियो, भरियो आस हमारी ॥स्वामी. ॥२॥ जनमैं मरै धरै तन फिरि-फिरि सो साहिब संसारी 7 ॥ 'भूधर' पद दालिद क्यों दलि है, जो है आप भिखारी ॥स्वामी. ॥३॥ सवैया (मात्रा ३२) ज्ञान जिहाज'१ बैठि गनधर से, गुनपयोधि२ जिस नाहिं तरे हैं। अमर समूह आनि अवनी३ सौं, घसि-घसि सीस प्रनाम करें हैं । किंधौं ५ भाल कुकरम की रेखा, दूर करन की बुद्धि धरे हैं । १.चन्द्रमा २.जलाता है ३.वाण ४.पंक्ति ५.आग की लपटें ६. पूर्णमासी की रात्रि ७.धन्य ८.काले,श्वेत ९.मुझको ही १०.दारिद्र ११.ज्ञानरूपी जहाज १२.गुणों का समुद्र १३.पृथ्वी पर १४.रगड़ रगड़ कर १५. अथवा १६. खोटे कर्म । For Personal & Private Use Only Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१६) ऐसे आदिनाथ के अहनिस, हाथ जोरि हम पांय परे हैं ॥ (४७) काउसग्गमुद्रा' धरि वन मैं, ठाढ़े रिषभ रिद्धि तजि दीनी । निहचल' अंग मेरु है मानौं, दोऊ भुजा छौर जिन दीनी ॥ फंसे अनंत जंतु जग चहले, दुखी देख करुना चित लीनी । काढ़न काज तिन्हैं समरथ समरथ प्रभु, किधौं बांह ये दीरध कीनी ॥ (४८) करनौं कछु न करनतै कारज, तातै पानि प्रलंब करें हैं। रह्यौ न कछु पांयन तैं पैवो, ताही ते पद नाहिं टरे हैं । निरख चुके नैनन सब यातें नैन नासिका अनी' धरे हैं। कानन कहा सुनै यौं कानन, जोग लीन जिनराज खरे हैं । छप्पय जयौ२ नाभिभूपालबाल, सुकुमाल सुलच्छन । जयौ स्वर्गपाताल पाल, गुनमाल प्रतच्छन३ ॥ . दृग विशाल वर भाल, लाल नख चरन विरज्जहिं। रूप रसाल मराल ६ चाल, सुन्दर लख लज्जहिं ॥ रिपुजालकाल रिसहेश हम, फंसे जन्म-जंवालदह । यातें निकाल बेहाल अति, भो दयाल दुख ढाल यह ॥ (५०) सवैया चितवन वदन अमल चन्द्रोपम, तजि चिन्ता हिय होय अकामी । त्रिभुवन चंद पाप तप चंदन, नमत चरन चंद्रादिक नामी ॥ तिहु जग छई चंद्रिका -कीरति, चिहन चंद्र चिंतत शिवगामी । बन्दी चतुर चकोर चंद्रमा, चन्द्रवरन चंद्रप्रभ स्वामी ॥ १.दिनरात २.कायोत्सर्ग ३.निश्चल ४.छोड़ दी ५.कीचड़ ६.इन्द्रयों से ७.हाथ ८.लम्बा ९.नोंक १०.कानों से ११.जंगल १२.पैदा हुए १३.प्रत्यक्ष १४.आंख १५.विराज रहे हैं १६.हंस १७.कीचड़ १८. देखकर १९.निर्मल २०.चन्द्रमा के समान २७.चांदनी। For Personal & Private Use Only Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१७) (५१) मत्तगयंद (सवैया) शांति जिनेश जयौ जगतेश, हरै अघताप निशेश की नाई३ । सेवत पाय सुरासुरराय, नमै सिरनाय महीतल ताँई ॥ मौलि' लगै मनिनील दिपें, प्रभुके चरनौं झलके वह झाँई । सूंघन पाय-सरोज-सुगंधि, किधौं चलिये अलि पंकति आई ॥ (५२) कवित्त - मनहर शोभित प्रियंग अंग देखें दुख होय भंग,११ लाजत अनंग जैसें दीप भान्भास२ ते ॥ बाल ब्रह्मचारी उग्रसेन की कुमारी जादौ,१३ नाथ से निकारी जन्मकादौ१४ दुखरास५ तें ॥ भीम६ भवकानन मैं आन७ न सहाय स्वामी । अहो नेमी नामी तकि८ आयौ तुम तासतै ।। जैसे कृपाकंद बन जीवन की बंद छोरी ॥ त्यों ही दास को खलास' कीजै भवपास २१ ॥ (५३) ___ छप्पय (सिंहावलोकन) जनम२२ जलधि - जलजान, जान जनहंस - मानसर२३। सरब" इन्द्र मिलि आन,२५ आन जिस धरहिं सीस पर पर उपकारी बान,२६ बान उत्थपइ२७ कुनय गन । मन सरोज वनभान, भान मम मोह तिमिर२८ धन । घन वरन देह दुख-दाह-हर हरखत हेरि मयूर मन । मनमथ-मलंग-हिर पासजिन, जिन बिसरहू छिन-जगतजन ।। १. पापों का ताप (दुख) २. चन्द्रमा ३. तरह ४. चरण ५. मुकुट ६. नीलमणि ७. चमकता है ८. सूंघने के लिए ९. भौरों की पंक्ति १०. सुन्दर ११. नाश १२. सूर्य के प्रकाश से १३. यादव १४. जन्म-कीच १५. दुख की राशि से १६. भयानक १७. अन्य १८. देखकर १९. उसी से २०. मुक्त २१. संसार जाल से २२. जन्म - समुद्र २३. मान सरोवर २४. सभी २५. लाकर २६. आदत २७. नाश करना २८. मोह अन्धकार । For Personal & Private Use Only Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१८) (५४) सवैया (मात्रा ३१) रहौ दूर अंतर की महिमा, बाहिज' गुनवरनन बल कापै । एक हजार आठ लच्छन तन, तेज कोटि रवि-किरनि उथापै२ ॥ सुरपति सहस आंख अंजुलिसौं, रूपामृत पीवत नहिं धापै । तुम बिन कौन समर्थ वीरजिन जगसौं काढ़ि मोख में छापै ॥ महाकवि द्यानतराय (पद ५५-८२) राग - विहागड़ो अब हम नेमिजी की शरन ॥ टेक ॥ और ठौर न मन लगत है, छांड़ि प्रभु के चरन ॥ अब. ॥ १ ॥ सकल' भवि-अघ-दहन वारिद, विरद तारन तरन । इन्द चंद फनिंद ध्यावे, पाय सुख दुख हरन ॥ अब. ॥ २ ॥ भरम -तम-हर-तरनि दीपति, करम गन खयकरन । गनधरादि सुरादि जाके, गुन सकत नहिं वरन ॥ अब. ॥ ३ ॥ जा समान त्रिलोक में हम, सुन्यौ औरन करन । दास 'द्यानत' दयानिधि प्रभु, क्यों तर्जेंगे परन ॥अब. ॥ ४ ॥ राग बिलावल जिन नाम सुमर मन ! बावरे," कहा इत उत भटकै ॥ जिन. ॥ टेक ॥ . विषय प्रगट बिषवेल हैं, इनमें जिन अटकै । जिन नाम. ॥ १ ॥ दुर्लभ नरभव पायकै, नगसों१२ मत पटकै। फिर पीछे पछतायगो, औसर३ जब सटकै ॥ जिन नाम. ॥ २ ॥ एक घरी है सफल जो, प्रभु-गुन-रस गटकै"। कोटि वरण जीयो वृथा, जो थोथा फटकै ॥ जिन नाम. ॥ ३ ॥ 'द्यानत' उत्तम भजन है, लीजै मन रटकै ॥ भव भव के पातक सबै, जै हैं तो कटकै ६ ॥ जिन नाम. ॥ ४ ॥ १. बाहरी २. पराजित को ३. संतुष्ट हो ४. छोड़कर ५. समस्त ६. पाप की जलन ७. बादल ८. भ्रमरूपी अंधकार को दूर करने के लिए सूर्य ९. क्षय करने वाला १०. प्रण ११. बावळा १२. पहाड़ से १३. मौका, अवसर १४. निकल गयेगा १५. पीना १३. कटना। For Personal & Private Use Only Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१९) (५७) राग काफी तू जिनवर स्वामी मेरा, मैं सेवक प्रभु हो तेरा ॥ टेक ॥ तुम सुमरन' बिन मैं बहु कीना, नाना जोनि' बसेरा । भाग उदय तुम दरसन पायो, पाप भज्यो तजि खेरा ॥तू जिनवर. ॥१॥ तुम देवाधिदेव परमेसुर, दीजै दान सबेरा । जो तुम मोख देत नहिं हमको, कहाँ जायँ किंहि डेरा ॥तू जिनवर. ॥२॥ मात तात तूही बड़ भ्राता, तोसों प्रेम घनेरा । द्यानत तार निकार जगततें, फेर न है भवफेरा ॥तू जिनवर. ॥३॥ सुन मन नेमि जी के बैन ॥ टेक॥ कुमति नासन ज्ञान भासन, सुख करन दिन रैन ॥ सुन. ॥ १ ॥ वचन सुनि बहु होंहि चक्री,° बहु लहैं पद मैन । इन्द्र चंद फनिंद पद लै आतम शुद्धन ऐन २ ॥ सुन. ।। २ ।। वैन सुन बहु मुक्त पहुँचे, वचन बिनु एकै न । है अनक्षर रूप अक्षर, सब सभा सुख दैन'३ ॥ सुन. ॥ ३ ॥ प्रगट लोक अलोक सब किय,४ हरिय५ मिथ्या सैन। वचन सरधा करौ 'द्यानत' ज्यों लहौ पद चैन ॥ सुन. ॥ ४ ॥ (५९) चल देखें प्यारी, नेमि नवल व्रतधारी ॥ टेक ॥ राग दोष बिन शोभन मूरति, मुकतिनाथ अविकारी ॥ चल. ॥ १ ॥ क्रोध बिना किम करम विनाशै, यह अचरज मन भारी ॥ चल. ॥ २ ॥ वचन अनक्षर सब जिय समझें, भाषा न्यारी न्यारी । चल. ॥ ३ ॥ चतुरानन सब खलक पिलाकैं, पूरव मुख प्रभुकारी ॥ चल.॥ ४ ॥ केवलज्ञान आदि गुण प्रगटें, नेकु न मान कियारी ॥ चल. ॥५॥ प्रभु की महिमा प्रभु न कहि सकें, हम तुम कौन विचारी ॥ चल ॥ ६ ॥ 'द्यानत' नेमिनाथ बिन आली,२२ कह मो२३कौं को तारी२५ ॥ चल. ॥७॥ १. स्मरण २. योनि ३. भागा ४. गांव (खेड़ा) ५. मोक्ष ६. बहुत अधिक ७. वचन ८. नष्ट करने को ९. दिन रात १०.चक्रवर्ती ११. कामदेव १२. शुद्ध करने का मार्ग १३. सुख देने वाला १४. किया १५. हरण किया १६. सेना १७. कैसे १८. अलग-२ १९. चार मुख २०. संसार २१. जरा भी मान नहीं किया २२. सखी २३. मुझको २४. कौन २५. तारेगा। For Personal & Private Use Only Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २० ) (६०) जिनके हिरदै प्रभुनाम नहीं तिन, नर अवतार लिया न लिया ॥ टेक ॥ दान बिना घट बासकै लोभ मलीन धिया' न धिया । जिनके ॥ १ ॥ मदिरापान कियो घर अन्तर, जल मल सोधि पिया न पिया । आन प्रान के मांस भखेरे तैं करुना भाव हिया न हिया | जिनके ॥ २ ॥ रूपवान गुणखान वानिशुभ, शील विहीन तिया न तिया 1 कीरतवंत मृतक जीवत हैं, अपजसवंत जिया न जिया || जिनके ॥ ३ ॥ धाम मांहि कछु दाम न आये, बहु व्योपार किया न किया । 'द्यानत' एक विवेक किये विन, दान अनेक दिया न दिया । जिनके ॥ ४ ॥ (६१) टेक ॥ प्रभु श्रीपास सहाय ॥ o हमको जाके दरसन देखत जबही, पातक जाय पलाय' ॥ हमको. ॥ १ ॥ जाको इंद फनिंद चक्रधर, वंदै सीस नवाय 1 सोई स्वामी अंतरजामी, भव्यनिको सुखदाय ॥ हमको. ॥ २ ॥ जाके चार घातिया बीते, दोष जुगए विलाय ११ सहित अनन्त चतुष्टय साहब, महिमा कही न जाय ॥ हमको. ॥ ३ ॥ ताकी या बड़ो मिल्यो है हमको, गहि रहिवे मन लाय । “द्यानत” औसर१२ बीत जायगो, फेर न कछु उपाय | हमको. ॥ ४ ॥ (६२) ज्ञानी ज्ञानी ज्ञानी नेमिजी ! तुम ही हो ज्ञानी ॥ टेक ॥ तुम्हीं देव गुरु तुम्हीं हमारे, सकल दरब१३ जानी ॥ तुम समान कोउ देव न देख्या, तीन भवन १४ ज्ञानी ॥ १ ॥ छानी । आप तेरे भव जीवनि तारे ममता नहि ५ ज्ञानी ॥ २ ॥ कामी मानी । आनी कै १६ और देव देव सब रागी द्वेषी तुम हो बीतराग अकषायी, तजि यह संसार दुःख ज्वाला तजि भये 'द्यानत' दास निकास १७ जगत तैं, हम गरीब प्रानी ॥ ज्ञानी ॥ ४ ॥ राजुल रानी ॥ मुकत ॥ ज्ञानी ॥ ३ ॥ थानी । १. वृद्धि २. अन्य प्राणी ३. खाने से ४. ह्रदय ५. स्त्री ६. कीर्तिवान ७. अपयश वाले ८. भाग जाना ९. सिर १०. झुकाकर ११. खो गये १२. अवसर १३. द्रव्य १४. तीन लोक छान लिया १५. ममता नहीं की १६. अथवा १७. निकालकर । For Personal & Private Use Only Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२१) (६३) देख्या मैंने नेमिजी प्यारा ॥ टेक ॥ मूरति ऊपर करौं निछावर तन, धन जीवन' सारा ॥ देख्या. ॥ १ ॥ जाके नख की शोभा आगै कोटि काम छवि डारौ बारा । कोटि संख्य रवि चंद छिपत है, वपु की दुति है अपरंपारा ॥ देख्या. ॥ २ ॥ जिनके वचन सुनै जिन भविजन, तजि गृह मुनिवर को व्रतधारा । जाको जस इन्द्रादिक गावें, पावै सुख नासै दुख भारा ॥ देख्या. ॥ ३ ॥ जाके केवलज्ञान विराजन, लोकालोक प्रकाशन द्वारा । चरन गहे की लाज निवाहो, प्रभु जी 'द्यानत' भगत तुम्हारा ॥ देख्या. ॥ ४॥ (६४) प्रभु मैं किहि विधि थुति करौं तेरी ॥ टेक ॥ गणधर कहत पार नहिं पावै, कहा बुद्धि है मेरी ॥ प्रभु. ॥१॥ शक्र जनम भरि सहस जीभ धरि, तुम जसं होत न पूरा । एक जीभ कैसे गुण गावै, उलू कहै किमि सूरा ॥ प्रभु. ॥ २ ॥ चमर छत्र सिंहासन बरनों, ये गुण तुमतें न्यारे । तुम गुण कहन वचन बल नाहीं, नैन गिनैं किमि तारे ॥ प्रभु. ॥३॥ (६५) भज श्री आदि चरन मन मेरे, दूर होंय भव भव दुख तेरे ॥ टेक ॥ भगति बिना सुख रच न होई, जो ढूंढै तिहुं जग में कोई ॥ भज. ॥ १ ॥ प्रान-पयान-समय दुख भारी, कंठ विर्षे कफ की अधिकारी । तात मात सुत लोग धनेरा,६ तादिन कौन सहाई१८ तेरा ॥ भज. ॥ २ ॥ तू बसि चरण-चरण तुझमाही, एक मेक है दुविधा नाहीं । तातें जीवन सफल कहावै जनम जरामृत पास न आवै ॥ भज. ॥ ३ ॥ अब ही अवसर फिर जम९ धेरै, छांड़ि लरक° बुधि सद गुरु टेरें । 'द्यानत' और जतन१ कोउ नहिं होय तिहुँ जगमांहि ॥ भज. ॥ ४ ॥ १. यौवन २. न्योछावर कर दूं ३. शरीर ४. यश, कीर्ति ५. किस प्रकार ६. स्तुति ७.इन्द्र ८. हजार ९. यश १०. उल्लू ११. सूर्य १२. वचनों में शक्ति १३. नेत्र १४. भक्ति १५. प्राण निकलते समय १६. बहुत १७. उस दिन १८. सहायक १९. यम, मृत्यु २०. लड़कबुद्धि २१. यत्न । For Personal & Private Use Only Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२२) (६६) नेमि नवल देखें चल रही । लहैं मनुष भवको कल' री ॥ टेक ॥ देखनि जात जात दुख तिनको भान यथा तम दल दल री । जिन उरनाम वसत है जिनके, तिनको भय नहिं जल थल री ॥ नेमि. ॥ १ ॥ प्रभु के रूप अनूपम ऊपर, कोट काम कीजे बल री । समोसरन की अद्भुत शोभा, नाचत शक्र सची' रल री ॥ नेमि ॥ २ ॥ भोर उठत पूजन पद प्रभु के पातक भजन सकल टल री । ‘द्यानत’ सरन गहौ' मन ! ताकी, जै हैं भवबंधन गल री ॥ नेमि ॥ ३ ॥ (६७) सखि ! पूजौं मन वच श्री जिनन्द, चित चकोर सुखकरन इंद ॥ टेक ॥ कुमति कुमुदिनी हरनसूर, विघन सघन वन दहन सूर ॥ भवि ॥ १ ॥ पाप उरग' प्रभु नाम मोर, मोह महातम दलन भोर ॥ भव ॥२ ॥ दुख - दालिद - हर अनघ रैन,° 'द्यानत' प्रभु दें परम चैन ॥ भवि ॥ ३ ॥ (६८) फूली वसन्त जहँ आदी सुर शिवपुर गये ॥ टेक ॥ भारतभूप बहत्तर जिनगृह कनकमयी" सब निरमये १२ ॥ फू. ॥ १ ॥ तीन चौबीस रतनमय प्रतिमा, अंग रंग जे जे भये 1 सिद्ध समान सीस सम सबके, अद्भुत शोभा परिनये १३ ॥ २ ॥ वाल आदि आठ कोड़ मुनि सवनि मुकति सह अनुभये ५ तीन अठाई कागनि खग मिल, गावैं गीत नये नये ॥३॥ वसु ६ योजन वसु पैड़ी ( ? ) गंगा, फिरी बहुत सुर । 'द्यानत' सो कैलास नमौं हौं, गुन कापै१७ जा बरनये" ॥४॥ १४ १५ (६९) रे मन भज-भज दीनदयाल ॥ जाके नाम लेत इक छिनमैं, १९ कटैं कोट अघजाल परम ब्रह्म परमेश्वर स्वामी, देखें होत टेक ॥ .२० रे ॥ रे मन. ॥ १ ॥ 1 निहाल ' १. चैन २. दर्शन से ३. सूर्य ४. अंधकार नष्ट करना ५. इन्द्राणी ६. ग्रहण करो ७. उसकी ८. सर्प ९. मयूर १०. रात्रि ११. स्वर्णमयी १२. बनाये १३. प्राप्त की १४. साढ़े तीन १५. अनुभव किया १६. आढ १७. किससे १८. वर्णन करना १९. क्षणभर में २०. पाप समूह २१. धन्य । २१ For Personal & Private Use Only Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२३) सुमरन करत परम सुख पावत, सेवत भाजै काल' ॥रे मन.॥ २ ॥ इन्द्र फनिंद चक्रधर गावै, जाको नाम रसाल । जाकों नाम ज्ञान परगासैं, नाशै मिथ्या जाल ॥रे मन. ॥ ३ ॥ जाके नाम समान नहीं कछु, उरध, मध्य पताल । सोई नाम जपो नित ‘द्यानत', छोड़ि विषय विकराल रे मन. ॥४॥ (७०) मैं नेमिजी का बंदा, मैं साहिब जी का बंदा ॥टेक ॥ नैन चकोर दरस को तरसैं, स्वामी पूरन चंदा ॥ मैं. ॥ १ ॥ छहों दरव में सार बतायो, आतम आनंद बंदा । ताको अनुभव नितप्रति कीजै, नासै सब दुख दंदा ॥ मैं. ॥ २ ॥ देत धरम उपदेश भविक प्रति, इच्छा नाहिं करंदा । राग-दोष-मद-मोह नहीं, नहीं क्रोध-छल छंदा ॥ मैं. ॥ ३ ॥ जाको जस१ कहि सकें न क्योंही २ इंद फनिंद नरिंदा ॥ मैं. ॥ ४ ॥ (७१) अरहंत सुमर मन बावरे ॥ टेक॥ ख्यात लाभ पूजा तजि भाई, अन्तर प्रभु लौ लखरे ॥१॥ नरभव पाय अकारथ खोवै, विषय भोग जुबढावरे । प्राण गये पछितैहै मनवा," छिन छिन छीजै" आवरे९ ॥२॥ जुबती तन धन सुत मित परिजन गज तुरंग२१ रथ चावरे । यह संसार सुपन२२ की माया आंख दिखरावरे ॥ अर.॥ ३ ॥ ध्यान ध्याव रे अब है दावरे२३ नाहीं मंगल गावरे । 'द्यानत' बहुत कहां लौं कहिये, फेर न कहू उपावरे॥ ४ ॥ (७२) बन्दौ नेमि, उदासी मद२५ मारनै कौ ॥ टेक ॥ रजमतसी२६ जिन नारी छाँरी,२७ जाय भये बनवासी ॥१॥ हय गय रथ पायके सब छांड़े तोरी२८ ममता फांसी । - १. यमराज (मृत्यु) २. प्रकट करते हैं ३. भयंकर ४. भक्त ५. पूर्णचन्द्र ६. द्रव्य ७. नष्ट होता है ८. दुख दून्दू ९. करदा १०. छल कपट ११. यश १२. किसी प्रकार भी १३. बावला १४. हृदय १५. व्यर्थ १६. पश्चाताप करेगा १७. मन १८. नष्ट होती है १९. आयु २०. युवति २१. घोड़ा २२. स्वप २३. नौका २४. उपाय २५. घमंड २६. राजुलसी २७. छोड़ी २८. तोड़ी। For Personal & Private Use Only Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२४) पंच महाव्रत दुद्धर धारे राखी प्रजति पचासी ॥ २ ॥ जाके दरसन इगन विराजत नहि वीरज' सुखरासी । जाको बन्दत त्रिभुवन-नायक लोका लोक प्रकासी ॥ ३ ॥ सिद्ध बुद्ध परमारथ राजै, अविचल थान निवासी । 'द्यानत' मन अलि प्रभु-पद-३-पंकज रमत रमत अघजासी ॥४॥ (७३) प्रभु तेरी महिमा किहि मुख गावैं ॥ टेक ॥ गरभ छ मास अगाउ कनक नग (?) सुरपति नगर बनावै ॥१॥ छीर उदधि जल मेरु सिंहासन, मलमल इन्द्र न्हुलावै । दीक्षा समय पालकी बैठो, इन्द्र कहार कहावै ॥ प्रभु. ॥ २॥ समोसरन रिध शान महातम किहि विधि सख' बतावै । आपन जात की बात कहा शिव बात सुनै भवि जावै ॥३॥ पंच कल्यानक थानक स्वामी, जे तुम मन वच ध्यावे। 'द्यानत' तिनकी कौन कथा है, हम देखे सुख पावै ॥ प्रभु ॥ ४ ॥ (७४) प्रभु तेरी महिमा कहिय न जाय ॥ टेक॥ थुति करि सुखी दुखी निंदा तें, तेरै समता भाव ॥ प्रभु. ॥१॥ जो तुम ध्यावै, घिर मन . लावै, सो किंचित् सुख पाय । जो नहिं ध्यावै ताहि करत हो, तीन भवन को राय ॥ प्रभु. ॥ २ ॥ अंजन चोर महा अपराधी, दियो स्वर्ग पहुँचाय । कथानाथ श्रेणिक'३ समदृष्टि कियो नरक दुखदाय ॥ प्रभु.॥ ३ ॥ सेव असेव कहा चलै जिसकी जो तुम करो सु न्याय । 'द्यानत' सेवक गुन गहि लीजै," दोष सबै छिटकाय ॥ प्रभु. ॥ ४ ॥ (७५) प्रभु तुम सुमरन ही में तारे ॥ टेक ॥ सूअर सिंह नौल ६ वानर ने, कहो कौन व्रत धारे ॥ प्रभु. ॥ १॥ १. वीर्य २. भौरा ३. प्रभु के चरण कमल ४. पाप दूर हो जायेंगे ५. सोना ६. क्षीर सागर ७. नहलाता ८. सर्ब, सब ९. कहा नहीं जाता १०. स्तुति ११. कुछ १२. राजा १३. श्रेणिक राजा १४. ग्रहण कर लीजिए १५. छटकाना, हटाना १६. नेवला। For Personal & Private Use Only Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२५) २ ॥ सांप जाप करि सुखद पायो, स्वान श्याल भय जारे । भेक वोक' गज अमर कहाये, दुरमति भाव विदारे भील चोर मातंग गनिका' बहुतनि के दुख टारे चक्री भरत कहा तप कीनौ, लोकालोक निहारे ॥ प्रभु || ३ || उत्तम मध्यम भेद न कीन्हो, आये शरन उवारे । 'द्यानत' राग दोष बिना स्वामी, पाये भाग हमारे ॥ प्रभु ॥ ४ ॥ (७६) भजि ॥ टेक ॥ ॥ १ ॥ श्रीजिननाम अधार सार अगम अतट संसार उदधितैं, कौन उतारे पार ॥ श्रीजन. कोटि जनम पातक कदैं, प्रभु नाम लेत इकबार ॥ ऋद्धि सिद्धि चरनन सौं लागै, आनंद होत अपार ॥ श्रीजिन. ॥ २ ॥ पशुते धन्य धन्य ते पंखी, सफल करें अवतार । नाम बिना धिक मानव को भव, जल है है छार ॥ श्रीजिन. ॥ ३ ॥ नाम समान आन नहिं जग सब, कहत पुकार पुकार । 'द्यानत' नाम तिहू' पन जपि लै, सुरग मुकति दातार ॥ श्रीजिन. 118 11 (७७) भोर भयो भज श्री जिनराज, सफल होहि तेरे सब काज ॥ टेक ॥ धन सम्पत मन वांछित भोग, सब विधि आन' बनै संजोग ॥ भोर ॥ १ ॥ कल्पवृक्ष ताके घर रहै, कामधेनु नित सेवा वहै । पारस चिन्तामनि समुदाय, हितसों आय मिल समुदाय ॥ भोर ॥ २ ॥ दुर्लभ सुलभ्य है जाय, रोग शोक दुख दूर .१० सेवा देव करैं मन लाय, विघन उलट मंगल ठहराय । भोर ॥ ३ ॥ डांयन भूत पिशाच न छलै, राज चोर करे जोर न चलै । जस आदर सौभाग्य प्रकाश, 'द्यानत' सुरग" मुकति पदवास ॥ भोर ॥ ४ ॥ (७८) रे ॥ टेक ॥ लावो बचन मुख ३ भाषौ, अर्थ में चित्त लगावो रे ॥ १ ॥ अजित नाथ सों मन करसता १२ १. बकरा २. वेश्या ३. बिना किनारे का ४. राख हो जायेगा ५. तीनों लोक ६. सबेरा ७ होगा ८. आकर ९. दुर्लभ से सुलभ हो जाता है १०. भाग जाता है ११. स्वर्ग १२. हाथ से ताली बजाना १३. मुँह से बचन बोलो । For Personal & Private Use Only Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२६) E EFFEE ज्ञान दरस सुख बल गुनधारी, अनन्त चतुष्टय ध्यावो रे। अवगाहना' अबाध अमूरस, अगुरु अलघु बतलावो रे ॥ २ ॥ करुनासागर गुन रतनागर जोति उजागर भावो रे । त्रिभुवन नायक भवभय घायक, आनंद दायक गावो रे॥ ३ ॥ परम निरंजन पातक भंजन, भविरंजन ठहरावो रे । 'द्यानत' जैसा साहिब' सेवो, तैसी पदवी पावो रे ॥४॥ (७९) राग - गौरी देखो ! भाई श्री जिनराज विराजै ॥टेक ॥ कंचन मणिमय सिंह पीठ पर, अन्तरीक्ष प्रभु छाजै ॥ देखो. ॥१॥ तीन छत्र त्रिभुवन जस जपै, चौसठि चमर समाजै । वानी जोजन घोर. मोर सुनि, उर अहि पातक भाजै ॥२॥ साढ़े बारह कोड़ दुन्दुभी आदिक बाजे बाजै । वृक्ष अशोक दिपत भामंडल, कोड़ि सूर शशि लाजे ॥ ३ ॥ पहुप वृष्टि जलकन मंद पवन, इन्द्र सेव नित साजै । प्रभु न बुलावै ‘द्यानत' जावै सुर नर पशु निज काजै ॥ ४ ॥ (८०) राग - गौरी अब मोहि तारि लेहु महावीर ॥टेक ॥ सिद्धारथ नंदन जग वंदन, पाप निकन्दन धीर ।।अब. ॥१॥ ज्ञानी ध्यानी दानी जानी, वानी गहर गंभीर । मोक्ष के कारन दोष निवारन, रोष विदारन वीर ॥अब. ॥ २ ॥ आनंद पूरत समता सूरत, चूरत आपद पीर । बालयती दृढ़व्रती समकिती, दुख दावानल नीर ॥अब. ॥॥ गुरु अनन्त भगवन्त अन्त नहि, शशि कपूर हिम हीर। 'द्यानत' एकहु गुन हम पावै, दूर करें भव भीर अब. ॥ ४ ॥ १. ऊंचाई २. मालिक ३. सोना ४. भागते हैं ५. चमकता है ६. पार कर दो ७. पाप नष्ट करने वाले ८. दुख रूपी दावानल को पानी। For Personal & Private Use Only Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२७) (८१) राग - गौरी जय-जय नेमिनाथ परमेश्वर ॥टेक ॥ उत्तम पुरुषनिको अति दुर्लभ, बाल शील धरनेश्वर ॥जय. ॥ १ ॥ नारायन बहु भूप सेव करें, जय अघ तिमिर दिनेश्वर । तुम जस महिमा हम कहा जाने, भाखि' न सकत सुरेश्वर ॥२॥ इन्द्र सवै मिलि पूजैं ध्यावै जय भ्रम तपत निशेश्वर । गुण अनन्त हम अन्त न पावें, वरन न सकत गनेश्वर ॥३॥ गणधर सकल करै थुति ठा, जय भव जल पोतेश्वर । द्यानत हम छदमस्थ कहा कहैं, कह न सकत सखेश्वर ॥ ४ ॥ (८२) राग - गौरी आदिनाथ तारन तरनं ॥टेक ॥ नाभिराय मरुदेवी नंदन, जनम अजोध्या अघ हरनं ॥१॥ कलपवृच्छ गये जुगल दुखित भये, करम भूमि विधि सुख करनं। अपछर नृत्य मृत्यु लखि चेते, भव तन भोग जोग धरनं ॥ २ ॥ कायोत्सर्ग छमास धर्यो दिढ़, वन खग मृग पूजत चरनं । धीरज धारी बरस अलारी, सहस बरस तप आचरनं ॥ ३ ॥ करम नासि परगासि ज्ञान को, सुखति कियो समोसरनं । सब जन सुख दे शिवपुर पहुँचे, ‘द्यानत' भवि तुम पद शरनं ॥ ४ ॥ कवि जिनेश्वरदास (८३) राग - कसूमी बंदौ जगतपती नामा, तीर्थेश्वर महाराज ॥टेक ॥ तिनके गर्भते पहिले बरसे, रतन बहुभांत ॥ बेदौ. ॥१॥ जिनके जनम की महिमा, गावै सुरगण नार ॥बंदौ. ॥ २ ॥ जिनजी जगत से उदासी, चारी न लीनो संगकाज ॥बंदौ. ॥ ३ ॥ १. बोलना २. जहाज के स्वामी ३. पति-पत्नी (जोड़ा) ४. अप्सरा ५. प्रकाशित करना ६. प्रसिद्ध ७. चलने वाला। For Personal & Private Use Only Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२८) घाति चतुक अरि चूरे, प्रभु ने पायो शिवथान ॥बंदौ. ॥ ४ ॥ जगमें भविक प्रतिबोध, उत्तम पायो शिवथान ॥बंदौ. ॥ ५ ॥ अरजी जिनेश्वर ये ही मोकों दीज्यों निर्भय थान ॥ ६ ॥ महाकवि दौलत राम (पद-८४-९६) बन्दौ अद्भुत चन्द्र वीर जिन, भवि चकोर चितहारी ।। बंदौ. ॥ टेक ॥ सिद्धारथ नृप कुल नभ-मंडन, खंडन भ्रमतम भारी । परमानंद जलधि विस्तारन, पाप ताप छयकारी ॥ बंदौ. ॥१॥ उदित निरंतर त्रिभुवन अन्तर, कीरति किरन पसारी ।। दोष मलंक कलंक अटंकित, मोह राहु निखारी ॥ बंदौ. ॥ २ ॥ कर्मावरन-पयोद अरोधित, बोधित शिवमगचारी । गणधरादि मुनि उडुगन सेवत, नित पूनम° विधिधारी ॥ ३ ॥ अखिल अलोकाकाश-उलंघन, जासु ज्ञान उजियारी । दौलत मनसा-कुमुदनि मोदन, २जयों चरम-जगतारी ॥ बंदौ. ॥४॥ जय श्री ऋषभ जिनेन्द्रा । नाश तौ करो स्वामी मेरे दुखदंदा३ । मातु मरुदेवी प्यारे पिता नाभि के दुलारे, वंश तो इख्वाक' जैसे नभबीच चंदा ॥जय श्री. ॥१॥ कनक वरन तन मोहित भविक जन, रवि शशि कोटि लाजै,५ लाजै मकरन्दा ६ ॥२॥ दोष तौ अठारा नासे गुन छियालीस मासे, अष्टकर्म काट स्वामी भये निरफंदा ॥जय श्री. ॥ ३ ॥ चार ज्ञानधारी गनी, पार नाहिं पावै मुनी, दौलत नमत सुख चाहत अमंदा ॥जय श्री.॥ ४ ॥ १. चार घातिया कर्म नष्ट किये २. उपदेश दिया ३. वीर प्रभुरूपी चन्द्रमा ४. भव्यरूपी चकोर ५. आकाश को सुशोभित करने वाले ६. भ्रमरूपी अंधकार ७. फैलाया ८. बादल ९. नक्षत्र १०. पूर्णमासी ११. मन से १२. आनंद देने वाला १३. दुख; द्वन्द्व १४. इक्ष्वाकु १५. लज्जित होते हैं १६. कामदेव १७. संसार जाल से मुक्त हो गये १८. बहुत अधिक। For Personal & Private Use Only Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२९) (८६) भविन-सरोरुह सूर भूरि गुन पूरित अरहंता । दुरित दोष मोख पथघोषक, करन कर्म अन्ता ॥ भविन. ॥टेक ॥ दर्श बोधः युगपत लखि, जाने जु भाव अनन्ता । विगताकुल जुत सुख अनन्त बिना, अन्तशक्ति वन्ता ॥ भविन. ॥ १ ॥ जा तनजोत उदोत थकी रवि, शशिदुति लाजन्ता । तेज थोक अवलोक लगत है, फोक सचीकन्ता ॥ भविन. ॥ २ ॥ जास अनूप रूप को निरखत, हरखत° है सन्ता" । जाकी धुनि सुनि मुनि निजगुनमुन, परगर उगलंता ॥भविन. ॥ ३ ॥ दौल तौल बिन जस तस वनरत, गुरु गुरु अकलंता। नामाक्षर सुन कान स्वान से, रांक'३ नाक गंता ॥ भविन. ॥४॥ (८७) हमारी वीर हरो भवपीर ॥ हमारी. ॥टेक ॥ मैं दुख तपित दयामृतसर" तुम लखि आयो तुम तीर। तुम परमेश मोख मग दर्शक, मोह दवानल नीर ॥हमारी.॥ १ ॥ तुम बिन' हेत जगत हितकारी शुद्ध चिदानंद धीर । गनपति ज्ञान समुद्र न लंघे तुम गुन सिंधु गहीर ॥ हमारी. ॥२॥ याद नहीं मैं, विपति सही जो, घर घर अमित शरीर । तुम गुन चिंतत नशत तथा भय, ज्यो घन चलत समीर ॥हमारी. ॥ ३ ॥ कोटवार की अरज यही है, मैं दुख सहूं अधीर । हरहु वेदना फन्द दौलको, कतर२° कर्म जंजीर ॥ हमारी. ॥ ४ ॥ (८८) हे जिन मेरी, ऐसी बुधि२१ कीजै ॥हे जिन. ॥टेक ॥ राग द्वेष दावानलतें बचि,२२ समतारस में भीजै ॥हे जिन. ॥ १॥ परकों त्याग अपनपो निजमें, लाग न कबहूं छीजै२२ ॥ हे जिन. ॥ २ ॥ १. भव्य रूपी कमलों के सूर्य २. अनेक गुणों से भरे हुये ३. नष्ट करके ४. मोक्ष ५. दर्शन और ज्ञान से ६. आकुलता रहित ७. अनन्त शक्ति यक्त ८. लज्जित होती है ९. फीका १०. प्रसन्न होता है. हर्षित होता है ११. सन्त पुरुष १२. दूसरों के लिए उगलना (बोलना) १३. गरीब रंक १४. स्वर्ग गये १५. दया रूपी अमृत के तालाब १६. समीप १७. अकारण १८. गंभीर १९. अपरिमित, अगणित २०. काटकर २१. बुद्धि २२. बच कर २३. नष्ट होता है। For Personal & Private Use Only Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३०) कर्मफलमांहि न राचे,' ज्ञान सुधा रस पीजै ॥हे जिन. ॥ ३ ॥ मुझ कारज के तुम कारन वर, अरज दौल की लीजै ॥ हे जिन. ॥ ४ ॥ (८९) सब मिल देखो हेली' म्हारी हे, त्रिसला बाल वदन' रसाल ॥सब ॥टेक ॥ आये जुत समवशरण कृपाल, विचरत अभय व्याल मराल फलित भई सकल तरुमाल ॥ सब. ॥१॥ नैनन हाल° भृकुटी न चाल, वैन विदारै विभ्रम जाल, छवि लखि होत संत निहाल २ ॥ सब. ॥ २ ॥ वन्दन काज साज समाज, संग लिये स्वजन पुरजन ब्राज, श्रेणिक चलत हैं नरपाल ॥ सब. ॥ ३ ॥ यों कहि मोद जुत पुरवाल, लखन चाली" चरम५ जिनपाल “दौलत” नमत धर धर भाल'६ ॥ सब. ॥ ४ ॥ (९०) शामरिया के नाम जपे नैं छूट जाय भव भामरिया ॥ शाम. ॥ टेक ॥ दुरित "दुरत पुन पुरत फुरत गुन, आतम की निधि आगरियां । विघटत है परदाह चाह झट, गटकत२२ समरस गागरियां२३ ॥शाम. ॥१॥ कटत कलंक कर्म कलसायन, प्रगटत शिवपुर डागरियां, फटत घटाघन२५ मोह छोहर६ हट, प्रगटत भेदज्ञान घरियां ॥ शाम. ॥ २ ॥ कृपा कटाक्ष तुमारी हीं तें जुगलनाग विपदा टरियां । धार भये सो मुक्ति रमावर, 'दौल' नमै तुव पागरियां° पागरियां ॥ शाम. ॥ ३ ॥ (९१) ध्यान कृपान पानि३२ गहि३३ नासो, त्रेसठ प्रकृति अरी३४ । शेष पचासी लाग रही है, ज्यों जेवरी२५ जरी ॥ध्यान. टेक ॥ दुठ३६ अनंग३७ मालंग३८ भंग कर है प्रबलंग३९ हरी । जा पद भक्ति भक्तजन दुख दावानल मेघझरी ॥ध्यान. ॥१॥ १. लीन होता है २. प्रार्थना (अर्जी) ३. सखी ४. महावीर ५. मुख ६.सुन्दर ७. सर्प ८. हंस ९. वृक्षों की पंक्ति १०. बीच में ११. नष्ट करता है १२. धन्य १३. नगर के लोग १४. चले १५. अन्तिम तीर्थकर १६. मस्तक १७. भव भ्रमण १८. पाप १९. दूर होते हैं २०. फिर २१. प्रगट होते हैं २२. पीते हैं २३. गागर २४. पाप २५. मोह रूपी मेघों की घटा २६. क्षोभ हटकर २७. नाग नागिन २८. टल गई २९. मुक्ति रूपी रमा के पति ३०. पैर, चरण ३१. तलवार ३२. हाथ ३३. लेकर ३४. शत्रु ३५. जली हुई रस्सी ३६. दुष्ट ३७. कामदेव ३८. हाथी ३९. शक्तिशाली सिंह । For Personal & Private Use Only Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३१) नवल धवल पल सोहै कल में, क्षुध तृष व्याधि टरी ।। हलत' न पलक अलक' नख बढ़त न गति नभ मांहि करी ॥ध्यान. ॥ २ ॥ जा बिन शरन मरन जर' घर घर, महा असात भरी. । दौल तास पद दास होत है, बास मुक्ति नगरी. ॥ ३ ॥ चार तीस आर नमत सतत अद्भुत भान से सब ही ॥ ४ ॥ नेमि प्रभू की श्यामवरन छवि नैनन छाय रही ॥टेक ॥ मणिमय सीन पीठ पर अंबुज तापर अधर ठहो ॥ नेमि. ॥ १ ॥ मार मार तप धार जार विधि, केवलऋद्धि लही। चार तीस अतिशय दुतिमंडित नवदुर्ग दोष नहीं ॥ नेमि. ॥ २ ॥ जाहि सुरासुर नमत सतत, मस्तकतें परस मही । सुरगुरुवर अम्बुज प्रफुलावन अद्भुत भान सही ॥नेमि. ॥ ३ ॥ घर अनुराग विलोकत जाको; दुरित° नसै सब ही । दौलत महिमा अतुल जास की, कापै जात कही ॥नेमि. ॥ ४ ॥ (९३) प्यारी लागै म्हाने १ जिन छवि थारी॥ टेक ॥ परम निराकुल पद दरसावत, पर विरागताकारी । षट भूषन बिन पै सुन्दरता सुर नर मुनिमन हारी ॥प्यारी. ॥ १ ॥ जाहि बिलोकत भवि निज निधि लहि चिरभवता टारी । निर निमेषः देख सची१२ पती, सुरता३ सफल विचारी ॥ प्यारी. ।। महिमा अकथ होत लख ताकी, पशुसम समकितधारी । दौलत रहो ताहि, निरखनकी, भव भव टेव हमारी ॥प्यारी. ॥ ३ ॥ (९४) उरग-सुरग" - नरईश शीस जिस, आतपत्र'६ त्रिधरे । कुंद कुसुम सम चमर अमर गन ढारत मोदभरे ॥उरग. ॥ टेक ॥ तरु अशोक जाको अवलोकत, शोक थोक उजरे । पारजात संतान कादिके, बरसत सुमन वरे" ॥उरग. ॥ १ ॥ सुमणि विचित्र पीठ अंबुज पर राजत जिन सुमिरे । १. हिलना २. बाल ३. बुढ़ापा ४. कमल ५. स्थित है ६. जलाकर ७. ३४; ८. १८; ९. विकसित १०. पाप ११. मुझे १२. इन्द्र १३. देवत्व १४. सर्प १५. स्वर्ग १६. छत्र १७. आनंदित १८. सुन्दर अच्छे । For Personal & Private Use Only Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३२) वर्ण विगत' जाकी धुनि को सुनि भवि भवसिंधु तरे ॥ उरग ॥ २ ॥ साढ़े बारह कोड जाति के बाजत तूर्य' स्वरे । भामंडल की दुति अखंड ने रवि शशि मंद करे ॥उरग. ॥ ३ ॥ ज्ञान अनंत अनंत दर्शबल, शर्म अनंत भरे । करुणामृत पूरित पद जाके, दौलत हृदय धरे ॥उरग. ॥४॥ (९५) अरि रज हंस हनन प्रभु अरहन्न' जैवंतो जग में देव। अदेव सेवकरि जाकी, धरहिं मौलि पगमें ॥ अरि रज. ॥टेक ॥ जो तन अष्टोत्तर सहस्र लक्खन लखि कलिल शमें । जो बच दीप शिखा तैं मुनि विचरें शिवमारग में ॥ अरि रज. ॥१॥ जास पास तैं शाक हरन गुन, प्रगट भयो भग में । व्याल मराल कुरंग सिंघ को, जाति विरोध गमे ॥ अरि रज. ॥ २ ॥ जाजस-गगन उलंघन कोऊ, क्षम न मुनि खग में । दौल नाम तसु सुरतरु है या भव मरुथल में ॥अरि रज. ॥ ३ ॥ (९६) भज ऋषि पति वृषभेश वाहि नित, नमत अमर असुरा। मनमथ २-मथ दरसावत शिवपथ बृज रथ चक्रधुरा ॥भज. ॥ टेक ॥ जा प्रभु गर्भ छमास पूर्व सुर करी सुवर्ण धरा । जन्मत सुर गिर धर सुर गन युत हरि पय न्हवन करा ॥ १ ॥ नटत नर्तकी विलय देख प्रभु, लहि विराग सु थिरा । तबहिं देवऋषि आय नाम शिर, जिन पर पुष्प धरा ॥२॥ केवल समय जास बच रवि ने, जग भ्रम-तिमिर हरा । सुदृग-बोध-चारित्र पोत५ लहि, भवि भवसिन्धु तरा ॥ ३ ॥ योग संहार निवार शेषविधि - निवैस वसुम'६ धरा । दौलत जे याको जस गावै, ते हैं अज अमरा ॥ ४ ॥ १. शब्द रहित २. उच्च स्वर ३. कर्म धूलि ४. नष्ट करने ५. अरहन्त ६. पाप ७. शान्त होना ८. नष्ट होना १०. देव ११. राक्षस १२. कामदेव १३. नाचनेवाली (नीलांजना) १४. वचन १५. जहाज १६. सिद्धशिला । For Personal & Private Use Only Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३३ ) बुध महाचंद (पद ९७-९९) (९७) ऋषभ जिन आवता' ये माय, अमारे मोरी नग्न दिगम्बर काय ॥ टेक ॥ सब नर नारी मिल देखिया ए माय, अमा मोरी नजर भेंट बहू लेय ॥ ऋषभ ॥ १ ॥ कइ गज कइ अश्व देवैं ये माय, अमा मोरी कइ यक कन्या देता । ऋषभ ॥ २ ॥ कइ रतन नजर" कर्या हे माय, अमा मोरी केई वस्त्र अपार ॥ ऋषभ ॥ ३ ॥ इत्यादिक वस्तु देवैं हे माय, अमा मोरी वे कछू लेते नांय ॥ ऋषभ ॥ ४॥ क्या जाने क्या चाहि ँ है ए माय, अमा मोरी धन वे कछू मन लेय ॥ ऋषभ ।। ५ ।। ऐसे जिन मोकू' मिलो ए माय, अमा मोरी बुध महा चन्द्र के भाव ॥ ऋषभ ॥ ६॥ (९८) ॥ ॥ मन. १२ मन बैरागी जी नेमीश्वर स्वामी शिवपुर गामी' जी ॥ मन बै. ॥ टेक ॥ अपनूं राज राखन के कारण कृष्ण कपट" कर लीनूं जी उग्रसैन पुत्री राजुल से ब्याह रचीनूं जी छपन कोड़ि जादव मिल भेला १ खूब बरात बणाई ? जी तोरण १३ से रथ फेर जिनेश्वर उर्जयंत गिरि ठाड़े कांकण १४ डोरा तोड़ मोड़कर दिक्षा" मांडी जी घातिया घाति अघाति बहुबिधि मोक्ष महल गिर ठाड़े जी बुध महाचन्द्र जान जिन सेवे नोनिध १६ लागीजी ॥ मन. ॥ ४ ॥ १५ ॥ I (९९) रमते बाल ब्रह्मचारी ॥मि. नेमि टेर ॥ हास्य १७ विनोद करै हरि रामा" देवर लखि निज संसारी ॥ मि. ॥ १ ॥ कोऊ कहत देवर तुम परणू" देखो षोड़स सहस्र कृष्णधारी ॥ नेमि ॥ २ ॥ कोई कहैं देवर तुम नहीं सूर ये कहु तिय तुम नहिकारी ॥ मि. ॥ ३ ॥ कामखेल" करती कर करसे नेमिनाथ न२१ भये विकारी ॥ नेमि ॥ ४ ॥ बुध महाचन्द्र शील की महिमा तियमधि ? रहते अविकारी ॥ नेमि ॥ ५॥ .२० ॥ १ ॥ ॥ २ ॥ जी 1 मन. ॥ ३ ॥ १. आते हैं २. मां ३. अम्म ४. मेरी ५. भेंट कीं ६. कुछ नहीं लेते ७. क्या चाहते हैं ८. मुझको ९. मोक्ष गामी १०. छल ११. इकट्ठे हुए १२. बनाई १३. दरवाजे से १४. कंगन १५. दीक्षा ली १६. नव निधि १७. हंसी मजाक १८. कृष्ण की पत्नी १९. विवाह करलूं २०. कामक्रीड़ा २१. विकार उत्पन्न नहीं हुआ २२. स्त्रियों में । For Personal & Private Use Only Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३४) (१००) जिनराज शरण में तेरी सुन पुकार मेरी टेरी ॥ मैं प्रभु तुझे भुलाया चैन कभी न पाया ॥ भव भव में बहुत भटकाया शरण मिला नहीं केरी । भव सिन्धु बड़ा है भारी इसमें बहा जात संसारी ॥ किस विध नैया वये' हमारी मेटो न भव की फेरी । कर्मों ने बहुत सताया कई नर्क निगोद दिखाया । घोर अली दुःख पाया आया हूं शरण तेरी ॥ ओ मेरो कष्ट निवारो' अब नहीं हो कोई सहारो । ‘भूरामल' शरण थारी करना न नाथ देरी । जिन राज शरण मैं तेरी सुन तू पुकार मेरी ॥ (१०१) श्रीवीर की धुन में जब तक मन न लगायेगा ॥टेक ॥ जंजाल से छूटने का मौका न पायेगा ॥ व्यापार धन कमाकर तू लाख साज सजाले । होगा खुशी न जब तक संतोष धन न कमायेगा । जप होम योग पूजा, व्रत और नेम करले । सब है विरथा' जब तक वीर नाम न गायेगा । संसार की घटा से क्या प्यास बुझ जायेगी । कर संचय अपना धन जो काम आयेगा । लगाले प्रेम वीर प्रभू से आंखें जरा सी खोलो। 'भूरामल' जा शरण उसकी बन्धन छूट जायेगा ॥ (१०२) वीर भजन मन गाओ जैसे प्रेम पदारथ पाओ । जा सुमरा सुख सम्पत होवे, जन्म जन्म सुख पाओ । पतित पावन नाम जिनका, शरणा उन्हीं के जाओ । क्रोध लोभ को दिल से हटाकर वीर चरण चितलाओ ।। प्रेमभाव से चित लगाकर वीर से प्रेम बढ़ाओ । वीर प्रभू का चरण कमल में 'भूरामल' नित शीश नवाओ । १. पार हो २. दूर करो ३. आपकी ४. प्रसन्न ५. व्यर्थ ६. बादल ७. हमेशा ८. मस्तक । - For Personal & Private Use Only Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३५) महाकवि दौलतराम (पद १०३ - १०८) (१०३) जय श्रीवीर जिनेन्द्र चन्द्र शतइन्द्र' वंध जगतारं ॥ जय. ॥ टेक ॥ सिद्धारथ कुल' कमल अमल रवि भवभूधर' पवि' भारं 1 गुन मनि कोष अदोष मोषपति, विपिन कषायतुषारं ॥ जय. ॥ १ ॥ मदनकदन' शिवसदन पद- निमिति, नित अनमित यतिसारं । रमा अनंत कंत अन्तककृत, अन्त जंतु हितकारं ॥ जय ॥ २ ॥ फंद चन्दा कन्दन दादुर दुरित" तुरित‍ निर्वारं १३ रुद्ररचित अतिरुद्र उपद्रव, पवन अद्रिपति सारं ॥ जय. अन्तातीत अचिन्त्य सुगुन तुम, कहत लहत" को पारं है जग मौल 'दौल' तेरे क्रम, नमै शीसकर धारं ॥जय. ॥ ४ ॥ 1 || 3 || । o I (१०४) जय शिव कामिनी कन्त वीर भगवन्त अनन्त सुखाहर हैं विधि'७ गिरि गंजन" बुध मन रज्जन, भ्रम तम भंजन भास्कर" है ॥ टेक ॥ जिन उपदेश्यो दुविध धर्म जो सो सुर सिद्धि रमाकर है । भवि उर° कुमुदनि मोदन" भवतप" हरन अनूप निशाकर ३ है॥ १ ॥ परम विरागि रहे जतैं पै, जगत जनतु रक्षाकर हैं । इन्द्र फणीन्द्र खगेन्द्र चन्द्र जग, ठाकर ताके २४ चाकर जासु अनन्त सगुन मनिगन नित गनतै २६ मुनिगन थाक २७ रहैं । जा प्रभुपद नव केवल लब्धिसु, कमला को कमला कर हैं ॥ जय. ॥ ३ ॥ जाके ध्यान कृपान २८ रागरुष, पासहरन २९ 'दौल' नमै कर जोर हरन भव बाधा - २५ है ॥ जय. ॥ २ ॥ समताकर हैं । ३० शिवराधाकर है ॥ जय. ॥ ४॥ १. सैकड़ों इन्द्रों से बंदनीय २. कुल रूपी कमल ३. सूर्य ४. संसार रूपी पहाड़ ५. बज्र ६. मोक्ष पति ७. कषाय के लिए तुषार ८. काम नष्ट करने वाला ९. हित करने वाला १०. मेढक ११. पाप १२. शीघ्र १३. दूर करने वाला १४. अत्यन्त भयंकर १५. कौन पार पायेगा १६. संसार के मुकुट १७. कर्म पहाड़ १८. नष्ट करने वाले १९. सूर्य २०. भव्य - ह्रदय २१. खिलाने वाले २२. संसार ताप को दूर करने वाले २३. चन्द्रमा २४. उसके २५. नौकर २६. गिनते हुए २७. थक गये २८. तलवार २९. जाल काटने वाले ३०. संसार- दुख । For Personal & Private Use Only Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३६ ) (१०५) .१ पद्म' दरशावन ॥ टेक ॥ । ॥ पद्म. ॥ १ ॥ पद्म सद्म पद्मा, मुक्ति कलिमल ́ गज्जन' मन अलि रंजन मुनिजन शरन सुपावन है जार्की ́ जन्मपुरी कुशंबिका, सुर नर नाग रमावन है जास जन्म दिन पूरव षट नव, मास रतन बरसावन है जातप थान पपोसा गिरि सो आत्म ज्ञान थिर" थावन है । केवल जोत उदोत भई सो मिथ्यातिमिर नसावन है ॥ पद्म ॥ २ ॥ जाको शासन पंचाननसों १२ कुमति मतंग' नशावन हैं । राग बिना सेवक जन तारक, पै तसु रुष तुष भावन है || पद्म ॥ ३ ॥ जाकी महिमा के बरननसों सुरगुरु बुद्धि थकावन है । 'दौल' अल्पमतिको कबहो जिमि, १४ १३ .१६ शशुक" गिरिंद६ ढकावन है ॥ पद्म ॥ ४ ॥ है 1 (१०६) हैं २१ कु. ॥ टेक ॥ .२३ कुन्थन" के प्रतिपाल" कुंथु जग, तार सार गुन धारक वर्जित ग्रन्थ कुवंथवितर्जित, " अर्जित पंथ अमारक १२ हैं जाकी समवसरन बहिरंग, रमा गनधार अपारक हैं । सम्यग्दर्शन बोध चरण अध्यात्म रमा भरभारक हैं ॥ कु. ॥ १ ॥ दशधा धर्म पोतकर २४ भव्यन, को भव सागर तारक है । वर समाधि वनधन विभावरज १५ पुंज निकुंज निवारक हैं ॥ कु. ॥ २ ॥ जासु ज्ञान नभ में अलोक जुत लोक यथा इक तारक हैं । जासु ध्यान हस्ताबलम्ब२७ दुख कूप विरूप उधारक है ॥ कु ॥ ३ ॥ तज छह खंड कमला प्रभु अमला तप, कमला आगारक है । .२८ द्वादश सभा सरोज सूर भ्रम तरू अंकुर उपकारक है ॥ कु. ॥ ४ ॥ गुणा अनन्त कहि लहत" अंत को सुरगुरु से कुछ हारक हैं नमें 'दौल' हे कृपाकंद भव द्वंद टार बहुवारक हैं । ॥ कु. ॥ ५ ॥ १. कमल सदन २. मुक्ति कमल ३. बताने वाले ४. पापो को ५. नाश करने वाले ६. मन रूपी भौरे को खुश करने वाले ७. पवित्र ८. जिसकी ९. १५ माह १०. स्थिर होना ११. मिथ्यात्व रूपी अंधकार १२. सिंह १३. हाथी १४. जिस प्रकार १५. बच्चा १६. पर्वत को १७. ढांकना १८. जीवों के १९. पालने वाले २०. गुनों के धारक २१. खोटे पंथ को तर्जित करना २२. अमर २३. लक्ष्मी २४. जहाज २५. विभावरूपी धूल २६. दूर करने वाला २७. हाथ का सहारा २८. उद्धार करने वाला २९. पाता है । For Personal & Private Use Only Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३७) (१०७) चन्द्रानन' जिन चन्द्रनाथ के, चरन चतुर चित ध्यावतु' है । कर्म चक्र चकचूर चिदातम, चिन्मूरत पद पावतु' है ॥ चन्द्रा. ॥ टेक ॥ हा हा हूह' नारद तुंबर जास अमल यश गावतु है । पद्मा सची शिवा श्यामादिक, करधर बीन बजावतु है । चन्द्रा. ॥ १ ॥ बिन इच्छा उपदेश मांहि हित, अहित जगत दरसावतु है। जा पदतट सुर नर मुनि घटचिरु, विकटविमोह नशावतु है ॥२॥ जाकी चन्द्र वरन तन द्युतिसों, कोटिक सूर छिपावतु है ।। आतम ज्योत उद्योतमाहि सब, ज्ञेय अनंत दिपावतु है ॥ ३ ॥ नित्य उदय अकलंक अछीन सु मुनि उडु चित्त रमावतु है । जाकी ज्ञान चन्द्रिका लोकालोक मांहि न समावतु २ है ॥४॥ साम्यसिन्धु वर्द्धन जग नंदन को शिर हरिगण नावतु है । संशय विभ्रम मोह ‘दौल' कोहर" जो जग भरमावतु है॥ ५ ॥ (१०८) जय जिन वासुपूज्य शिवरमणी रमन मदन दनु१६ दारन हैं। बालकाल संजम संभाल रिपु मोह व्याल बल मारन हैं ॥ १ ॥ जाके पंच कल्यान भये चंपापुर में सुख कारन हैं । वासव" वृंद अमंद मोद धर किये भवोदधितारन हैं ॥ जय. ॥ जाके बैनसुधा,९ त्रिभुवन जन को भ्रमरोग बिदारन हैं। जा गुन चिंतन अमल अनल मृत जनम जरावन२२ जारन हैं ॥ ३ ॥ जाकी अरुन शांति छवि रविभा,२२ दिवस प्रबोध प्रसारन है । जाके चरन शरन सुर तरु वांछित शिवफल विस्तारन है ॥ जय. ॥ ४ ॥ जाको शासन सेवत मुनिजे, चार ज्ञानके धारन हैं । इन्द्र फणीन्द्र मुकुटमणि द्युतिजल" जापद कलिल पखारन२६ हैं ॥ ५ ॥ जाकी सेव अछेवरमाकर२७ चहुँगति विपति उधारन है । जा अनुभव घनसार“ सु आकुल ताप कलाप निवारन है ॥६॥ द्वादशभों जिन चन्द्र जास वर, जस" उजास२° को पार न हैं। १. चन्द्रमुख २. ध्यान करते है ३. पाते हैं ४. आनंद पूर्ण ध्वनि ५. कोलाहल ६. कमला ७. इन्द्राणी ८. पार्वती श्यामा = राधा ९. नष्ट करता है १०. सूर्य ११. छिपाता है १२: समाती है १३. सिर १४. देवता १५. दूर करना १६. दानव १७. सर्प १८. इन्द्रगण १९. वचन रूपी अमृत २०. नष्ट करने वाले २१. आग २२. जलाने वाले २३. सूर्य की प्रभा २४. फैलाने वाले २५. चमक २६. धोने वाले २७. निर्दोष २८. चंदन २९. यश ३०. प्रकाश । For Personal & Private Use Only Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३८) भक्तिरमातैं नमें 'दौल' को चिर विभाव दुख टारन है ॥ ७ ॥ जिनदेव-दर्शन-पूजन महाकवि बुधजन (पद १०९-१११) (१०९) श्री जिन पूजन को हम आये, पूजत ही दुख दुंद मिटाये ॥ टेक ॥ विकलप गयो प्रगट भयो धीरज अद्भुतसुख समता बरसाये ॥ आधि'व्याधि' अब दीखत नांही, घर में कलपतरु आंगन थाये ॥ १ ॥ इतमैं चन्द्र चक्रवर्ति इतमैं, इतमैं फनिदं खरे सिर नाये । मुनिजन बूंद करैं थुर्ति' हरखत, धनि हम जनमैं पद परसाये ॥ २ ॥ परमौदारिक मैं परमातम, ज्ञान मई हमको दरसाये । ऐसे ही हममें हम जानै, बुधजन गुन मुख जात न गाये || ३ || (११०) मेरो मनवा अति हरखाय, तोरे दरसन सौं ॥ मेरो ॥ टेक ॥ शांत छबी लखि शांत भाव है आकुलता मिट जाय, तोरे दरसन ॥ मेरो. जबलौं चरन निकट नहिं आया, तब आकुलता था । अब आवत ही निज निधि पाया ॥ मेरो ॥ २ ॥ बुधजन अरज करै कर जोरे, सुनिये श्री जिनराय, जबलौं मोख होय नहिं तबलौं भक्ति करूं गुन गाय, तोरे दरसन सौं ||मेरो ॥ ३॥ (१११) छिन न विसारां ́ चितसौं, अजी हो प्रभुजी थानै छिन । वीतराग छबि निरखत नयना, हरख भयो सो उर' ही जानै ॥ १ ॥ तुम मत खारक" दाखचाखिकैं" आन निवौरी क्यों मुख आनै । अवतो सरनैं राखि रावरी' २ कर्मदुष्ट दुख दे१३ छै म्हाने १४ ॥ २ ॥ वम्यौ१५ मिथ्यामत अम्रत चाख्यो, तुम भाख्यो " धर्यो मुझ कानै । निशिदिन थांको दर्श मिलौ, मुझ बुधजन ऐसी ऐसी अरज वखानै ॥ ३ ॥ १. मानसिक व्यथा २.पीड़ा ३. हो गये ४. खड़े ५ स्तुति ६. हो गया ७. प्रार्थना ८. भुलाऊं ९. हृदय १०. छुहारा ११. किशमिश १२. आपकी १३.देते हैं १४. मुझे १५. उगलना १६. कहा । 11 8 11 For Personal & Private Use Only Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३९ ) महाकवि भागचंद (पद ११२-११५) (११२) ॥ प्रभु तुम मूरत दृगसों' निरखै, हरखे मेरो जीयरा ॥ प्रभु तुम. भुजन कसायानल' पुनि उपजै, ज्ञान सुधारस वीतरागता प्रगट होत है, शिवथल दीसे भागचंद तुम चरन कमल में, वसत संतजन हीयरा सीयरा नीयरा' (११३) ॥ बिन काम ध्यानमुद्राभिराम, तुम हो जगनाथ जी ॥ टेक यद्यपि वीतरागमय तद्यपि हो शिवनायक जी ॥ बिन. ॥ १ ॥ रागी देव आपही दुखिया, सो क्या लायक जी ॥ बिन ॥ २ ॥ दुर्जय मोह शत्रुहनने को तुम वचशसायक ̈ जी ॥ बिन. ॥ तुम भवमोचन ज्ञान सुलोचन, केवल ज्ञायक जी ॥ बिन. ॥ 'भागचंद' भागनतै' प्रापति', तुम सब ज्ञायक जी ॥ बिन. ॥ ५ ॥ ३ ॥ ४ ॥ (११४) राग दीपचन्दी सोरह की (१९१५) राग दीपचन्दी परज टेक ॥ लखिकैं स्वामी रूप को, मेरा मन भया चंगाजी " ॥ टेक ॥ विभ्रम नष्ट गरूड़ लखि जैसे भगत भुजंगाजी " ॥ लखि. ॥ १ ॥ शीतल भाव भये अब न्हायो, भक्ति सुगंगाजी ॥ लखि. ॥ २ ॥ ' भागचंद' अब मेरे लागो, निजरस १२ रंगाजी ॥ लखि. ॥ ३॥ ॥ १ ॥ ॥ प्र. ॥ २ ॥ || 3 || महाराज श्री जिनवरजी, आज मैंने प्रभु दर्शन पाये ॥ टेक ॥ तुमरे ज्ञान द्रव्य गुण पर्जय १३ निज चित गुन दरसाये निज लच्छनतैं सकल विलच्छन ४ ततछिन परदृग " आये ॥ म. ॥ १ ॥ अप्रशस्त संक्लेश भाव अघ, कारन ध्वस्त १६ राग प्रशस्त उदय निर्मल पुण्य समस्त कमाये ॥ कराये । म. ॥ २ ॥ १. आंख से २. कषायाग्नि ३. शीतल ४. मोक्ष ५. पास ६. मारने को ७. वचन रूपी वाण ८. भाग्य से ९. प्राप्त १०. अच्छा ११. सर्प १२. आत्म- रस में लीन १३. पर्याय १४. विलक्षण १५. दूसरे की आंखें १६. नष्ट । For Personal & Private Use Only Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४०) विषय कषाय अताप नस्यो सब, साम्य सरोवर न्हाये । रुचि भई तुम समान होवे की, 'भागचंद' गुन गाये ॥ म. ॥ ३ ॥ महाकवि भूधरदास (पद ११६-१२२) (११६) राग धमाल देखे जगत के देव, राग रिससौं भरे ॥ टेक ॥ काहू के संग कामिनि' कोऊ आयुधवान' खरे ॥ देखे. ॥ १ ॥ अपने औगुन आपही हो प्रगट करैं उधरें । तऊ अबूझन बूझहिं देखो जन मृग भोर परे ॥देखे. ।। २ ।। आप भिखारी है किनहीं को, काके दलिद हरे । चढ़ि पाथर की नाव पै कोई सुनिये नाहिं तरे ॥देखे. ॥ ३ ॥ गुन अनंत जा देव में औ ठारइ दोष टरे । 'भूधर' ता प्रति भावसौं दोऊ कर निज सीस धरे ॥ देखे. ॥ ४ ॥ (११७) राग सारंग भवि देखि छवि भगवान की ॥ टेक ॥ सुंदर सहज सोम आनंदमय, दाता परम कल्यान की ॥ भवि. ॥ १ ॥ नासादृष्टि मुदित मुखवारिज', सीमा सब उपमान की । अंग अंडोल अचल आसन दिढ़, वही दसा निज ध्यान की ॥२॥ इस जोगासन जोग रीतिसों सिद्ध भई शिवथान की । ऐसे प्रगट दिखावै मारग, मुद्रा धात', पखान की ॥ भवि. ॥ ३ ॥ जिस देखे देखन अभिलाषा, रहत न रंचक आनकी। तृपत होत ‘भूधर' जो अब ये, अंजुलि अम्रत पानकी ॥ भवि. ॥ ४ ॥ (११८) राग-ख्याल नैननि वान'३ परी दरसन की। ॥ टेक ॥ १.राग द्वेष से २.स्त्री ३.हथियार ४.स्पष्ट ५.नासमझ ६.दरिद्र ७.पत्थर ८.अठारह ९.आनंदित १०.मुखकमल ११.धातु, पत्थर १२.दूसरे की १३.आदत । For Personal & Private Use Only Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४१) जिन मुख चन्द चकोर चित मुझ ऐसी प्रीत करी ॥ नैनन. ॥ १ ॥ और अदेवन के चितवन' को अब चित चाहर टरी । ज्यों सब धूल दवै दिश-दिश की, लागत मेघझरी । नैनन. ॥ २ ॥ छवी समायरे रही लोचन में विसरत नाहि घरी। 'भूधर' कह यह ढेव रहो थिर जनम जनम हमरी ।। नैनन. ॥ ३ ॥ (११९) शेष सुरेश नरेश रटैं तोहि', पार न कोई पावजू ॥टेर ॥ कोपै नपत व्योम विलसत सौं को सारे गिन लावै जू ॥ शेष. ॥ १ ॥ कौन सुजान मेघ बूंदन की संख्या समुझि सुनावै जू ॥ शेष. ॥ २ ॥ 'भूधर' सुजस गीत संपूरन, गनपंति भी नहि गावै जू ॥ शेष. ॥३॥ (१२०) सांचों देव सोई जामै दोष को न लेश कोई, वहै गुरु जाकै उर काहूं की न चाह है। सही धर्म वही जहां करुना प्रधान कही, ग्रंथ जहां आदि अंत एकसौ निवाह है। ये ही जग रत्न चार इनको परख यार, सांचे लेह झूठे डार नरभौ° को लाह है। मानुष · विवेक बिना पशुकी समान गिना, तातै याही बात ठीक पारनी सलाह है। (१२१) जो जगवस्तु समस्त, हस्ततल' जेम२ निहारै । जगजन को संसार, सिंधु के पार उतारै ।। आदि अंत-अविरोधी, वचन सबको सुखदानी । गुन अनंत जिंहमांहि, रोग की. नाहिं निशानी ॥ माधव महेश ब्रह्मा किंधौं, वर्धमान कै बुद्ध यह । ये चिन्ह जान जाके चरन, नमो-नमो मुझ देव वह ।। १.देखने की २.इच्छा नष्ट हो गई ३.भरी है ४.भूलना ५.आपको ६.नपता है ७.थोड़ा ८.इच्छा नहीं है ९.निर्वाह १०.मनुष्य भव ११.हाथ में रखे हुए १२.की. तरह १३.देखे। For Personal & Private Use Only Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४२) (१२२) आगम अभ्यास होहु सेवा सरबग्य' तेरी, संगति सदीव मिलौ साधरमी जनकी। सन्तन के गुनको बखान यह बान' परौ मेटो टेव देव पर औगुन कथन की। सबही सौं एन सुखदैन मुख वैन भाखौ', . भावना त्रिकाल राखौं आतमीक धन की। जोलौं, येही बात हूजौ प्रभु पूजा आस मन की ।। महाकवि द्यानत (पद १२३-१२५) (१२३) राग काफी धमाल सोज्ञाता मेरे मन माना जिन निज निज पर पर जाना ॥ टेक ॥ छहों दरवरौं भिन्न जानके नव तत्वन” आना । ताकौ देखे ताकों जानै ताही के रस में साना॥ सो ज्ञाता. ॥ अखय१ अनंती सम्पति विलसै भव तन भोग मगन ना। 'द्यानत ताऊपर बलिहारी, सोई जीवन मुक्त भना२ ॥ सो ज्ञाता. ॥ (१२४) दरसन तेरा मन३ भावै ॥ दरसन. ॥ टेक ॥ तुमको देरिव श्रीपति नहिं सुरपति, नैन हजार बनावै ॥ दर. ॥१॥ समोसरन में निरखें सचिपति, जीभ सहस गुन गावै । कोड़६ काम को रूप छिपत है, तेरा, दरस सुहावै॥ दर. ॥ २ ॥ आँच लगै अंतर है तो भी, आनंद उर न समावै । ना जानों कितनों सुख हरिको जो नहि पलक लगावै। दर. ॥ ३ ॥ पाप नास की कौन बात है, 'द्यानत' सम्यक पावै । आसन ध्यान अनूपम स्वामी, देखै" ही बन आवै ॥ दर. ॥ ४ ॥ १.सर्वज्ञ २.आदत पड़ी है ३.आदत नष्ट करदो ४.दूसरों के दोष ५.कहो ६.पूरी करो ७.वह ८.स्वरपर ९.द्रव्यों से १०.लीन, सना हुआ ११.अक्षय १२.कहा गया १३.मन को अच्छा लगता १४.इन्द्र १५.इन्द्र १६.करोड़ १७.देखते ही बनता है। For Personal & Private Use Only Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४३) (१२५) राग - सोरठ देखो ! भेक फूल लै निकस्यों, विन पूजा फल पायो ॥ टेक ॥ हरषित भाव मर्यो गज' पग तल, सुरगत अमर कहायो ॥ देखो. ॥ मालिनी सुता देहली पूजी, अपछर इन्द्र रिझायो । हाली' चरू सों दृढ़ व्रत पाल्यो दारिद तुरत नसायो ॥ देखो. ॥ २ ॥ पूजा टहल करो जिन पुरुषनि, तिन सुरभवन बनायो । चक्री भरत नयौ जिनवर को, अवधिज्ञान उपजायो । देखो. ॥ ३ ॥ आठ दरब लै प्रभुपद पूजै, ता पूजन सुर आयो । 'द्यानत' आप. समान करत हैं सरधा सों सिर नायो ॥ देखो. ॥ ४ ॥ कवि जिनेश्वरदास (पद १२६-१२९) प्रभाती जयवंतो जिनविंब जगत मैं, जिन देखत निज पाया ॥ टेक ॥ वीतरागता लखि प्रभुजी की, विषयदाह विनशाया है । प्रगट भयो संतोष महागुण मन थिरता में आया है ॥ जय. ॥ १ ॥ अतिशय ज्ञान शकासन पै धरि, शुक्ल ध्यान शर वाह्या है । हानि र मोह अरि चंद चौकड़ी वह स्वरूप दिखलाया है ॥ २ ॥ वसुविधि अरि हरि करि शिवथानक' थिर स्वरूप ठहराया है। सो स्वरूप शचि स्वयं सिद्ध प्रभू ज्ञान रूप मन भाया है ॥ जय. ॥ ३ ॥ यदपि अचेत तदपि चेतन को, चित स्वरूप दिखलाया है। कृत्या कृत्य 'जिनेश्वर' प्रतिमा पूजनीय गुरु गाया है ॥ जय. ॥ ४ ॥ __(१२७) म्हेतो५ थापर वारीजी जिनंद चतुरानन सुखकंद ॥ टेक ॥ सिंहासन पर आप विराजै पद्मासन महाराज। तीन छत्र शिर सोहने, चौसठि चमर समाज ॥ म्हेतो. ॥ १ ॥ तेजवंत देही दिपै कोटिक' सूर लजात । १.मेंढक २.निकला ३.हाथी के पैर के नीचे ४.अप्सरा ५.जल्दी ६.नैवेद्य ७.जिन-मूर्ति ८.आत्म स्वरूप पाया ९.स्थिरता १०.धनुष ११.वाण १२.मोह रूपी दुश्मन का नाश १३.आठ कर्मों का नाश कर १४.मोक्ष १५.मैंतो १६.आप पर १७.निछावर हूं १८.करोड़ों सूर्य लज्जित होते हैं। For Personal & Private Use Only Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४४) ज्ञान दर्श सुख वीर्य को पाया नाहीं अंत ॥ म्हेतो. ॥२॥ जिनकी वानी सुखमई, सब जग आनंद कंद । सहित 'जिनेश्वर' देव को सेवत लहै आनंद || म्हेतो. ॥ ३ ॥ _(१२८) कैसी छवि तोहे मानो सांचे में ढारी, कैसी छवि सो है मानो सांचे में ढारी। सांचे में ढारी स्वामी सांचे में ढारी. कैसी छवि सोहै मानो सांचे में ढारी ॥ टेक ॥ महिमा कहूं क्या आसन अचल की, आंखों की दृष्टि स्वामी नासा पै डारी ॥ कैसी. ॥ १ ॥ जिनका स्वभाव बीतरागी कहावै, करुणा निधान और पर उपकारी ॥ २ ॥ तजके श्रृंगार वनवासी भये हैं, तो भी रूप आगे लुभावै पदधारी । कैसी. ॥ ३ ॥ दोउ कर जोड्यां 'जिनेश्वर' खड़ा है, ऐसी योगमुद्रा मुझे दीज्यो जगतारी ॥ कैसी. ॥ ४ ॥ (१२९) श्री जी तो आज देखो भाई, जाकी सुन्दरताई ॥ श्री जी. ॥ टेर ॥ कंचन मणिमय अंग तन राजै, पद्मासन छवि अधिकाई ॥ १ ॥ तीन छत्र सिर ऊपर जिनके, चौसठ चमर दुरै भाई ॥ २ ॥ वृक्ष अशोक शोक सब नाशै, भामंडल छवि अधिकाई ॥३॥ धुनि जिनवर की अतिशय गाजै, सुर नर पशु के मन भाई ॥ ४ ॥ पुष्प वृष्टि सुर दुंदुभि बाजै, देख 'जिनेश्वर' रुचि आई ॥ ५ ॥ महाकवि दौलतराम (पद १३०-१४०) (१३०) जिनवर आनन-भान निहारत, भ्रमतम धान नसाया ॥ जि. ॥ टेक ॥ १.प्राप्त करते हैं २.नाक पर ३.दोनों हाथ जोड़कर ४.सोना ५.मणियों से युक्त ६.गरजता हे ७.मुख-सूर्य ८.देखते ही ९.प्रमरूपी अन्धकार। For Personal & Private Use Only Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४५) वचन किरन प्रसरनतैं भविजन, मनसरोज सरसाया है 1 भवदुखकान सुख विसतारन, कुपथ सुपथ दरसाया है ॥ १ ॥ विनसाई कज ेजलसरसाई, निशिचर समर रे दुराया है । तस्कर' प्रबल कषाय पलाये, जिन धनबोध" चुराया है ॥ २ ॥ लखियत' उडुन' कुभाव कहूं अब, मोह उलूक" लजाया है हंस कोक को शोक नश्यो निज, परनति" चकवी पाया है ॥ ३ ॥ कर्मबंध१२ कजकोष बंधे चिर भवि ३ अलि मुंचन४ पाया है दौल उजास१५ निजातम अनुभव उर जग अन्तर छाया है ॥४॥ । । .१६ (१३१) ज्ञान" भान की, निरखत. ॥ १ ॥ बिनस्यो विषाद २२, निरखत" जिन चन्द्र-वदन स्वपर सुरचि आई ॥ निरखत. ॥ टेक ॥ प्रगटी निज" आनकी पिछान कला उदोत होत काम, जामिनी २० सास्वत आनंद स्वाद पायो आन २३ में अनिष्ट इष्ट कल्पना नसाई २४ साधी निज साधकी समाधि मोह व्याधि की, उपाधि को विराधि २५ कै अराधना सुहाई ॥ निरखत. ॥ ३ ॥ धन २६ दिन छिन आज सुगुनि, चिते जिनराज अब, सुधरे सब काज दौल अचल सिद्धि पाई ॥ निरखत. ॥ ४ ॥ ॥ निरखत. ॥२॥ पलाई २१ ॥ (१३२) .२८ दरस 11 २९ .३०. 11 8 11 शिवमग दरसावन रावरो २७ शिवमग. ॥ टेर ॥ पर-पद-चाह-दाह गद” नाशन, तुम बच " भेषज - पान सरस ॥ शिव. गुण चितवत निज अनुभव प्रगटै, विघटै विधि र ठग दुविध तरस ३३ ॥ २ ॥ 'दौल' अबाची संपति सांची, पाय रहै घिर राच सरस २ ॥ शिव. ॥ ३॥ (१३३) _३७ मैं हरख्यौ ३४ निरख्यौ ३५ मुख तेरो, नास" न्यस्त नयन भ्रूहिलयन वयन निवारन मोह अंधेरो परमे करमै निजबुधि” अबलों भवसर” में दुख सह्यो घनेरो । ॥ मै. ॥ १ ॥ १. फैलने से २.कमल ३.युद्ध ४. नष्ट हुआ ५. चोर ६. भाग गये ७. ज्ञानरूपी धन ८. देखते हैं ९. नक्षत्र १०.उल्लू ११.आत्मपरिणतिरूपी चकवी १२.कर्मबंधन रूपी कमल कोष में बंधे १३. भव्यजन रूपी भौरे १४. मुक्ति १५. प्रकाश १६. ह्रदय में छा गया १७. देखने से १८. आत्म स्वरूप की १९ ज्ञान - सूर्य २०. रात्रि २१. भाग गई २२. खेद २३. अन्य में २४. नष्ट हो गई २५. नष्ट करके २६. धन्य २७. आपका २८. दर्शन २९. रोग ३०. वचन ३१. औषध ३२. कर्मरूपी छग ३३.दया ३४. प्रसन्न हुआ ३५.देखा ३६. नरक पर दृष्टि लगाये ३७ भौंह नहीं हिलती ३८. आत्मवुद्धि ३९. संसार सागर । For Personal & Private Use Only Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४६) सो दुख भान' स्वपर पिछानन', तुम विन आनन कारन हेरो ॥ २ ॥ चाह भई शिवराह' लाह की गयो उछाह ' असं रो । 'दौलत' हित विराग चित आन्यौ, जान्यौ रूप ज्ञान दृग मेरो. ॥ मैं. ॥ ३ ॥ (१३४) जनपाला, मोह नशाने वाला ॥ दीठा. ॥ टेक ॥ १ ॥ .११ .१२ ठा भाग सुभग निशंक राग बिन यातै वसन' न आयुध'' वाला ॥ मोह. ॥ जास" ज्ञान में युगपत भासत, सकल पदारथ माला ॥ मोह ॥ २ ॥ निज में लीन हीन इच्छा पर हित-मित वचन रसाला ' १३ ॥ मोह. ॥ ३ ॥ लखि जाकी छवि आतमनिधि निज पावत होत निहाला ४ || मोह ॥ ४ ॥ 'दौल' जास गुन" चिंतत रत है निकट विकट भव नाला || मोह. ।। ५ ।। .१५ (१३५) आज मैं परम पदारथ पायौ, प्रभु चरनन चित लायौ ॥ टेक ॥ अशुभ गये शुभ प्रगट भये हैं, सहज कल्पतरु छायौ ॥ आज. ॥ १ ॥ ज्ञानशक्ति तप ऐसी जाकी, चेतन पद दरसायो ॥ आज. ॥ २ ॥ अष्ट कर्म रिपु योधा जीते, शिव७ अंकुर जमायौ ॥आज. ॥ ३ ॥ (१३६) प्यारी लागै म्हाने १८. जिन छवि थारी १९ ॥ टेक ॥ परम निराकुल पद दरसावत, वर विरागताकारी । o पट भूषन २१ बिन पै सुन्दरता सुर नर मुनि मनहारी ॥ प्यारी. ॥ १ ॥ जाहि विलोकत भवि निज निधि लहि, चिर विभावती २२ टारी । निर२३ निमेषतैं देख सची पति, सुरता सफल विचारी ॥ प्यारी. ॥ २ ॥ महिमा अकथ होत लख ताकी, पशु सम समकित धारी । 'दौलत' रहो ताहि, २५ निरखनकी २६ भव भव टेव २७. हमारी ॥ प्यारी. ॥ ३ ॥ नि. ॥टेक॥ (१३७) निरखत सुख पायौ जिनमुखचन्द ॥ मोह महातम नाश भयौ है, उर अम्बुज २८ प्रफुलायौ २९ ॥ ताप नस्यौ बढ़ि उदधि अनंद ॥ निरखत. ॥ १ ॥ १. नष्ट करने वाला २. पहचानना ३.इच्छा ४. मोक्ष मार्ग ५. उत्साह ६. देखा ७. भाग्य से ८. इसलिए ९. वस्त्र १०. हथियार ११. जिसके १२. प्रकाशित होता है १३. मीठे १४. धन्य १५. जिसके गुनों से १६. संसार सागर १७. मोक्ष का बीज १८. मुझे १९. आपकी २० कपड़ा २१. आभूषण २२. पर परिणति २३. टकटकी लगाकर २४. देवत्व २५. उसको २६. देखने की २७. टेक २८. कमल २९. खिला ३०. समुद्र । For Personal & Private Use Only Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .(४७) चकवी कुमति विधुर अति विलखै आलम सुधा सवायो' शिथिल भये सब विधिगन फन्द ॥ निरखत. ॥ २ ॥ विकट भवोदधि को तट निकट्यौ अघतरु मूल नसायो 'दौल' लह्यो अब स्वपद स्वच्छन्द ॥ निरखत. ॥ ३ ॥ (१३८) जिन छवि लखत' यह बुधि भयी॥ जिन. ॥टेक॥ मैं न देह चिंदकमय, तन, जड़ फरस रसमयी ॥जिन. ॥१॥ अशुभ शुभ फल कर्म दुख सुख, पृथकता सब गयी। राग दोष विभाव चालित ज्ञानता थिर थयी ॥ जिन. ॥ २ ॥ परि गहन आकुलता दहन विनसि समता लयी । 'दौल' पूरव अलभ आनंद लह्यो भवथिति 'जयी । जिन. ॥ ३ ॥ (१३९) जिन छवि तेरी यह, धनजग तारन ॥ जिन छवि ॥टेक ॥ मूल न फूल दुकूल त्रिशूल न शम दम कार भ्रमतम वारन ॥१॥ जाकी प्रभुता की महिमा नै सुरनधी शिता लागत सारन । अवलोकत भविथोक मोख मग चरत करत निजनिधि उरधारन ॥ २ ॥ जजत भजत अघ तौ को अचरज समकित पावन भावनकारन । तासु सेव फल एव चहत नित, 'दौलत' जाके सुगुन उचारक ॥३॥ (१४०) सम्मेद शिखर आज गिरिराज निहारा, धनभाग हमारा । श्री सम्मेद नाम है जाको, भूपर तीरथ भारा ॥ आज. ॥ टेक ॥ वहाँ बीस जिन मुक्ति पधारे, अखर९ मुनीश अपारा । आरज° भूमि शिखानि सोहै, सुरनर मुनि मन प्यारा ॥आज. ॥ १ ॥ तंह थिर योग धार योगिसुर निज पर तत्व विचारा । निज स्वभाव में लीन होयकर सकल विभाव निवारा आज. ॥ २ ॥ जाहि जजत भवि भावन तें, जब भव भव पातक टारा ।। १. बिछुड़ा २. बढ़ गया ३. कर्म ४. पाप रूपी वृच्छ की जड़ ५. देखकर ६. बुद्धि ७. आनन्दमय ८. स्पर्श ९. स्थिर १०. समता (शान्ति) लीन ११. संसार की स्थिति १२. धन्य १३. इन्द्र का स्वामित्व १४. देखना १५. स्थिति १६. मोक्ष १७. पूजा करना १८. महान १९. अन्य २०. आर्य २१. चोटियाँ। For Personal & Private Use Only Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४८) जिनगुन धार धर्म धन सचो, भव दारिदहर तारा ॥आज. ॥ ३ ॥ इक नभ नव इक वर्ष (१९०१) माघवदी चौदश वासर सारा माथ नाय जुत साथ 'दौल' ने जय जय शब्द अचारा ॥ आज. ॥ ४ ॥ बुध महाचंद (पद १४१-१४५) (१४१) पूजा रचाऊं जो पूजन फल पाऊं तुम पद चाहूं जी ॥टेक ॥ निरमल नीर धार त्रय देकर चंदन पद चर्चाऊ' जी । उज्ज्वल तन्दुल पुंज बनाकर पुष्प चढ़ाऊं जी ॥पूजा. ॥ १ ॥ नाना रस नैवेद्य मंगाऊं दीपक जोति जगाऊं जी । धूप अनंग' मद संग खेयफल अर्घ धराऊ जी ॥पूजा. ॥ २ ॥ अष्ट द्रव्य को अर्घ बनाऊं नाचि नाचि गुण गाऊ जी । 'बुध महाचंद' कहै कर जोड्या तुम पद चाहूं जी ॥पूजा. ॥ ३ ॥ (१४२) और निहारो जी श्री जिनवर स्वामी अंतरयामी जी ॥ टेक ॥ दुष्ट कर्म मोय भव भव मांही देत रहे दुख भारी जी। जरा मरण संभव आदि कछु पार न पायो जी ॥और. ॥ १ ॥ मैं तो एक आठ संग मिलकर सोध सोध दुख सारो जी । दे से हैं वरजयो नहीं माने दुष्ट हमारो जी ॥ और ॥२॥ और कोउ मोय दीसत नाही सरणागत प्रत पालो जी ।। बुध महाचंद चरणा ढिग ठाड़ों शरणूं थाका जी ॥ ३ ॥ (१४३) तुम्हें देखि जिन हर्ष हुवो हम आज ॥टेर ॥ जनमत सहस्र नयन हरि रचिये तुम छवि देखन काज ॥ १ ॥ तुम तन तेज शीतल तल लखिके रवि शशि छवि कृत लाज ॥२॥ रंक रत्न ऋद्धि धरि धरनते होते आनंद समाज ॥ ३ ॥ चातक चित में हर्ष होत है ज्यो सुनि सुनि घन' गाज ॥४॥ तुम जग तारण तिरण भवोदधि कीनी धर्म जिहाज ॥५॥ १. लगाऊ २. कामदेव ३. जोड़कर ४. मुझे ५. बहुत ६. रोकने पर ७. दिखाई देता है ८. रक्षा करो ९. आपकी शरण में खड़ा हूं १०. मेघों की गर्जना । For Personal & Private Use Only Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४९) तुम भवि भाव भक्ति वस बदत तिनै पाई भव पाज ॥६॥ 'बुध महाचंद' चरण चर्चन करि जाचे अजाचिक' राज ॥ ७ ॥ (१४४) सुफल घड़ी याही देखें जिन देव ॥सुफल. ॥टेर ।। मनतो सुफल तुम चितवन करते, पद जुग तुम पै, आई, नयन, सुफल तुम पद दरशेव ॥ सुफल. ॥१॥ सीस सुफल तुम चरणन, मन नै जीभ सुफल गुण गाइ, हस्त सुफल तुम पद करशेव ॥ सुफल. ॥ २ ॥ श्रवण सुफल तुम गुण सुनने में, जन्म सुफल, भजि सांइ 'बुध महाचंद' जु चर्णन मेव ॥ सुफल. ॥ ३ ॥ रेखता देखि जिनरूप द्वे नयना हर्ष मन में न माया हो ॥टेर ॥ इन्द्रहु सहस्र नेत्रन रच तुम्हे जिन देखन ध्याया हो ॥ देखि. ॥१॥ धन्य हो । आज का यह दिन तुम्हारा दर्श पाया हो । रंक घर ज्यों सुऋद्धि होतै त्यों हमें हर्ष आया हो ॥देखि. ॥ २ ॥ सफल पद थान यह आने सफल कर पद पर्शवातें ॥ देखि. ॥ ३ ॥ और कछु नाहि मो वांछया सेवा तुम चरण पावा हो । मिलो भव भव भव हमें ये ही सीस महाचन्द्र नाया हो ॥ देखि. ॥ ४ ॥ कवि कुंजीलाल (पद १४६-१४७) (१४६) मैं कैसे रूप निहारू हा प्रभु जी, धर्म शुक्ल के संग ॥ टेक ।। राग द्वेष मोहादि महाभट, राज्य करें निसंग। क्रोधमान छल लोभ मदादिक फेलि रहे सर्वंग ॥१॥ पांचों इन्द्री बने पारधी१२ खेचत वान निखंग३। कालरूप विकराल केहरी,४ डाढ़५ पसौरे संग ॥ २ ॥ ज्यों ज्यों इन इन्द्रिन पोखी,६ त्यों त्यों भई उतंग७ । १. मांगता हूं २. अयाचक ३. दर्शन ४. समाया ५. हजार नेत्र ६. गरीब ७. स्पर्श कराके ८. इच्छा ९. झुकाया १०. शुक्ल ध्यान ११. अकेले १२. शिकारी १३. धनुष १४. सिंह १५. चबाने के दांत १६. पुष्ट की १७. ऊंची; मस्त । For Personal & Private Use Only Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५०) निष्ट दूध हूं पान कराये, विषनहि तजत भुजंग' ॥ ३ ॥ जो देखो सो ही मदमाते राचे विषय कुरंग । कैसे शुद्ध होय प्राणी जहां, परी कुआ में भंग ॥ ४ ॥ जेते देव जगत में देखे, राग द्वेष के संग । हलधर चक्र त्रिसूल गदाधर, त्रिया धरें अर्धंग ॥५॥ पंडित योगी यति मिल सब, रूप धरे बहिरंग । अंतस मोह लोभ माया कोउ, दम्भ भरे सर्वंग ॥ ६ ॥ बिन सतगुरु किमि होय नाथ संसार स्वप्न सम भंग। 'कुंज' भये शरनागत तेरे और न दूजो रंग ॥ ७ ॥ (१४७) आनंद मंगल आज हमारे आनंद मंगल आज ॥टेक ॥ श्री जिन चरण कमल परसत ही विघन गये सब भाज ॥१॥ सफल भई सब मेरि' कामना, सायक हिये विराज ॥२॥ नैन वयन मन शुद्ध करन को, मेटे११ श्री जिनराज ॥३॥ ३- जिनवाणी महाकवि बुधजन पद (१५१-१५६) (१४८) राग ललित तितालो हो जिनवाणी जू तुम मोकौं तारोगी२ ॥हो. ॥टेक ॥ आदि अन्त अविरुद्ध वचनतें, संशय भ्रम निरवारोगी" ॥ हो. ॥१॥ ज्यों प्रतिपालत५ गाय वत्स कौं, त्यों ही मुझकौं पारोगी'६ । सनमुख काल बाघ जव आवै, तब तत्काल उवारोगी ॥ हो. ॥ २ ॥ 'बुधजन' दास वीनवै८ माता, या विनती उर धारोगी । उलझि रह्यौ हूं मोह जाल में, ताको तुम सुरझावोगी ॥ हो. ॥ ३ ॥ १. सर्प २. लीन हुये ३. हिरण ४. आधे अंग मे स्त्री धारण किये हैं ५. हृदय में ६. स्पर्श करके ७. भागना ८. मेरी ९. इच्छा १०. बचन ११. मिले १२.पार करोगी १३.अविरोधी १४.दूर करोगी १५.पालती है १६.पालोगी १७.पार करोगी १८.विनय करता हूं १९.उलझा हूं २०.सुलझाओगी। For Personal & Private Use Only Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५१) (१४९) राग-विलावल कनड़ी मनकैं हरष अपार-चितकै हरष अपार, वानी सुनि ॥टेक ॥ ज्यों तिरषातुर अम्रत पीवत, चातक अंबुद' धारा ॥ वानी सुनि. ॥ १ ॥ मिथ्या तिमिर गयो ततखिन हो, संशय भरम निवार । तत्वारथ अपने उर दरस्यो जानि लियो निजसार ॥ वानी सुनि. ॥ २ ॥ इन्द नरिन्द फनीन्द पदीधर, दीसत रंक लगार । ऐसा आनंद 'बुधजन' के उर, उपज्यौ अपरंपार ॥ वानी सुनि. ॥ ३ ॥ (१५०) भवदधितारक नवकार, जगमांही जिनवान ॥ भव. ॥ टेक ॥ नय प्रमान पतवारी जाके, खेवट आतम ध्यान ॥ भव. ॥१॥ मन वच तन सुध जे भवि धारत, ते पहुंचत शिवथान । परत अथाह मिथ्यात भंवरतें, जे नहि गहत अजान ।। भव. ॥२॥ विन अक्षर' जिनमुखौं निकसी, परी वरनजुत° कान ।। हितदायक बुधजन को गनधर, गूंथे ग्रन्थ महान ॥ भव. ॥ ३ ॥ (१५१) राग-झंझोटी शिवधानी निशाशानी जिनवानि हो। शिव. ॥टेक ॥ भव वन भ्रमन निवारन-कारन, आपा पर पहचानि हो ॥ शिव. ॥१॥ कुमति पिशाच मिटावन लायक, स्यादर मंत्र मुख आनि हो ॥ शिव. ॥ २ ॥ 'बुधजन' मन वच तन करि निशिदिन सैवो सुख की खानि हो ॥शिव. ॥ ३ ॥ . (१५२) राग विलावल इकतालो सारद१३ ! तुम परसादतें, आनंद उर आया ।सारद. ॥टेक ॥ ज्यों तिरसातुर जीव को अम्रत जल पाया ॥ सारद. ॥१॥ नय परमान निखेंपते५ तत्वार्थ बताया । भाजी भूलि मिथ्या की निज निधि दरसाया ॥ सारद. ॥ २ ॥ १.प्यासा २.पीता है ३.बादल ४.ततक्षण ५.फणीन्द्र ६.गरीब ७.नौका ८.विना अक्षर ९.निकली १०.वर्णयुक्त ११.स्वपर १२.स्याद्वाद १३.सरस्वती १४.कृपासे १५.निक्षेप से १६.मिथ्यात्व की भूल भाग गई। For Personal & Private Use Only Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५२) विधिना' मोहि अनादितै, पहुंगति भरमाया । ता' हरिवै की विधि सबै मुझ मांहि बताया ॥ सारद. ॥ ३ ॥ गुन अनन्त मतिर अलपते, मौपै जात न गाया । प्रचुर कृपा लखि रावरी, बुधजन हरषाया ॥ सारद. ॥४॥ (१५३) जिनवाणी के सुनै से मिथ्यात मिटै । मिथ्यात मिटै समकित प्रगटै ॥ टेक ॥ जैसे प्रात होत रवि उगत रैन तिमिर सब तुरत फटै ॥ जिन. ॥१॥ अनादि काल की भूलि मिटावै, अपनी निधि घट घट में उघटै। त्याग विभाव सुभाव सुधारै, अनुभव करता करम कटै ॥ जिन. ॥ २ ॥ और काम तजि सेवे, वाको या बिन नाहिं अज्ञान घटै । 'बुधजन' बाभव, भरभव मांही, बाकी हुंडी तुरत पटै ॥ जिन. ॥ ३ ॥ कवि भागचन्द (पद १५४-१६०) (१५४) सांची तो गंगा यह वीतराग वानी, अविच्छन्नधारा धर्म की कहानी ॥ सांची. ॥टेक ॥ जामें अति ही विमल अगाध ज्ञान पानी, जहां नहीं संशयादि पंककी निशानी ॥ सांची. ॥१॥ सप्तभंग° अँह तरंग उछलत सुखदानी, संतचित मरालवृंद रमैं नित्य ज्ञानी ॥ सांची. ॥ २ ॥ जाके अवगाहनतें शुद्ध होय पानी, 'भागचंद्र' निहचै घरमाहिं या प्रमानी ॥ सांची. ॥३॥ (१५५) राग-ईमन (यमन) महिमा है अगम जिनागम की ॥टेक ॥ जाहि सुनत जड़ भिन्न पिछानी, हम चिन्मूरत आतम की॥ महिमा. ॥१॥ रागादिक दुखकारन जाने, त्याग बुद्धि दीनी भ्रमकी, ज्ञान ज्योति जागी घर अंतर, रुचि बाढ़ी पुनि शामदम की ॥ महिमा. ॥ २ ॥ बंधकी भई निर्जरा कारण परंपराक्रम की। 'भागचंद' शिवलालच' लागी, पहुंच नहीं है जंह जम की ॥ महिमा. ॥ ३ ॥ १.कर्म २.उस को दूर करने ३.अल्पबुद्धि से ४.आपकी ५.रात्रि का अंधकार ६.प्रगट होती है ७.उसको ८.अत्यन्त स्वच्छ ९.कीचड़ की १०.स्याद्वाद११.मोक्ष का लालच । For Personal & Private Use Only Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५३) (१५६) राग - मल्हार बरसत ज्ञान सुनीर' हो, श्री जिनमुख घन सों शीतल होत सुबुद्धि मेदिनी मिटत भवातपपीर स्याद्वाद नयदामिनी दमकै, होत निनाद' गंभीर करुना नदि बहै चहुंदिशितै, भरी सी दोई तीर 'भागचंद्र' अनुभव मंदिर को, तजत न संत सुधीर ॥ बरसत. ॥ ४ ॥ ॥ बरसत. ॥ (१५७) राग-मल्हार मेघ घटासम श्री जिनवानी ॥ टेक ॥ स्यात्पद चपला ँ चमकत जामें बरसत ज्ञान सुपानी' ॥ मेघ. ॥ १ ॥ धरमसस्य' जातैं बहु बाढ़, शिव आनंद फलदानी ॥ मेघ. ॥ २ ॥ मोहन धूल दबी सब यातैं, क्रोधानल" सु बुझानी ॥ 'भागचंद्र' बुधजन केकी १२ कुल, लखि हरखै चितज्ञानी ॥ o मेघ. ॥ ३ ॥ (१५८) - कलिंगड़ा ॥ टेक ॥ ॥ बरसत. ॥ बरसत. (१५९) राग - दीपचंदी कार ॥ ॥ मेघ. ॥ ४ ॥ टेक ॥ ॥ केवल. ॥ २ ॥ केवल जोति सुजागी जी, जब श्री जिनवर के ॥ लोकालोक विलोकत जैसे, हस्तामल बड़भागी जी ॥ केवल. ॥ १ ॥ हार चूड़ामनि शिखा सहज ही नम्र भूमितैं लागी जी समवसरन रचनासुर कीन्हीं, देखत भ्रम जन त्यागी जी भक्ति सहित अरचा '३ जब कीन्ही, परम धरम अनुरागी जी दिव्यध्वनि सुनि सभा दुवादश४, आनंद रस में पागीजी 'भागचन्द' प्रभु भक्ति चहत हैं, और कछु नहि मांगीजी ॥ केवल. ॥ ३ ॥ " For Personal & Private Use Only जानके सुज्ञानी, जैनवानी की सरधा लाइये ॥ टेक ॥ जा बिन काल अनंते भूमता, सुख न मिलैं कहुं प्राणी ॥ जान. ॥ १ ॥ १ ॥ २ ॥ ३ ॥ ॥ केवल. ॥ ४॥ ॥ केवल. ॥ ५ ॥ ॥ केवल. ॥ ६ ॥ १. अच्छाजल २. पृथ्वी ३. संसार की गर्मी की पीड़ा ४. बिजली ५. आवाज ६. दोनों ७. बिजली ८. अच्छा पानी ९. धर्मरूपी धान १०. मोह रूपी धूल ११. क्रोध रूपी आग १२. मयूर-समूह १३. पूजा १४. बारह प्रकार की सभा १५. लीन । Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५४) स्वपर विवेक अखण्ड मिलत है, जाही' के सर धानी ॥ जानके ॥ २ ॥ अखिल प्रमान सिद्ध अविरुद्धत, स्यात्पद शुद्ध निशानी ॥जानके ॥ ३ ॥ 'भागचन्द' सत्यारथ' जानी, परम धरम रजधानी ॥ जानके ॥ ४ ॥ (१६०) राग-लावनी ५ 11 8 11 धन्य-धन्य है घड़ी आजकी जिनधुनि श्रवन परी तत्व प्रतीति भई अब मेरे मिथ्यादृष्टि टरी ॥ टेक ॥ जड़तैं भिन्न लखी चिन्मूरति चेतन स्वरस भरी अहंकार ममकार " बुद्धि पुनि परमें सब परि हरी ॥ धन्य. पाप पुण्य विधि बन्ध अवस्था, भासी अति दुःख भरी वीतराग विज्ञान भावमय, परिनल अति विस्तरी ॥ धन्य चाह दाह विनसी बरसी पुनि, समता मेघ बाढ़ी प्रीति निराकुल पदसों, 'भागचंद' हमरी ॥ महाकवि भूधरदास (पद ९६४ - १६६ ) (१९६१) राग-ख्याल प्यारी थांकी जी प्यारी भूल जी १२ .१५ कथनी म्हानै लगैजी म्हांरी ॥टेक 11 तुम हित हांक" बिना हो, श्री गुरु सूतो जियरो कांई जगै जी ॥ थांकी. ॥ १ ॥ मोहनि १३ धूलि मेलि४ म्हारे मांथे, तीन रतन " म्हारा मोह ठगै जी । तुम पद ढोकत" सीस झरी रज अब ठग को कर नाहिं वगै १७ जी ॥ थांकी. ॥ २ ॥ टूट्यो चिर मिथ्यात महाज्वर भागां" मिल गया वैद" अगै जी । अंतर अरुचि मिटी मम आतम, अब अपने निज दर्व पगै जी ॥ थांकी. ॥ ३ ॥ भव वन भ्रमत बढ़ी तिसना तिस, क्यो हि मुझे नहिं हियरा दर्गे जी । 'भूधर' गुरु उपदेशामृत रस शान्तमई आनन्द उमगै जी ॥ थांकी ॥ ४ ॥ १८ .१९ लागै ॥ २ ॥ झरी । धन्य. ॥ ३ ॥ भगै १० १. जिसके श्रद्धान से २. सत्यार्थ । ३. जिनवाणी ४. कानों में पड़ी ५. मेरा है ऐसी वुद्धि ६. छोड दी ७. आपकी ८. मुझे ९. मेरी १०.भग गई ११. भलाई की पुकार १२. कैसे १३. मोह की धूलि १४. मेरे सिरपर रखकर १५. रत्नत्रय १६. प्रणाम करने से १७. ठग के हाथ नहीं भटकेगा १८. भाग्य से १९. मिली २०. निजद्रव्य । For Personal & Private Use Only Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५५) (१६२) वीर हिमाचल' तैं निकसी गुरु गौतम के मुख कुंड ढरी है मोहमहाचल' भेद चली, जगकी जड़ता तप दूर करी है ज्ञान पयोनिधिमांहि रली, बहु' भंग तरंगानि सों उछरी है ता शुचि शारद गंगनदी प्रति, मैं अंजुरी करि सीस धरी है ॥ या जग मंदिर में अनिवार अज्ञान अंधेर छयो अतिभारी श्री जिनकी धुनि दीपशिखा सम जो नहि होती प्रकाशन हारी ॥ तो किहभांति पदारथ पांति कहां लहते रहते अविचारी । या विधि संत कहैं धन हैं धन हैं जिन वैन बड़े उपगारी ॥ या वाणी के ज्ञान तैं सूझै लोकालोक सो वाणी मस्तक धरुं सदा देत हूं धोक ॥ (१६३) कैसे करि केतकी कनेर एक कही जाय, आक दूध" गाय दूध अंतर १२ घनेर है । पीरी १३ होत री री पैन रीस ४ करै कंचन" की, ० कहां काग वानी कहां कोयल की टेर है । कहाँ भान भारौ । १६ कहाँ आणि या विचारौ कहाँ, पूनो को उजारौ कहाँ मावस ७ अंधेर है । पच्छ छोरि पारखी निहारौ नेक नीके करि, जैन वैन और वैन इतनौं ही फेर है । महाकवि द्यानत (पद ९६४ - १६६) (१६४) समझत क्यों नहीं वानी, अज्ञानी जन ॥ टेक ॥ स्याद्वाद अंकित सुखदाय भागी" केवलज्ञानी ॥ समझत. ॥ १ ॥ जास९ लखँ निरमल पद पावै, कुमति कुगति की हानी । उदय भयाजिह में परगासी सिंह जानी सरधानी ॥ समझत. ॥ २ ॥ जामें देव धरम गुरु बरनें तीनों मुकति निसानी ॥ निश्चय देव धरम गुरु आतम जानत विरला प्रानी ॥ समझत. ॥ ३ ॥ १. वीर रूपी हिमालय से २. मोहरूपी पर्वत को तोड़ कर ३.समुद्र में ४. मिलना ५. न्याय रूपी तरंगे ६. हाथ जोड़कर ७. किस प्रकार ८. पदार्थों को ९. उपकारी १०. किस तरह ११. अकौउत का दूध १२. बहुत अंतर १३. पीली १४. समानता १५.सोना १६. सूर्य १७. अमावस्या १८. भाग्यशाली १९. जिसको २० प्रकाशित । For Personal & Private Use Only Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५६) या जगमांहि मुझे तारन को, कारन नाव बखानी । 'द्यानत' सो गहिये निहचै सो, हूजे ज्यो शिवथानी ॥समझत. ॥ ४ ॥ (१६५) सुमति हितकरनी सुखदाय, जरा उर अंतर' वस ज्याय ॥ अंतर वस ज्याये हिरदै वस ज्याये हित करनी सुखदाय जरा उर अंतर वस ज्याये ॥ टेर ॥ दया छिमा तेरी बहन कहीजै सत्यशील थारा भाई ये ॥ सुमति. ॥ १ ॥ समकित तो थारो तात जी भवि जीवन को प्यारी ये ॥ सुमति. ॥ २ ॥ श्री जिनदेव चरन अनुरागी, शिवकामिन की प्यारी ये ॥ सुमति. ॥ ३ ॥ संत सुषीजन तोहि अराधे मान जिनेश्वर वानी ये ॥ सुमति. ॥ ४ ॥ (१६६) त्रिदश" पंथ उरधार चतुर नर यो वरनो जिनवानी जी ॥ टेर ॥ तीर्थंकर की भक्ति हृदय धरि परिगह विन गुरुज्ञानी जी ॥ जिनमल गुरु जिनचारिसंघ की, भक्ति करो सुखदानी जी ॥१॥ पंच पाप निजबल समत्यागो, चार कषाय दवानी जी । सज्जनता गुणवान जीव की, संगति सहित वखानी जी ॥२॥ इन्द्रिय दमन शक्ति सम की जो, दान चार वरदानी जी । यथाशक्ति सम्यक् तप करना, द्वादश भाव सुध्यानी जी ॥ ३ ॥ भवन तन भोग विराग भाव यों तेरह पंथ प्रमानी जी । मुक्तावली शास्त्र में शशि प्रभु, कही जिनेश्वर वानी जी ॥ ४ ॥ महाकवि दौलतराम (पद १६७-१७४) (१६७) जय-जय जग भरम तिमर हरन जिन धुनि ॥ टेक ॥ या विन समुझै अजो न सौंज निज मुनि । यह लखि हम निजपर अविवेकता लुनी ॥जय जय. ॥१॥ १.हृदय २.क्षमा ३.आपका ४.सुखी लोग ५. तेरहपंथ–(१. तीर्थकर की भक्ति, २.गुरू भक्ति, ३.चार संघ की भक्ति, ४.पांच पापों का त्याग, ५.कषायों का दमन, ६. गुणवान की संगाते, ७. इन्द्रिय दमन ८. चार प्रकार का दान ९. तप, १०. बारह भवना, ११. संसार, १२. शरीर, १३. भोगों का त्याग) ६.ध्वनि, वाणी ७.सजाना ८.काटी। For Personal & Private Use Only Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५७) जाको गनराज' अंग पूर्वमय चुनी । सोई कही है कुन्द कुन्द, प्रमुख बहु मुनी ॥ जय जय. ॥ २ ॥ जे चर जड़ भये जिये मोह वारुनी । तत्व पाय चेते जिन थिर सुचित सुनी ॥जय जय. ॥ ३ ॥ कर्मफल पखारने हि विमलसुर धुनी। तज विलंब अब करो 'दौल' उर पुनी ॥ जय जय. ॥ ४. ।। (१६८) अब मोहि जानि परी, भवोदधि तारन को हैं जैन ॥टेक ॥ मोह तिमिरौं सदा काल के छाय रहे मेरे नैन । ताके नाशन हेत लिया मैं अंजन जैन सु ऐन ॥अब. ॥ १ ॥ मिथ्यामती भेष को लेकर भाषत हैं जो बैन । सो वे बैन असार लखे मैं. ज्यों पानी के फैन ॥ अब. ॥ २ ॥ मिथ्यामती बेल जग फैली, सो दुख फलकी दैन । सतगुरु भक्ति कुठार हाथ लै, छेद लिया अति चैन ॥अब. ॥ ३ ॥ जा बिन जीव सदैव काल विधि वश सुखन लहै न । अशरन-शरन अभय दौलत अब रैन दिन जैन ॥अब. ॥ ४ ॥ ___ (१६९) सुन जिन बैन, श्रवन १ सुख पायो ॥ टेक ॥ नस्यो तत्व दुर अभिनिवेशतम स्याद उजास कहायो । चिर विसरयो, लह्यो आतम चैन (?) ॥ श्रवन. ॥ १ ॥ दह्यो अनादि असंजम ३ दव” लहि व्रत सुधा सिरायौ । धीर धरी मन जीतन मन (?) श्रवन सुख ॥श्रवन. ॥ २ ॥ भरो विभाव अभाव सकल अब सकल रूप चित लायौ। दास लह्यौ अब अविचल जैन ॥श्रवन. ॥ ३ ॥ (१७०) और सबै जब द्वन्द्व मिटावो, लौ लावोजिन आगम ओरी५ ॥टेक ॥ है असार जग द्वन्द्व बन्धकर यह कछु गरजन सारत तोरी । १.गणधर २.शराब ३.पुण्य पवित्र ४.संसार सागर ५.मोहान्धकार ६.उसको नष्ट करने के लिए ७.अयन,मार्ग ८.देनेवाली ९.सुख नहीं पाता १०.दिन रात ११.कानों को सुख १२.प्रकाश १३.असंयम १४.लगन १५.तरफ १६.पूरी करना । For Personal & Private Use Only Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५८) कमला' चपला', यौवन धनु' सुर स्वतजन पथिक जन क्यों रतिजोरी ॥१॥ विषय कषाय दुखद दोनो ये, इनतें तोर नेह की डोरी, परद्रव्यन को तू अपनावत, क्यों न तजै ऐसी बुधि भोरी ॥ २ ॥ बीत जाय सागर तिथि सुर की, नरपरजाय तनी अति थोरी । अवसर पाय 'दौल' अब चूको, फिर न मिलै मणि सागर बोरी ॥ ३ ॥ (१७१) जिन वैन सुनत मोरी भूल भगी ॥ जिन वैन. ॥ टेक ॥ कर्म स्वभाव चेतन को, भिन्न पिछानन' सुमति जगी ॥१॥ जिन अनुभूति सहज ज्ञायकता सो चिर रुष तुष" मैल-पगी। स्याद्वाद धुनि-निर्मल जलतें, विमल भई समभाव लगी ॥२॥ संशय मोह भरमता विप्पटी",प्रगटी आतम सोंज सगी । 'दौल' अपूरव मंगल पायो, शिवसुख लेन होंस उमगी ॥ ३ ॥ (१७२) जिनवानी जान सुजान रे ॥जिनवानी. ॥टेक ॥ लाग रही चिरते ८ विभावता ताको कर अवसान ९ रे ॥१॥ द्रव्य क्षेत्र अरु काल भाव की कथनी को पहिचान रे । जाहि पिछाने स्वपर भेद सब जाने परत निदान रे ॥२॥ पूरव° जिन जानी तिनही ने भानी संसृतिवान रे । अबजानैं२ अरु जानेंगे जे, पावै शिवथान रे ॥जिनवानी ॥ ३ ॥ कह 'तुजभाज' मुनी शिवभूति, पायो केवलज्ञान रे । यौं लखि दौलत सतत करो भवि, चिद्वचनामृत पान रे ॥ ४ ॥ (१७३) थारा२३ लौ वैना में सरधान२४ घनो२५, म्हारे छवि निरखत हिय२६ सरसावै। तुम धुनि धन परचहन-दहनहर२९, बर समता-रस-झरवरसावै ॥१॥ रूप निहारत ही बुधि है सो निजपर चिल जुदे दरसावे । मैं चिंदक° अकलंक अमल थिर, इन्द्रियसुख दुख जड़ फरसावै ॥२॥ १.लक्ष्मी २.बिजली ३.इन्द्रधनुष ४.प्रीति ५.तोड़ना ६.भोली ७.व्यतीत होना ८.अत्यल्प ९.समुद्र में १०.भाग गई ११.पहचानने की १२.बुद्धिजागी १३.क्रोध १४. भूसा १५.नष्ट हो गई १६.स्वरूप १७.इच्छा १८.बहत दिन १९.समाप्ति २०.पहले २१.संसार स्वरूप २२.अब तो जानेंगे २३.आपका २४.श्रद्धा २५.अत्यधिक २६.हृदय २७.आनन्दित होना २८.दूसरे को चाहना २९.जलन को दूर करने वाला ३०.चिद्रूप। For Personal & Private Use Only Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५९) ज्ञान विराग सुगुन तुम तिनकी प्रापतिहित सुरपति तरसावै । मुनि बडभाग लीन तिरमें नित 'दौल' धवल उपयोग रसावै ॥३॥ (१७४) जबलैं आनंद-जननि दृष्टि परी भाई। तबलैं संशय विमोह भरमता बिलाई ॥ जबलैं. ॥टेक ॥ मैं हूं चित चिन्ह भिन्न परतें पर जड़ स्वरूप, दोउन की एकता, सु, जानी दुखदाई॥ जबलैं. ॥१॥ रागादिक बंध हेतु, बंधन बहु विपति देत, । संवर हित जानि तासु, हेत ज्ञानताई ॥ जबलैं. ॥ २ ॥ सब सुख नय शिव हैं तसु, कारन विधि झारन इमि, तत्व की विचारन जिन बानि सुधि कराई ॥ जबलैं. ॥३॥ विजय चाह ज्वालतें दइयो अनंत कालतें, सुधांबुस्यात्पढांक गाहा प्रशांति आई ॥ जबलैं. ॥४॥ या बिन जगजाल में न शरन तीन काल में, सम्भाल चित भंजो सदीव, दौल यह सहाई ॥ जबलैं. ॥ ५ ॥ बुधमहाचन्द्र (पद १७५-१७९) (१७५) मैं कैसे शिव जाऊँ रे डिगर भूलावनी ॥ मैं कैसे. ॥टेर ॥ बालपने लरकन संग खोयो, त्रिया' संग जवानी ॥ मैं कै. ॥ १ ॥ वृद्धभयो सब सुधिर गई भजि जिनवर नाम न जानी ॥ मैं कै. ॥ २ ॥ भव वन में डिगरी २ बहु परती१२ दुख कंटक भरितानी" ॥ मैं कै ॥ ३ ॥ कामचोर ढिग मोह बढे दोऊ मारगमांही निसानी ॥मैं कै ॥ ४ ॥ ऐसे मारग बुधमहाचन्द्र तू जिनवर बचन पिछानी५ ।मैं कै ॥ ५ ॥ (१७६) जिनवाणी गंगा जन्म मरण हरणी'६॥ जन्म. ॥ टेर ॥ जिन उर पद्म कुण्ड में तें निकसी मुख ही में गिर गिरणी८ ॥१॥ १.प्राप्त करने के लिए २. आनंद देने वाली ३. छिप गई ४. चेतन स्वरूप ५. जड़ चेतन की ६. कर्मों को नष्ट करना ७. विषयों की इच्छा रूपी ज्वाला ८.रास्ता ९. लडकों के साथ १०. स्त्री के साथ ११. बद्धि नष्ट हो ग गई १२. रास्ते १३. पड़ते हैं १४. भरे हुए १५. पहचानी १६. हरन करने वाली १७. कमल १८. गिरने वाली। For Personal & Private Use Only Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६०) गौतम मुख हेम कुल परवत तल दरह बिच में ढरनी ॥ २ ॥ स्याद्वाद दोऊ तट अति दृढ़ तत्व नीर झरणी ॥ जिनवा. ॥ ३ ॥ सप्तभंग मय चलत तरंगिनी, तिनतें फैल चल राठी ॥४॥ बुधमहाचन्द्र श्रवण अंजुली से पीवो मोक्षकरणी ॥ जिनवा. ॥ ५ ॥ (१७७) जिनवाणी सदासुखदानी, जानि तुम सेवो भविक जिनवानी ॥ टेर ॥ इतर नित्य निगोद मांहि जे जीव अनंत समानी । एक सांस अष्टदश जामण मरण कहे दुखदानी ॥ जिन. ॥ १ ॥ पृथ्वी जल अरु अग्नि पवन में और वनस्पति आनी । इनमें जीव जिताय जितायर जीव दया की कहानी ॥ जिन. ॥ २ ॥ नित्य अकारण आदि निधन करि तीन लोक त्रय मानी । करता हरता कोउ नाय याको ऐसो भेद जतानी ॥ जिन. ॥ ३ ॥ बात बलय बेढ़ि घनोदधि घन तनु तीन रहानी । इन आधार लोक त्रय राजत, और कछु न बखानी ॥जिन. ॥ ४ ॥ ऐसी जानि जिनेश्वर वानी, मिथ्यातम की मिटानी । बुधमहाचन्द्र जानि जिन सेवे, धारि-धारि मन मानी ॥जिन. ॥ ५ ॥ (१७८) अमृत झर झुरि झुरि आवे जिनवानी ॥ अमृत. ॥ टेर ॥ द्वादशांग बादल हे उमड़े ज्ञान अमृत रसखानी ॥ अमृत. ॥१॥ स्याद्वाद विजुरी अति चमके शुभ पदार्थ प्रगटानी । दिव्य ध्वनी गंभीर गरज है श्रवण सुनत सुखदानी ॥अमृत. ॥ २ ॥ भव्य जीव मन भूमि मनोहर पाप कूड़कर हानी । धर्म बीज तहां ऊगत नीको मुक्ति महाफल ठानी ॥ अमृत. ॥ ३ ॥ ऐसे अमृत झर अतिशीतल मिथ्या तपन २ भुजानी । बुधमहाचन्द्र इसी झर भीतर मग्न सफल सोही जानी ॥अमृत. ॥ ४ ॥ १. ढलने वाली २. नदी ३. मोक्ष देने वाली ४. भव्य ५. एक सांस में अठारह बार जन्म लेना और मरना ६. जताये बताये ७. समझाई ८. वर्ण ९. बरसे, टपके १०. बिजली ११. कूड़ा कचरा १२. जलन १३. बुझ गई। For Personal & Private Use Only Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६१) (१७९) जग में जगती जिनवानी रे, जग में जगती जिनवानी । भवतारण' शिव सुख कारण ॥जग में ॥टेर । स्याद्वाद की कथनी वाली सप्त भंग जानी, सप्त तत्व निर्णय में तत्पर नव पदार्थ दानी ॥ भवतारण. ॥ १ ॥ मोह तिमिर अंधन को जो है ज्ञान शलाकानी । मिथ्यातप तप तन को जो है मलयागर खानी ॥ भवतारण. ॥ २ ॥ इस पंचम कलिकाल मांहि जे है केवली समानी । धर्म कुधर्म कुदेव देव गुरु कुगुरु बतानी ॥ भवतारण. ॥ ३ ॥ इन्द्र धरणेन्द्र खगेन्द्रादिक पदकी निसानी । विषयादिक विष विध्वंस कर सेव सुख सुधापानी ॥ भवतारण. ॥ ४ ॥ कुमग गमन करता भविजन कू सुद्ध मग जितानी । जड़ पुद्गल रत बुधमहाचन्द्र कू निजपर समझानी ॥ भवतारण. ॥ ५ ॥ कवि भागचंद (पद १८०-१८१) (१८०) थांकी तो वानी में हो जिन स्वपर प्रकाशक ज्ञान || टेक ॥ एकीभाव भये जड़ चेतन तिनकी करत पिछान ॥ थांकी. ॥ १ ॥ सकल पदार्थ प्रकाशत जामें, मुकुर२ तुल्य अम्लान ३ ॥ थांकी. ॥ २ ॥ जग चूड़ामनि शिव भये ते ही तिन कीनो सरधान ॥ थांकी. ॥ ३ ॥ भागचन्द्र बुधजन ताहीका, निशदिन करत बखान ॥ थांकी. ॥ ४ ॥ (१८१) म्हांकै५ घट जिनधुनि अब प्रगटी ॥टेक ॥ जागृत दशा भई अब मेरी सुप्त दशा विघटी६ ।। जल रचना दीसत अब मोको जैसी रहटधरी" ॥ म्हांकै. ॥१॥ विभ्रम तिमिर हरन निज दृग की जैसे अंजन बटी । तातें स्वानुभूति प्रापतितै, पर परनति सब हटी ॥ म्हाकै ॥२॥ ताके बिन जो अवगम१ चाहै तो शठ कपटी । १. संसार २. संसार से तारनेवाली ३. मोक्ष सुख ४. मोह अंधकार ५. शलाका ६.मलय चंदन ७. इन्द्रियों के विषय ८. नष्ट करना ९. मार्ग १०. शुद्ध मार्ग ११. आपकी १२. दर्पण १३. निर्मल १४. उसी का १५. मेरे १६. दूर हो गई १७. दिखाई देती है १८. मुझ को १९. रहट की छरियाँ २०. प्राप्ति से २१. समझना । For Personal & Private Use Only Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६२) तातैं ' भागचन्द्र' निशिवासर इक ताही को रटी ॥ म्हांकै ॥ ३ ॥ महाकवि दौलत राम (पद १८२) (१८२) ॥ टेक ॥ राग - उझाज जोगी रासा जिनवाणी सुधा' सम जानके प्रगटी जन्म जरा गढ टारी परम सुरुचि करतारी । व्यापी, ॥ ति. ॥ १ ॥ । नित पीज्यौ धी- धारी' वीर मुखारविंद तैं गौतमादि-उर घट ● - मल - गंजन, बुधमन रंजनहारी । सलिल समान कलिल - भंजन विभ्रम धूलि प्रभंजन, मिथ्या जलद निवारी ॥ नित. ॥ २ ॥ कल्याणक तरु उपवन धरिणी तरनी भव जल तारी बंध विदारणा पैनी छैनी मुक्ति नसैनी सारी स्वपर स्वरूप प्रकाशन को यह भानु कला' अव मुनि मन कुमुदिनि मोदन शशिभा, शमसुख सुमन सुवारी जाको सेवत वेवत ११ निजपद नसल अविद्या सारी तीन लोकपति पूजत जाको जान त्रिजग १२ हितकारी कोटि जीभसौं महिमा जाकी कहि न सके पविधारी । १३ 'दौल' अल्पमति केम१४ कहै इम" अधम उधारनहारी ॥ ति. ॥ ६ ॥ ॥नितः ॥ ५ ॥ । - महाकवि बुधजन (पद १८३-१८७) गुरु-स्तुति (१८३) . १६ १७ १८ गुरु दयाल तेरा दुःख लखिकैं, सुनलै जो फुरकावैहै ॥ गुरु. ॥ टेक ॥ तो में तेरा जतन " बताबै, लोभ कछु नहि चावै है ॥ गुरु. ॥ १ ॥ पर स्वभाव को मोर्या ९ चाहै, अपना उसा २० बनावै है । ॥ ति. ॥ ३ ॥ । ॥नित. ॥ ४ ॥ सो कबहूं हुवा न होसी, " नाहक रोग लगावै है ॥गुरु ॥ २ ॥ खोटी खरी जस२२ करी कमाई, तैसी तेरे आवै है । चिन्ता आणि उठाय हिया मैं नाहक जान जलावै है ॥गुरु ॥ ३ ॥ पर अपनावै सो दुख पावै, 'बुधजन' .२३ ऐसे गावै है १. बुद्धिमान २. अमृत के समान ३. जन्म जरा रोग ४. पाप रूपी मैल धोने वाली ५. प्रसन्न करने वाली ६. तूफान ७. नष्ट करने को ८. मोक्ष की सीढ़ी ९. सूर्य किरण १०. चांदनी ११. समझते हैं १२. तीनलोक १३. इन्द्र १४. किस प्रकार १५. ऐसे १६. देखकर १७. कहें १८. यत्न, उपाय १९. मोडना, २०.. वैसा २१. लेगा २२. जैसा २३. व्यर्थ । For Personal & Private Use Only । Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६३) पर को त्यागि आप थिर तिष्ठै, सो अविचल सुख पावै है ॥गुरु. ॥ ४ ॥ (१८४) राग सोरठ गुरु ने पिलाया जी ज्ञान पियाला॥ गुरु ॥टेक ॥ भइ बेखबरी परभावां की निजरस मैं मतवाला ॥गुरु.॥ १ ॥ यों तो छाक' जात नहिं छिनहू मिटि गये आन जंजाला । अद्भुत आनंद मगन ध्यान में बुधजन हाल सम्हाला ॥ २ ॥ (१८५) सुणिल्यों जीव सुजान, सीख सुगुरु हित की कही ॥टेक ॥ रुल्यौ अनंती बार, गति गति साता ना लहि ॥ सुणि. ॥१॥ कोइक पुन्य संजोग श्रावक कुल नरगति लही । मिले दोष निरदोष, वाणी भी जिनकी कही॥ सुणि. ॥ २॥ झूठी आशा छोड़ि तत्वारथ रुचि धारि ल्यौ । या मैं कछू न विगार आपो आप सुधारि ल्यौ ॥ सुणि ॥ ३ ॥ तन को आतम मानि, भोग विजय कारज करो। यौ ही करत अकाज भव भव क्यों कूवे परो ॥ सुणि. ॥ ४ ॥ कोटि ग्रन्थ को सार जो भाई बुधजन करो । राग दोष परिहार,१२ याही भव सँ उद्धारौ ॥ सुणि. ॥ ५ ॥ __(१८६) राग कलिंगड़ो हूं१३ कब देखू ते मुनि राई हो॥ हूं. ॥ टेक॥ तिल तुष मान न परिग्रह जिनकैं, परमातम ल्यों लाई हो ॥ हूँ. ॥१॥ निज स्वारथ के सबही बाँधव, वे परमारथ भाई हो । सब बिधि लायक शिवमग दायक तारन तरन सदाई हो ॥२॥ (१८७) मुनि बन आये बना५ ॥ मुनि. ॥ टेक ॥ १. तृप्त २. दूसरी झंझटे ३. सुन लो ४. मटका ५. अनेक गतियों में ६. सुत ७. किसी ८. धारण कर लो ९. अपने आप १०. कार्य ११. कुआँ १२. छोड़ दे १३. में १४. प्रेम १५. दुल्हा । For Personal & Private Use Only Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६४) शिव वनरी' को ब्याहन उमगे, मोहित भविक जना ॥ मुनि. ॥ १ ॥ रतनत्रय सिर सेहरा बाँध, सजि संवर' वसना । संगरे बराती द्वादश भावन अरु दशधर्मपना ॥ मुनि. ॥ २ ॥ सुमति नारि मिलि मंगल गावत, अजपा (?) गीत घना ।। राग दोष की आतिश बाजी, छूटत अगनि कना । मुनि. ॥१॥ दुविध कर्म का दान बटत है, तोषित लोक मना । शुक्ल ध्यान की अगनि जलाकरि होमै कर्मघना ॥ मुनि. ॥ २ ॥ शुभ बेल्यां शिव बनरिवरी मुनि, अद्भुत हरज बना ।। निज मंदिर में निश्चल राजत 'बुधजन' त्याग घना ॥ मुनि. ॥ ३ ॥ कवि भागचंद (पद १८८-१९१) (१८८) राग जंगला शांति वरन मुनिराई वर लखि, उत्तर गुन गन सहित (मूल गुन सुभग) बरात सुहाई ॥टेक ॥ तपरथपै११ आरुढ़२ अनूपम, धरम सुमंगल दाई ॥ शांति. ॥१॥ शिव रमनी को पानिग्रहण३ करि, ज्ञानानन्द उपाई ॥ शांति. ॥२॥ भागचंद ऐसे वनरा को हाथ जोर सिरनाई ॥ शांति. ॥३॥ (१८९) धन-धन" जैनी साधु अबाधिन, तत्व ज्ञान विलासी हो ॥टेक ॥ दर्शन बोधमई ६ निजमूरति, जिनको अपनी भासी हो । त्यागी अन्य समस्त वस्तु में अहंबुद्धि दुखदासी हो ॥१॥ जिन अशुभोपयोग की परनति, सन्ता सहित विनाशी हो । होय कदाच शुभोपयोग तो, तहँ भी रहत उदासी हो ॥ २ ॥ छेदत जे अनादि दुखदायक दुविध बंध की फांसी हो । मोह क्षोभ रहित जिन परनति, विमलं मयंक कलासी हो ॥ ३ ॥ विजय चाह दव दाह खुजावन,° साम्य सुधारस रासी हो । १. दुल्हन २. संवर रूपी वस्त्र ३. बारह भावनायें बराती ४. बहुत ५. अग्नि कन ६. घाति कर्म, ७. होम करना ८. शुभ मुहूर्त में ९. मोक्ष रूपी दुल्हन को वरण किया १०. दुल्हा देखकर ११. तप रूपी रथ पर १२. बैठकर १३. विवाह १४. हाथ जोड़कर सिर झुकाना १५. धन्य धन्य १६. ज्ञानमई १७. कभी १८. वहां भी १९. निर्मल चन्द्रमा की कला के समान २०. खुजलाने वाले। For Personal & Private Use Only Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६५) भागचंद ज्ञानानंदी पद, साधत सदा हुलासी हो ॥४॥ (१९०) राग खमाच ज्ञानी मुनि छै' ऐसे स्वामी । गुनरास ॥टेक ॥ जिनके शैल' नगर मंदिर पुनि गिर कंदर सुख-वास ॥ १ ॥ नि:कलंक परजंक' शिला पुनि, दीप मृगांक उजास ॥२॥ मृग किंकर करुना वनिता पुनि, शील सलिलतप ग्रास ॥ ३ ॥ भागचंद से हैं गुरु हमरे तिनही के हम दास ॥ज्ञानी ॥४॥ (१९१) राग खमाच श्री गुरु हैं उपगारी ऐसे वीतराग गुनधारी वे ॥टेक ॥ स्वानुभूति रमनी संग की, ज्ञान संपदा भारी वे ॥श्री. ॥१॥ ध्यान पिंजरा में जिन रोका चित३ खग चंचल चारी वे ॥२॥ तिनके वरन सरोरुह ध्यावै, भागचंद अघ टारी१४ वे ॥३॥ कविवर भूधरदास (१९२) राग मल्हार वे मुनिवर कब मिलि है उपगारी ॥टेक ॥ साधु दिगम्बर नगन निरम्बर,५ संवर भूषणधारी ॥ वे. ॥१॥ कंचन कांच बराबर जिनकैं ज्यों रिपु त्यों हितकारी । महल मसान मरन अरु जीवन, सम गरिमा ६ अरु गारी१७ ॥२॥ सम्यग्ज्ञान प्रधान पवन बल, तप८ पावक परजारी । सेवत जीव सुवर्ण सदा जे, काय कारिमा टारी ॥३॥ जोरि जुगल कर भूधर बिनबे, तिन पद ढोक° हमारी । भाग उदय दरसन जब पाऊं, ता दिन की बलिहारी ॥४॥ १. हैं २. पर्वत ३. शहर, गांव ४. पर्वत की गुफा ५. पलंग ६. चन्द्रमा का उजाला ७. नौकर ८. करुणा रूपी स्त्री ९. शील रूपी जल १०. तप रूपी ग्रास ११. उपकारी १२. क्रीड़ा करते हैं १३. चित्त रूपी चंचल पक्षी को १४. पाप दूर करने वाले १५. बिना वस्त्र १६. गौरव १७. गाली १८. तप रूपी आग जलाई १९. कालिमा २०. प्रणाम । For Personal & Private Use Only Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६६) (१९३) शीत रितु-जोरै अंग सबही सकोरे तहाँ, तन को न मौर, नदी धौरे धीर जे खरे। जेठ की झको जहाँ अंडा चील छोरै पशु, पंछी छोह लौर गिरि कोरै तप वे धरे ॥ घोर घन घोरै घटा चहुँ ओर डोरै ज्यों ज्यों चलत हिलोरै, ल्यों त्यों फोरै बल ये अरे । देह नेह तोरे परमारथ सौ प्रीति जौरे, ऐसे गुरु ओरैं हम हाथ अंजुलि करे । कविवर द्याननतराय (पद १९४-१९९) (१९४) परम गुरु वरसत ज्ञान झरी ॥ टेक ॥ हरषि हरषि बहु गरजि गरजि कै, मिथ्यातपन हरी ॥ परम. ॥ १ ॥ सरधा भूमि सुहावन लागै, संशय बेलिहरी । भविजन मन सर" वर भरि उमड़े, समुझि पवन सियरी २॥ परम. ॥ २ ॥ स्याद्वाद बिजली चमकै, पर३-मत-शिखर परी चातक मोर साधु श्रावक के, हृदय सुभक्ति भरी ॥ परम. ॥ ३ ॥ जप तप परमानन्द बढ्यो है सुसमय" नीव धरी । 'द्यानत' पावन ६ पावस आयो थिरता शुद्ध करी ॥ परम. ॥ ४ ॥ (१९५) गुरु समान दाता नंहि कोई॥ टेक ॥ भानु प्रकाश १७ न नाशत जाको, सो अंधियारा डारै८ खोई ॥ १ ॥ मेघ समान सबन पै बरसै, कछु इच्छा जाकै नहि होई । नरक पशूगति आग माहितै, सुरग मुकत सुख थापै९ सोई ॥ २ ॥ तीन लोक मंदिर में जानो, दीपक मम पर काश कलोई । दीप तले अंधियार भरयौ है अंतर बहिर विमल है जोई ॥ ३ ॥ तारन तरन जिहाज सुगुरु है, सब कुटुम्ब डोवै जग तोई । 'द्यानत' निशिदिन निरमल मन में राखो गुरुपद पंकज १ दोई ॥ ४ ॥ १. सिकोड़े हुए २. मोड़ना ३. नदी के पास ४. छोड़ते हैं ५. लौटना ६. पर्वत के कोने में ७. झड़ी ८. प्रसन्न हो होकर ९. मिथ्यात्व रूपी जलन १०. संशय रूपी ११. तालाब १२. शीतल १३. अन्य मल रूपी शिखर पर गिरी १४. बढ़ा है १५. अच्छे समय में १६ पवित्र वर्षा १७. सूर्य का प्रकाश १८. नष्ट कर देते हैं १९ स्थापित करना २०. लो, शिखा २१. कमल । For Personal & Private Use Only Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६७) (१९६) धनि ते साधु रहत वन माही ॥ टेक ॥ शत्रु मित्र सुख दुख सम जाने, दरसन देखत पाप पलाहीं ॥१॥ अट्ठाइस मूल गुण धारै, मन बच काय चपलता नाहीं । ग्रीस शैल शिखर हिम तरिनी, पावस वरखा अधिक सहाही ॥२॥ क्रोध मान छल लोभ न जानै राग दोष नाहीं उनपाही अमल अखण्डित चिद्गुण मंडित ब्रह्मज्ञान में लीन रहाही ॥३॥ तेई साधु लहै केवल पद, आठ-आठ दह शिखपुर जाहीं । 'द्यानत' भवि तिनके गुण गावें पावै शिवतुख दुख नसाही ॥ ४ ॥ (१९७) धनि धनि ते मुनि गिरिवन वासी ॥टेक ॥ मार मार जग जार जारते द्वादस ब्रत तप अभ्यासी ॥१॥ कौड़ी लाल पास नहिं जाके जिन छेदी आसा' पासी । आतम२ आतम पर-पर जाने, द्वादस तीन प्रकृति नासी ॥ २ ॥ जा दुख देख दुखी सब जग द्वै सो दुख लख सुख द्वै तासी । जाको सब जग सुख मानत है सो सुख जान्यो" दुखरासी ॥३॥ बाहज भेष कहत अंतर गुण, सत्य मधुर हितमित भासी । 'द्यानत' ते शिव पथिक हैं पांव परत पातक ८ जासी ॥४॥ (१९८) राग असावरी भाई ! कौन धरम हम पालैं ॥टेक ॥ एक कहें जिहि कुल में आये, ठाकुर को कुल गालै ॥ भाई ॥१॥ शिवमत बौध सु वेद नयायक,° मीमांसक अरु जैना । आप सराहैं आगम गाहैं,२२ का की सरधा ऐना ॥ भाई. ॥२॥ परमेसुर२३ पै हो आया हो, ताकी बात सुनीजै । पूंछे बहुत न बोले कोई, बड़ी फिकर क्या कीजै ॥ भाई. ॥३॥ १. भाग जाता है २. ग्रीष्म ३. पर्वत की चोटी ४. उनके पास ५. अष्ट कर्म ६. धन्य ७. पहाड़ों और नगरों में रहने वाले ८. संसार जलाने वाले ९. बारह १०. काटा ११. आशा का जाल १२. स्वपर १३. जिस दुख को देखकर १४. सुख होता है १५. सुख जाना १६. बाह्य स्वरूप १७. हिलमिल बोलने वाले १८. पाप जायेंगे १९. बोलते हैं २०. नैयायिक २१. प्रशंसा करते हैं २२. अवगाहन करना २३. परमेश्वर के पास हो २४. बड़ी चिन्ता। For Personal & Private Use Only Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६८) जिन' सब मत के मत संचय, करि मारग एक बताया । 'द्यानत' सो गुरु पूरा पाया, भाग हमारा आया ॥ भाई ॥ ४ ॥ ( १९९) राग गौरी सैली' जयवंती यह हजो ॥टेक॥ ल्यागो 1 ॥ सैली. ॥ २ ॥ शिवमारग को राह बताबे और न कोई दूजो ॥ सैली. ॥ १ ॥ देव धरम गुरु सांचे जानै झूठो मारग सैली के परसाद हमारो, जिन चरनन चित लाग्यो दुख चिरकाल सह्यौ अति भारी, सो अब सहज बिलायो दुरित तरन दुख हेरन मनोहर, धरम पदारथ पायो ॥ सैली. ॥ ३ ॥ 'द्यानत' कहै सकल सन्तन को, नित प्रति प्रभुगुन गायो । जैन धरम परधान ध्यान सौं, सबही शिवसुख पावो ॥ सैली. ॥ ४ ॥ कवि जिनेश्वरदास (पद २००) (२००) ॥ वन में नगन तन राजै, " योगीश्वर महाराज ॥ इकलो दिगम्बर स्वामी दूजो कोई नांहि साथ पांचों महाव्रत धारी, परीसह जीते बहुभांति ॥ वन में. जिअन मन मार्यो हिरदै धारयो वैराग ॥ वन रजनी भयानक कोरी, विचरै' व्यंतर वैताल ॥वन में. में. ॥ वरसै' विकट घनमाला, दमके दामिनी चालै वाय° सरही कपिन मद" गालै, थरहर १२ कांपै सब गात रवि की किरण सर१३ सोखै, गिरपै ठाड़े मुनिराज जिनके चरन की सेवा, देवे शिव सुख साज अरजी 'जिनेश्वर' ये ही, प्रभुजी राखो मेरी लाज ॥ वन में. ॥ वन में. महाकवि दौलतराम (पद २०१ - २०५) वन में ॥ टेक ॥ वन में. ॥ १ ॥ ॥ २ ॥ ॥ ३ ॥ ॥ ४ ॥ ॥ वन में. ॥ ५ ॥ ॥ ६ ॥ ॥ वन में. वन में. (२०१) चिन्मूरति दिग्धारी" की मोहि रीति लगत है अटपटी ॥ टेक ॥ ॥ ७ ॥ ॥ ८ ॥ १. सब मतों का संचय २. ढंग, पद्धति ३. और दूसरा नहीं ४. सहन किया ५. सुशोभित होना ६. २२ परीसह ७. रात्रि ८. विचरण करते हैं ९. बरसते हैं १०. हवा ११. मद चूर करना १२. थरथर कांपना १३. तालाब १०. दिगम्बर । For Personal & Private Use Only ॥ ९ ॥ Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६९ ) 1 बाहर नारकिकृत दुख भोगे, अंतर सुख रस गटागटी रमत अनेक सुरनि संग पै तिस, परनति तैं नित हटाहटी ज्ञान विराग शक्ति विधिफल भोगत पै विधि घटाघटी सदन निवारी तदपि उदासी तातैं आश्रव छटाछटी ॥ २ ॥ जे भव हेतु अबुध केते तस करत वन्ध की झाझ नारक पशुतिय षट विकलत्रय प्रकृतिन की है कटाकटी' संयम धर न सकै पै संयम धारन की उर चटाचटी 1 तासु सुयश गुन की दौलत के लगी रहै नित रटारटी ° ॥ ४ ॥ 11 3 11 (२०२) जिन रागद्वेष त्यागा वह सतगुरु हमारा ॥ जिन. ॥ टेक ॥ तज राजरिद्ध" तृणावत १२ निज काज संभारा ॥ जिन राग ॥ १ ॥ रहता है वह वन खंड में धरि ध्यान कुठारा १३ । जिन मोह महातरु को जड़मूल" उखारा ॥ जिन राग. सर्वांग तज परिग्रह दिग अंवर धारा अनंत ज्ञान गुन समुद्र चारित्र भंडारा ॥ जिन राग. शुक्लागिन ६ को प्रजाल के वसु७ कानन जारा । ऐसे गुरु को दौल है नमोऽस्तु हमारा ॥ जिन राग. 118 11 ॥ २ ॥ 1 ॥ ३ ॥ १ ॥ (२०३) धनि मुनि जिनकी लगी लौ शिव" ओर नै ॥ धनि ॥ टेक ॥ सम्यग्दर्शन ज्ञान चरन १९ विधि धरत हरत भ्रम चोर नै ० ॥ धनि ॥ १ ॥ यथाजात " मुद्राजुत सुन्दर सदन विजन २२ गिरि को । तृन कंचन अरि स्वजन गिनत सम निंदन और निहोरनै २३ ॥ धनि ॥ २॥ भवसुख चाह सकल तजि बल सजि, करत द्विविध तप घोरनै २४ । परम विराग भाव पवितैं २५ नित चूरत करम कठोरनै २६ ॥ धनि ॥ ३ ॥ छीन शरीर न हीन चिदानन मोह मोह झकोरनैं । १. गट- गट पीना २. देवता ३. हटना ४. कर्म फल ५. घटना ६. घर ७. छटना ८. काटना ९. चाट लगना १०. रटना ११. राज- ऋद्धि १२. घास की तरह १३. कुठार १४. मोह रूपी महान वृक्ष १५. जड़मूल से उखाड़ना १६. शुक्ल ध्यान रूपी आग १७. अष्ट कर्म १८. मोक्ष की तरफ १९. चारित्र २०. चोर को २१. जैसे उत्पन्न हुए २२. निर्जन जंगल के कोने में २३. स्तुति २४. घोट २५. वज्र २६. कठोर । For Personal & Private Use Only Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७०) जगतप-हर भवि कुमुद निशाकर मोदन दौल चकोर नै ॥धनि. ॥ ४ ॥ (२०४) धनि मुनि जिन यह भाव पिछाना ॥धनि. ॥ टेक ॥ तनव्यय वांछित प्रापति मानी, पुण्य उदय दुख जाना ॥ १ ॥ एक विहारी सकल' ईश्वरता त्याग महोत्सव माना। सब सख को परिहार सार सूख जानि राग रुष माना ॥ २ ॥ चित स्वभाव को चिंत्य प्रान निज विमल ज्ञान छग साना । 'दौल' कौन सुख जान लह्यो तिन करो शांति रस पाना ॥ ३ ॥ . (२०५) धनि मुनि आत्तम हित कीना। भव असार तन अशुचि विषय विष, जान महाव्रत लीना ॥ टेक ॥ एक विहारी परीगह छारी परिसह सहत अरीना । पूरब तन तप साधन मानन, लाज गनी परवीना ॥ धनि. ॥ १ ॥ शून्य सदन गिर गहन शुफा में, पदमासन अनीना२। परभावन से भिन्न आप पद, ध्यावत मोह विहीना ॥२॥ स्वपर भेद जिनकी बुधि जिनमें, पागी५ वाहि६ लगीना । 'दौल' तास पद वारिज".रज से किस अघ करे न छीना ॥ ३ ॥ महाकवि बनारसी दास (२०६) ऐसे मुनिवर देखे वन में जाके राग द्वेष नहि मनमें ॥टेक ॥ विरकत" भाव वृक्ष के नीचे बूंद सहे वह तन में । ऐसे झाड़ी जंगल नदी किनारे ध्यान धरें वो मन में ॥ ऐसे. ॥ गिरिवर मरुत शिखर के ऊपर ध्यान धरें गीषम में । ऐसे मुनिवर देखि 'बनारसि', नमन करत चरणन में ॥ ऐसे. ॥ १. भव्य रूपी कुमुद २. आनंद देना ३. चकोर ४. शरीर कृश करना ५. सभी स्वामित्व ६. महान् उत्सव ७. राग देव, ८. अपवित्र ९. छोड़ा, त्यागा १०. दुश्मन के ११. गिना १२. चतुर १३. लगाकर १४. पर भाव से १५. लीन १६. उसी में लगन १७. कमल १८. विरक्त भाव १९. वर्षा । For Personal & Private Use Only Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७१) बुध महाचंद (२०७) मुनिजन जगजीव दयाधारी ।। मुनि. ।। टेर । पक्षी जटाउ ज्ञान बसत बन ताको जैन धर्मकारी' ॥ मुनि. ॥१॥ सम्यग्दर्शन प्रथम बतायो पांच अणुव्रत विस्तारी ॥ २ ॥ धर्मध्यान रत करके ताको हिंसक' भाव सब निवारी ॥ ३ ॥ ऐसे मुनिवर पुण्य उदय तैं भवि जीवन को मिलतारी' ॥ ४ ॥ बुधमहाचन्द्र मुनीश्वर ऐसे हम मिलने की बांछा भारी ॥ ५ ॥ कवि भागचन्द्र (पद २०८-२११) (२०८) सम आराम विहारी, साधजन सम आराम विहारी ॥टेक ॥ एक कल्पतरु पुष्पन सेती जजत भक्ति विस्तारी । एक कंठ बिच सर्प नाखिया क्रोध दर्प जुत भारी । राखन एक वृत्ति दोउन में सबही के उपगारी २ ॥ सम. ॥१॥ सारंगी३ हरिबाल" चुखावै५ पुनि मराल ६ मंजारी । व्याघ्र- बालकर सहित नन्दिनी, व्याल° नकुल की नारी । तिनके चरन कमल आश्रयतें अरिता२१ सकल निवारी२२ ॥ २ ॥ अक्षय अतुल प्रमोद विधायक ताकौ धाम अपारी । काम धरा बिच गढ़ी सो चिरते२३ आतम निधि अविकारी । खनत४ ताहि लेकर करमें जे, तीक्षण बुद्धि कुदारी ॥ ३ ॥ निज शब्दोपयोग रस चाखत पर ममता न लगारी । निज सरधान ज्ञान चरनात्मक निश्चय शिवमगचारी । 'भागचन्द्र' ऐसे श्रीपति प्रति, फिर फिर ढोक हमारी ॥ ४ ॥ (२०९) राग कलिंगड़ा ऐसे साधु सुगुरु कब मिलि है॥ टेक ॥ १. जैनधर्म धारण कराया २. हिंसक भाव दूर किया ३. मिलते हैं ४. मिलने की इच्छा ५. समता ६. फूल के लिए ७. पजते हैं८.डाले है ९. क्रोध और अहंकार से यक्त हैं१०. व्यवहार ११. दोनों में (शत्र मित्र) १२. उपकार हिरणी १४. सिंह के बच्चे को १५. दूध पिलाती है १६. हंस १७. बिल्ली १८. बाघ का बच्चा १९. गाय २०. सर्प-नकुल २१. बैर २२. दूर कर दिया २३. चिर काल से २४. खोदते हैं २५. बुद्धि रूपी कुदाली २६. श्रद्धा ज्ञान और चरित्र । For Personal & Private Use Only Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७२ ) आप तर अरु पर को तारैं, निष्प्रेही निर्मल हैं | ऐसे ॥ १ ॥ तिलतुष मात्र संग नहि जाकै, ज्ञान ध्यान गुण बल हैं ॥ ऐसे ॥ २ ॥ शान्त दिगम्बर मुद्रा जिनकी कन्दिर तुल्य अचल है । ऐसे ॥ ३ ॥ 'भागचन्द्र' तिनको नित चाहैं ज्यों कमलनि को अल है ॥ ऐसे. ॥ ४ ॥ (२१०) राग सोरठ मल्हार में १ ॥ २ ॥ गिरि' वनवासी मुनिराज मन वसिया म्हारे हो ॥ टेक ॥ कारन बिन उपगारी जग के, तारन तरन जिहाज ॥गिरि ॥ जन्म जरामृत गर्द' गंजन को, करत विवेक इलाज ॥ गिरि ॥ एकाकी जिमि' रहत केसरी, निरभय स्वगुन समाज ॥गिरि ॥ निर्भषन " निर्वसन " निराकुल, सजि रत्नत्रय साज ॥ गिरि ॥ ४ ॥ ध्याना३धयन मांहि तत्पर नित भागचन्द्र शिवकाज ॥गिरि ॥ ५ ॥ ३ ॥ १ ॥ ० २ ॥ (२११) कब मैं साधु स्वभाव धरूंगा ॥टेक॥ बन्धुवर्ग से मोह त्यागकैं जनकादिक १४ जनसौं उवरूंगा । तुम जनकादिक देह संबंधी, तुमसौं मैं उपज " न मरूंगा १६ ॥ कब . ॥ श्रीगुरु निकट जाय तिन बच सुन, उभय लिंगधर वन विचरुंगा १७ । अन्तमूर्च्छा त्याग नगन है, बाहिरता " की हेति" हरूंगा ॥ कब. ॥ दर्शन ज्ञान चरन तप वीरज या विधि पंचाचार चरूंगा । ताखत निश्चिल होय आपमें पर परिणामनि २१ सौं उवरूंगा ॥ कब. ॥ ३ ॥ चाखि २२ स्वरूपानंद सुधारत चाह ३ दाह में नाहिं जरूंगा । शुक्लध्यान बल गुण श्रेणि चढ़ परमात्तम पद से न टरूंगा ॥ कब. ॥ ४ ॥ काल अनंतानं जथारथ, रह हूं फिर विमान फिरूंगा। ‘भागचन्द्र' निरद्वन्द्व निराकुल, यासों ६ नहि भव भ्रमण करूंगा ॥ कब. ॥ ५ ॥ २४ .२५ १. पार हो २. निष्पृही ३. पहाड़ के समान ४. भौंरा ५. पर्वत और वन में रहने वाले ६. वसो ७. मेरे ८. रोग नष्ट करने को ९. जिस प्रकार १०. सिंह ११. निराहार १२. निर्वस्त्र १३. ध्यान और अध्ययन १४. पिता आदि १५. पैदा होना १६. मरना १७. विचरूंगा- विचरण करूंगा १८. बहिरंगता १९. प्रेम २०. नष्ट कर दूंगा २१. पर परिणामों से २२. चखकर २३. इच्छाओं की २४. गुणस्थान २५. यथार्थ २६. इससे । For Personal & Private Use Only Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७३) कवि नयनानंद (२१२) इक योगी असन' बनावै तिस भखत ही पाप नसावै । ज्ञान सुधारस जल भरलावै चूल्हा' शील बनावै ॥ कर्मकाष्ठ का चुग चुग बोल, ध्यान अगनि प्रजलाने । इक योगी असन बनावे ॥१॥ अनुभव भाजन निजगुन तंदुल, समता क्षीर मिलावै । सोऽहं मिष्ट निशंकित व्यंजन, समकित छोर लगावै ॥ इक. ॥ २ ॥ स्याद्वाद सतभंग मसाले, गिनती पार न पावै ।। निश्चय नय का चमचा फेरे विरत भावना भावै ॥ इक. ॥ ३ ॥ आप बनावे आपहिं खावै खावत नाहि अघावै।। तदपि मुक्ति पद पंकज सेवै, ‘नयनानंद' सिर नावै ॥ इक. ॥ ४ ॥ ५-सम्यग्दर्शन महाकवि बुधजन (२१३) धनि सरधानी३ जग में, ज्यों जल कमल निवास ॥ धनि. ॥ टेक ॥ मिथ्या तिमिर फट्यो प्रगट्यो शशि, चिदानंद परकास५ ॥१॥ पूरव कर्म उदय सुख पावें भोगत ताहि उदास । जो दुख में न विलाप करें निखैर ६ सहै तन त्रास ॥ धनि. ॥२॥ उदय मोह चारित परवशि है, ब्रत नहि करत प्रकास जो किरिया करि हैं निरवांछक'", करैं नहीं फल आस ॥ धनि. ॥ ३ ॥ दोष रहित प्रभु धर्म दयाजुत परिग्रह विन गुरु तास । तत्वारथ रुचि है जा के घर ‘बुधजन' तिनका दास ॥धनि. ॥ ४ ॥ (२१४) अब थे क्यों दुख पावो रे जियरा'९, जिनमत समकित धारौ ॥ टेक॥ निलज° नारि सुत व्यसनी मूरख, किंकर करत विगारो । सा नूम अब देखत भैया, केसे करत गुजारौ ॥अब. ॥१॥ १. भोजन २. खाते ही ३. शील रूपी चूल्हा ४. कर्म रूपी लकड़ी ५. जलाकर ६. जलाने के लिए ७. अनुभव रूपी बर्तन ८. गुण रूपी तंदुल ९. समता रूपी दूध १०. बघार ११. स्वयं बनाना १२.धन्य १३.श्रद्धानी १४.अंधकार फट गया १५.प्रकाश १६. बैररहित १७.बिना इच्छा १८.आप १९.प्राणी २०.निर्लज्ज। For Personal & Private Use Only Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७४) वाय पित्त कफ खांसी तन दृग', दीसत नाहिं उजारौ । करजदार अह वेरुजगारी, कोऊ नाहिं सहारौ ॥ अब. ॥ २ ॥ इत्यादिक दुख सहज जानियो, सुनियौ अब विस्तारौ । लख चौरासी अनंत भवनलौं', जनम मरन दुख भारौं ॥ अब. ॥ ३ ॥ दोषरहित जिनवर पद पूजौ गुरु निरग्रंथ विचारौ । 'बुधजन' धर्म दया उर धारौ, ह-ह जैकारो॥ अब. ॥४॥ कवि भागचंद (२१५) यही एक धर्ममूल है मीता ! निज समकित सारसहीता ॥ टेक ॥ समकित सहित नरक पदवासा, खासा बुधजनगीता । तहत निकसि होय तीर्थंकर सुरगन जजत "सप्रीता ॥१॥ स्वर्गवास हूं नीको २ नाही बिन समकित अविनीता । तहतें चय३ एकेन्द्री उपजत, भ्रमत सदा भयभीता ॥ २ ॥ खेत बहुत जोतेहु बीज बिन, रहत धान्य सों रीता। सिद्धि न लहत कोटि तपहूंते, वृथा कलेश सहीता६ ॥ ३ ॥ समकित अतुल अखण्ड सुधारस, जिन पुरूषजन ने पीता७ । भागचंद ते अजरअमर भये, तिनहीं ने जगजीता ॥४॥ (२१६) राग-दादरा धनि ते प्रानि जिनके तत्वारथ ८ श्रद्धान ॥ धरि. ॥टेक ॥ रहित सप्तभय तत्वारथ में चित्त न संशय आन । कर्म कर्ममल की नहिं इच्छा, परमें धरत न ग्लानि ॥१॥ सकल भाव में मूढदृष्टि तजि, करत साम्य रसपान । आतमधर्म बढावै वा, पर दोष न२° उचरै वान ॥ धरि. ॥२॥ निज स्वभाव वा जैन धर्म में, निजपर थिरता दान, रत्नमय महिमा प्रगटावेर प्रीति स्वरूप महान ॥३॥ ये वसु२२ अंग सहित निर्मल यह समकित निज गुन जान । १.आँख २.दिखाई देना ३.बेगारी ४.अन्य ५.भवों तक ६.होगा ७.मित्र ८.अच्छा ९.वहां से १०.निकलकर ११.पूजता है १२.अच्छा १३.निकलकर १४.धान से खाली रहता है १५.करोड़ो तपों से भी १६.सहित१७.पिया १८.तत्वार्थ १९.समता रस २०.दूसरे के अवगुण न कहें २१.महिमा प्रगट करे २२.सम्यक्त्व के आठ अंग। For Personal & Private Use Only Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७५) भागचन्द्र शिवमहल बढ़न को, अचल प्रथम सोपान महाकवि भूधरदास (२१७) राग - मल्हार 11 अब मेरे समकित सावन आयो । अब मेरे ॥ टेक वीति कुरीति मिथ्यामति' ग्रीषम पावस सहज सुहायो ॥ अनुभव दामिनि दमकन लागी, सुरति घटा घन छायो । बोलें विमल विवेक, सुमति सुहागिनि भायो ॥ २ ॥ गुरु धुनि गरज सुनत सुख उपजै मोर सुमन विहसरयो साधक भाव अंकुर उठे बहु जित तित हरष सबायो ' भूल धूल कहिं मूल न सूझत समरस जल झर लायो 'भूधर' को निकसैं अब बाहिर, निज निश्चू धर पायो ॥ ४ ॥ । ॥ ३ ॥ । (२१८) राग बंगाला जग में श्रद्धानी जीव जीवन मुक्त हैंगे || जग में. ॥ टेक ॥ देव गुरु सांचे मानैं सांचो मानैं सांचो धर्म हिये' आनें ग्रन्थ तेही सांचे जानै जीवन की दया पालैं परनारी भाल° नैन जिनके जीव्य मैं संतोष धारैं हियँ समता विचारें, आगैं को न बंध पारै, पाछे २ सौं चुकत ३ हैंगे ॥ जग में. बाहिज ज१४ क्रिया अराधै अन्तर १५ सरूप साथै, जे जिन उकत हैंगे ॥ जग में. ॥ १ ॥ झूठ तजि चोरी टालें, लुकत" हैंगे ॥ जग में. ॥२॥ || 3 || 'भूधर' मुक्त लाधैँ१६ कहूं न रुकत हैंगे ॥ जग मे. ॥ ४ ॥ महाकवि द्यानत (२१९) बसि १७ संसार में पायो दुःख अपार 11 8 11 ॥टेक॥ १. मिथ्यात्वरूपी ग्रीष्म २ . बिजली ४. जहां तहां ५. बढ़ गया ६. निश्चय कर पाया ७. सच्चे ८. हृदय में लाता है ९. कहा हुआ १०. देखन में ११. छिपते है १२. पीछे के १३. नष्ट होंगे १४. बहिरंग क्रियायें करना १५. अन्तरंग में आत्मस्वरूपका ध्यान करना १६. प्राप्त करते हैं १७. रहकर । For Personal & Private Use Only Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७६) मिथ्याभाव हिये धरयो, नहिं जानो सम्यकचार ॥ वसि ॥ १ ॥ काल अनादिहि हौं रुल्यो' हो, नरक निगोद मंझधार । सुरनर पद बहुत धरे पद पद प्रति आतम धार ॥ वसि ॥ २ ॥ जिनको फल दुख पुंज है हो, ते जाने सुखकार । भ्रममद पाय विकल भयो, नहिं गह्यो सत्य व्योहार ॥ वसि ॥ ३ ॥ जिनवानी जानी नहीं हो, कुगति विनाशनहार । 'द्यानत' अब सरधा' करो, दुख मेढि लह्यो ' सुखसार ॥ वसि ॥ ४ ॥ (२२०) ॥देखे. ॥टेक 11 देखे सुखी सम्यकवान सुख दुख को दुख रूप विचारैं धारैं अनुभव ज्ञान ॥ देखे. ॥ १ ॥ नरक सात में के दुख भोगें, इन्द्र लखै तिन मान । भीख मांग कैं उदर भरै न करैं चक्री को ध्यान ॥ देखे. ॥ २॥ तीर्थंकर पद को नहि चम्वें जपि उदय अप्रमान । कुष्ट आदि बहु व्याधि दहल न, चहत' मकरध्वज' थान ॥ देखे. ॥ ३ ॥ आधि व्याधि निरवाध अनाकुल, चेतन जोति पुमान" । 'द्यानत' मगन सदा तिहिमांहीं, नांही खेद" निदान ॥ देखे. ॥ ४॥ (२२१) काल हरैंगे । अब हम अमर भये न मरैंगे ॥ अब. ॥ टेक ॥ तन कारन मिथ्यात दियो १२ तज, क्यों करि देह धरेंगे ॥ १ ॥ उपजै मरे कालतैं प्रानी, तातैं ३ राग दोष जग बंध करत हैं इनको नाश देह विनाशी मैं अविनाशी भेदज्ञान नासी जासी हम थिरवासी १५, चोखे १६ हों निखरेंगे | अब ॥ ३ ॥ मरे अनन्त बार बिन समझैं, अब सब दुख विसरेंगे । 'द्यानत' निपट निकट दो आखर, बनि सुमरैं सुमरैंगे ॥अब ॥ ४ ॥ करेंगे | अब ॥ २ ॥ पकरेंगे १४ 1 १. भटका २ . ग्रहण किया ३. सत्यव्यवहार ४ नष्ट करने वाला ५. श्रद्धा ६. प्राप्त किया ७. सम्यग्दृष्टि ८ . चाहना ९. कामदेव १०. पुरुष ११. दुख१२ . त्याग दिया १३. इसलिये १४. पकड़ेगे १५. स्थिर रहने वाले १६. अच्छे । For Personal & Private Use Only Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७७) कवि जिनेश्वरदास (२२२) मिथ्याभाव मत रखना प्यारे जी मिथ्याभाव दुखदानी बडा । मिथ्याभाव तजकैं निजहेरो', सो ज्ञाता जग जान बड़ा || टेर ॥ निज पर को बिन जाने जगत जन, कर्मजाल में आते हैं । धन दौलत विजयनि में फंसके बहुत भांति दुख पाते है ॥ १ ॥ विषयन से हट जा रे पृथ्वीजन इनको बिष चढ़ जावैगा त्रिसना लहर जहर का मरया फिर गाफिल हो जावेगा ॥ २ ॥ तन धन यौवन जीवन वनिता, इनको जो न अपनावैगा । ये तेरे नहिं संग चलेंगे, फिर पाछें?. पछतावैगा ॥ ३ ॥ तज पर भाव स्वभाव सम्हारे वीतराग पद ध्यावैगा । कहत 'जिनेश्वर' यह जग वासी, तव शिवमंदिर' पावैगा ॥ ४ ॥ 1 (२२३) राग-केदारो याही मानौ निश्चय मानौ तुम बिन और न मानौ ॥ टेक ॥ अबलौं गति' गति में दुख पायो, नाहि लायौ सरधाना ॥ १ ॥ दुष्ट सतावत कर्म निरंतर करौं कृपा इन्हें मानौँ भक्ति तिहारी भव अब पांऊ, जौलौं लहौं शिवथानों ॥ २ ॥ कवि भागचंद (२२४) राग - दीपचन्दी सोरठ प्रानी समकित ही शिवपंथा, या बिन निर्मल" सब ग्रन्था ॥ जा बिन बाह्यक्रिया तप कोटिक सफल वृथा है हम जुतरथ भी सारथ बिन जिमि चलत नहीं ऋजु भागचंद सरधानी नर भये शिवलछमी के .१२ रंथा ॥ पंथा ॥ कंथा १३ ॥ १. देखो खोजो २. साथ ३. पीछे ४. ध्यान करेगा ५. मोक्ष ६. अनेक गतियों में ७. ज्ञान करियो ८. जबतक ९. मोक्ष १०. मोक्षमार्ग ११. व्यर्थ १२. सरल (सीधा) मार्ग १३. पति । टेक ॥ प्रानी ॥ १॥ प्रानी. ॥ २ ॥ प्रानी ॥ ३ ॥ For Personal & Private Use Only Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७८) महाकवि दौलतराम (२२५) शिवपुर की डगर समरस' सौंभरी, सो विषय विरस रचि थिरविसरी ॥ सम्यक दरश-बोध-व्रत्तमय भव दुखदावानल मेघ झरी ॥१॥ ताहि न पाय तपाय देह बहु जनम मरन करि विपति भरी । काल पाय जिन धुनिसुनि मैं जन, ताहि लहूं सोई धन्य धरी ॥२॥ ते जन धनि या मोहि नित, तिन कीरति सुरयति उचरी । विषयचाह भवराह त्याग अब दौलै हरो रज रहसि अर ॥ ३ ॥ (२२६) तू काहे को करत रति तर में, यह अहित मूल जिम'कारासदेन २ ॥ टेक ॥ चरमपिहित३ पलरुधिर लिप्तमल द्वार सवै४ छिन छिन में ॥१॥ आयु निगड़५ फंसि विपति भरै सो, क्यों न विचारत मन में ॥२॥ सुचरन लांग त्याग अब या को जो न भ्रमै भव वन में ॥ ३ ॥ 'दौल' देह'६ सौं नेह देहे को हेतु कह्यो ग्रन्थन में ॥ ४ ॥ (२२७) हमतो कबहू न निज गुन भाये। तन निज मान जान तन दुख सुख में बिलखे ९ हरखाये ॥ तनको मरन मरन लखि तनको धरन, मान हम जायें ॥ हम तो. ॥ टेक ॥ या भ्रम भौर२१ परे भवजल चिर चहुंगति विपत लहाये ॥ हम तो. ॥१॥ दरशबोधि व्रतसुधा न चाख्यौ, विविध विषय२-विष खाये । सुगुरू दयाल सीख दई पुनि पुनि सुनि २ उर२३ उरनहिं लाये ॥ हम तो. ॥२॥ वहिरातमता तजी न अन्तर दृष्टि न है निज ध्याये । धाम-काम-धन-कामा की नित आश"हुताश जलाये ॥ हम तो. ॥ ३ ॥ अचल अनूप शुद्ध चिद्रूपी सबसुखमय मुनि गाय । 'दौल' चिदानंद स्वगुन मन जे ते जिय सुखिया थाये ॥हम तो. ॥४॥ १.मार्ग २.समता रस से ३.अन्य रस ४.सदैव से भुलाई हुई ५.सम्यग्दर्शज्ञानचारित्र ६.बादल ७.जिनवाणी ८.घड़ी ९.पाप धूल १०. बुराई की जड़ ११.जिस प्रकार १२.कैदखाना १३.चमड़े से मढ़ा १४.बहता है १५.साँकल १६.शरीर से प्रेम १७.शरीर धारण करने का कारण १८.शरीर १९.रोना है २०.प्रसन्न होना २१.मैंवर २२.विषय-भोग २३.हृदय २४.आशा रूपी अग्नि। For Personal & Private Use Only Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७९) बुध महाचंद्र (२२८) देखो पुद्गल का परिवारा' जामैं चेतन है इक न्यारा ॥ देखो. ॥ टेर ॥ स्पर्श रसना घ्राण नेत्र फुनि श्रवण पंच यह सारा । स्पर्श' रस फुनि गंध वर्ण स्वर यह इनका विषयारा ॥देखो. ॥१॥ क्षुधा तृषा अरु राग द्वेष रुज सप्तधातु दुखकारा । वादर सूक्ष्म स्कंध अणु आदिक मूर्तिमई निरधारा ॥देखो. ॥ २ ॥ काय वचन मन स्वासोच्छास सजू थावर त्रस करि द्वारा बुधमहाचन्द्र चेतकरि निशिदिन तजि पुद्गल पतियारा ॥देखो. ॥ ३ ॥ (२२९) चिदानन्द भूलि रह्यो सुधिसारी । तू तो करत फिरै म्हारी म्हारी ॥ चिदानन्द ॥ टेर ॥ मोह उदयनै सबही तिहारो१ जनक मातसुत नारी । मोह दूरि कर नेत्र २ उघारो इनमें कोइ न तिहारी ॥चिदा. ॥ १ ॥ झाग समान जीवना जोविन'३ पर्वत नालाकारी । धन पद रज समान सबन को जात न लागै बारी" ॥चिदा. ॥ २ ॥ जूवा मांस मद्य अरू वेश्या हिंसा चोरी जारी । सप्तव्यसन में रत्त" होयके निज कुल कीनी कारी१६ ॥चिदा. ॥ ३ ॥ पुन्य पाप दोनों लार चलत हैं यह निश्चय उरधारी । धर्म द्रव्य तोय स्वर्ग पठावै पाप नर्क में डारी ॥चिदा. ॥ ४ ॥ आतम रूप निहार भजो जिन धर्म मुक्ति सुखधारी । बुध महाचन्द्र जानि यह निश्चय जिनवर नाम सम्हारी |चिदा. ॥ ५ ॥ (२३०) जीव निज° रस राचन" खोयो यो तो दोष नही करमन को ॥ टेर ॥ पुद्गल भिन्न स्वरूप आपणू२२ सिद्ध समान न जोयो२३ ॥१॥टेर । विषयन के संग रक्त होय के कुमती सेजां सोयो । १.परिवार २.जिसमें ३.अलग ४.फिर ५.स्पर्श आदि सभी ६.विषय-भोग ७.निश्चित किया ८.सावधान होकर ९.विश्वास ।१०.मेरा, मेरा ११.तुम्हारा १२.आँखें खोलो १३.यौवन १४.देर १५.लीन १६.काली १७.साथ १८.मेजता है १९.डाला २०.आत्म स्वरूप २१.लीन २२.अपना २३.देखा २४.बिस्तर, सेज। For Personal & Private Use Only Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८०) मात तात नारी सुत कारण घर घर डोलत रूप रंग नव जोविन परकी' नारी देख पर की निन्दा आप बड़ाई करता जन्म धर्म कल्पतरु शिवफलदायक ताको जरतैं तिसकी ठोड महाफल चाखन पाप बबूल ज्यों कुगुरु कुदेव कुधर्म सेयके पाप भार बहु बुध महाचन्द्र कहे सुन प्रानी अंतर मन नही न रोयो ॥ २ ॥ रमोयो २ 1 विगोयो रे ॥ ३ ॥ टोयो । बोयो ॥४॥ ढोयो । धोयो ॥ ५ ॥ (२३१) टेर 11 ॥ २ ॥ ॥ ३ ॥ देखो भूल हमारी हम संकट पाये ॥ सिद्ध समान स्वरूप हमारा डोले जेम' भिखारी ॥ १ ॥ पर परणति अपनी अपनाई पोट परिग्रह धारी द्रव्य कर्मवश भाव कर्मकर निजगल फांसी डाली जो कर्मन में मलिन कियो चित बांधे बंधन भारी बोये बीज बबूल जिन्होंने खावें क्यो सहकारी करम फसायें आग आखे भोगे सब संसारी ॥ ६॥ जैन सौख्य अब समताधारो अति गुरु सीख उचारो ॥ ७ ॥ 118 11 (२३२) निज घर नाय' पिछान्या रे, मोह उदय होने तैं मिथ्या भर्म भुलाना रे ॥ टेक ॥ तू तो नित्य अनादि अरूपी सिद्ध समाना रे पुद्गल जड़ में राचि" भयो तूं मूर्ख २ प्रधाना रे || निज. ॥ १ ॥ तन धन जोविन पुत्र वधू आदिक निज मानारे । यह सब जाय रहन के नाई समझ सियाना रे ॥ निज. ॥ २ ॥ बाल पके लड़कन संग जोविन त्रिया १३ जवाना रे 1 वृद्ध भयो सब सुधिगई १४ अब धर्म भुलाना रे ॥ निज. ॥ ३ ॥ गई गई अब राख रही तू समझ सियाना रे 1 बुध महाचन्द्र विचारि के जिन पद नित्य रमाना रे ॥ निज. ॥ ४ ॥ For Personal & Private Use Only ॥ ५ ॥ १. दूसरे की २. रमा ३. गमाया ४. जड़ से नहीं देखा ५. जिस प्रकार ६. पोटली, गठरी ७. अपने गले में ८. आम ९. नहीं १०.पहचाना ११.लीन होकर १२. पक्का मूर्ख १३. स्त्री १४. बुद्धि नष्ट हो गई । Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८१) (२३३) कुमति को छाड़ो' भाई हो॥ कुमति. ॥टेर ॥ कुमति रची इक चारुदत्त ने वेश्या संग रमाई । सब धन खोय होय अति फीके गुंथ' ग्रह लटकाई ।।कु॥ १ ॥ कुमति रची इक रावण नृपः सीता को हर ल्याई ।। तीन खण्ड को राज खोयके दुरगति वास कराई। कु. ॥ २ ॥ कुमति रची कीचक ने ऐसी द्रोपदि रूप रिझाई। भीम हस्त” थंभ तले गड़ि दुक्ख सहे अधिकाई ॥कु. ॥ ३ ॥ कुमति रची एक धवल सेठ ने मदन मजूसा ताई । श्रीपाल की महिमा देखि के डील' फाटि मरि जाई । कु. ॥४॥ कुमति रची इक ग्राम कूटने रक्त कुरंगी माई । सुन्दर सुन्दर भोजन तजके गोबर भश्त कराई ॥कु. ॥ ५ ॥ राय अनेक लुटे इस मारग वरनत कौन बड़ाई । बुध महाचन्द्र जानिये दुखकों कुमती द्यो छिटकाई ॥कु.॥ ६ ॥ कवि नंदब्रह्म (२३४) जान-जान अब रे, हे नर आतमज्ञानी ॥ टेक ॥ राग द्वेष पुद्गल की परिणति तूं तो सिद्ध समानी । चार गनी पुद्गल की रचना ताते कही विरानी । सिद्ध स्वरूपी जगत विलोकी, विरले के मन आनी । आपरूप आपहि परमाने गुरु शिष कथा कहानी । जनम मरण किसका है भाई, कीच रहित है पानी। सार वस्तु तिहु काल जगत में नहि क्रोधी नहि मानी । 'नन्दब्रह्म' घट माहि विलोके सिद्ध रूप शिवरानी ॥ महाकवि दौलतराम (२३५) मत कीज्यो जी यारी, घिन गेह देह जड़ जानके ॥ टेक ॥ १.छोड़ो २.गांठ ३.चुरा लाया ४.मोहित हो गया ५.शरीर ६.फटकार ७.हिरणी ८.खिलाया ९.राजा १०.इसलिये ११.दूसरे की १२.देखा १३.तीनो काल, लोक १४.दोस्ती १५.घृणास्पद । For Personal & Private Use Only Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८२ ) मात तात रज वीरज सों यह उपजी मल फुलवारी । अस्थिमाल' पल' नसा जाल की करम कुरंग थली पुतली चर्म मडी रिपु कर्म घड़ी जे जे पावन वस्तु जगत में ते इन स्वेद मेद कफ क्लेदमयी बहु, मद गद' व्यालि पिटारी ॥मत. ॥ ३ ॥ जा संयोग रोग अब तौलों, जो वियोग लाल लाल जल क्यारी ॥ मत. ॥ १ ॥ यह मूत्र पुरीष' भंडा धन धर्म चुरावन हारी ॥ मत. ॥ २ ॥ सर्व वि । शिवकारी । " बुध तासों न ममत्व करें यह, मूढ़ मतिन को प्यारी ॥ मत. ॥ ४ ॥ जिन पोसी ते भये सदोषी तिन पाये दुख भारी । जिन तप ठान ध्यान कर सुरधनु शरद जलद जल बुदबुद त्यों झट विनशनहारी । यातैं भिन्न जान निज चेतन, दौल होहु शमधारी ॥मत. ॥ ६ ॥ खोजी १, तिन परनी १२ शिवनारी ॥ मत. ॥ ५ ॥ (२३६) कवि भंवर सुझायो सत गुरू सहज स्वभाव शुद्ध अखण्ड निराकुल आतम, तिरकाली परद्रव्यन को था निज समझा, रागद्वेष राग द्वेष भी निज से न्यारा, ऐसो भान दृष्टि निमित्ताधीन रही नित, पर कर्ता चितलायो ॥ जो प्रणामें १४ सो ही कर्ता है, ऐसो मंत्र बतायो ॥सत. ॥ २ ॥ भूत भविष्यत वर्तमान में है जैसो दर्शायो । करायो । सत. ॥ १ ॥ सिद्ध समान 'भँवर' नित है सो जो निजमांहि समायो ॥सत. ॥ ३ ॥ ॥टेक॥ समझायो || लपटायो १३ 11 (२३७) कवि नयनानन्द जड़ता बिन आप लखें, नाहि मिटें मोरी ॥ टेक ॥ लखों जब निज हिये नैन भयो मोह अतुल चैन सम्यक् के अभाव मैंने कीनी अब फेरी ॥ जड़ता ॥१॥ 1 १. अस्थियाँ २. मांस ३. खून ४. हिरण ५. मल ६. बिगाड़ा ७. पसीना ८. रोग ९. पुष्ट किया १०. अपराधी १९. शोषत किया १२. परिणय किया १३. लिपट गया १४. परिणमन किया। For Personal & Private Use Only Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८३) अतुल सुख अतुल ज्ञान, अतुल वीर्य को निधान । काया में विराजे मान, द्रव्यकर्म विनिमुक्त' निश्चयनय लोक मान जैसे दधिमांहि छवि देखी हम अपने 'नैन' मुक्ति मेरी चेरी ॥ जड़ता ॥ २॥ भावकर्म असंयुक्त । परजय वप्रध तैसे जड़मांहि जीव । आनन्द की देरी ॥ जड़ता ॥ ३ ॥ ॥ जड़ता ॥ ४ ॥ (२३८) महाकवि द्यानतराय समकित ॥टेक॥ धिक ! धिक ! जीवन बिना दानशील तप ब्रत, श्रुत पूजा, आतम हेत न एक गिना ॥ ज्यों बिनु कंत कामिनी' शोभा, अंबुज' विन ज्यों सरवर सूना । जैसे बिना एकड़े बिन्दी' त्यों समकित बिन सरब गुना ॥ १ ॥ जैसे भूप बिना सब सेना नींव बिना मंदिर चुनना । जैसे चन्द बिहूनी रजनी इन्हें आदि जानो निपुना ॥ २ ॥ देव जिनेन्द्र साधु गुरु करुणा धर्म राग व्योहार भना १० निचे देव धरम गुरु आतम 'द्यानत' गहि मन वचन तना ॥ ३ ॥ ९ (२३९) कवि मक्खनलाल १४ ॥मोहि ॥ १ ॥ । मोहि सुन-सुन आवे हांसी पानी में मीन" पियासी ॥ टेक ॥ ज्यों मरा दौड़ा फिरे विपिन में ढूढें गन्ध वसे निजतन में । त्यों परमातम आतम में शठ १२, परमें३ करें तलासी कोई अंग भभूति लगावै, कोई शिर पर जटा चढ़ावै कोई पंच १५ अगनि तपता है रहता दिन रात उदासी ॥ मोहि ॥ २ ॥ कोई तीरथ बंदन जावे कोई गंगा जमुना न्हावे । कोई गढ़ गिरनार द्वारिका कोई मथुरा कोई काशी ॥ मोहि ॥ ३ ॥ कोई बंदें पढे पुरान ठठोल६, मंदिर मस्जिद गिरजा डोले । दूढ़ा सकल जहान न पाया जो घट घट का वासी ॥ मोहि ॥ ४ ॥ १.दासी_ २.रहित_३.सम्यक्त्व ४. पति ५. स्त्री ६. कमल ७. इकाई दहाई आदि ८. शून्य ९. रहित १०.कहा ११.मछली १२. मूर्ख १३. दूसरे में १४. खोज १५. पंचाग्नि १६. खोजता है । For Personal & Private Use Only Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८४) 'मक्खन' क्यों तू इत उत भटके, निज आतम रस क्यों न गटके' ॥ (२४०) अपनी सुधि पाय आप, आप से लखियो ॥ टेक ॥ मिथ्यानिशि भई नाश, सम्यक् रवि' को प्रकाश । निर्मल चैतन्य भाव, सहजहि दर्शायो ॥ अपनी. ॥ १ ॥ ज्ञानावरणादिकर्म रागादि मेटि मर्म । ज्ञान बुद्धि ते अखण्ड, आप रूप पायो ॥ अपनी. ॥ २ ॥ सम्यग दृगज्ञान चरणकर्ता कर्मादिकरण । भेद भाव त्याग के अभेद रूप पायो ॥ अपनी. ॥ ३ ॥ शुक्लध्यान खड्ग धार, वसु अरि कीने संहार । लोक अग्र सुथिर बास शाश्वत सुख पायो ॥ अपनी. ॥ ४ ॥ ६-सम्यक्ज्ञान (पद २४१-२५६) कवि बुधजन (२४१) ज्ञान बिन थान न पावौगे गति गति फिरौगे अजान ॥ टेक ॥ गुरु उपदेश लह्यो नहिं उरमैं १ गह्यौ नहीं सरधान २ ॥१॥ विषय भोग मैं राचि रहे करि आरति रौद्र कुध्यान, आन आन लखि आन भये तुम परनति करि लई आन ॥ २ ॥ निपट कठिन मानुष भव पायो और मिले गुनवान । अब 'बुधजन' जिनमत को धारौ, करि आपा पहिचान ॥ ३ ॥ (२४२) कविवर द्यानत ज्ञान सरोवर सोई हो भविजन ॥ टेक ॥ भूमि छिमा" करुना मरजादा, "सम रस जल जह होई ॥ १ ॥ परहित लहर हरख जलचर बहु, नय पंकति परकारी । सम्यक् कमल अष्टदल गुण हैं, सुमन भँवर अधिकारी ॥२॥ संजम शील आदि पल्लव हैं कमला सुमति निवासी । सुजस सुवास, कमल परिचय तैं परसत भ्रम तम नासी ॥३॥ १.इधर उधर २.पिये ३.सूर्य ४.प्रम ५.हुआ ६.तलवार ७.अष्टकर्म ८.सिद्धशिला ९. स्थान १०. चारों गतियों में ११. हृदय में १२. श्रद्धा १३. दूसरे को १४. क्षमा १५. मर्यादा १६. स्पर्श करते ही । For Personal & Private Use Only Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८५) भव मल जात न्हात भविजन का, होत परम सुख साता । 'द्यानत' यह सर और न जानें, जानें विरला ज्ञाता ॥ ४ ॥ (२४३) कारज एक ब्रह्म ही सेती ॥ टेक ॥ अंग संग नहि बहिर भूत सब, धन दारा' सामग्री तेती' ॥ १ ॥ सोल' सुरग नवग्रैविक में दुख सुखित सात में ततका वेती । जा शिव कारन मुनिगन ध्यावें सो तेरे घर आनंद खेती ॥ २ ॥ दान शील जप तप ब्रत पूजा अफल ज्ञान विन किरिया केती । पंच दरव तोते नित न्यारे न्यारी राग द्वेष विधि जेती ॥ ३ ॥ तू अविनाशी जग पर कासी ‘द्यानत' भासी सुक्ला वेति । ते जौ लाल मन के विकलप सब, अनुभव मगन सुविद्या एती ॥ ४ ॥ (२४४) पहाकवि भागचंद राग दीपचन्दी तेरे ज्ञानावरनदा परदा, तारौं सूझत नहिं भेद स्वरूप ॥ टेक ॥ ज्ञान विना भव दुख भोगे तू,° पंछी ज्यों बिन परदा ॥ तेरे. ॥१॥ देहादिक में आपो मानत' विभ्रम मदवश परदा ॥ तेरे. ॥ २ ॥ ‘भागचन्द' भव विनसे वासी होय त्रिलोक उपरदा २ ॥ तेरे. ॥ ३ ॥ (२४५) महाकवि बुधजन राग - कलिंगड़ा कुमती को कारज कूडाँ३ होती ॥कुमती ॥टेक ।। थांकी ४ नारि सयानो सुमती मतो कहै छै रुड़ौजी५ ॥कुमती. ॥ १॥ अनन्तानुबंध की जाई१६ क्रोध लोभ मद भाई । माता बहिन पिता मिथ्यामत्त, या कुल कुमती पाई जी ॥कुमती. ॥ २ ॥ घर को ज्ञान धन वादि लुटावै राग दोष उपजावै । १. स्त्री २. उतनी ३. सोलह स्वर्ग ४. ध्यान करते हैं ५. किसकी ६. द्रव्य ७. तुझसे ८. अलग ९. विकल्प १०. भोगने से ११. मानता है १२. ऊपर का १३. कचरा १४. आपकी १५.श्रेष्ठ अच्छा १६. पैदा की हुई १७. ज्ञान रूपी धन १८. व्यर्थ १९. लुटाता है। For Personal & Private Use Only Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८६) तब निर्मल लखि पकरि करम रिपु गति' गति नाच नचावै ॥कुमती. ॥ ३ ॥ या परिकर सौं ममत निवारौ 'बुधजन' सीख सम्हारौ । धरम सुता सुमती संग राचौ, मुक्ति महल में पधारों ॥कुमती. ॥ ४॥ (२४६) महाकवि भागचंद राग - जोड़ा ज्ञानी जीवन के भय होय न या परकार ॥ टेक ॥ इह भव परभव अन्य न मेरो ज्ञानलोक मम सार । मैं वेदक' इस ज्ञानभाव को, नहिं पर वेदन हार ॥ज्ञानी. ॥ १ ॥ निज सुभाव को नाशन तातै, चाहिये नहिं रखवार । परम गुप्त निजरूप सहज ही, पर का तहँ न संचार ॥ज्ञानी. ॥ २ ॥ चित्त स्वभाव निज प्राणवास को कोई नहिं हरतार । मैं चित पिंड अखण्डन तातें अकस्मात भय भार ॥ज्ञानी. ॥ ३ ॥ होय निशंक स्वरूप अनुभव, जिनके सह निरधार । मैं सो मैं पर सो मैं नहीं, भागचन्द भण्डार ॥ ज्ञानी. ॥ ४ ॥ (२४७) महाकवि द्यानत जगत में सम्यक उत्तम भाई ॥टेक॥ सम्यक सहित प्रधान नरक में, धिक् सठ सुरगति पाई ॥जगत. ॥ १ ॥ श्रावकव्रत मुनिव्रत जे पालैं, ममता बुद्धि अधिकाई । तिनौं अधिक असंजम चारी, जिन आतम लब लाई ॥जगत. ॥ २ ॥ पंच-परावर्तन तैं कीनै बहुत बार दुख दाई । लख चौरासी स्वांग धरि नाच्यौ ज्ञान कला नहिं जाई ॥जगत. ॥ ३ ॥ सम्यक् विन तिहुँ जग दुखदाई जहँ भावै तहँ जाई ॥ 'द्यानत' सम्यक् आतम अनुभव सद्गुरू सीख बताई ॥जगत. ॥ ४ ॥ १. चारों गतियों में २. वेदन करने वाला ३. इसलिए ४. हरने वाला ५. भ्रम दूर करके ६. मूर्ख ७. पालन करता है ८. लो लगाई ९. जहां अच्छा लगे १०. वहाँ जाए। For Personal & Private Use Only Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८७) (२४८) महाकवि बुधजन राग - सोरठ ज्ञानी थारी' रीतिरौ२ अचमौः मोर्ने आवै छै॥ ज्ञानी. ॥ टेक ॥ भूलि सकति निज, परवश है क्यौं, जनम जनम दुख पावे छै ।। ज्ञानी. ॥ १ ॥ क्रोध लोभ मद माया करि कर आपो आप फँसावै छै । फल भोगन की बेर होय तव भोगन क्यों पिछतावै छै । ज्ञानी. ॥ २ ॥ पाप काज करि धन कौं चाहै, धर्म विषै मैं बतावै छै । 'बुधजन' नीति अनीति बनाई, सांचो सो बतरावै छै ॥ ज्ञानी. ॥ ३ ॥ (२४९) महाकवि द्यानत भ्रम्यो जी भ्रम्यो संसार महावन, सुख तो कबहुं न पायोजी ॥ टेक ॥ पुद्गल जीव एक करि जान्यो, भेद ज्ञान न सुहायो जी ॥धम्यो. ॥ १ ॥ मन बच काय जीव संहारो, झूठो बचन बनायो जी ।। चोरी करके हरष बढ़ायो विषय भोग गरवायो जी ॥ध्रम्यो. ॥ २ ॥ नरक मांहि छेदन भेदन बहु, साधारण वसि आयो जी । गरभ जनम नरभव दुख देखे देव मरत' विललायो जी२॥ध्रम्यो. ॥ ३ ॥ 'द्यानत' अब जिन बचन सुनै मैं भवमल २ पाप वहायो जी। आदिनाथ अरहन्त आदि गुरु, चरनकमल चित्त लायो जी ॥धम्यो. ॥ ४ ॥ (२५०) भाई ज्ञान की राह सुहेला४ रे॥ भाई. टेक ॥ दरब न चहिये देह न दहिये, जोग भोग न नवेला५ रे ॥१॥ लड़ना नाहीं, मरना नाही, करना बेला६ तेला रे । पढ़ना नाहीं गढ़ना नाही नाच न गावन मेला रे॥ भाई. ॥ २ ॥ न्हांनां नाही खाना नाही, नाहिं कमाना धेला८ रे । चलना नाही जलना नाही गलना नाही देला रे॥ भाई. ॥ ३ ॥ जो चित चाहै सो नित दाहै, चाह दूर करि खेला रे । 'द्यानत' यामै९ कौन कठिनता, बे परवाह अकेला रे ॥ भाई. ॥ ४ ।। १.आपकी २. रीति का ३. आश्चर्य ४. मुझे ५. लाचार होकर ६. फल भोगने के समय ७. बताते हैं ८. मटका ९. जाना १०. गर्वित हुआ ११. मरते समय १२. रोया १३. संसार का मैल १४. सरल १५. नया १६. दो उपवास १७. तीन उपवास १८. आधा पैसा १९. इसमें।। For Personal & Private Use Only Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८८) _ (२५१) ज्ञानी जीव दया नित पालैं ॥टेक ॥ आरंभ" परघात होत है, क्रोध घात नित टालैं॥ ज्ञानी. ॥१॥ हिंसा त्यागि दयाल कहावै, जलै कषाय बदन में । बाहिर त्यागी अन्तर दागी, पहुँचे नरक सदन में ॥ज्ञानी. ॥ २ ॥ करै दया कर आलस भावी, ताको कहिये पापी । शांत सुभाव प्रमाद न जाकै सो परमारथ व्यापी ॥ज्ञानी. ॥ ३ ॥ शिथिलाचार निरुद्यम रहना सहना बहु दुख भ्राता । 'द्यानत' बोलन' डोलन' जी मन, करै जतन सों ज्ञाता ॥ज्ञानी. ॥ ४ ॥ (२५२) राग - असावरी भाई। ज्ञानी सोई कहिये ॥टेक ॥ करम उदय सुख दुख भोगे” राग विरोध न लहिये ॥भाई. ॥ १ ॥ कोऊ ज्ञान क्रिया कोऊ, शिव मारग बतलावै । नम निहचै विवहार साधिकै दोऊ चित्त रिझावै ॥भाई. ॥ २ ॥ कोई कहै जीव छिन भंगुर, कोई नित्य वखानै । परजय दरवित नभ परमानै दोउ समता आने ॥ भाई. ॥ ३ ॥ कोई कहै उदय१ है सोई कोई उद्यम बोले । 'द्यानत' स्याद्वाद सु तुला २ में, दोनों वस्तैं तोलै ॥भाई. ॥ ४ ॥ (२५३) कवि सुखसागर स्व सम्वेदन सुज्ञानी जो, वही आनन्द पाता है । न पर का आसरा'३ करता, सदा निज रूप ध्याता है ॥ टेक ॥ न विषयों की कोई चिन्ता उसे वेजार करती है । लावा बिष रूप है जिसको वह क्योंकर याद आता है। कषायों की जो लहरें हैं न जिसके जल को लहराती । जो निश्चल" मेरु सदृश है, पवन घन'६ न हिलाता । १. आरंभ से २. हिंसा ३. दोषी ४. बोलने में ५. चलने में ६. यत्न, कोशिश ७. राग द्वेष ८. निश्चय ९. व्यवहार १०. पर्याय ११. कमोदय १२. अच्छी तराजू १३. भरोसा, सहारा १४. बेचैन १५. अटल १६. बादल। For Personal & Private Use Only Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८९) जो चिन्ता है वही दुख है जो इच्छा है वही दुख है । है जिसने अपनी निधि देखी नहीं फिकरों में जाता है । है तन से गरचे व्यवहारी मगर मन से रहे निश्चल । वही सत ध्यान का कन है, जो कर्मों को जलाता है । सुधा की बूंद लेकर वह, इक सागर बनाता है । इसी का नाम सुखोदधि है, उसी में डूब जाता है। (२५४) मुझे ज्ञान शुचिता सुहाई हुई है । परम शान्त तो दिल में भाई हुई है ॥टेक ॥ जहाँ ज्ञान सम्यक नहीं खेद कोई । निजानंद परता जमाई हुई है ॥ नही राग द्वेषी, नहीं मोह कोई । परम ब्रह्म रुचिता बढ़ाई हुई है ॥ जगत नाट्यशाला नटन जो कि करता । वही शुद्धता नित्य छाई हुई है ॥ करूं ध्यान हरदम उसी का खुशी हो। स्व सुखसिन्धु में प्रीति लाई हुई है ॥ .(२५५) ज्ञान स्वरूप तेरा तू अज्ञान हो रहा । जड़ कर्म के मिलाप से विभाव को गहा ॥ पन१ अक्ष के विषय अनिष्ट इष्ट जानके । करके विरोध राग आग को जला रहा ॥ यह व्याधि२ गेह देह अस्थि, चाम से बना । निज ज्ञान के सिंगार ठान मूढ़ हो रहा • ॥ सुत तात-मात मित्र आदि मान आपके'। करके अकृत पाप आत्म बोध खो रहा । कर भेद ज्ञान राग आदि दोष जानके । चिद्रूप-ज्ञान चन्द्रिका निहार जिन कहा ॥ १. चिन्ताओं में २. यदि ३. पवित्रता ४. अच्छी लगती है ५. दुख ६. आत्मलीनता ७. नृत्य ८. मूर्ख ९. पर परणति १०. ग्रहण किया ११. पाँचों इन्द्रियों की १२. रोगों का घर १३. अपना मानकर १४. न करने योग्य For Personal & Private Use Only Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९०) (२५६) सम्यग्ज्ञान बिना तेरो जनम अकारथ जाय । सम्यग् ॥ टेक ॥ अपने सुख में मगन रहत नहिं पर की लेत बलाय' । सीख गुरु की एक न मानै भव-भव में दुख पाय ॥ १ ॥ ज्यों कपि आप काठ लीला करि प्राण तजै बिललाय' । ज्यौं निज मुख करि जाल मकरिया आप मरै उलझाय ॥ २ ॥ कठिन कमायो अब धन ज्वारी छिन में देत गमाय । जैसे रतन पायकै भोंदू बिलखे आप गमाय ॥ ३ ॥ देव-शास्त्र-गुरु को निहचै करि मिथ्यामत मति ध्याय । सुरपति बांछा राखत याकी ऐसी नर परजाय ॥ ४ ॥ ७-सदुपदेश (पद २५६-२६८) राग सारंग लहरी (२५७) तेरो करिलै काज बखत फिरना ॥ तेरे ॥टेक ॥ नरभव तेरे वश चालत है, फिर परभव परवश परना ॥ तेरो. ॥ १ ॥ आन अचानक कंठ दबैगे१ तब तोकौं नाहीं शरना । यातै २ बिलम न ल्याव बावरे अब ही कर जो है करना ॥ तेरो. ॥ २ ॥ सब जीवन की दया धार उर दान सुपात्रनि कर धरना । जिनवर पूजि शास्त्र सुनि नित प्रति 'बुधजन' संवर आचरना । तेरो. ॥ ३ ॥ (२५८) राग - पूरवी एक ताला तन के मवासी४ हो अयाना५॥ तनके ॥टेक ॥ चहुँगति फिरत अनंत कालतें अपने सदन की सुधि भौराना ॥१॥ तन जड़ फरस" गंध रस रूपी, तू तौ दरसन ज्ञान निधाना । तन सौं ममत" मिथ्यात मेटिकैं, 'बुधजन' अपने शिवपुर जाना ॥ २ ॥ १. बला, मुसीबत २. रोता है, छटपटाता है ३. जुआड़ी ४. रोते हैं, विलखते हैं ५. निश्चय करके ६. इच्छा ७. काम ८. मौका ९. लौटकर न आना १०. तुम्हारे वश में है ११. दवादेगा १२. इसलिए १३. ढेर १४. गढ़पति १५. अज्ञानी १६. भुला दी १७. स्पर्श १८. ममत्व। For Personal & Private Use Only Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९१) (२५९) राग - गौड़ी ताल अरे हां रे तैं तो सुधरी बहुत बिगारी ॥ अरे. ॥टेक ॥ ये गति मुक्ति महल की पौरी पाय रहत क्यों पिछारी ॥१॥ परकौं जानि मानि अपनो पद, तजि ममता दुखकारी । श्रावक कुल भवदधि तट आयो बड़त क्यों रे अनारी ॥२॥ अबहूं चेत गयो कछु नाहीं राख' आपनी वारी । शक्ति समान त्याग तप करिये, तब 'बुधजन' सिरदारी ॥ ३ ।। (२६०) राग - काफी कनड़ी - ताल पसतो अब अघ करत लजाय रे भाई ॥ अब. ॥ टेक ॥ श्रावक घर उत्तम कुल आयो, मेटै श्री जिनराय ॥ अब. ॥१॥ धन वनिता आभूषन परिगह, त्याग करो दुखदाय । जो अपना तू तजि न सकै पर सेयां नरक न जाय ॥ अब. ॥ २ ॥ विषय काज क्यों जनम, गुमावै, नरभव कब निलि जाय । हस्ती चढ़ि जो ईंधन ढोबे, बुधजन कौन बसाय ॥ अब. ॥३॥ (२६१) राग - काफी कनड़ी तोकौं सुख नहि होगा लोभीड़ा क्यों भूल्या रे पर भावन मैं ॥ तोकौं ॥ टेक ॥ किसी भांति कहुँ का धन आवै डोलत है इन दावन मैं ॥१॥ व्याह करुं सुत जस जग गावै, लग्यौ२ रहै या भावन मैं ॥ २ ॥ दरब२ परिनमत अपनी गौते,"तू क्यों रहित उपायन मैं ॥ ३ ॥ सुख तो है सन्तोष करन५ मैं, नाहीं चाह बढ़ावन मैं ॥ताकौ. ॥ ४ ॥ कै सुख है 'बुधजन' की संगति, कै सुख शिवपद पावन मैं ॥ ५ ॥ १. बिगाड़ी २. सीढ़ी ३. पीछे ४. अनाड़ी ५. अपनी बाते रख लो ६. पाप ७. निले ८. हाथी पर चढ़कर ईधन ढोना ९. लोभी १०. दाव में ११. यश १२. लगा रहा १३. द्रव्य १४. अपने ढंग से १५. करने में १६. इच्छा बढ़ाने में १७. मोक्ष पद पाने में। For Personal & Private Use Only Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९२) (२६२) राग - असावरी जोगिया ताल धीमो तेतालो तू काई' चालै लाग्यो रे लोभीड़ा, आयो छै' बुढ़ापो ॥ तू. ॥ टेक ॥ धंधा याही अंधा है कै क्यों खोवै छै आपरे॥तू. ॥१॥ हिमत घटी थारी सुमत मिटी छै भाजि गयो तरुणापो। जम ले जासी सब रह जासी संग जाकी पुन पापो रे ॥तू. ॥ २ ॥ जग स्वारथ को कोइ न तेरो, यह निह. उर थापो° 'बुधजन' ममत मिटावो मनतें, करि मुख श्री जिन जापो रे ॥तू. ॥ ३ ॥ (२६३) ___ राग - असावरी जदल तेतालो आगें कहा करसी २ भैया, आ जासी३ जब काल रे ॥ टेक ॥ यहां तो तैने पोल मचाई, वहां ६ तौ होय समाल रे ॥१॥ झूठ कपट करि जीव सतायो, हरया पराया माल रे। सम्पति सेती धाप्या" नाहीं तकी विरानी बाल रे ॥२॥ सदा भोग में भगत° रहया तू लख्या नहीं निज हाल रे। . सुमरन दान किया नेहीं भाई, हो जासी पैमाल रे२२ ॥ ३ ॥ जोवन२३ में जुवती संग भूल्या, भूल्या जब था बालरे । अब हूं धारा ‘बुधजन' समता, सदा रहहु खुश" हाल रे ॥ ४ ॥ (२६४) धर्म बिना कोई नहीं अपना, सब संपति धन थिर नहिं जग में, जिसा२६ रैन सपना ॥ धर्म. ॥ टेक ॥ आगे किया सो पाया भाई, याही है निरना२७ ।। अब जो करेगा सो पावैगा, तातै धर्म करना ॥ धर्म. ॥१॥ ऐसैं सब संसार कहत हैं धर्म कियें तिरना२८ । परपीड़ा विसनादिक सेवें, नरक विषै९ परना३° ॥धर्म. ॥२॥ नृप के कर सारी सामग्री, ताकै ज्वर तपना । १. क्यों २. है ३. खोता है ४. ताकत कम हो गई ५. तुम्हारी ६. जवानी ७. ले जायेगा ८. पाप ९. निश्चय १०. स्थापित कर लो ११. जाप १२. करुंगा १३. आ जायेगा १४. मृत्यु १५. यहां से १६. वहां १७. किया १८. संतुष्ट होना १९. दूसरे की स्त्री देखी २०. लीन २१. देखा नहीं २२. बरबाद २३. जवानी २४. बच्चा था २५. प्रसन्न २६. जैसे रात्रि का स्वप्न २७. निराई करना २८. पार होना २९. में ३०. पड़ना ३१. उस को ज्वर आना। For Personal & Private Use Only Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९३) अरु दरिद्री कैं हूं ज्वर हैं, पाप उदय अपना ॥ धर्म. ॥ ३ ॥ नाती' तो स्वारथ के साथी, तोहि विपत भरना । वन गिरि सरिता अगनि जुद्ध' मैं धर्महि का सरना चित 'बुधजन' सन्तोष धारना, पर चिन्ता हरना । विपत्ति पडै तो समता रखना, परमातम जपना ॥ धर्म. ॥ ५ ॥ ॥ धर्म. ॥ ४ ॥ (२६५) राग - खंमाच सुरग मुकति फल पावो जी ॥ टेक ॥ ऐसो ध्यान लगावो भव्य जासों जामै बंध परै नहि आगैं पिछले बंध हटावो जी ॥ ऐसो. ॥ १ ॥ इष्ट अनिष्ट कल्पना छोड़ो, सुख दुख एकहि भावो जी । पर वस्तुनि सों ममत निवारो निज आतम ल्यौ' ल्यावो' जी ॥ २ ॥ मलिन देह की संगति छूटै जामन" मरन मिटावो जी । शुद्ध चिदानंद 'बुधजन' यहां कै, शिवपुर वास वसावो जी ॥ ३ ॥ (२६६) मैं देखा अनोखा अनोखा ज्ञानी वे ॥ मैं. ॥ टेक ॥ लारै १२ लागि आनकी भाई, अपनी सुधि विसरानी १३ वे ॥ मै. ॥ १ ॥ जा१४ कारन कुमति मिलत है सो ही निजकर " आनी वे ॥ मै. ॥ २ ॥ झूठे सुख के काज सयाने क्यों पीडै है प्रानी वे ॥ मै. ॥ ३ ॥ दया दान पूजन व्रत तप कर 'बुधजन' सीख बखानी वे ॥ मै. ॥ ४ ॥ (२६७) राग अहिंग १८ १९ तैं१६ क्या किया नादान तैं तो १७ अमृत तजि विष लीना ॥ टेक ॥ लाख चौरासी जौनि" माहितै, श्रावक कुल मैं आया । अब तजि तीन लोक के साहिब, ' नवग्रह पूजन धाया ॥ १ ॥ वीतराग के दरसन ही तैं उदासीनता आवै 1 तू तौ जिनके सनमुख ठाडो, २० सुत को ख्याल खिलावै ॥ २ ॥ १. सम्बन्धी २. तुझे ३. युद्ध ४. धर्म की शरण ५. जिससे ६. सुख दुख एक ही आना ७. दूर करो ८. लौ ९. लाओ १०. जन्म मरण ११. होकर १२. साथ लगकर दूसरे का १३. भुला दी १४. जिस कारण से १५. अपने हाथ आना १६. तू १७. तूने तो १८. योनि से १९. मालिक २०. खड़ा है। For Personal & Private Use Only Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९४) सुरग' सम्पदा सहजै पावै, निश्चय मुक्ति मिलावै । ऐसी जिनवर पूजन सेती, जगत कामना चावै ॥३॥ 'बुधजन' मिलै सलाह कहैं तब तू वापै खजि' जावै । जथा जोग कौं अजथा माने, जनमे जनम दुख पावै ॥ ४ ॥ (२६८) चुप रे मूढ़ अजान, हमसौं क्या बतलावै ॥ चुप. ॥ टेक ॥ ऐसा कारज कीया तैनै जासो तेरो हान ॥ चुप. ॥ १ ॥ राग बिना है मानुष जेते भ्रात मात सम मान । कर्कश बचन बरै मति-भाई, फूटत मेरे कान॥ चुप. ॥ २ ॥ पूरव दुकृत किया था मैंने उदय भया ते आन । नाथ विछोहा २ हवा यात ३ पै मिलसी" या५ थान ॥चुप. ॥ ३ ॥ मेरे उर मैं धीरजे ऐसा पति आवै या ठान । तबही निग्रह है है तेरा होनहार उरमान ॥ चुप. ॥ ४ ॥ कहा अजोध्या कहाँ या लंका, कहाँ सीत कह आन । 'बुधजन' देखो विधि का कारज, आगममाहिं बखान ॥ चुप. ॥ ५ ॥ (२६९) तेरी बुद्धि कहानी, सुनि मूढ़ अज्ञानी ॥ तेरी. ॥ टेक ॥ तनक' विषय सुख लालच लाग्यौ नत" काल दुख दानी ॥ १ ॥ जड़ चेतन मिलि बंध भये इक, ज्यो पय९ मांही पानी। जुदा° जुदा सरूप नहिं माने, मिथ्या एकता मानी ॥ २ ॥ हूं तो 'बुधजन' दृष्टा ज्ञाता, तन जड़ सरधा आनी । ते ही अविचल सुखी रहेंगे होय मुक्तिवर प्राणी ॥ ३ ॥ (२७०) तू मेरा कह्या मान रे निपट अयाना ॥टेक॥ भव वन वाट माल सुत ढारा, बंधु पथिक२३ जन जान रे । इन” प्रीति न ला बिछुएँगे, पावैगो दुख खान रे ॥तू. ॥ १ ॥ १. स्वर्ग २. आसानी से पावेगा ३. के लिए ४. उस पर ५. नाराज हो जाता है ६. यथा योग्य ७. अयोग्य ८. जिससे ९. कठोर १०. बोलना ११. पाप १२. वियोग १३. इससे १४. मिलेगा १५. वह स्थान १६. कार्य १७. थोड़ा १८. काल १९. दूध में पानी २०. अलग अलग २१. अज्ञानी २२. रास्ते में २३. राहगीर २४. इनसे। For Personal & Private Use Only Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९५) इकसे तन' आतम मति आनैं यो जड़ है तू ज्ञान रे 1 मोह उदयवश भरम परत है, गुरु सिखवत सरधान रे ॥ २ ॥ बादल रंग सम्पदा जग की दिन में जात बिलान रे तमाशबीन बनि यातैं बुधजन, सबतै ममता हान रे ॥ ३ ॥ 1 (२७१) बजार । कर लै हौ सुकृत का सौदा, करले परमारथ कारज करलै हो ॥ टेक ॥ उत्तम कुलकौं पामकैं, ' जिनमत रतन लहाय 1 भोग भोगवे कारनैं क्यों शठ देत गमाय ॥ सौदा. ॥ १ ॥ व्यापारी बनि आइयो नरभव हाट फलदायक व्यापार कर नातर विपति तयार ॥ सौदा. ॥ २ ॥ भव अनन्त धरतौ' फिर्यौ चौरासी वन मांहि अंब नरदेही पायकैं अघ खोवै क्यों नाहिं ॥ सौदा. ॥ ३ ॥ जिन मुनि आगम परख कै, पूजौ करि सरधान कुगुरु कुदेव के मानवै फिरयो चतुर्गति थान ॥ सौदा. ॥ ४ ॥ मोह" नीदमां सोवतां वौ काल अटूट 'बुधजन' क्यों जागौ नेहीं कर्म" करत है लूट ||सौदा. ॥ ५ ॥ (२७२) राग - सोरठ १२ ॥ कीं. ॥ १ ॥ । कीपर" करौ जी गुमान थे तौ कै दिन का मिजवान ॥ टेक ॥ आये कहाँ तै कहाँ जावोगे ये उर राखो ज्ञान नारायण बलभद्र चक्रवर्ति नना १५ रिद्धि निधान अपनी बारी भुगतिर पहुँचे पर भव थार झूठ बोलि मायाचारी तैं, मति पीड़ौ पर प्रान । तेन धन दे अपने वश 'बुधजन' करि उपगार " जहान ॥की. ॥ ३ ॥ ॥ कीं. ॥ २ ॥ .१७ (२७३) अजी हो जीवा जी थानै श्री गुरु कहै छै, सीख मानौ जी ॥ टेक ॥ बिन मतलब की ये मति" मानौ मतलब की उर आनौजी ॥ १ ॥ १. शरीर को अपना मत मानौं २. सिखाते हैं ३. बिला जाते हैं ४. ममता तोड़ो ५. पाकर ६. जैन धर्म रूपी रत्न ७. अन्यथा ८. धारण करता फिरा ९. क्यों नहीं खोता १०. मोह नीद में ११. कर्म लूट रहे हैं १२. किस पर १३. घमण्ड १४. मेहमान १५. अनेक १६. संसार की भलाई १७. आपको १८. कहता है १९. मत मानो । For Personal & Private Use Only Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९६) राग दोष की परिनति त्यागौ, निज सुभाव थिर ठानौ जी ।। अलख अभेदरु नित्य निरंजन थे बुधजन पहिचानौ जी ॥ २ ॥ कवि भागचंद (पद २७४-२७७) (२७४) अरे हो जियरा धर्म में चिन्त लगाय रे ॥ अरे हो. ॥टेक ॥ विषय विष सम जान भौंदू वृथा क्यों लुभाय रे ॥ अरे. ॥ १ ॥ संग भार विषाद तोकौं, करत क्या नहिं भाय रे । रोग उरग निवास वामी, कहा नहिं यह काय रे ॥अरे. ॥ २ ॥ काल हरि की गर्जना क्या तेहि सुनि न पराय रे ॥ आपदा भर नित्य तोकौं कहा नहीं दुख दाय रे ॥ अरे. ॥ ३ ॥ यदि तोहि कहा नहिं दुख नरक के असहाय रे । नदी वैतरनी जहां जिय परै अति विललाय रे ॥अरे. ॥ ४ ॥ तन धनादिक घन पटल सम छिनक' मांहि विलाय२रे । भागचंद सुजान इमि जन्दु कुल तिलक गुन गाय रे ॥अरे. ॥ ५ ॥ (२७५) राग काफी अहो यह उपदेश मांहि खूब चित्त लगावना । होयगा कल्यान तेरा, सुख अनंत बढोवना ॥ टेक ॥ रहित दूषन विश्व भूषन, देव जिनपति ध्यावना । गगनवत निर्मल अचल मुनि, तिनहि शीस नवावना ॥अहो. ॥ १ ॥ धर्म अनुकंपा प्रधान, न जीव कोई सतावना । सप्त तत्व परीक्षना हरि, हृदय श्रद्धा लावना२° ॥अहो. ॥ २ ॥ पुद्गलादिक तैं पृथक चैतन्य ब्रह्म लखावना । या विधि विमल सम्यक धरि, शंकादि पंक' बहावना ॥ अहो. ॥ ३ ॥ रुचैं भव्यन को वचन जे, शठन को न सुहावना । चन्द्र लखि ज्यों कुमुद विकसै उपल२२ नहि विकसावना ॥ अहो. ॥ ४ ॥ 'भागचंद' विभाव तजि अनुभव स्वभावित भावना । या शरण न अन्य जगतारन्य२३ में कहुं पावना ॥ अहो. ॥ ५ ॥ १. विषय को विष के समान २. मूर्ख ३. व्यर्थ ४. लुब्ध होता है ५. सर्प ६. सांप का घर ७. शरीर ८. सिंह की ९. भागना १०. रोता है ११. क्षण भर में १२. गायब हो जाता है १३. इस प्रकार १४. भलाई १५. दोष रहित १६. संसार के भूषण १७.उन्हीं को १८. दया १९. परीक्षण करना २०. लाना २१. कीचड़ २२. पत्थर २३. जगत रूपी जंगल। For Personal & Private Use Only Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९७) (२७६) जीव ! तू भ्रमत सदीव' अकेला संग साथी कोई नहि तेरा ॥ टेक ॥ अपना सुखदुख आपहि भुगतै होत कुटुंब न भेला । स्वार्थ भयै सब विछरि जात हैं विघट' जात ज्यों मेला ॥ जीव. ॥ १ ॥ रक्षक कोई न पूरन है जब, आयु अंत की बेला । फूटत पारि बंधत नहीं जैसे दुद्धर जलको ढेला ॥ जीव. ॥ २ ॥ तन धन जीवन विनशि' जात ज्यों इन्द्र' जाल का खेला | 'भागचन्द' इमि" लख" करि भाई हो सतगुरु का चेला ॥ जीव. ॥ ३ ॥ (२७७) राग - सोरठ बिन खोये ..१४ पी अनादितैं परपद में चिर सोये . १३ जोये १७ . १८ बोये ..१९ जे दिन तुम विवेक १२ मोह वारुणी' सुख करंड १५ चितपिंड १६ आप पद गुन अनंत नहि होय बहिर्मुख ठानि रागरुख, कर्म बीज बहु तसु फल सुख दुख सामग्री लखि, चितमें हरषे रोये धवल ध्यान शुचि सलिल पूरतें, आस्रव मल नहि धोये । परद्रव्यन की अब निज में निज जान नियत वहां निज परिनाम यह शिवमारग समरस सागर 'भागचन्द ' हित ॥ २॥ चाह२१ न रोकी विविध परिग्रह ढोये ॥ ३॥ समोये । तोये ॥ ४ ॥ (२७८) महाकवि भूघरदास राग - नट राज चरन मन विसारै ॥टेक॥ मति २२ काल की, २५ धार अचानक आनि जिन को २३ जानै किहिवार २४ देखत दुख मजि २६ जाहिं दशौ दिश पूजत पातक पुंज इस संसार क्षीर सागर में और न कोई पार टेक ॥ For Personal & Private Use Only १ ॥ परै ॥ १ ॥ गिरै करै ॥ २ ॥ 1 १. हमेशा २. इकट्ठे ३. काम सिद्ध हो जाने पर ४ बिछुड़ना ५. मेला जैसे समाप्त हो जाता है ६. पूरा (पक्का) ७. किनारा ८. नष्ट होना ९. जादू १०. इस प्रकार ११. देखकर १२. ज्ञान १३. शराब १४. पर स्वरूप १५. पिटारा १६. आत्म स्वरूप (चेतन) १७. देखा १८. द्वेष १९ उसका फल २०. जल २१. इच्छा २२. मत भुलाओ २३. कौन जानता है २४. कब २५. यमराज की २६. भाग जायेंगे । Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९८) इक' चित ध्यावत वांछित पावत आवत मंगल विषन टरै ॥ मोहनि धूलि परी मांथे चिर सिर नावत तत्काल झरै ॥३॥ तबलौं भजन संभार सयानै जब लौ कफ नहि कंठ अरै । अगनि प्रवेश भयो घर ‘भूधर' खोदत कूप न काज सरै ॥ ४ ॥ महाकवि भागचंद (पद २७९-२८२) (२७९) राग-दीप चन्दी निज कारज काहे न सारै रे, भूले प्रानी ॥ टेक ॥ परिग्रह १ भार थकी कहा नाहीं आरतहोत तिहारै१३ रे॥ १ ॥ रोगी नर तेरी वपुको कहा, तिस दिन नाहीं जारै रे ॥ २ ॥ क्रूर कृतांत सिंह कहा जग में, जीवन को न पछारै ६ रे ॥ ३ ॥ करन विषय विष भोजनवत कहा, अंत विसरत न धारै रे ॥ ४ ॥ 'भागचन्द' भव अंधकूप में धर्म रतन काहे डारै रे ॥५॥ (२८०) भव-वन में नहीं भूलिये भाई कर निजथल की याद ॥ टेक ॥ नर परजाय पाय अतिसुंदर त्याग हु सकल प्रमाद ॥ श्री जिनधर्म सेय° शिव पावत आतम जासु२१ प्रसाद ॥ भव. ॥१॥ अबके चूकत ठीक२२ न पड़सी पासी२३ अधिक विषाद । सहसी२४ नरक वेदना पुनि तहां सुणसी२५ कौन फिराद६ ॥भव. ॥ २ ॥ 'भागचन्द' श्री गुरु शिक्षा बिन भटका काल अनाद । तू कर्ता तू ही फल भोगत कौन करे बकबाद ॥ भव. ॥ ३ ॥ (२८१) .. राग-दीपचन्दी करौ रे भाई तवारथ सरधान, नरभव सुकुल सुछिन पायके ॥ टेक ॥ देखन जाननहार आप लखि, देहादिक परमान ॥१॥ १. एक चित्त होकर २. ध्यान करता है ३. मोह की धूल ४. झुकाव से ५. खखार ६. अड़ता है ७. घर में आग लगने पर ८. कुआं खोदने से काम नहीं बनता ९.कार्य १०.सिद्ध करना ११.परिग्रह का १२.दुखी १३.तुमको १४.शरीर १५.यमराज १६.पछाड़ता है १७.इन्द्रियों के विजय १८.भूलते हुए १९.आत्मपद २०.सेवन करके २१.जिसकी कृपा से २२.ठीक नही होगा २३.पायेगा २४.सहन करेगा २५.सुनेगा २६.फरियाद शिकायत २७.अच्छा कुल २८.अच्छा क्षेत्र। For Personal & Private Use Only Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९९) मोह रागरूष अहित जान तजि, बंधहु' विधि दुखदान ॥ २ ॥ निज स्वरूप में मगन होय कर लगन विषय दो मान ॥३॥ 'भागचन्द' साधक कै साधो, साध्य स्वपद अमलान' ॥ ५ ॥ (२८२) प्रेम अब त्यागहु पुद्गल का अहित मूल यह जाना सुधीजन ॥ टेक ॥ कृमि-कुल कलित स्रवत नव द्वारन यह पुतला मल का । काकादिक भखते जु न होता, चामतना खल का ॥ प्रेम. ॥ १ ॥ काल व्याल मुख थित इसका नहिं है विश्वास पल का। क्षणिक मात्र में विघट जात है, जिमि वुदावुद जल का ॥ प्रेम. ॥ २ ॥ 'भागचन्द' क्या सार जानके तू या सेंग ललका' । ता” चित अनुभव कर जो तू इच्छुक शिव फल का ॥ प्रेम. ॥ ३ ॥ महाकवि भूधर (पद २८३-३०२) (२८३) राग-सोरठ अज्ञानी पाप१२ धतूरा न वोय'३ ॥ टेक ॥ फल चाखन की वार भरै५ दृग, मर है मूरख रोय ॥ अज्ञानी. ॥ १॥ किंचित विषयनिके सुख कारण दुर्लभ देह न खोय । ऐसा अवसर फिर न मिलेगा, इस नींदड़ी न सोय ॥ अज्ञानी. ॥ २ ॥ इस विरियां ८ मैं धर्म कल्पतरू सीचंत सयाने लोय । तू बिष बोवन लागत तो° श्रम और अभागा कोय ॥ अज्ञानी. ।। ३ ।। जे जग में दुख दायक वेरस' इसही के फल होय । यों मन ‘भूधर' जान कै भाई, फिर क्यों भोंदू होय ॥ अज्ञानी. ॥ ४ ॥ (२८४) राग-सोरठ सुनि अज्ञानी प्राणी श्री गुरू सीख सयानी२२ ॥ टेक ॥ नरभव पाय विषय मति२३ सेवो ये दुरमति अगवानी ॥१॥ रामसार० १.कर्म बंध २.निर्मल ३.शरीर का ४.कीड़ों से भरा हुआ ५.नौ दरवाजे ६.मैल का पुतला ७.खाले ८.चमड़े का खोल ९.सर्प १०.जिस प्रकार ११.लपकना १२.पाप रूपी धतूरा १३.बोओ १४.फल चखने के समय १५.आंखे भर जाती है १६.कुछ १७नीद १८.इस समय में १९.लोग २०.तुम्हारे समान २१.वे सब रस २२.समझदार २३.सेवन मत करो। For Personal & Private Use Only Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१००) यह भव कुल यह तेरी महिमा फिर समझी जिनवानी । . इस अवसर मैं यह चपलाई', कौन समझ उर' आनी ॥२॥ चंदन काठ कनक के भाजन, भरि गंगा का पानी । तिल खलि रांधत मंद मीजो तुम क्या रीस विरानी ॥ ३ ॥ 'भूधर' जो कथनी सो करनी, यह बुधि है सुखदानी । ज्यों मशालची आप न देखे सो मति करै कहानी ॥४॥ (२८५) राग-ख्याल गरव नहिं कीजै रे, ऐ नर निपट' गँवार ॥ टेक ॥ झूठी माया झूठी काया, छाया ज्यों लखि लीजै रे ॥ १ ॥ के छिन सांझ सुहागरू जोवन, कै दिन जग में जीजै२ रे ॥ २ ॥ बेगा३ चेत विलम्ब तजो नर बंध बदै थिति छीजै रे ॥३॥ 'भूधर' पलपल हो है भारो" ज्यों ज्यों कमरी" भीजै रे ॥ ४ ॥ (२८६) राग पंचम जिनराज ना विसारो मति१६ जन्म वादि हारो ॥ टेक ॥ नर भौ नाहिं देखो सोच समझ वारो ॥ जिनराज. ॥१॥ सुत मात तात तरुनि', इनसौं ममत९ निवारो । सब ही, सगे गरज के दुख° सीर नहिं निहारो ॥ जिन. ॥ २ ॥ जे२ खांय लाभ सब मिलि दुर्गत२३ मैं तुम सिधारौ। नटका कुटुंब जैसा यह खेल सो विचारौ ॥ जिन. ॥ ३ ॥ नाहक२४ पराये काजै आप२५ नरक मैं पारो । 'भूधर' न भूल जग में, जाहिर२६ दगा है यारो ॥ जिन. ॥ ४ ॥ १.चंचलता २.मन में लाये ३.चंदन की लकड़ी ४.सोने का बर्तन ५.तिल की खली पकाना ६.डाट, स्पर्धा ७.मशाल लेने वाला ८.पक्का मूर्ख ९.देख लो १०.कितने क्षण ११.कितने दिन १२.जीना है १३.जल्दी १४.मारी होगा १५.जैसे कम्बल भीजने पर भारी हो जाता है १६.व्यर्थ में जन्म मत गमाओ १७.नरभव १८.युवति (स्त्री) १९.ममत्व दूर करो २०.दुख के साथी २१.मत समझो २२.लाभ सब मिल कर खाते है २३.दुर्गति में तुम जाते हो २४.व्यर्थ २५.स्वयं नरक में पड़ता है २६.स्पष्ट २७.धोखा। For Personal & Private Use Only Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०१) (२८७) राग-ख्याल मन मूरख पंथी उस मारग मति जाय रे ॥ टेक ॥ कामिनि तन कांतार' जहाँ है कुच' परवत दुखदायरे ॥ १ ॥ काम किरात' बसै तिह थानक सरबस लेत छिनाय रे। खाय खता कीचक से बैठे अरू रावन से राय रे ॥ २ ॥ और अनेक लुटे इस पैंड° वरनै कौन बढ़ाय रे । वरजत' हों वरज्यौ २ रह भाई, जानि दगा३ मति खाय रे ॥३॥ सुगुरू दयाल दया करि 'भूधर' सीख कहत समझाय रे। आगै जो भावै करि सोई, दीनी बात जनाय रे ॥४॥ (२८८) राग-सोरठ चित ! चेतन की यह विरियां५ रे ॥ टेक ॥ उत्तम जनम सुनत तरुनापौ, सुजल बेल फल करियाँ रे ॥१॥ लहि सत संगाति सौं सब समझी, करनी खोटी खरियाँ रे । सुहित संभा शिथिलता तजिकै जाहैं बेली झरियाँ ९ रे ॥ २ ॥ दलबल चहल महल रूपे का अर कंचन की कलियां रे । ऐसी विभव बढ़ी है बढ़ि है तेरी गरज२२ क्या सरियां रे ॥३॥ खोय न वीर विषय खल सा२३ ये कोरन की धरियाँ५ रे । तोरि न तनकर तगाहित 'भूधर' मुक्ताफल की लरियां रे ॥ ४ ॥ (२८९) राग-विलावल सब विधि करन उतावला, समरको सीरा२९ ॥टेक ।। सुख चाहै संसार में यों होय न नीरा ॥सब विधि. ॥१॥ १.स्त्री का शरीर २.जंगल ३.स्तन ४.पर्वत ५.मील ६.उस स्थान पर ७.छीन लेते हैं ८.गलती ९.एक राक्षस १०.राजा ११.मना करता हूं १२.माने रहो १३.दगा, धोखा १४.आगे जो अच्छा लगे १५.समय, १६.अच्छी तरह उत्पन्न १७.फले है १८.थैली में भरना १९.झड़ जायेगी २०.चांदी का महल २१.सोने की डलिया २२.तेरा मतलब क्या सिद्ध होगा २३.चिपकाना २४.व्यर्थ की २५.घड़ियाँ(समय) २६.थोड़ी सी २७.धागे में पिरोइ गई २८.मोती की लड़ी २९.शांत, मौन ३०.समीप। For Personal & Private Use Only Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०२) जैसे कर्म कमाव है सौ ही फल वीरा । आम न' लागें आक के, नग' होय न हीरा ॥ सब विधि. ॥ २ ॥ जैसा विषयनि को चहै न रहै छिन धीरा । त्यों ‘भूधर' प्रभु को जपै पहुंचे भवतीरा ॥ सब विधि. ॥ (२९०) ऐसी समझ के सिर-धूल ॥ टेक ॥ धरम उपजन हेत हिंसा आचरै अघमूल ॥ ऐसी. ॥ १ ॥ छके मत मदपान पीके रहे मन में फूल, आम चखन चहै भोदूं वाये पेड़ बबूल ॥ ऐसी. ॥ २ ॥ देव रागी लालची गुरू सेय सुखहित° भूल । धर्म नग की परख नाही भ्रम हिंडोले झूल ॥ ऐसी. ॥ ३ ॥ लाभ कारन रतन विराजे१ परख को नहिं सूल । करत इह विधि वणिज २ भूधर' विनस जैहैं मूल ॥ ऐसी. ॥ ४ ॥ (२९१) राग-बंगला आया रे बुढापो मानी सुधि बुधि विरानी३ ॥ टेक ॥ श्रवन की शक्ति घटी, चाल चलै अटपटी, देह लटी५ भूख घटी लोचन'६ झरत पानी ॥आया रे ॥ १ ॥ दांतन" की पंक्ति टूटी, हाड़न की संधि छूटी, काया की नगरि लूटी जात नहिं पहिचानी ॥आया रे. ॥ २॥ बालों ने वरन फेरा रोगन शरीर घेरा, . पुत्रहूं न आवे नेरा, औरो की कहा कहानी ॥ आया रे. ॥ ३ ।। 'भूधर' समुझि अब, स्वहित करैगो कब, यह गति है हैं जब, तब पिछतै२१ है प्रानी ॥ आया रे. ॥ ४ ॥ १.आम नहीं लगते २.अकौआ में ३.पत्थर हीरा नहीं हो सकता ४.संसार के पार ५.समझको धिक्कार है ६.धर्म उत्पन्न करने ७.के लिए ८.पापों की जड़ ९.सुख के लिए १०.प्रम रूपी झूला ११ ख का है १२.व्यापार १३.मुला दी १४.कानों की शक्ति कम हो गई १५.शरीर कमजोर हो गया १६.आंखों से पान ,रने लगा १७.दाँतों की पंक्ति टूट गई १८.हड्डियों के जोड़ छूट गये १९.शरीर की नगरी २०.नजदीक, पास २१.पछतायगा। For Personal & Private Use Only Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०३) (२९२) राग-सोरठ अन्तर' उज्ज्वल करना रे भाई ॥ टेक ॥ कपट कृपान तजै नहिं तबलौं', करनी काज न सरना रे ॥ अन्तर. ॥ १ ॥ जप तप तीरथ जज्ञ ब्रतादिक आगम अर्थ उचरना रे । विषय कषाय कीच' नहिं धोयो, यों ही पचि मरना रे ॥ अन्तर. ॥ २ ॥ वाहिक भेष क्रिया उर शुचि सों कीये पार उतरना रे । नाहीं है सबलोक रंजना ऐसे वेदन करना रे ॥ अन्तर. ॥३॥ कामादिक मनसौं मन मैला भजन किये क्या तिरना रे। 'भूधर' नील वसन' पर कैसे केसर रंग उछरना रे ॥ अन्तर. ॥ ४ ॥ (२९३) राग-सोरठ बीरा ! थारी बान २ बुरी परी रे, वरज्यो३ मानत नाहिं ।। टेक ॥ विषय विनो महाबुरे रे दुख दाता, सरबंग । तू हठसौं ऐसे रमै रे ढ़ीबे५ पड़त पतंग ॥ वीरा. ॥ १ ॥ ये सुख हैं दिन दोय केरे फिर दुख की सन्तान। करे कुहाड़ी ६ लेइकै रे, मति मारै७ पग जानि ॥ वीरा. ॥ २ ॥ तनक न संकट सहि सकै रे । छिन मे होय अधीर । नरक विपति बहु दोहली रे कैसे भरि है वीर ॥ वीरा. ॥ ३ ॥ भव सुपना हो जायेगा रे, करनी रहेगी निदान । 'भूधर' फिर पछतायगा रे अबुही समुझि अजान ॥ वीरा. ॥ ४ ॥ (२९४) राग-काफी मन८ हंस हमारी लै शिक्षा हितकारी ॥ टेक ॥ श्री भगवान धरन पिंजरे वसि, तजि विषयनि की यारी ॥ मन. ॥ १ ॥ कुमति कागली सौं मति राचा२२, ना वह जात तिहारी। १.हृदय २.तलवार ३.तबतक ४.सिद्ध होना ५.कीचड़ ६.थक कर ७.खुश करना ८.अनुभव करना ९.भजन करने से क्या तर जाओगे ? १०.नीला वस्त्र ११.चढ़ना १२.आदत १३.मना करने पर १४.सब प्रकार से १५.जैसे दिया में पतिंगा गिरता है १६.हाथ में कुल्हाड़ी १७.जानकर पैर में मत मारो १८.मन रूपी हंस १९.पिंजड़े में रह कर २०.दोस्ती २१.कौवी २२.लीन होना। For Personal & Private Use Only Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०४) कीजै प्रीति सुमति' हंसी सौ, बुध हंसन की प्यारी ॥ मन. ॥ २ ॥ काहे को सेवत भव झीलक' दुखजल पूरित खरी । निज बल पंख पसारि ठड़ो किन हो शिवसर' वकचारी ॥ मन. ॥ ३ ॥ गुरु के वचन विमल मोती चुन क्यों निज बान' विसारी | ह्वै है सुखी सीख सुधि सखे, 'भूधर' ख्वारी ॥ मन. ॥ ४ ॥ राग-ख्याल (२९५) और सब थोथी' बातैं भजले श्री भगवान ॥ टेक ० प्रभु बिन पालक' कोई न तेरा स्वारथ मीत पर बंनिता जननी सम गिननी, परधन जान 11 जहान" ॥ १ ॥ पखान १२ 11 वेद पुरान ॥ और ः ॥ २ ॥ औगुन ४ खान इन अमलों परमेसुर राजी भाजैं ३ जिस उर अंतर बसत निरंतर नारी वहां कहों साहिब का वासा, दो १५ यह मत सतगुरू उर धरना, करना 'भूधर' भजन पलक' न विसरना, भरना मित्र निदान खांडे इक म्यान ॥ और ॥ ३ ॥ - १६ कहिन गुमान " . १७ 11 (२९६) २० ॥ मेरे. ॥ २ ॥ मेरे चारौं १८ शरन सहाई ॥ टेक ॥ जैसे जलधि परत वायस९ कौं बोहिथ एक उपाई २१ ॥ मेरे. ॥ १ ॥ प्रथम शरन श्री अरहन्त चरन की, सुर नर पूजत पाई । दुतिय शरन श्री सिद्धन फेरी २२, लोक तिलक पुरराई तीजो सरन सर्व साधुन की नगन दिगम्बर काई २३ चौथे धर्म अहिंसा रूपी सुरग मुकति सुखदाई दुर्गति परत सुजन परिजन पै, जीव न राख्यो जाई 'भूधर' सत्य २४ भरोसो इनको ये हीं २५ लेहि बचाई 1 ॥ और ॥ ४ ॥ For Personal & Private Use Only १. सद्बुद्धि २. झील ३. दुख रूपी जल से भरी ४. खड़ा ५. मोक्ष रूपी लालच में विदोना ६. आदत ७. बरबादी ८. व्यर्थ ९. पालन करने वाला १०. मित्र ११. संसार १२. पत्थर १३. बोलते हैं १४. अवगुण की खान स्त्री १५. एक म्यान दो तलवारें १६. घमंड १७. पल भर की १८. चार -( १ अरहन्त २ सिद्ध ३ साधु ४अहिंसा) १९. कौए को २० जहाज २१. उपाय २२. की २३. शरीर २४. सच्चा भरोसा २५. ये ही बचा लेंगे । 1 ॥ मेरे. ॥ ३ ॥ । ॥ मेरे. ॥ ४ ॥ Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०५) (२९७) राग-काफी प्रभु गुन गाय रे यह औसर' फेर न आय रे ॥ टेक ॥ मानुज भव जोग दुहेला, दुर्लभ सत संगति मेला । सब बात भलो बन आई, अरहन्त भजो रे भाई ॥ प्रभु ॥ १ ॥ पहलै चित वीर संभारो कामादिक मैल उतारो । फिर प्रीति' फिटकरी दीजे, तब सुमरन रंग रंगीजे ॥ प्रभु ॥ २ ॥ धन जोर भरा जो कूवा, परवार बढ़े क्या हूवा । हाथि चढ़ि क्या कर लीया प्रभु नाम बिना धिक जीया ॥ प्रभु ॥ ३ ॥ यह शिक्षा' हे व्यवहारी, निहचैं की साधनहारी । 'भूधर' पैड़ो" पग धरिये, तब चढ़ने को चित करिये ॥ प्रभु ॥ ४ ॥ (२९८) राग-कल्यान सुनि सुजान ! पांचों " रिपु वश करि सुहित करन असमर्थ अवश करि ॥ टेक ॥ .१३ जैसे जड़ खखार को कीड़ा सुहित सम्हाल सकै नहिं फंस कर ॥ सुनि ॥ १ ॥ पांचन १५ को मुखिया मन चंचल पहले पकर रस ! कस करि । समझ देखि नायक" के जीतै, जै हे भजि" सहज सब लसकरि८ ॥ सुनि ॥ २ ॥ इन्द्रिय लीन जनम सब खोयो, बाकी चलो जात है खसकरि १९ 'भूधर' सीख मान सतगुरु की इनसो प्रीति तोरि अब वश करि ॥ सुनि ॥ ३ ॥ 1 .२० (२९९) २२ देव गुरू सांचे२१ मान सांचों धर्म हिये आन, सांचो ही बखान सुनि पंथ आव रे 11 जीवन की दया पाल झूठ तजि चोरी दाल' देख न विरानी बाल तिसना घटाव रे अपनी बड़ाई भाई 1 २३ परनिंदा मत कर ९. अवसर २. फिर ३. कठिन ४. काम आदि मैल ५. प्रीति रूपी फिर कभी ६. स्मरण रूपी रंग को रंगो ७. हाथी पर चढ़कर ८. व्यावहारिक शिक्षा ९. निश्चय का साधन १०. सीढ़ी । ११. पांच इन्द्रियाँ १२.मलाई १३. कफ १४. भलाई कर सके १५. पांचों का मुखिया मन १६. सभी पति १७. भाग जायेगा १८. सेना १९. खिसक कर २० वश में करो २१ . सच्चे २२. टाल दो २३. दूसरे की स्त्री । For Personal & Private Use Only Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०६) यही चतुराई मद मांस को बचाव रे ॥ साध खड कर्म' साध संगति में बैठ वीर जो है धर्म साधन को तेरे चित' वावरे ॥ (३००) अघ अंधेर आदित्य नित स्वाध्याय करीज्जै । सोमोपम संसार तापहर तप कर लिज्जै । जिनवर पूजा नियम करहु, नित मंगल दायनि । बुध संजम आदरहु धरहु चित श्री गुरू पायनि । निजवित्त समान अभिमान बिन सुकर सुपतहि दान । कर यौंसनि सुधर्म षटकर्म मनि नरभौ -लाहो ले हुनर ॥ (३०१) काहे को बोलतो बोल बुरे नर नाहक' क्यो जस धर्म गमावै। कोमल बैन चवै किन ऐन, लगै३ कछु है न सबै मन भावै ॥ तालु छिदै रसना न मिटै, न घटे कछु अंक दरिद्रन आवै जीभ कहै जिय हानि नहीं तुझ जीवन को सुख पावै ॥ (३०२) आयो है अचानक भयानक असाता कर्म, ताके ४ दूर करिवे को बली५ कौन अह २१६ । जे जे मन भाये ते कमाये पूर्व पाप आप, तेई अब आये निज उदय काल लह रे ॥ ऐके मेरे वीर काहै होत है अधीर, यामै कोऊ को न सीर° तू अकेलौ आप सह रे॥ भय दिलगीर२१ कछू पीर न विनसि जाय, ताहीं तै सयाने तू तमासगीर२२ रह रे ॥ १.षट्कर्म २.मन में प्रेम ३.पाप रूपी अंधकार को सूर्य ४.करो ५.चंद्रसमान ६.कर लीजै ७.श्री गुरू चरण में चित ८.सम्पत्ति का दान ९.नरभव १०.व्यर्थ ११.यश १२.खोता है १३.कुछ नहीं लगता १४.उसके १५.बलवान १६.है १७.उदय काल पाकर १८.क्यों १९.बेचैन २०.साथी २१.दुखी २२.तमाशा देखने वाला। For Personal & Private Use Only Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०७) महाकवि द्यानतराय (पद ३०३-३११) (३०३) राग-केदारो रे जिय ! जनम लाहो' लेह ॥ टेक ॥ चरन ते जिन भवन पहुंचे, दान दै कर जेह ॥ रे. ॥ १ ॥ उर सोई जामे दया है, अरू रुधिर को गेह ।। जीभ सो जिन नाम गावें सांच सौ करै नेह ॥रे. ॥ २ ॥ आंख तै जिनराज देखें, और आंखें खेह । श्रवन ते जिन वचन सुनि शुभ, तप तपै सो देह॥रे. ॥ ३ ॥ सफल तर इह भांति है, और · भांति न केह। कै सुखी मन राम ध्यावो कहैं सदगुरू येह ॥रे. ॥ ४ ॥ (३०४) तू तो समझ रे भाई ॥टेक॥ निशदिन विषय भोग लिपटाना धरम वचन न सुहाई ॥ तू. ॥ १ ॥ कर मनका'° लैं आसन मारयौ बाहिज' लोक रिझाई । कहा भयो बकरे ध्यान धरेतै, जो मन थिर न रिहाई ॥ तू. ॥ २ ॥ मास मास उपवास किये ते, काया बहुत सुखाई । क्रोध मान छल लोभ न जीत्या कारज कौन सराई१५ ॥ तू. ॥ ३ ॥ मन बच काय जोग थिर करकैं, त्यागो विषय कषाय । 'द्यानत' सुरग मोख६ सुखदाई, सद्गुरु सीख बताई ॥ तू. ॥ ४ ॥ महाकवि द्यानतराय (३०५) विपति में धर धीर रे नर ! विपति में धर धीर ।।टेक ॥ सम्पदा ज्यों आपदा रे ! विनश जै है वीर ॥ रे नर. ॥ १ ॥ धूप छाया घटत बढ़े ज्यों त्योंहि सुख दुख पीर ॥ रे. ॥ २ ॥ दोष 'द्यानत' देय किसको, तोरि८ करम जंजीर ॥रे नर. ॥ ३ ॥ क्रोध मान छल जोग थिर कदाई, सद्गुरु १.लाभ लो २.जैन मंदिर ३.हृदय ४.जिसमें ५.घर ६.प्रेम ७.राख,धूल ८.होगा ९.किसी प्रकार १०.माला के गुरिया ११.बाहर १२.बगुला ध्यान १३.जीता १४.कार्य १५.सिद्ध होना १६.मोक्ष १७.नष्ट हो जायेगा १८.कर्मों की जंजीर तोड़कर। For Personal & Private Use Only Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०८) (३०६) घट में परमातम ध्याइवे' हो, परम धरम धन हेत । ममता बुद्धि निवारिये हो टारिये भरम निकेत ॥ घट. ॥ १ ॥ प्रथमहि अशुचि निहारिये हो, सात धातुमय देह। काल अनन्त साहै दुख जानै ताको तजो अब नेह ॥ घट. ॥ २ ॥ ज्ञानावरनादिक जमरूपी जिनते भिन्न निहार । रागादिक परनति लख न्यारी, न्यारो सुबुध विचार ॥ घट ॥ ३ ॥ तहां शुद्ध आतम निर विकल्प है करि तिसको ध्यान । अलप काल में घाति नसत हैं उपजत केवलज्ञान ॥ घट. ।। ४ ।। चार अघाति नाशि शिव पहुँचे, विलसत सुख जु अनन्त । सम्यक दरसन की यह महिमा, ‘द्यानत' लह भव अन्त ॥ घट. ॥ ५ ॥ (३०७) कहत सुगुरू करि सुहित भविकजन ॥ टेक ॥ पुद्गल अधरम धरम गगन जग सब जड़ मम नहि यह सुमरहु मन ॥कहत. ॥ १ ॥ नर पशु नरक अमर पर पद लीख दरव करम तन करम पृथक'" मन । तुम पद अमल अचल विकलप बिन, अजर अमर शिव अभय अखय गन ॥कहत. ॥ २ ॥ त्रिभुवन पति पद तुम पद अतुल न तुल रवि शशि गन । वचन कहत मन गहन शकति नहिं, सुरत गमन निज निज गम परनत ॥कहत. ॥ ३ ॥ इह विधि बंधत खुलत इह विधि जिय, इन विकलप महि शिवपद सधत न । निर विकलप अनुभव मन सिधि करि, करम सघन वन दहत दहन२२ कन ॥कहत. ॥४॥ (३०८) जीव ! वै२३ मूढ़पना कित पायो ।टेक ॥ सब जग स्वारथ की चाहत है स्वारथ तोहि न भायो । जीव. ॥ १ ॥ अशुचि अचेत दुष्ट तनमांही, कहा जान विरमायो । परम अतिन्द्री निजसुख हरिकै२८, विषय रोग लपटायो९ ॥ जीव. ॥२॥ १.ध्यान करने को २.श्रेष्ठ धर्म रूपी धन ३.प्रम ४.प्रेम ५.यमरूपी ६.अलग ७.निर्विकल्प ८.उसका ९.थोड़ा १०.मलाई ११.भव्यलोग १२.आकाश १३.ध्यान करो १४.द्रव्य कर्म १५.अलग १६.निर्भय १७.अक्षय १८.इस प्रकार १९.इन विकल्पों में २०.सिद्ध नहीं होता २१.जंगल जलाने को २२.अग्निकण २३.निश्चय से २४.मूर्खता २५.तुझे २६.अच्छा न लगा २७.विरम गया २८.हरण करके २९.लीन हो गया। For Personal & Private Use Only Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०९) चेतन नाम भयो जड़ काहे, अपनो नाम गमायो । तीन लोक को राज छांडिकैं, भीख मांग न लजायो ॥ जीव. ॥ ३ ॥ मूढ़पना मिथ्या, जब छूटै तब तू संत कहायो । 'द्यानत' सुख अनन्त शिव विलसो' यो सद्गुरू बतलायो । जीव. ॥ ४ ॥ (३०९). हो ! भैया मोरे ! कहु' कैसे सुख होय ॥ टेक ॥ लीन कषाय अधीन विषय के, धरम करै नहि कोय ॥ हो. ॥१॥ . पाप उदय लखि रोवत भोंदू। पाप तजै नहि सोय । स्वान वान ज्यो पाहन सूंघे सिंह हनै रिपु जोय ॥ हो. ॥ २ ॥ धरम करत सुख दुख अधसेनी', जानत है सब लोय । कर दीपक लै कूप परत है दुख पै है भव दोय ॥ हो. ॥ ३ ॥ कुगुरु कुदेव कुधर्म भुलायो देव धरम गुरु खोय । उलट चाल तजि अब सुलटै जो ‘द्यानत' तिरै जग तोय ॥ हो. ॥ ४ ॥ ___ (३१०) कर पद दिढ़ हैं तेरे, पूजा तीरथ सारौ । जीभ नैन है नीकै° प्रभु गुन गाय निहारौ ॥ प्राणी. ॥ १ ॥ आसन श्रवन २ सबल है तोलौं३ ध्यान शब्द सुनि धारौ ।। जरा न आवै गर्द४ न सतावै संजम पर उपकारौ ॥ प्राणी. ॥ २ ॥ देह शिथिल मति विकल न तौ लौ तप गहि तत्व विचारौ अन्त समाधि पोत चढ़ि अपनो ‘द्यानत' आतम तारौ ॥ प्राणी. ॥ ३ ॥ (३११) राग-भैरों ऐसो सुमरन कर मोरे भाई, पवन" थमै मन कितहूं न जाई ॥टेक ॥ परमेसुर सों सांच रही जे लोक रंजना भय तज दीजै ॥ ऐसो. ॥ १॥ . जप अरू नेम दोउ विधि धारै, आसन प्राणायाम संभारो। प्रत्याहार धारना कीजै, ध्यान समाधि महारस६ पीजै ॥ ऐसो. ॥ २॥ १.सुशोभित है २.कहो ३.देख कर ४.कुत्ते की तरह ५.पत्थर ६.पापों के लिए ७.पायेगा ८.सीधा हो जाय ९.हाथ पैर मजबूत है १०.अच्छे ११.देखो १२.कान १३.तब तक १४.रोग १५.चाहे हवा चलना छोड़ दे पर मन कहीं न जाय १६.समाधि रूपी महान रस पियो । For Personal & Private Use Only Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११०) सो तप तपो बहुरि नहि तपना सो जप जपो बहुरिन हि जपना सो ब्रत धरो बहुरि नहिं धरना, ऐसो मरो' बहुरि नहि मरना ॥ ऐसो. ॥ ३ ॥ पांच परावर्तन लखि लीजै, पांचों इन्द्री की न पतीजै । 'द्यानत' पांचों लच्छि लहीजै, पंच परम गुरू शरन गहीजै ॥ ऐसो. ॥ ४ ॥ कवि जिनेश्वरदास (३१२) घड़ी दो घड़ी मंदिर जी में जाया करो एजी जाया करो, जी मन लगायो करो ॥घड़ी. ॥ टेक ॥ । सब दिन घर' धंदा में खोया, कछु तो धर्म में बिताया करो ॥घड़ी. ॥ १ ॥ पूजा सुनकर शास्त्र भी सुनल्यौ, आध घड़ी तो जाप में बिताया करो ॥घड़ी. ॥ २ ॥ कहत जिनेश्वर सुनि भवि प्राणी, जावत मन को लगाया करो ॥घड़ी. ॥ ३ ॥ (३१३) राग-मरैठी जगउँ की झूठी सब माया, अरे नर चेत वक्त पाया ॥ टेर ॥ कंचन बरनी कामिनी जोवन में भरपूर, अंतर दृष्टि निहारते मलमूरत मशहूर । कुधी नर इनमें ललचाया ॥ अरे नर. ॥ १ ॥ लछमी तौ चंचल बड़ी बिजली के उनहार, बके फंदै सो बचो जी अपनी करो सम्हार ।। विवेकी मानुष भव पाया, अरे नर चेत वक्त पाया ॥ २ ॥ स्वच्छ सुगंध लगायके, कर के सब सिंगार । सिंह तन में तू रति करैजी सो शरीर है छार, वृथा क्यों इनमें ललचाया, अरे नर चेत वक्त पाया ॥ ३ ॥ तन धन ममता छांडिके'२ राग दोष निरवार । शिवमारग पग धारिये जी, धर्म जिनेश्वर सार । सुगुरु ने ऐसे बतलाया, अरे नर चेत वक्त आया ॥ ४ ॥ (३१४) तुम त्यागो जी अनादी भूल, चतुर विचारौ१३ तौ सही ॥ टेक ॥ मोह भरमतम भूल अनादी, तोडो तो सही । एजी निज हित का रख ज्ञान, गन" सुधारौ तो सही ॥ तुम. ॥१॥ १.ऐसा तप तपो २.फिर ३.ऐसा मरो कि फिर न मरना पड़े ४.विश्वास करना ५.घर का धंधा ६.जाते हुये भव को ७.संसार की ८.समय ९.सोने के से रंग की सभी १०.मल की मूर्ति ११.की तरह १२.छोड़कर १३.विचार करो १४.भ्रमरूपी अंधकार की जड़ १५.आंखे । For Personal & Private Use Only Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१११) जीवादिक सत तत्व स्वरूप विचारो तो सही । निश्चय आह व्यवहार, सुरुचि उर धारौ तो सही ॥ तुम. ॥२॥ विजय महाविज त्याग सुसंजम धारौ तो सही ।। चहुँगति दुख का बीज, सबंध विचारौ तो सही ॥ तुम. ॥ ३ ॥ सब विभाव परत्यागि', सुझाव विचारौ तो सही । परमातम पद पाय जिनेश्वर तारो तो सही ॥ तुम. ॥ ४ ॥ (३१५) पद राग रेखता आपके हिरदै सदा सुविचार करना चाहिये । जाप कर निजरूप का निरधार करना चाहिये ॥टेक॥ त्यागफै परकी झलक निजभाव को परखा करो। चढ़ि वीतरागता शिखर, फिर न उतरना चाहिये। आपके ॥ १ ॥ धारिक समता सहज तज दीजिये ममता सबै । लोभ विषयनि के वि नाहक को गिरना चाहिये । आपके ॥ २ ॥ जार निज पर को सजन, कल्यान को सूरत यही ।। संसार सागर पार यों जल्दी से तिरना चाहिये आपके ॥ ३ ॥ श्रद्धा समझकर आचरन, जिनराज का मारग यही । हितदाय जिनेश्वर धर्म को इख्तयार करना चाहिये ॥ आपके ॥ ४ ॥ कविवर दौलतराम (पद ३१६-३३०) जीव तू अनादि ही तैं भूलो शिव गैलवा ॥ जीव. ॥ टेक ॥ मोह मदवार पियौ, स्वपद विसार २ दियौ, पर अपनाय लियौ, इन्द्रिय सुख में रचियौ, भवतै न भियौ१३ न तजियौ४ मन मैलवा ॥ जीव. ॥१॥ मिथ्या ज्ञान आचरन धरि कर कुमरन ५ तीन लोक की धरने तामैं कियो है फिरन, पायो न शरन, न लहायो सुख६ शैलवा ॥ जीव. ॥ २ ॥ अब नर भव पायो सुथल सुकुल आयौ, जिन उपदेश भायौ 'दौल' झट छिट कायो, पर परनति दुखदायिनी चुरैलवा ॥ जीव. ॥ ३ ।। १.हृदय में धारण करो २. परभवों का त्याग ३.हृदय में ४.आत्म स्वरूप का ५.निश्चय ६.आत्म भाव को ७. स्व पर ज्ञान ८.मार्ग ९.अपनाओ १०.रास्ता ११.शराब १२.भुलादिया १३.डरा १४.मन का मैल नही त्यागा १५.खोटा मरण १६.सुख रूपी पहाड़ १७.अच्छा स्थान १८.अच्छा कुल १९.चुडैल । For Personal & Private Use Only Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११२ ) (३१७) अधिकाई ॥ श्री ॥ १॥ दुखदाई श्री गुरु यों समझाई जिया राग बड़ो दुखदाई ॥ टेक ॥ राग उदय पर वस्तु ग्रहण कर जानो नित हितदाई । अधिर पदारथ को धिर माने, मोह गहल हिंसादिक बहु पाप आरंभे जनम जनम जिनपद तीने लोक के स्वामी सो दीनो विसराई राग सचिक्कन सों चित लागे, कर्म धूल अधिकाई । राग ै अरित निज गुण उपवन को, छिन में देत जराई ॥ श्री ॥ ३ ॥ वीतराग जिनने क्या कीनो, समझो हिरदै भाई तज संकल्प विकल्प जिनेश्वर, वीतराग पद ध्याई यातै" ज्ञानानंद 'दौल' अब पियो पियूष मिटै भव व्याधि कठोरी १७ ॥ मान लो. (३१८) मान लो या सिख मोरी झुकै मत भोगन ́ ओरी ॥ टेक ॥ भोग भुजंग' भोग समजानों, जिन इनसे रतिजोरी । ते अनन्त भव भीम" भरे दुख, परे अधोगति पोरी", बंधे दृढ़ पातक डोरी ॥मान लो. इनको त्याग विरागी जे जन, भये ज्ञान वृष? धोरी । तिन सुख लह्यो अचल अविनाशी, भव फांसी दई तौरी रंगे तिन संग शिवगोरी १४ ॥ मान लो. ॥ २ ॥ भोगन की अभिलाष हरन को, त्रिजग संपदा ॥ १ ॥ थोरी । कयेरी । । ॥ श्री ॥ २ ॥ || 3 || 1 ॥ श्री. ॥ ४ ॥ (३१९) हमतो कबहु न निज घर आये । पर घर फिरत बहुत दिन बीते, नाम अनेक धराये ॥ हम तो ॥ टेक ॥ परपद निजपद मानि मगन है, पर परनति लपटाये । शुद्ध बुद्ध सुख कन्द मनोहर, चेतन भाव न भाये ॥ हम. ॥ १ ॥ नर पशु देव नरक निज जान्यो, परजय बुद्धि लहाये । १. हित दायक २. गूढ ३. भुला दिया ४. राग रूपी चिकनाहट ५. राग रूपी अग्नि ६. ध्यान करो ७. शिक्षा ८. मोमों की तरफ ९. सर्प १०. भयंकर ११. ड्योढ़ी १२. धर्म १३. तोड़ दी १४. मोक्ष लक्ष्मी १५. इसलिए १६. अमल १७. कठोर व्याधि For Personal & Private Use Only Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११३ ) अमल अखण्ड अतुल अविनाशी आतम गुन नहि गाये ॥ हम. ॥ २ ॥ यह बहुभूल भई हमरी फिर कहा काज' पछताये । 'दौल' तजो अज हूं विषयन को सतगुरु बचन सुनायें ॥ हम. ॥ ३ ॥ (३२०) छांडि दे या बुधि भोरी', वृथा तन से रति जोरी ॥ टेक ॥ यह पर है न रहै थिर पोषत, सकल कुमल की झोरी" । यासों ममता कर अनादितैं बंधो कर्म की डोरी, सह्रै दुख जलधि हिलौरी || छांडि दे या बुधि भोरी ॥ वृथा. ॥ १ ॥ यह जड़ है तू चेतन यौं ही, पनावत वरजोरी' । सम्यक दर्शन ज्ञान चरण निधि ये है संपत' तोरी, सदा विलसो शिवगोरी । छांडि दे या बुधि भोरी || वृथा ॥ २ ॥ सुखिया भये सदीव जीव जिन यासो ममता तोरी 1 'दौल' सीख यह लीजै पीजै ज्ञान पियूष कटोरी, मिटै परवाह कठोरी ॥ छांडि दे या बुधि भोरी ॥ वृथा. ॥ ३ ॥ (३२१) तोहि समझायो सौ सौ बार, जिया तोहि समझायो ॥ टेक ॥ देख सुगुरु की परहित में रति हित उपदेश सुनायो ॥ जिया. ॥ १ ॥ विषय भुजंग सेय सुख पायो, पुनि तिनसौ लपटायो ॥ स्वपद विसार रच्यौ " पर पद में, मदरत ? ज्यौं बोरायो ॥ जिया. ॥ २ ॥ तन धन स्वजन नहीं है तेरे, नाहक' नेह लगायो 1 क्यों न तजै भ्रम चाख समामृत, जो नित संत सुहायो ॥ जिया ॥ ३ ॥ अबहू समझ कठिन यह नरभव जिन वृष बिना गमायो । ते १४ विलख मनि १५ डारि उदधि में 'दौलत' को पछतायो । जिया. ॥ ४ ॥ o (३२२) अरे जिया, जग धोखे की टाटी १६ अरे ॥ टेक 11 झूठा उद्यम लोक करत हैं, जिसमें निशिदिन घाटी १७ ॥ अरे. ॥ १ ॥ १.क्यों २.भोली ३.प्रेम किया ४ मैल की ५. झोली ६. इससे ७. दुख के समुद्र में हिलोरें लेना ८. जबरदस्ती ९. यह तुम्हारी सम्पति है १०. सद्गुरु का परोपकार में प्रेम देखकर ११. दूसरे में लीन हुआ १२. शराब पीकर जिस प्रकार मतवाला हो जाता है १३. व्यर्थ १४. वे रोते हैं १५. समुद्र में मणि खोकर १६. टटिया, आड़ १७.घाटा, नुकसान । For Personal & Private Use Only Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११४) जान बूझ के अन्ध बने हैं आंखन बांधी पाटी ।। अरे. ॥ २ ॥ निकल जायेंगे प्राण छिनक में पड़ी रहैगी माटी ॥ अरे. ॥ ३ ॥ 'दौलत राम' समझ मन अपने, दिल की खोल कपाटी' ॥ अरे. ॥ ४ ॥ (३२३) हे नर भ्रमनींद क्यों न छोडत दुख दाई । सेवत चिरकाल सोंज' आपनी ठगाई ॥ हे नर. ॥ टेक ॥ मूरख अघ कर्म कहा भेदै नहिं भर्म लहा, लागै दुख ज्वाल की न, देह की तताई ॥ हे नर. ॥१॥ जम के रव बाजते, सुभैख अति गाजते° अनेक प्रान त्यागते, सुनै कहा न भाई ॥ हे नर. ॥ २ ॥ पर को अपनाय आप रूप को भुलाय हाय, करन' बिषय दारु२ जार, चाहदौं २ बढ़ाई ॥ हे नर. ॥ ३ ॥ अब सुन जिन बान राग द्वेष को जघान ४ मोक्ष रूप निज पिछान, ५ 'दौल' भज विराग ताई ॥ हे नर. ॥४॥ (३२४) न मानत यह जिय निपट अनारी, ६ सिख देत सुगुरु हितकारी ॥ न मानत. ॥ टेक ॥ कुमति कुनारि" संग रति मानत, सुमति सुनारि" विसारी ॥ न मानत. ॥ १ ॥ नर परजाय सुरेश चहैं सो, तजि विष विषय विगारी । त्याग अनाकुल ज्ञान चाह पर आकुलता विसतारी ॥ न मानत. ॥ २ ॥ अपना भूल आप समता निधि भव दुख भरत भिखारी पर द्रव्यन की परनति को शठ१ वृथा बनत करतारी२॥ न मानत. ॥ ३ ॥ जिस कषाय दव२३ जरत तहाँ अभिलाष छटा घृत डारी । दुख सौं डरै करै दुखकारन-तें नित प्रीतिकरारी ॥ न मानत. ॥ ४ ॥ अति दुर्लभ जिन वैन श्रवनकरी संशय मोह निवारी ।। 'दौल' स्वपर हित अहित जानके होवहु शिवमगचारी ॥ न मानत. ॥ ४ ॥ १.पट्टी बांध ली २.मिट्टी पड़ी रहेगी ३.किवाड़ ४. छोड़ता ५. उपकरण, सामग्री ६. कर्म क्यों नहीं भेदता ७. प्रम लिया ८. गरमी ९. आवाज १०. गरजते हैं ११. इन्द्रियों के विषय १२. लकड़ी जलाकर १३. इच्छा को १४. मारो १५. पहचानो १६. अनाड़ी १७. कुबुद्धि रूप कुनारी १८. सदुद्धि रूपी सुनारी १९. इन्द्र २०. बिगाड़ा २१. मूर्ख २२. कर्ता २३. आग २४. घी डाला। For Personal & Private Use Only Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११५) (३२५) चेतन कौन अनीति गही रे, न मानै सुगुरु कही रे ॥ टेक ॥ जिन बिषयन वश बहु दुख पायो, तिन सौ प्रीति ठही रे ॥ १ ॥ चिन्मय है देहादि जड़न को तो मति पागि रही रे ॥ २ ॥ जिनबृष पाय विहाय राग' रुष निज हित हेत यही रे ॥३॥ 'दौलत' जिन यह सीख धरी उर तिन शिव सहज लही रे ॥४॥ (३२६) चेतन यह बुधि कौन सयानी, कही सुगुरु हित सीखन मानी ॥ टेक ॥ कठिन काकताल ज्यौं पायौ, नरभव सुकुल श्रवण जिनवानी ॥चेतन. ॥१॥ भूमि न होत चांदनी की ज्यौं, त्यौं नहिं धनी होय को ज्ञानी । वस्तु रूप यौं तू यौँ ही शठ हटकर पकरत सोंज विरानी ॥चेतन. ॥ २ ॥ ज्ञानी होय अज्ञान राग रुषकर, निज सहज स्वच्छता हानी । इन्द्रिय जड़ तिन विषय अचेतन, तहाँ अनिष्ट इष्टता ठानी ॥चेतन. ॥ ३ ॥ चाहै सुख दुख ही अवगा है, अब सुनि विधि° जो है सुखदानी । 'दौल' आप करि आप आप में, ध्याय लाय समरस रस सानी ॥चेतन. ॥ ४ ॥ (३२७) चेतन तैं या ही भ्रम ठान्यो ज्यों१ मृग मृगतृष्णा जल जान्यो ॥ टेक ॥ ज्यों निशितम में निरख जेबरी २ भुजगमान २ नर भय उर आन्यो ॥चेतन. ॥ १ ॥ ज्यौं कुध्यान वश महिष मान निज फंसि नर उरमांही अकुलान्यो । त्यों चिर मोह अविद्या परयो तेरो तैही रूप भुलान्यो ॥चेतन. ॥ २ ॥ तोमतेल ज्यौं मेल न तन को, उपजल खपज में सुख दुख मान्यो । पुनि पर भावन के करता है तै तिनको निज कर्म पिछान्यौ ॥चेतन. ॥ ३ ॥ नरभव सुफल सुकुल जिनवानी काल लब्धि बल योग मिलान्यो 'दौल' सहज भज उदासीनता योष-रोष दुखकोष ६ जु मान्यो ॥चेतन. ॥ ४ ॥ (३२८) जम८ आन अचानक दावैगा९ ॥ जम आन. ॥टेक ॥ १. उनसे प्रीति की २. देहादि जड़ पदार्थों को ३. राग-द्वेष ४. बुद्धि ५. समझदारी ६. काकतालीय न्याय से (संयोग से) ७. दूसरी सामग्री को पकड़ता है ८. उसमें अनिष्ट इष्टता मानली ९. अवगाहन करता है १०. तरीका ११. जैसे हिरण १२. रस्सी १३. सर्प मानकर १४. तेल पानी की तरह १५. स्त्री १६. दुख का खजाना १७. समझा १८. मृत्यु १९. दबायेगा। For Personal & Private Use Only Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११६) छिन छिन फटत घटत थित ज्यौ जल अंजुलि' को झर जावैगा ॥ जम. ॥ १॥ जन्म ताल तरु” पर जियफल, कोलग बीच रहावैगा । क्यौं न विचार करै नर आखिर, मरन मही में आवैगा ॥ जम. ॥ २ ॥ सोवत मृत लागत जीवत ही, श्वासा जो थिर पावैगा । जैसे कोऊ छिपै सदासौं कबहुं अवशि' पलावैगा ॥ जम. ॥ ३ ॥ कहूं कबहुं कैसे हू कोऊ, अंतक से न बचावैगा ॥ सम्यक ज्ञान पियूष पिये सौं 'दौल' अमर पद पावैगा ॥ जम. ॥ ४ ॥ (३२९) निज हित कारज करना भाई निज हित कारज करना ॥ टेक ॥ जनम मरन दुख पावत जातै सो विधिबंधक तरना ॥निज. ॥ १ ॥ ज्ञान दरस अरु राग फरस रस, निज पर चिन्ह भ्रमरना। संधि भेद बुधि छैनी से कर निज गहि पर परि हरना" ॥ निज. ॥ २ ॥ परिग्रही अपराधी शंकै ५ त्यागी अभय विचरना । त्यों परचाह बंध दुखदायक, त्यागत सब सुख भरना ॥ निज. ॥ ३ ॥ जो भव भ्रमन न चाहै तो अब सुगुरु सीख उर धरना । 'दौलत' स्वरस सुधारस चाखो, ज्यौं विनसै भव मरना ॥ निज. ॥ ४ ॥ (३३०) हो तुम शठ अविचारी जियरा जिनवृष पाय वृथा खोवत हो ॥ टेक ॥ पी अनादि मदमोह स्वगुननिधि, भूल अचेत नींद सोवत हो ॥ १॥ स्वहित सीख बच सुगुरु पुकारत, क्यों न खोल दृग जोवत हो । ज्ञान विसार बिषय विष चाखत, सुरतरु जारि कनक बोवत हो ॥२॥ स्वारथ सगे सफल जन कारन, क्यों निज पाप भार ढोवत हो । नरभव सुकुल जैन वृष नौका२२ लहि निज क्यों भवजल२३ डोवत है ॥ ३ ॥ पुण्य पाप फल बात व्याधि वश, छिन में हंसत छिनक रोवत हो । संयम सलिल लेय निज उरके, कलिमल क्यों न 'दौल' धोवत हो ॥ ४॥ - १. अंजुली के जल की तरह २. कब तक ३. सोते में मरे की तरह ४. स्थिर रहेगा ५. अवश्य ६. भागेगा ७. मृत्यु ८. बचायेगा ९. अमृत १०. कार्य ११. जिससे १२. कर्म बंधन १३. बुद्धि रूपी छैनी से १४. त्यागना १५. शंका करना १६. हृदय में धारण करना १७. प्राणी १८. जैन धर्म १९. आंखें खोलकर क्यों नहीं देखता २०. जलकर २१. धतूरा २२. जैन धर्म रूपी नौका २३. संसार सागर में डूबता है २४. पाप । For Personal & Private Use Only Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११७) कवि बुधमहाचन्द्र (पद ३३१-३३४) सीख सुगुरु नित्य उर धरौ सुन ज्ञानी जी ॥ एक' भजो तज दोय ज्ञानी जी ॥ सीख. ॥ टेर ॥ तीन सदा उर में धरो सुन ज्ञानी जी, तजो चार को हेत ज्ञानी जी॥ सीख.॥ १ ॥ पंचम को नित संग करो सुन ज्ञानी जी। षट तज नीका जानि ज्ञानी जी ॥ सीख. ॥ २ ॥ सातन को चितवन करो सुन ज्ञानी जी । आठ तजो दुखकार ज्ञानी जी॥ सीख. ॥ ३ ॥ नौ ह्रदय नित धारिये सुन ज्ञानी जी । दश° फुनि ग्यारा१ धारि ज्ञानी जी ॥ सीख. ॥ ४ ॥ बारह२ फुनि तेरह१३ भजो सुन ज्ञानी जी । बुधमहाचन्द्र निहार ज्ञानी जी॥ सीख. ॥५॥ (३३२) भाई चेतन चेत सके तो चेत अब नातर" होगी खुवारी५ रे ॥ टेक ॥ लख चौरासी में भ्रमता भ्रमता दुरलभ नर भव धारी रे। आयु लई तहाँ तुच्छ दोषतै पंचम काल मंझारी रे ॥१॥ अधिक लई तब सौ बरसन की आयु लई अधिकारी रे। आधी ६ तो सोने में खोई तेरा धर्म ध्यान विसरानी ॥ २ ॥ बाकी रही पचास वर्ष में तीन दशा दुखकारी रे। बाल अज्ञान जवान त्रिया रस बृद्धपन बलिहारी रे ॥ ३ ॥ रोग अरु शोक संयोग दुख बसि वीतत है दिन सारी रे । बाकी रही तेरी आयु किती° अब, सो मैं नाहि विचारी रे ॥ ४ ॥ इतने में ही किया जो चाहै सो तू कर सुखकारी रे । नहीं फंसेगा फंद बिच पंडित महाचन्द्र यह धारी रे ॥ ५ ॥ १. आत्म स्वरूप २. राग-द्वेष ३. रत्नत्रय ४. चतुर्गति, चार कषाय ५. पंचवत ६. षड्लेश्या ७. साततत्व ८. आठ कर्म ९. नव पदार्थ १०. दश धर्म ११. ग्यारह प्रतिमाएँ १२. बारह भावनायें, बारह तप १३. तेरह प्रकार का चारित्र १४. अन्यथा १५. बरबादी १६. आधी आयु सोने में खो दी १७. भुलाकर १८. बाल, युवा और वृद्ध १९. बीतते हैं २०. कितनी। For Personal & Private Use Only Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११८ ) (३३३) जीव तू भ्रमत-भ्रमत भव' खोयो, जब चेत गयो तब रोयो ॥ टेक ॥ सम्यग्दर्शन रि विगोयो । अति सोयो ॥ १ ॥ उरझोयो । ज्ञान चरण तप यह इनही बिषय भोग-गत रस को रसियो छिन छिन में क्रोध मान छल लोभ भयो तब मोहराय के किंकर यह सब इनके मोह निवार संवारसु आयो आतम बुध महाचन्द्र चन्द्र सम होकर में .५ वसि हे " हित स्वर उज्ज्वल चित (३३४) 1 ॥ १ ॥ रे ॥ २ ॥ ॥ ३॥ जिया तूने लाख तरह समझायो, लोभीड़ा' नाही मानै रे ॥ टेक ॥ जिन करमन संग बहु दुख भोग तिनही से रुचि ठानै । निज स्वरूप न जानै रे विषय भोग बिष सहित” अन्न सम बहु दुख कारण खाने, जन्म जन्मान्तरानैं शिव पथ छांडि नर्कपथ लाग्यो मिथ्या मर्म भुलानै, मोह की घैल " आनैं रे ऐसी कुमति बहुत दिन बीतै अबतो समझ सयाने, कहैं बुध महाचन्द्र छानै रे महा कवि दौलराम (पद ३३५-३३७) (३३५) राग-तिलक कामोद. 118 11 लुटोयो ॥ २ ॥ जोयो । रखोयो ॥ ३ ॥ .१३ ॥ टेक ॥ ज्ञानी जीव निवार? भरमतम, वस्तु स्वरूप विचारत ऐसें सुत तिय४ बंधु धनादि प्रगट पर, ये मुझतें १५ हैं भिन्न इनकी परणति है इन आश्रित जो इन देह अचेतन चेतन मैं इन परिणति १७ प्रदेशें । वै भाव परन १६ होय एक सी वैसे ॥ १ ॥ कैसे | पूरन" गलन १९ स्वभाव धरे तन, मैं अज पर परिणमन न इष्ट अनिष्ट, वृथा अचल अमल नभ " जैसे ॥ २ ॥ २३ नसे २२ राग रुख द्वन्द भयसैं । ज्ञान निज फंसे बंध में, मुक्ति होय समभाव' विषय चाह दव दाह नशै नहि बिन निज सुधा सिन्धु में लयैसैं ॥ ३ ॥ .२४ पैसें २५ 1 १. नरभव २. धन धूल में खो दिया ३. उलझ गया ४. नौकर ५. वश होकर ६. लुटाया ७. संभालो ८. देखा ९. लोभी १०. विष मिला हुआ अन्न ११. मार्ग, गैल १२. दूर कर १३. भ्रमरूपी अंधकार १४. स्त्री १५. मुझसे १६. दूसरे १७. इनकी परिणति एक सी कैसे हो सकती है १८. पूर्ण १९. गलना २०. अजन्मा २१. आकाश की तरह २२. बंध में फंसने से ज्ञान नष्ट हो जाता है २३. समभाव होने से मुक्ति होती है २४. दावानल २५. पैठने से । For Personal & Private Use Only Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११९) अब जिन' वैन सने श्रवनन' हैं मिटै विभाव करूं विधि तैसें ॥ ४ ॥ ऐसे अवसर कठिन पाय अब, निज हित हेत विलंब करें से । पछतायौ बहु होय सयाने, चेतन 'दौल' छुटो भव भयसें ॥५॥ (३३६) राग-जोगीरासा छांड़त क्यों नहिं रे हे नर ! रीति अयानी । बार बार सिख देत सुगुरू यह तू दे आनाकानी ॥टेक ॥ बिषय न तजत न भजत बोध व्रत, दुख सुख जात न जानी । शर्म चहै न लहै शठ ज्यों, घृत हेत विलोवत° पानी ॥१॥ तन धन सदन स्वजन जन तुझसौं ये परजाय विरानी। इन परिरमन विनश उपजत सौ, ते दुख सुख करमानी ॥ २ ॥ इस अज्ञान तैं चिर दुख पाये, तिनकी अकथ३ कहानी । ताको तज दृग ज्ञान चरन भज, निज परिणति शिवदानी ॥ ३ ॥ यह दुर्लभ नर भव सुसंग लहि, तत्व लखावन वानी । 'दौल' न कर अब पर में ममता, धर समता सुखदानी ॥ ४ ॥ __राग-तिलक कामोद मोही जीव भरमतम'७ ते नहि वस्तु स्वरूप लखै८ है जैसे ॥ टेक ॥ जे जे जड़ चेतन की परनति, ते अनिवार९ परिनवे° वैसे । वृथा दुखी शठ कर विकलप यों नहिं परिनवै परिनवै ऐसे ॥ १ ॥ अशुचि२२ सरोग२२ समूल जड़मूरत, लखत विलात गगन घन जैसे । सो तन ताहि निहार अपुनपों२४ चाहत अबाध रहे थिर कैसे ॥ २ ॥ सुत तिथ बंधु वियोग योग यों ज्यो सराय५ जन निकसे२६ पैसे । विलखत२८ हरखत२९ शठ अपने लखि रोवत हंसत मत्तजन जैसे ॥ ३ ॥ जिन रवि बैन किरण लहि निज निज रूप३१ सभिन्न कियो पर मेंसैं । १. जिनवाणी २. कान ३. संसार के भय से ४. अज्ञानी ५. शिक्षा ६. इधर उधर करना ७. ज्ञान चारित्र ८. सुख ९. मूर्ख ग्रहण नहीं करता १०. पानी बिलोता है ११. दूसरी १२. हे मानी ! तू उनको सुख दुख मानता है १३. अवर्णनीय १४. उसको छोड़ १५. ग्रहण कर १६. दर्शाने वाली वाणी १७. प्रम रूपी अंधकार १८. देखता है १९. अनिवार्य रूप से २०. परिणमन करते है २१. परिणमन करता २२. अपवित्र २३. रोग सहित २४. स्वरूप २५. जैसे सराय से २६. निकलते हैं २७. घुसते हैं २८. रोते हैं २९. प्रसन्न होते हैं ३०. मतवाले की तरह ३१. आत्म-स्वरूप । For Personal & Private Use Only Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२०) सो जग मल ‘दौल' को चिर चित मोह विलास ह्रदैसै ॥ ४ ॥ महाकवि बनारसीदास (३३८) राग-धनाश्री चेतन तोहि न नेक, संभार ॥ टेक ॥ नख' शिख लौं दृढ़ बंधन बैढ़े कौन करे निखार ॥चेतन. ॥ जैसे आग पषाण काठ में लखियः न परत लगार । मदिरापान करत मतवारो, ताहि न कछू विचार ॥चेतन. ॥ १॥ ज्यों गजराज पखार आप तन, आपहि डारत छार । आपहि उगल पाट को कीड़ा, तनहि लपेटत तार ॥चेतन. ॥ २ ॥ सहज कबूतर लोटन को सो, खुले न पेंच अपार । और उपाय न बनें बनारसि सुमरन भजन अधार ॥चेतन. ॥ ३ ॥ महाकवि भैया भगवतीदास (३३९) राग-केदार छांड़ि दे अभिमान जिय रे ॥ टेक ॥ काको तू अरु. कौन तेरे सबही हैं महि मान । देख राजा रंक कोऊ थिर नही यह थान ॥ छोड़ि दे.॥ १ ॥ जगत देखत तोरि चलिवो, तू भी देखत आन'। घरी पल की खबर नाही यहा होय विहान २ ॥ छोड़ि दे. ॥ २ ॥ त्याग क्रोध अरु लोभ माया मोह मदिरा वान । राग द्वेषहिं टार अंतर'३ दूर कर अज्ञान ॥छांड़ि दे. ॥ ३ ॥ . भयो सुखद देव कबहुं कबहुं नरक निहान । इम कर्मवश बहु नाच नाचै 'भैया' आप पिछान ॥छोड़ि दे. ॥४॥ १. नख से शिखा तक २. घेरे हैं ३. लगार दिखाई नहीं देती ४. नहाकर ५. धूल डालता है ६. रेशम का (कीड़ा) ७. शरीर में (धागा लपेटता) ८. स्मरण ९. मेहमान, १०. स्थान ११. दूसरे को १२. सबेरा १३. हृदय से १४. पहचान। For Personal & Private Use Only Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२१) कविवर कुंजीलाल होली - ठेका दीपचन्दी (३४०) चेतन भ्रमत अधीर हो, कुमता' रंग लागे॥ चेतन. ॥टेक ॥ सच्चिद्रूपचिदानंद स्वामी, परम शांति गंभीर ।हो क्यों विषयनि लागे ॥ चेतन. ॥ १ ॥ शुद्ध भाव वैराग्य बिताकै कुल मंडन सुतवीर, हो क्यों बनत अभागे ॥ चेतन. ॥ २ ॥ धर्म शुक्ल है मित्र तिहारे, महाबली गुणधीर, हो क्यों निजपद त्यागे ॥ चेतन. ॥ ३ ॥ सिद्ध शिला माता के नंदन, दया सरोवर वीर, हो क्यों अब हूं न जागे । चेतन. ॥ ४ ॥ कुमति सौत भरमाय पिलायो, तुमको मदिरा नीर, हो दुर्गति अनुरागे ॥ चेतन. ॥ ५ ॥ 'कुंज' कहे सुमता संग लागे, मिलत शांति जागीर, हो केवल पद जागे ॥ चेतन. ॥ ६ ॥ महाकवि भैया भगवतीदास (३४१) हो चेतन वे दुख, बिसरि गये ॥ टेक ॥ परे नरक में संकट सहते, अब महाराज भये । सूरी सेज सबै तन वेदत,° रोग एकत्र ठये हो. ॥ १ ॥ करत पुकार फिरत दुख पावत, करमन आन'२ दये । कहूं शीत कहूं उष्ण महा भुवि, सागर आयु लगे ॥हो. ॥ २ ॥ निकस पशूगति पाइ तहां के दुख ना जाय कहे । शीत उष्ण और भूख वृषा के अकथ जु दुक्ख लहे ॥हो. ॥ ३ ॥ कठिन कठिन कर नरभव पाया, काहे. न चेत लये५ । अब प्रमाद तज चेतहु 'भैया' श्री गुरु के बच ये हो. ॥ ४ ॥ १. कुबुद्धि का प्रभाव २. विषय भोगों में लीन ३. कुल की शोभा बढ़ाने वाले ४. क्यों अभागे बनते हो ५. क्यों आत्म-स्वरूप (पद) त्यागते हो ६. कुबुद्धि रूपी सौत ७. मदिरा जल पिला दिया ८. भूल गये ९. शूली १०. दुख देती है ११. रोग इकट्ठे हो गये १२. कमों ने दुख लाकर दिये १३. अवर्णनीय १४. मुश्किल से १५. सावधान क्यों नहीं होता। For Personal & Private Use Only Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२२) ८. विनय महाकवि बुधजन (पद ३४२-३६३) (३४२) म्हे तो थापर, वारी वारी वीतरागी जी, शांत छबी थांकी आनंद कारी जी ॥ म्हे तो. ॥ टेक ॥ इंद्र नरिंद्र फरिंद मिलि सेवत, मुनि सेवत रिधिधारी जी ॥ म्हे तो. ॥ १ ॥ लखि अविकारी पर उपकारी, लोकालोक निहारी जी ॥ म्हे तो. ॥ २ ॥ सब त्यागी जी कृपा तिहारी बुधजन ले बलिहारी जी ॥ म्हे.तो. ॥ ३ ॥ राग-अलहिया विलावल-ताल धीमा तेताला (३४३) करम देत दुख जोर हो साइयां ॥ करम देत. ॥ टेक ॥ कैइ रावत पूरन की नैं, संग न छाड़त मोर' हो साइयां ॥ १ ॥ इनके वशर्ते मोहि बचायो, महिमा सुनि अति तोर'२ हो साइयां ॥ २ ॥ 'बुधजन' की विनती तुमही सौं, तुमसा प्रभुनहि और हो साइयां ॥ ३ ॥ राग-सारंग लहरि श्री जी तरन हारा थे तो, मोने" प्यारा लागो राज ॥ श्री. ॥ टेक ॥ बार, सभा बिच गंध कुटी में राज रहे महाराजा ॥श्री. ॥ १॥ अनंत काल का भरम मिटत है सुनतहिं आप अबाज ॥श्री. ॥ २ ॥ 'बुधजन' दास रावरौ विनपै", थांसू सुधरै काज ॥ श्री. ॥ ३ ॥ राग-पूरवी एकताला (३४५) नैन शान्त छवि देखि९ के दोऊ ॥ नैन. ॥ टेक ॥ अब अद्भुत दुति नहिं बिसराऊ, बुरा भला जग कोटि कहो कोउ ॥ नैन. ॥१॥ बड़° भागन यह अवसर आया, सुनियो जी अब अरज मेरी कहूं । भवभव में तुमरे चरनन' को 'बुधजन' दास सदा ही बन्यौ२२ रहूं ॥ १.मैं २.आप पर ३.न्योछावर हूं ४.आपकी ५.ऋद्धिधारी ६.विकार रहित ७.लोकालोक देखने वाले ८.बहुत अधिक ९.चक्कर १०.पूरे किये ११.मेरा १२.आपका १३.तुम्हारे जैसा १४.मुझे १५.समोशरण में १६.आपका सेवक १७.विनय करता हूं १८.आपको १९.संतुष्ट २०.बड़े भाग्य से २१.चरणों का २२.सदा बना रहूं। For Personal & Private Use Only Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२३) (३४६) राग-पूरवी जल्द तितालो हरना जी जिनराज मोरी' पीर ॥ हरना.. ॥ टेक ॥ आन देव सेये जगवासी सरयौ' नहीं मोर काज ॥ हरना. ॥१॥ जग में बसत अनेक सहज ही प्रनवत विविध समाज ॥ तिन पै इष्ट अनिष्ट कल्पना मैंटोगे महाराज ॥ हरना. ॥२॥ पुद्गल रचि अपन' पौ भूल्यौ विरथा करत इलाज । अबहि यथाविधि बेगि बतावो ‘बुधजन' के सिरताज ॥ हरना.॥ ३ ॥ (३४७) राग-पूरवी तारौ क्यों न तारो जी म्हें तो थाकें शरना आया ॥ टेक ॥ विधान मोकौं चहुंगति फेरत, बड़ भाग तुम दरशन पाया ॥ १ ॥ मिथ्यामत जल मोहे मुकुरजुत' भरम भौंर २ में गोता खाया । तुम मुख बचन अलंबन पाया, अब ‘बुधजन' उर में हरषाया३ ॥ २ ॥ (३४८) राग-धनासरी धीमो तितालो प्रभु थासू४ अरज हमारी हो ॥ प्रभु. ॥टेक ॥ मेरो हित५ न कोउ जगत मैं तुम ही हो हितकारी हो ॥ प्रभु. ॥ १ ॥ संग लग्यौ मोहि नेकु न छांडे देत मोह दुख भारी । भवन मांहि नचावत मोको तुम जानत हौ सारी हो ॥ प्रभु. ॥ २ ॥ थांकी महिमा अगम अगोचर कहि न सकै बुधि म्हारी। हाथ जोर कै पाय परत हूं, आवागमन निवारी हो ॥ प्रभु. ॥ ३ ॥ (३४९) राग-असावरी अरज म्हारी मानो जी, याही म्हारो मानो, भवदधि हो तारना म्हारा जी ॥ अरज. ॥टेक ॥ १.मेरा दुख २.दूसरे देवता ३.पूरा नही हुआ ४.पुद्गल में लीन होकर ५.स्वयं को भूला ६.व्यर्थ ७.आपकी ८.कर्म ९.मुझको १०.घुमाते हैं ११.मगरयुक्त १२.भँवर १३.प्रसन्न हुआ १४.आपसे १५.हितेषी१६.आपका १७.बुद्धि १८.दूर For Personal & Private Use Only Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२४) पतित उधारक पतित' पुकारै अपनो विरद पिछानौ ॥ १ ॥ मोह मगर मछ दुख दावानल जनम मरन जल जानो ।। गति गति भ्रमन भँवर मैं ड्रबत, हाथ पकरि ऊंचो आनो ॥ २ ॥ जग में आन देव बहु हेरे, मेरा दुख नहि मानो । 'बुधजन' की करुना ल्यो साहिब, दीजे अविकल' थानो ॥ २ ॥ (३५०) राग-असावरी जोगिया ताल धीमो तेतालो थे ही मोनै तारोजी, प्रभुजी कोई न हमारो ॥ थेही. ॥ टेक ॥ हूं एकाकि अनादि कालतें, दुख पावत हूं भारो जी ॥१॥ बिन मतलब के तुम ही स्वामी, मतलब कौ संसारो । जग जन मिलि मोहि जग में राखे तू ही काढ़न' हारो ॥ २ ॥ 'बुधजन' के अपराध मिटावो, शरन गह्यो छे थारी । भवदधि मांही डूबत मोकौं कर३ गहि आप निकारो ॥ ३ ॥ (३५१) राग-असावरी मांझ ताल धीमो एक तालो प्रभुजी अरज हमारी उर ॥ प्रभुजी. ॥ टेक ॥ प्रभुजी नकर निगोधा" में रूल्यौ६ पायो दुःख अपार ॥१॥ प्रभुजी हूं पशुगति में उपज्यौ, पीठ सह्यौ अतिभार ॥२॥ प्रभुजी, विषय मगन मैं सुर भयो जात न जान्यौ काल ॥ ३ ॥ प्रभुजी, भव" भरमन 'बुधजन' तनों मेटो करि उपगार ॥ ५ ॥ (३५२) ___ राग-सारंग की मांझ ताल दीपचन्दी म्हारी सुणिज्यो° परम दयालु, तुमसों अरज करूं॥ टेक ॥ आन उपाव१ नहीं या जग मैं जग तारक जिनराज तेरे पांव२२ परू ॥ १ ॥ साथ अनादि लागि विधि२२ मेरी, करत रहत वेहाल इनको कौलों भरूं ॥ २ ॥ १.पतितों के उद्धारक २.पतित पुकार रहा है ३.हाथ पकड़ कर ऊपर लाओ ४.बहुत से देवता देखे ५.मोक्ष ६.आप' ७.मुझे ८.अकेला ९.बहुत अधिक १०.नि:स्वार्थ ११.निकालने वाले १२.आप की शरण ली है १३.हाथ पकड़कर १४.हृदय में धारण करो १५.निगोद में १६.भटका १७.संसार भ्रमण १८.उपकार १९.मेरी २०.सुनिये २१.दूसरा उपाय नहीं है २२.पैर पड़ता हूं २३.कर्म २४.कब तक। For Personal & Private Use Only Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२५) करि करुना करमन को काटो जनम मरन दुखदाय इनतें बहुत डरूं ॥ ३ ॥ चरन शरन तुम पाय अनूपम 'बुधजन' मांगत यह गति नाहि फिरूं ॥४॥ (३५३) मैं तेरा चेरा सुनो प्रभु अष्टकर्म मोहि घेरि रहे हैं दीनदयाल दीन मैं लखिके और जंजाल टाल सब मेरा, राखो चरनन चेरा ॥ 'बुधजन' ओर निहारो कृपाकरि विनवै वारूं' वेरा मेरा दुःख देहैं बहुतेरा ॥ मैंटो गति-गति फेरा 11 मैं. ॥ टेक मैं. ॥ 11 (३५५) राग-लूहरी सारंग जलद तेतालो मैं. 11 11 8 11 ॥ २ ॥ (३५४) राग-लहरि सारंग अरज करूं (तसलीम करूं) ठाड़ो विनउ चरनन को ' चेरो ॥ अरज ॥ टेक ॥ दीना नाथ दयाल गुसाई मोपर करुना करिकै हेरो' आज ॥ अरज. ॥ १ ॥ भव बन में निरवल° मोहि लखि कै दुष्ट कर्म सब मिलकै घेरो । नाना रूप बनाके मेरो गति चारों में दयो १ है फेरो ॥ अरज. ॥ २ ॥ दुखी अनादि काल को भटकत, शरनो आय गहयो मैं तेरो । कृपा करौ तो अब 'बुधजन' पै हरो' २ बेगि संसार बसेरो || अरज. ॥ ३ ॥ १२ For Personal & Private Use Only मै. ॥ ३ ॥ मै. ॥ ४ ॥ || मौंको १३ तारो जी किरपा १४ करिके ॥ मौको ॥ टेक अनादि काल को दुखी रहत" हूं, टेरत" जमतें डरिकै ॥ १ ॥ भ्रमत फिरत चारों गति भीतर, भवमांहि मारि मरि करिकैं । डूबत अगम अथाह जलधि मैं राखो हाथि पकरि करिकै ॥ २ ॥ मोह भरम विपरीत बसत उर आप न जानो निज करिकैं 1 तुम सब ज्ञायक मोहि उबारो, 'बुधजन' को अपना करिकै ॥ ३ ॥ १. बहुत डरता हूँ २. चारों गतियों में न भटकूं ३. सेवक ४. मुझे देखकर ५. बारबार ६. प्रार्थना करता हूं ७. खड़ा होकर ८. चरणों का दास ९.देखो १० कमजोर ११. चक्कर लगवाया है १२. जल्दी संसार बसेरा दूर करो १३. मुझको १४. कृपा करके १५.रहता हूं १६.यमराज से डरकर बुलाता हूं १७. हाथ पकड़ कर चलो । Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२६ ) (३५६) राग- गारो तेताल म्हारी भी सुणि' लीज्यो, हो मोकौ तारण, सुफल भये लखि मोरे नैन || म्हारी भी. ॥ टेक ॥ तुम अनंत गुन ज्ञान भरे हो, वरनन' करतें देव थकत हैं, कहि न सकै मुझ बैन ॥ म्हारी भी. हम तो अनंत ै दिन अनत भरम रहे, तुमसा कोऊ नाहिं देखिये, आनंद घन चित चैन 'बुधजन' चरन शरन तुम लीनी बांछा संग न रहै दुख दैन । ॥ म्हारी भी. ॥ २ ॥ मेरी पूरन कीजे म्हारी भी. ॥ ३ ॥ (३५७) राग - दीपचन्दी ॥ १ ॥ 11 11 8 11 1 मेरी अरज कहानी सुनि केवलज्ञानी ॥ मेरी. ॥ टेक चेतन के संग जड़ पुद्गल मिली, सारी वुधि वौरानी भव वन मांही फेरत मौको लाख चौरासी थानी कौलों बरनौं" तुम सब जानो जनम मरन दुखदानी ॥ २ ॥ भाग" भले तैं मिले 'बुधजन' को तुम जिनवर सुखदानी मोह १२ फासि को काटि प्रभुजी, कीजे केवल ज्ञानी ॥ ३ ॥ (३५८) राग- सोरठ 11 8 11 बेगि ३ सुधि लीज्यौ म्हारी श्री जिनराज ॥ वेगि. ॥ टेक ॥ डरपावत १४ नित आयु रहत है संग लग्या जमराज जाके सुरनर नारक तिरजग ५, सब भोजन के साज १६ ॥ ऐसौ काल हरयौ तुम साहब यातैं मेरी लाज पर डर डोलते उदर भरन कौ होत प्रांत तैं साज 1 डूबत आश अथाह जलधि में द्यौ सम भाव ॥ २ ॥ जिहाज ॥ ३ ॥ १. सुन लीजिये २.वर्णन कर के देवता भी थक जाते है ३. अनंत काल से दूसरी जगह भटक रहे हैं ४. आपके जैसा दूसरा नहीं है ५. मेरी इच्छा पूरी करो ६. दुख देने वाले कर्म साथ न रहें ७. बुद्धि ८. घुमाते है ९. कबतक १०. वर्णन करूं ११. सौभाग्य से १२. मोह जाल को काटकर १३. शीघ्र ध्यान दें (खबर ले) १४. डराता है १५ तिर्यंच १६. सामग्री । For Personal & Private Use Only Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२७) घना दिना को दुखी दयानिधि औसर पायो आज। 'बुधजन' सेवक ठाड़ौ बिनवै कीज्यौ मेरे काज ॥ ४ ॥ (३५९) म्हारी कौन सुनै, थे तौ सुनिल्यौ श्री जिनराज ॥ टेक ॥ और सरन मतलब के गाहक म्हारो सरते न काज। मोसे दीन अनाथ रंक कौ, तुमते बनत इलाज ॥ १ ॥ निज पर नेकु दिखावत नाही, मिथ्या तिमिर समाज । चंद प्रभू परकाश करो उर पाऊं धाम निजाज ॥ २ ॥ थकित भयौ हूं गति गति फिरतां दर्शन पायौ आज । बारंबार बीनवै 'बुधजन' सरन गहे की लाज ॥ म्हारी. ॥ ३ ॥ (३६०) राग-केदारो एक तालो अहो मेरी तुमसौं बीनती, सब देवनि के देव ॥ अहो. ॥ टेक ॥ ये दूजनजुतरे तुम निर३, जगत हितू स्वयमेव ॥ १ ॥ गति अनेक में अति दुख पायौ, ली. जन्म अछेव"। हो संकट हरदे६ बुधजन कौ भव भव तुम पद सेव ॥ २ ॥ (३६१) राग-सोरठ म्हारौ मन लीनौ छै थे मोहि, आनंद घन जी ॥ म्हारो. ॥ टेक॥ ठौर" ठौर सारे जग भटक्यो ऐसो मिल्यौ नाहिं कोय । चंचल चित मुझ अचल भयौ है निरखत चरनन तोय ॥ १ ॥ हरज भयो सो उर ही जानैं वरनौं जात न सोय।। अनंत काल के कर्म नसैगे, सरधा आई जोय ॥ म्हारो. ॥ २ ॥ निरखत ही मिथ्यात मिटयौ सब ज्यो रवि तैं दिन होय। बुधजन उरमें २ राजौ नित प्रति, चरन कमल तुम दोय ॥ ३ ॥ १.बहुत दिनो से २.मेरी ३.सब ४.स्वार्थ के ग्राहक है ५.मेरा काम सिद्ध नहीं होता ६.गरीब ७.तुमसे इलाज बनता है ८.स्व-पर ९.कुछ भी नहीं दिखाता १०.निजआज ११.थक गया हूं १२.दोषों से युक्त १३.दोषरहित १४.हितैषी १५.निर्दोष १६.दूर कर दो १७.आपने मेरा मन मोह लिया १८.जगह-जगह १९.तुम्हारे चरणों को देखते हैं २०.नष्ट होंगे २१.जैसे सूर्य से दिन होता है २२.हृदय में विराजो । For Personal & Private Use Only Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२८) (३६२) राग-कालिंगडो परज धीमो तेतालो म्हे' तौ थांका चरणां लागां, आन भाव परिणति त्यागां ॥ टेक ॥ और देव सेया दुख पाया, थे पायारे छौ अब बड भांगा ॥ १ ॥ एक अरज म्हाकी सुणि जग पति, मोह नीद सौं अबके जायां । निज सुभाव थिरता बुधि दीजे, ओर कछु म्हे नाहीं मांगां ॥ २ ॥ (३६३) राग-पराज म्हे तो ऊभा राज था. अरज करां छां मानौ महाराज ॥ टेक॥ केवलज्ञानी त्रिभुवन नामी, अंतरजामी सिरताज ॥१॥ मोह शत्रु खोटो संग लाग्यौ बहुत करै छै अकाज । यातें बेगि बचावो म्हानैं थाने म्हां की लाज ॥२॥ चोर चंडाल अनेक उवारे' गीध श्याल मृगराज । तौ बुधजन किंकर के हितमैं ढील' कहा जिनराज ॥ ३ ॥ महाकवि भागचन्द (पद ३६४-३६६) (३६४) राग-सोरठ स्वामी मोहि अपनो जानि तारौ११, या विनती अब चित धारौ ॥टेक ॥ जगत उजागर करुणा सागर, नागर नाम तिहारो ॥ १ ॥ भव अटवी१२ में भटकत भटकत अब मैं अती हारो ॥२॥ भागचन्द स्वच्छन्द ज्ञानमय सुख अनंत विस्तारौ ॥३॥ (३६५) राग-जोड़ा मैं तुम शरन लियो, तुम सांचे प्रभु अरहंत ॥ टेक ॥ तुमरे दर्शन ज्ञान मुकर५ में दरश ज्ञान झलकंत६ । अतुल निराकुल सुख आस्वादन वीरज अरज(?) अनंत ॥१॥ राग द्वेष विभाग नाश भये परम समरथी संत । १.मैं तो २.आपके चरणों में लगा हूं ३.बड़े भाग्य से पाया हूं ४.हमारी सुन लीजिए ५.खड़ा ६.आपसे अरज करते है ७.बहुत नुकसान करता है ८.पार लगाये ९.दास १०.ढिलाई ११.पार करो १२.श्रेष्ठ १३.संसार रूपी जंगल १४.बहुत थक गया १५.दर्पण १६.झलकते हैं १७.समान रस वाले। For Personal & Private Use Only Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२९) पर देवाधिदेव पायो दिक', दोष क्षुधाधिज' अंत ॥ २॥ भूषन' वसन शास्त्र कामादिक, करन विकार अनंत । तिन तुम परमौदारिक तन मुद्रा सम शोभंत ॥ ३ ॥ तुम वानीनै धर्मतीर्थ जग मांहि त्रिकाल चलंत । निज कल्यान हेतु इन्द्रादिक, तुम पद सेव करंत ॥४॥ तुम गुन अनुभवतै निज पर गुन, दरसत अगम अचिंत । भागचंद निजरूप प्राप्ति अब, पावै हम भगवंत ॥ मै. ॥ ५ ॥ (३६६) राग-दीपचन्दी कीजिये कृपा मोह दीजिये स्वपद मैं तो तेरी शरन लीनो है नाथ जी ॥ टेक ॥ दूर करने यह मोह शत्रु को, फिरत सदाजी मेरे साथ जी ॥ १ ॥ तुमरे वचन कर्मगत-मोचन संजीवन औषधि क्वाथजी ॥ २ ॥ तुमरे कमल बुध ध्यावत, नावत हैं पुनि निज माथ जी ॥ ३ ॥ 'भागचन्द' मैं दास तिहारो ठाडे जोरौ जुगल हाथ जी ॥४॥ महाकवि द्यानतराय (पद ३६७-३७२) (३६७) रुल्यो चिरकाल, जगजाल चहुँगति विर्षे आज जिनराज-तुम शरन आयो ॥ टेक ॥ सह्यो दुख घोर, नहि छोर आवै कहत तुमसौ कछु छिप्यो' नहि तुम बतायो ॥१॥ तु ही संसार तारक नहीं दूसरो, ऐसो मुंहर भेद न किन्ही सुनायो ॥२॥ सकल सुर असुर नरनाथ बंदत३ चरन, नाभिनंदन निपुन मुनिन ध्यायो ॥३॥ तु ही अरहन्त भगवन्त गुणवन्त प्रभु, खुले मुझ५ भाग अब दरश पायो ॥४॥ १.कष्ट २.भूख आदि ३.आभूषण एवं वस्त्र ४.परम औदारिक शरीर ५.आपकी वाणी से ६.तुम्हारे चरणों की सेवा करते हैं ७.अपना पद ८.काढ़ा ९.अटका १०.चारों गतियों में ११.छिपा हुआ नही है १२.इस प्रकार का भेद किसी ने नही बताया १३.चरणों की वंदना करते हैं १४.अच्छी तरह १५.मेरे भाग्य खुल गये। For Personal & Private Use Only Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३०) सिद्ध हौं शुद्ध हौं बुद्ध अविरुद्ध हौं, ईश जगदीश बहुगुणनि गायो ॥५॥ सर्व चिन्ता गई बुद्धि निर्मल भई, जबहि चित जुगल चरननि लगायो ॥६॥ भयो निहाचित्त' 'द्यानत' चरन शर्नगयि, तार अब नाथ तेरो कहायो ॥७॥ (३६८) मेरी बेर कहा ढील करी जी ॥टेक ॥ सूली सों सिंहासन कीनों, सेठ सुदर्शन विपति हरीजी ॥१॥ सीतासती अंगनि में पैठी पावक नीर करी सगरी जी । वारिषेण पै खड्ग चलायो, फूलमाल कीनी सुथरी जी ॥२॥ धन्या वपी परयो निकाल्यो, ता घर रिद्ध अनेक भरी जी। सिरीपाल सागर तैं तारयो, राजभोग के मुकत बरी जी॥ ३ ॥ सांप कियो फूलन की माला, सोमा पर तुम दया धरी जी ॥ 'द्यानत' मैं कछु जांचत नाही, कर वैराग्य दशा हमरी जी ॥४॥ (३६९) प्रभु अब हमको होहु सहाय ॥ टेक ॥ तुम बिन हम बहु जुग दुख पायो; अब तो परसे पांय ॥प्रभु. ॥१॥ तीन लोक में नाम तिहारो है सबको सुखदाय । सोई नाम सदा हम गावैं रीझ जाहु पतियाय ॥ प्रभु. ॥ २ ॥ हम तो नाथ कहाये तेरे, जावैं कहां सु बलाय । बांह गहे की लाज निवाह्यौ, जो हो त्रिभुवन राय ॥प्रभु. ॥ ३ ॥ 'द्यानत' सेवक ने प्रभु इतनी विनती करी बनाय । दीनदयाल दया घर मन में, जम २ लेहु बचाय ॥प्रभु. ॥ ४ ॥ (३७०) हो स्वामी जगत जलधिते तारो॥ हो. ॥ टेक ॥ १.निश्चिन्त २.शरण ३.मेरी बारी में ४.ढिलाई ५.विपत्ति दूर की ६.आग को पानी कर दिया ७.श्रीपाल राजा ८.सोमा सती ९.चरण स्पर्श किया १०.विश्वास करके प्रसन्न हो जाओ ११.कहां जाऊं बताइये १२.यम से बचालो । For Personal & Private Use Only Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३१) मोह मच्छ अरू काम कच्छतें, लोभ लहर” उबारो ॥ हो. ॥ १ ॥ खेद खारजले दुख-दावानल, भरम भँवर भय टारो ॥ हो. ॥२॥ 'द्यानत' बार बार यों भाषै, तू ही तारन हारो ॥ हो. ॥ ३ ॥ (३७१) मोहि तारो हो देवाधिदेव, मैं मनबचतन करि करौ सेव ॥ टेक ॥ तुम दीन दयाल अनाथ नाथ, हमहू को राखो आप साथ ॥ १ ॥ यह मारवाड़ संसार देश, तुम चरन कलपतरु हर कलेश ॥२॥ तुम नाम रसायन जीय पीय, ‘द्यानत' अजरामर भव त्रितीय ॥ ३ ॥ (३७२) तुम प्रभु कहियत दीन दयाल ॥ टेक ॥ आपन जाय मुकत मैं बैठे, हम जु रुलत जगजाल ॥ तुम. ॥१॥ तुमरो नाम जपें हम नीके, मन बच तीनो काल । तुमतो हम को कछू देत नहिं, हमरो कौन हवाल° ॥ तुम ॥२॥ बुरे भले हम भगत तिहारे, जानत हो हम चाल । और कछु नहिं यह चाहत हैं, राग दोष कौं टाल ॥ तुम. ॥३॥ हमसौ चक' परी सो वकसो, तुम सो कृपा विशाल । 'द्यानत' एक बार प्रभु जगतै, हम को लेहु निकाल ॥ तुम. ॥ ४ ॥ कविवर जिनेश्वरदास (३७३) सुनिये सुपारस आज हमारी . ॥ सुनिये. ॥ लख चौरासी जोन'२ फिर्यो मैं, पायो दुख अधिकारी ॥ सुनिये. ॥१॥ बड़े पुण्यते नरभव पायो, शरन गही अब थारी३ ॥ सुनिये. ॥ २ ॥ रत्नभय निधि निज की दीजै, कीजे ४ विधि निरवारी ॥ सुनिये ॥३॥ अधम उधारक देव ‘जिनेश्वर' आज हमारी वारी ॥ सुनिये. ॥ सुनिये. ॥ ४ ॥ ___ (३७४) मेरी जिनवर सुनो पुकार वसुविधि कर्मजलाने वाले ॥टेक ॥ १.बडी मछली २.दलदल कीचड़ ३.दुख ४.खारा पानी ५.बोलते हैं ६.मन बचन तन से सेवा करता हूं ७.कष्ट दूर करो ८.तीन ९.भटकता हूं १०.हाल ११.प्रांत हूं अत: बकता हूं १२.योनि १३.आपकी १४.कर्मों को दूर कर दें । For Personal & Private Use Only Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३२ ) संपति इनके हाथ, 1 ॥ २॥ मेरे कर्म अनादि साथ, मेरी मोको देते दुख दिनरात बैरी धर्म भुलाने वाले ॥ १ ॥ मैंने कीना नहीं विगार' तौ भी देते दुख अपार इनका ऐसा है इखत्यार' नाहक दुख दिखाने वाले मैं तो सदा अकेलो एक मेरे दुश्मन कर्म अनेक सबकैं दुख देने की टेकर, कातिल ये कहलाने वाले ॥ ३ ॥ देवैं गाफिल' करके मार लेते बैर कुगति में डार मोकों भवदधि से कर पार, 'जिनेश्वर' धर्म चलाने वाले ॥ ४ ॥ 1 1 महाकवि दौलतराम (पद ३७५-३७९) (३७५) जाऊं कहाँ तज शरन तिहारे ॥ चूक अनादितनी या हमरी माफ करो करुना गुन धारे डूबत हों भव सागर में अब तुम बिन को मुहवार निकारे तुम सम देव अवर नहि कोई, तातैं हम यह हाथ पसारे मोसम अधम अनेक उधारे, बरनत हैं श्रुत शास्त्र अपारे 'दौलत' की भवपार करो अब आयो है शरनागत टेक 11 (३७७). ॥ १ ॥ ॥ २ ॥ (३७६) मैं आयो जिन शरन तिहारी, मैं चिर दुखी विभाव' भावतैं स्वाभाविक निधि आप विसारी ॥ मैं आयो. ॥ टेक रूप निहार धार तुम गुन सुन वैन" होत भवि शिवमग चारी ० मम काज के कारन तुम, सुमरी सेव एक उर धारी ॥ मैं आयो. २॥ मिल्यौ अनन्त जन्म तैं अवसर अब विनऊ हे भवसर १२ तारी । परम इष्ट अनिष्ट कल्पना 'दौल' कहै झट भेट हमारी ॥ मैं आयो. ॥ ३ ॥ ॥ ३ ॥ ॥ ४ ॥ थारे ' ॥ ५ ॥ For Personal & Private Use Only प्रभु मोरी १३ ऐसी बुधि१४ कीजिए । राग द्वेष दावानल" से बच, समता रस में भीजिये ॥ प्रभु ॥ टेक ॥ ॥ १ ॥ । १. बिगाड़ २. अधिकार ३. आदत ४. हत्यारे ५. बेसुध ६. बाहर ७. दूसरा ८. आपके ९. पर परिणति १०. भुला दिया ११. वचन १२. संसार सागर पार करने वाले १३. मेरी १४. बुद्धि १५. जंगल की आग १६. भींगना । Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३३) परमें त्याग अपनपो निज में, लाग न कबहू कीजिए । कर्म कर्मफल मांहि न राचत ज्ञान सुधारस पीजिए ॥ प्रभु. ॥ १ ॥ सम्यग्दर्शन ज्ञान चरननिधि, ताकी प्राप्त करीजिए । मुझ कारज के तुम बड़ कारन अरज 'दौल' की लीजिए ॥ प्रभु. ॥ २ ॥ (३७८) हो तुम त्रिभुवन तारी हो जिनजी मो भवजलधि क्यों न तारन हो ॥ टेक ॥ अंजन किया निरंजन तारौं अधम उधार विरद धारन हो । हरि बराह कर्कट झट तार, मेरी बेर डील पारत हो ॥ हो तुम. ॥ १ ॥ यौं बहु अधम उधारे तुम तो, मैं कहा' अधम न मुहिर टारत हो । तुम को करनो परत न कछु शिव, पथ लगाय भव्यनि तारत हो ॥हो तुम. ॥ २ ॥ तुम छवि निरखत सहज टरै अघ, गुण चिंतत विधिरज झारत हो । 'दौल' न और चहै मो दीजै, जैसी आप भावना रत" हो ॥ हो तुम. ॥ ३ ॥ (३७९) तुम सुनियो श्री जिननाथ, अरज इक मेरी जी ॥ तुम. ॥ टेक ॥ तुम विन होत'६ जगत उपकारी वसुकर्मन मोहि किया दुखारी ज्ञानादिक निधि हरी हमारी, द्यावो" सों मम फेरी जी॥ तुम. ॥ १ ॥ मैं निज" भूल तिनहि संग लाग्यो तिन कृत करन विषय रस पाग्यौ । ताते° जन्म जरा-दब-दाग्यौ, कर समता समनेकी जी ॥ तुम. ॥ २ ॥ वे अनेक प्रभु मैं जु अकेला, चहुंगति विपति मांहि मोहि पेला ।। भाग जगे तुमसों भयो मेला, तुम हो न्याय२३ निवेरी जी॥ तुम. ॥ ३ ॥ तुम दयाल वेहाल हमारो, जगतपाल निज विरद समारो । ढील४ न कीजै वेग२५ निवारो "दौलतनी' भवफेरी जी॥ तुम. ॥ ४ ॥ कवि महाचन्द्र (३८०) ओर२६ निहारो मोरे दीन दयाला ॥ ओर. ॥ टेर ॥ १.क्षय करना २.लीन होना ३.उसकी ४.कार्य ५.कारण ६.मुझे ७.प्रशंसा ८.सिंह ९.सूअर १०.केंकड़ा ११.मैं क्या नीच हूं १२.मुझे क्यों पार नही लगाते १३.पाप १४.कर्ममल दूर करना १५.लीन होना १६.अकारण १७.वापिस दिला दो १८.अपनी गल्ती से १९.विषयों के रस में लीन हो गया २०.इसलिये जन्म जरा रूपी आग में जला २१.निकट २२.धकेला २३.फैसला करने वाले २४.ढिलाई न करें २५.जल्दी से २६.तरफ २७.देखो। For Personal & Private Use Only Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३४) हम कर्मन” भवदुख दुखिया तुम दुख के प्रतिपाला' ॥ ओर. ॥१॥ कर्मन तुल्य नहीं दुख दाता तुम सम नहि रखवाला ॥ ओर. ॥ २ ॥ तुम तो दीन अनेक उधारे' कौन कहै तैं सारा ॥ओर. ॥ ३ ॥ कर्म अरी' को वेगि हटाऊं ऐसी कर प्रभु म्हारा ॥ओर ॥ ४ ॥ 'बुध महाचन्द्र' चरण युग चर्चे जाचत है शिवमाला ॥ओर. ॥ ५ ॥ _ (३८१) अरज मोरी एक मानू जी', हो जिन जी चमत्कारि महाराज ॥ टेक ॥ तुम तो शिवपुर बास कीनू जी, हो जिन जी हम डूबै भवमाहि, तारि मोहि दीन जानूं जी॥ हो जिन जी. ॥ १ ॥ तुम निजरूपी व्हे रहे हो राज हो जिन जी, हम पर परणति लीन करो निज रूप बानू जी॥ हो जिन जी. ॥ २ ॥ तुम तो कर्म विनाशिये जी, राज हो प्रभुजी, हमको करम दुख देत, जन्म जन्मान्तरानो जी॥ हो जिन जी. ॥३॥ भव भव में तुम चरण की हो राज हो जिन जी सेवा 'बुध महाचन्द्र' मांगत सो मिलानूं' जी ॥ हो जिन जी.॥ ४ ॥ कविवर भागचंद (३८२) मो सम२ कौन कुटिल ३ खल कामी। तुम सम कलिमल५ दलन न नामी ॥ टेक ॥ हिंसक झूठ बाद मति चितरत', परधन हर पर वनितागामी । लोभित चित्त वित्त नित चाहत धावन दश दिश करत न स्वामी ॥ १ ॥ रागी देव बहुत हम जांचे रांचे नहि तुम सांचे स्वामी बांच° श्रुत कामादिक पोषक, सेये कुगुरू सहित धनधामी ॥ २ ॥ भाग उदयसे मैं प्रभु पाये, वीतराग तुम अन्तर्जामी । तुम धुनि२२ सुनि परजय में, परगुण जानै निजगुणचित विसरामी२३ ॥ ३ ॥ तुमने पशु पक्षी सब सा तारे अंजन चोर सुनामी । १.रक्षा करने वाले २.उद्धार किया ३.कर्मशत्रु ४.पूजता हूं ५.मांगता हूं ६.मानो जी ७.किया जी ८.जानो जी ९.बना १०.अनेक जन्मों में ११.मिलानजी १२.मेरे समान १३.कपटी १४.दुष्ट १५.पापों को नष्ट करने वाले १६.लीक १७.परस्त्री गामी १८.हमेशा धन चाहते हैं १९.लीन होना २०.पढे २१.धन और धाम (सत्कार) वाले २२.वाणी सुनकर २३.आत्म स्वरूप में लीन। For Personal & Private Use Only Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३५ ) 'भागचन्द' करुणाकर सुखकर, हरना यह भव संतति लामी ॥ ४ ॥ कवि दौलतराम राग- उझाज जोगीरासा (३८३) मोहि भवदुख दुखिया जानके ॥ टेक ॥ तुम, त्रिभुवन के दुखहारी । लख, लीनी शरण तिहारी ॥ १ ॥ सुधि' लीज्यो जी म्हारी, तीनलोक स्वामी नामी गणधरादि तुम शरण लइ जो विधि अरी करी हमरी गति, सो तुम जानत सारी । ॥ २ ॥ याद किये दुख होत हिये ज्यों, लागत कोट लब्धि अपर्याप्त निगोद में एक उसांस' कटारी मंहारी जनम मरन नव' दुगुन विथा की, कथा न जात उचारी ॥ २ ॥ भू जल ज्वलन १२ पवन प्रत्येक विकलत्रय तनधारी पंचेन्द्री पशु नारक नर सुर, विपति भरी भयकारी मोह महारिपु नेक न सुखभय होन ३ दई सुधि थारी सो दुठि१४ बंध भयौ भागनतै १५, पाये तुम जगतारी ॥ ५ ॥ यदपि विराग तदपि तुम शिवमग सहज प्रगट करतारी । ज्यों रवि किरण सहज मग दर्शक यह निमित्त अनिवारी ॥ ६॥ नाग १६ छाग १७ गज १८ बाघ भी दुष्ट, तारे अधम उधारी । शीश नमाय पुकारत कब कैं 'दौल' अधम की बारी ॥ ७ ॥ कवियित्री चम्पा (३८४) प्रभु तुम आतम १९ ध्येय करो, सब ध्येय करो, सब विकलप तज निजसुख सहज वरो ॥ हम तुम एक देश के वासी इतनो २० भेदज्ञान" बल तुम निज साधो, हम विवेक विसरो तुम २२ निज राच लगे चेतन में, देह से नेह हम सम्बन्ध कियो तन धन से भव वन विपति भरो ॥ प्रभु. ॥ २ ॥ टरो 1 गजाल तनो प्रभु ॥ भेद 118 11 ॥ प्रभु. टेक ॥ परो । For Personal & Private Use Only १. खबर २. मेरी ३. शरण ली है ४. बहार ५. आपकी ६. कर्म शत्रु ७. करोड़ो कटारी ८. एक सांस में ९. अट्ठारह बार मरना जीना १०. कही नही जाती ११. पृथ्वी १२. आग १३. आपका स्मरण होने दिया १४. दुष्ट १५. सौभाग्य से १६. सर्प १७. बकरा बकरी १८. हाथी १९. आत्म ध्यान किया २०. इतना अंतर हो गया २१. भेद ज्ञान के बल पर २२. आत्मस्वरूप में लीन । ॥ १ ॥ Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३६) तुमको आतम सिद्ध भयो प्रभु हम तन' बन्ध धरो । यातें भई अधोगति हमरी, भवदुख अगनिजरो ॥ प्रभु, ॥३॥ देख तिहारी शान्त छवि को, हम यह जान परो । हम सेवक तुम स्वामि हमरे हमहि सचेत करो ॥ प्रभु. ॥४॥ दर्शन मोह हरी हमरी मति, तुम लख सहज टरो । 'चम्पा' सरन लई अब तुमरी भवदुख रोग हरो ॥ प्रभु. ॥ ५ ॥ कवि कुंजीलाल (३८५) तुम हो दीनन के बन्धु, दया के. सिन्धु करो भव पारा । तुम बिन प्रभु कौन हमारा ॥ टेक ॥ मोहादि शत्रु वलशारी हैं, इनने सब सुबुद्धि विसारी है। इन दुष्टों से कैसे होवे छुटकारा ॥ तुम. ॥ पंचेन्द्रिय विषय नचाते हैं नहिं त्याग भाव कर पाते हैं । विषयों की लम्पटता ने ध्यान विसारा ॥ तुम. ॥ ये कुटुम विटम्ब सताते हैं नहिं धर्म ध्यान कर पाते हैं इन कर्मों ने निजज्ञान दबाया सारा ॥ तुम. ॥ ऐसो भवसिन्धु अपारी है, वह रहे सभी संसारी है अब तुम्ही कहो कैसे. होवे निस्तारा ॥ तुम. ॥ पर देव बहुत दिखलाते हैं, सब राग द्वेष युत पाते हैं । ये खुद अशान्त किम" देंय शान्ति का द्वारा ॥ तुम. ॥ तुम डूबत भविक उबारे हैं ‘कुंजी' हूं शरण तिहारे हैं । मोय.२ दे समकित का दान, करो उद्धारा ॥ तुम. ॥ महाकवि भूधरदास (३८६) ढाल परमादी अहो जगत गुरू एक सुनियो अरज हमारी । तुम हो दीन दयाल, मैं दुखिया संसारी ॥१॥ ५.शरीर बन्ध किया २.आग में जला ३.बुद्धि का हरण कर लिया ४.शक्तिशाली ५. ही भुला दी ६.विषयों की आसक्ति परिवार ८.निर्वाह ९.अन्य देव १०.सहित ११.कैसे १२.मुझे। For Personal & Private Use Only Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३७ ) नाहिं इस भव वन के माहिं', काल अनादि भ्रमत चहूंगति माहि सुख नहि दुख कर्म महारिपु जोर, एक न. कान मनमान्या ३ दुख देहिं, काहू सों कबहूं इतर निगोद, कबहूं सुरनर पशुगति मांहि, प्रभु इनके परसंग, जे दुख देखे देव! नर्क बहुविधि नाच नचावैं बुरे भव भव मांहि तुमसों नाहिं दुरो एक जन्म की बात कहि न सकों सुनि गमायो 1 बहुपायो ॥ २ ॥ करै जी । डरैं जी ॥ ३ ॥ दिखावैं । जी । जी ॥ ५ ॥ स्वामी । परजाय, जानत अंतर जामी ॥ ६ ॥ अनाथ, ये मिलि दुष्ट घनेरे " साहिब मेरे ॥७॥ सुनियो निबल करि डाय जिन ! अंतर पांयनि बेरी तुम अनन्त मैं तो एक कियो बहुत बेहाल ज्ञान महानिधि लुटि रंक इनही तुम मुझ मांहि हे पाप पुन्य मिलि दोई, तन कारागृह माहिं मोहि दियो दुख इनको नेक विगार", मैं कछु नाहिं कियो जी । बिनकारन जगवंद्य ! बहुविधि बैर लियो अब आयो तुम पास सुनि जिन, सुजस तिहारो नीतनिपुन जगराय ! क न्याव ११ दुष्टन देहु निकास १२, साधुन १३ कों रखि १४ विनवे १५ भूधरदास हे प्रभु ढील दुख भारी जी हमारो न कीजै . 118 11 पार्यो ॥ ८ ॥ डारी ' 1 For Personal & Private Use Only 11 8 11 ॥ १० ॥ । लीजै । ॥ ११ ॥ १. व्यर्थ २. सुनना ३. मनमाना ४. प्रसंग ५. बहुत से ६. अंतर पाड़ दिया ७. बेडी ८. डाली ९. जेल १०. नुकसान ११. न्याय, फैसला १२. निकाल १३. सज्जनों को १४. रख लीजिए १५. विनय करता हूं । ॥ १२ ॥ Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३८ ) ९. आत्म-स्वरूप (पद ३९० - ४४८) महाकवि बुधजन (३८७) राग तिताला और' ठौर क्यों हेरत' प्यारा तेरे ही घट में जानन हारा ॥ टेक ॥ हलन चलन थल बास एकता, जात्यन्तर तैं न्यारा न्यारा ॥ १ ॥ मोह उदय रागी द्वेषी है, क्रोधादिक का सर । भ्रमत फिरत चारों गति भीतर जनम मरन भोगत दुखभारा ॥ २ ॥ गुरु उपदेश लखै पर्दा आपा, तबहि विभाव करै परिहारा । है एकाकी 'बुधजन' निश्चल पावै शिवपुर सुखद अपारा ॥ ३ ॥ (३८८) कौन करत है या नित. ॥ १ ॥ या नित चितवो' उठि कै भोर, मैं हूं कौन कहां तै आयो कौन हमारी ठौर ॥ टेक ॥ दीसत कौन-कौन यह चितवत, १० शोर । ईश्वर कौन-कौन है सेवक कौन करे उपजत कौन मरे को भाई, कौन गया नहीं आवत? कछु नाहीं, परिपूरन और ₹१३ और मैं और १४ रूप है, परनति स्वांग धरैं डोलो याही तैं, तेरी 'बुधजन' घोर 1 झकझोर ॥ डरे ११ सब ओर ॥ करि १५ भोर ॥ (३८९) राग काफी कनड़ी लखि या For Personal & Private Use Only लइ या || मैं. 11 टेक || १७ मैं देखा आतम रामा रूप फरस६ रस गंध तैं न्यारा, दरस ज्ञान गुन धामा । नित्य निरंजन जाकै नाहीं क्रोध लोभ मद कामा ॥ मैं. ॥ १ ॥ भूख प्यास सुख दुख नहि जाके नाही वन" पुर गामा । नहिं साहिब नहिं चाकर भाई, नहिं तात नहिं मामा ॥ मैं. ॥ २ ॥ भूलि अनादि थाकी जग भटकत, लै पुद्गल" का जामा 1 नित. ॥ २ ॥ और | नित. ॥ ३ ॥ १. दूसरी जगह २. देखता है ३. ज्ञाता ४. अन्य जातियों से ५. सृष्टा ६. अपना पद देखता है ७. त्यागा ८. प्रतिदिन चिन्तवन करना ९. देखता कौन है १०. चिन्तवन कौन करता है ११. देखकर डरता है १२. आता है १३. दूसरों से १४. भिन्न १५. दूसरी परनति कर ली १६. स्पर्श १७. अलग १८. जंगल, नगर, ग्राम १९. पुगलका रूप लेकर । Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३९) 'बुधजन' संगति जिन गुरु की तै, मैं पाया मुझठाना ॥ मैं. ॥ ३ ॥ कविवर द्यानत राय (३९०) राग काफी अब हम आतम को पहचाना जी ॥ टेक ॥ जैसा सिद्ध क्षेत्र में राजत, तैसा घट' में जाना जी ॥ अब. ॥१॥ देहादिक पर द्रव्य न मेरे, मेरा चेतन वाना जी ॥ अब. ॥ २ ॥ 'द्यानत' जो जाने सो स्याना, नहि जानो सो दिवाना जी ॥अब. ॥ ३ ॥ कविवर बुधजन (३९१) राग - आसावरी जोगिया जल्द तेतालो हे आतमा ! देखी दुति तोरी रे ॥ हे आ. ॥ टेक ॥ निज को ज्ञात लोक को ज्ञाता, शक्ति नहीं कोरी रे ॥ हे आ. ॥ १ ॥ जैसी जोति सिद्ध जिनवर मैं तैसी ही मोरी रे ॥ हे आ. ॥२॥ जड़ नहिं हुवो फिरै जड़ के वसि, कै जड़की जोरी रे ॥ हे आ. ॥ ३ ॥ जग के काजि करन जग टहलै, 'बुधजन' मोरी मति भोरी रे ॥हे आ. ॥४॥ __(३९२) राग - खमांज मेरा सांई तो मोमैं' नाहीं न्यारा, जानै सो जाननहारा ॥ टेक ॥ पहले खेद २ सह्यौ बिन जानै, अब सुख अपरंपारा ॥ मेरा. ॥१॥ अनंत चतुष्टय धारक गायक गुन'३ परजै द्रव सारा । जैसा राजल गंधकुटी मैं तैसा मुझमें म्हारा ॥ मेरा. ॥ २ ॥ हित अनहित मम पर चिकलपते करम बंध भये मारा । ताहि उदय गति गति सुख दुख में भाव किये दुख कारा ।मेरा. ॥३॥ काल लब्धि जिन आगम सेती, संशय भरम विदारा । 'बुधजन' जान करावन करता हो ही एक हमारा ॥मेरा.॥ ४ ॥ १. मेरा स्थान २. आत्मा में ३. समझदार ४. मूर्ख ५. कान्ति ६. शक्ति कम नहीं है ७. मेरी ८. जोड़ी ९. दुनिया के लिए१०. घूमता है ११. मुझमें १२. दुख १३. गुण १४. पर्याय १५. मेरा १६. पर विकल्प से १७. चारों गतियों में। For Personal & Private Use Only Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४०) कविवर भागचंद (३९३) राग-गौरी आतम अनुभव आवै जब निज आतम अनुभव आवै, और कछु' न सुहावै, जब निज. ॥ टेक ॥ रस नीरस हो जात ततछिन, अच्छ' विषय नहीं भावै ॥ जब निज. ॥१॥ गोष्टि कथा कुतुहल विघटैं, पुद्गल प्रीति नसावै ॥ जब निज. ॥ २ ॥ राग दोष जुग चपल पक्षनुत मन पक्षी मर जावै॥ जब निज. ॥ ३ ॥ ज्ञानानन्द सुधारस उमगै घट अंतर न समावै ॥ जब निज. ॥४॥ 'भागचंद' ऐसे अनुभव के हाथ जोरि सिर नावै ॥ जब निज. ॥ ५ ॥ (३९४) आकुल रहित होय इमि निशिदिन कीजै तत्व विचारा हो । को मैं कहाँ रूप है मेरा, पर है कौन प्रकारा हो ॥ टेक ॥१॥ को ‘भव कारण बंध कहा को, आस्रव रोकन हारा हो। खिपत कर्म बंधन काहे सो थानक कौन हमारा हो ॥ २॥ इमि अभ्यास किये पावत है,१ परमानंद अपारा हो । 'भागचन्द' यह सार जन करि, कीजे बारंबारा हो ॥३॥ (३९५) राग-दीपचन्दी जोड़ी जिन स्वपर हिताहित चीना, २ जीव तेही सांचै१३ जैनी ॥ टेक ॥ जिन बुध छैनी पैनी तें जड़, रूप निराला शीना । परतें विरच" आपसे राचे ६ सकल विभाव विहीना ॥१॥ पुण्य पाप विधि बंध उदय में, प्रमुदित होत न दीना । सम्यक्दर्शन ज्ञान चरन निज, भाव सुधारस भीना ॥२॥ विषय चाह तजि निज वीरज सजि करत पूर्व विधि छीना 'भागचन्द' साधक है साधत, साध्य स्वपद स्वाधीना ॥३॥ १. कुछ भी अच्छा नहीं लगता २. इन्द्रियों के विषय ३. राग द्वेष रूपी दो चंचल पंखे ४. उमड़ता है ५. इस प्रकार ६. दिन रात ७. अन्य किस प्रकार का है ८. आस्रव रोकने वाला कौन है ९. खपते हैं १०. स्थान ११. पाता है १२. पहचाना १३. सच्चे १४. बुद्धि रूपी छैनी १५. विरक्त होकर १६. रक्त या लीन १७. आनंदित १८. पहले कर्मों का नाश किया। For Personal & Private Use Only Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४१) (३९६) राग-दीपचन्दी यह मोह उदय दुख पावै, जगजीव अज्ञानी ॥ टेक ॥ निज चेतन स्वरूप नहि जानै, परपदार्थ अपनावै । पर परिनमन नहीं निज आश्रित यह तह अति अकुलावै ॥१॥ दूष्ट जानि रागादिक सेवै, ते विधिबंध बढावै । निज हित हेत भाव चित सम्यक दर्शनादि नहिं ध्यावै ॥ २ ॥ इन्द्रिय तृप्ति करन के काजे, विषय अनेक मिलावै । ते न मिले तब खेद खिन्न है सचमुच हृदय न ल्यावै ॥३॥ सकल कर्म छय लच्छन लछित मोच्छ दशा नहि पावै। 'भागचन्द' ऐसे भ्रम सेती, काल अनंत गमावै ॥४॥ (३९७) सत्ता रंगभूमि में नटत ब्रह्म नर राय ॥ टेक ॥ रत्नत्रय आभूषण मण्डित, शोभा अगम अथाय । सहज सखा निशंकादिक गुन, अतुल समाज बढ़ाय ॥१॥ समता बीन मधुर रस बोले ध्यान मृदंग बजाय । नदत निर्जरा नाद अनूपम नूपुर संवर ल्याय ॥२॥ लय निज रूप मगनता ल्यावत, र नृत्य सुज्ञान कराय । समरस गीतालापन पुनि जो, दुर्लभ जग३ मह आय ॥ ३ ॥ 'भागचन्द' आपहि रीझत तहाँ, परम समाधि लगाय । तहाँ कृतकृत्य सु होत मोक्ष निधि, अतुल इनामहि पाय ॥ ४ ॥ (३९८) राग-दीपचन्दी धनाश्री तू स्वरूप जाने विन दुखी, तेरी शक्ति न हल्की वे ॥ टेक ॥ रागादिक वर्णादिक रचना, सोहे सब पुद्गल की वे॥ तू. ॥ १ ॥ अष्ट गुनातम ६ तेरी मूरति सो केवल में झलकी वे ॥ तू. ॥ २ ॥ १. वहां २. बहुत दुखी होता है ३. कर्म बंधनों ४. आत्म-कल्याण के लिए ५. दुखी ६. मोक्ष ७. नाचता है ८. रत्नत्रय रूपी अलंकार ९. बोलता है १०. आवाज ११. लीनता १२. लाता है १३. संसार में १४. इनाम १५. कम, थोड़ी १६. आठ गुण स्वरूप १७. केवलज्ञान में प्रकाशित । For Personal & Private Use Only Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४२ ) जगे अनादि कालिमा तेरे दुरत्यज मोहन' मल ही वे ॥ ३ ॥ मोह नसै भासत' है मूरत पंक नसै ज्यों अलकी वे ‘भागचन्द' मो मिलत ज्ञान सों स्फूर्ति अखण्ड स्वबल' की वे 118 11 1 महाकवि द्यानतराय (पद ३९९-४१३) (३९९) राग - सारंग आय है ॥ टेक । मोहि कब ऐसा दिन सकल विभाव ै अभाव होंहिगे, विकलपता' मिट जाय है |मोहि ॥ १ ॥ यह परमातम यह मम आतम, भेद बुद्धि न रहाय है ओरन की का बात चलावै, भेद विज्ञान पलाय है ॥ मोहि जानैं आप आपमैं आपा, सो व्यवहार विलाय है 1 नय-परमान' निखेपन" मांही, एक न औसर" पाय है ॥ मोहि ॥ ३ ॥ दरसन ज्ञान चरन के विकलप, कहो कहाँ ठहराय है । 'द्यानत' चेतन चेतन ह्वै है, पुद्गल पुद्गल थाय है ॥ मोहि ॥ ४ ॥ ॥ २ ॥ (४००) राग - काफी जाना ॥ सेवक, ऐसो भर्म १२ आपा प्रभु जाना मैं परमेसुर यह मैं इस जो परमेसुर सो मम मूरति जो मरमी १४ होय सोइ तो जानै जानै नाही मम आतम .१७ जाको ध्यान धरत हैं मुनिगन, पावत अर्हत सिद्ध सूरि गुरु मुनिपद, आतम रूप जो निगोद में सो मुझ मांहीं सोई 'द्यानत' निहचै" रंच २१ फेर नहिं जानै सो है (४०१) टेक ॥ रे पलाना ९३ ॥ आपा. ॥ १ ॥ सो भगवाना 1 भाई ॥ आना १५ ॥ आपा. ॥ २ ॥ है निरवाना १६ टेक ॥ अनुभव करना १. मोह-मल २. प्रकाशित होता है ३. आत्मबल की ४. विभाव नष्ट हो गये ५. विकल्प ६. भेद बुद्धि नहीं रहती ७. दूसरों की ८. आत्म स्वरूप में ९. प्रमाण १०. निक्षेप ११. अवसर १२. भ्रम १३. भाग गया १४. मर्म को जानने वाला १५. अन्य १६. निर्वाण, मोक्ष १७. आचार्य १८. उपाध्याय १९. मोक्ष २०. निश्चय २१. थोड़ा भी अंतर नहीं । I बखाना || आपा. ॥ ३॥ शिवथाना " 1 मतिवाना | आपा. ॥ ४ ॥ For Personal & Private Use Only Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४३) । २ जबलौं' भेद ज्ञान नहिं उपजै, जनम मरन दुख मरना रे ॥ १ ॥ आतम पढ़ नव तत्व वखानै, व्रत तप संजय धरना रे आतम ज्ञान विना नहि कारज जोरी संकट परनारे ॥ २ ॥ सकल ग्रन्थ दीपक हैं भाई, मिथ्यातम को हरना रे 1 कहा करै ते अंध पुरुष को जिन्हें उपजना मरना रे ॥ ३ ॥ 'द्यानत' जे भवि सुख चाहत हैं तिनको यह अनुसरना रे सोहं ये दो अक्षर जपकै भवजल पार उतरना रे 1 118 11 । (४०२) अब हम आतम को पहिचान्यौ ॥टेक॥ जबही सेती मोह सुभट बल, खिनक एक में मान्यो ॥ १ ॥ राग विरोध विभाव भजे झर, ममता भाव पलान्यौ दरसन ज्ञान चरन में चेतन भेद रहित परवान्यौ जिहि" देखें हम अवर न देख्यों, देख्यो सो सर धान्यो १ ताको कहो कहं कैसे करि, जा जानै जिम जान्यौ पूरबभाव सुपनवत१२ देखे, अपनो अनुभव तान्यौ‍ । 'द्यानत' तो अनुभव स्वादत ही, जनम सफल करि मान्यौ 1 1 ॥ ३ ॥ १४ ॥ ४ ॥ 11 (४०३) आतम रूप अनूपम है, घटमांहि १५ विराजै ॥ टेक जाके सुमरन' जापसों, भव भव दुख भाजै हो ॥ आतम. ॥ १ ॥ केवल दरसन ज्ञान मैं थिरता पद छाजै हो । उपमा को तिहु" लोक में कोउ वस्तु न राजै हो ॥ आतम. ॥ २ ॥ सहै परीषह भार जो, जु महाब्रत" साजै हो ज्ञान बिना शिव नाला है बहु कर्म उपाजै हो । आतम. ॥ ३ ॥ तिहुँ लोक तिहुँ काल में नहिं और इलाजै २१ हो 1 'द्यानत' ताको जानिये, निज स्वारथ २२ काजै हो ॥ आतम ॥ ४ ॥ १. जब तक २. कार्य ३. योनि ४. अनुसरण करना ५. पहचाना ६. जब से ७. एक क्षण में जान गये ८. भाग गया ९. समझा १०. जिसको ११. श्रद्धान किया १२. स्वप्न की तरह १३. फैलाया १४. स्वाद लेते ही १५. आत्मा में १६. स्मरण १७. भाग जाते हैं १८. तीन लोक में १९. पंच महाव्रत २०. ज्ञान के बिना मोक्ष प्राप्त नहीं होता २१. इलाज २२. आत्म-कल्याण के लिए । For Personal & Private Use Only Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४४) (४०४) हम लागे आतम राम सों ॥टेक ॥ विनाशीक' पुद्गल की छाया, कौन रमै धन मान सो ॥ हम. ॥ १ ॥ समतासुख घट में परगास्यो' कौन काज है काम सों । दुविधा भाव जजांजुलि दीनौं मेल भयो निज स्वाम सों ॥ हम. ॥ २ ॥ भेदज्ञान करि निज परि देख्यौ कौन बिलोकै चाम सौं । उरे परै की बात न भावै, लौ लाई गुण ग्राम सो ॥ हम. ॥ ३ ॥ बिकलप भाव रंक सब भाजे झरि चेतन अभिराम सो। 'द्यानत' आतम अनुभव करिकै खूटे२ भव दुखधाम सों । हम. ॥ ४ ॥ (४०५) आतम जानो रे भाई ॥टेक ॥ जैसी उज्जल आरसी३ रे, तैसी आतम४ जोत । काया करमनसों जुदी रे, सबको करै उदोत" आतम. ॥१॥ शयन दशा जागृत दशा रे, दोनों विकलप रूप । निरविकलप शुद्धातमा रे चिदानंद चिद्रूप आतम. ॥२॥ तन बच सेती भिन्न कर रे, मनसों निजलौ लाय । आप आप जब अनुभवै रे, तहाँ न मन बच काय ॥ आतम. ॥३॥ छहौं दरब नव तत्वौं रे, न्यारो आतम राम। 'द्यानत' जे अनुभव करें रे, ते पावे शिवधाम आतम. ॥४॥ (४०६) मगन रहु रे ! शुद्धातम में मगन रहु रे ॥ टेक ॥ राग दोष परको उतपात निहचै° शुद्ध चेतनाजात ॥ मगन. ॥ १॥ विधि निषेध को खेद२२ निवारि आप निहारि ॥ मगन. ॥ २ ॥ बंध मोक्ष विकलप करि दूर, आनंद कंद चिदानंद सूर२२ ॥ मगन. ॥ ३ ॥ दरसन ज्ञान चरन समुदाय ‘द्यानत' ये ही मोक्ष उपाय ॥ मगन. ॥ ४ ॥ १. नष्ट होने वाला २. लीन होना ३. प्रगट हुआ ४. काम वासना ५. त्याग दिया ६. आत्म स्वरूप से ७. चमड़े से ८. इधर उधर की ९. अच्छी नहीं लगती १०. लो लगाई ११. झड़ कर १२. छूटना १३. दर्पण १४. आत्म ज्योति १५. प्रकाश १६. निर्विकल्प १७. अपने स्वरूप में लौ लगाकर १८. लीन रहो १९. उपद्रव २०. निश्चय २१. चेतना जन्म २२. खेद दूर करके २३. सूर । For Personal & Private Use Only Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४५) (४०७) भाई ! अब मैं ऐसा जाना ॥टेक ॥ पुद्गल दरव' अचेत भिन्न है, मेरा चेतन बाना ॥ भाई. ॥१॥ कलप अनन्त सहत दुख बीते, दुख को सुखकर माना । सुख दुख दोउ कर्म अवस्था मैं कर्मन” आना ॥ भाई. ॥ २ ॥ जहाँ भोर था तहाँ भई निशि, निशि की ठौर विहाना । भूल मिटी जिनपद पहिचाना, परमानन्द निधाना ॥ भाई. ॥ ३ ॥ गूंगे का गुड़ खांय कहै किमि, यद्यपि स्वाद पिछाना । ‘द्यानत' जिन देख्या ते, जाने मेढ़क हंस पखाना ॥भाई. ॥ ४ ॥ (४०८) आतम जान रे जान रे जान रे॥टेक ॥ जीवन की इच्छा करै कबहु न मांगे काल । (प्राणी) सोई जान्यो जीव है, सुख चाहै दुख टाल ॥ आतम. ॥१॥ नैन बैन१ में कौन है, कौन सुनत है बात । (प्राणी) देखत क्यों नहिं आपमें, जाकी चेतन जात ॥ आतम. ॥२॥ बाहिर अंतर निपट२ नजीक (प्राणी) ढूंढन दूर है वाला कौन है । सोई जानो ठीक ॥ आतम. ॥३॥ तीन भवन में देखिया आतम राम नहिं कोय । (प्राणी) द्यानत' जे अनुभव करें, तिनको शिवसुख होय ॥आतम. ॥ ४ ॥ (४०९) मैं निज आतम कब ध्याऊंगा ॥टेक ॥ रागादिक परिनाम त्याग के, समता सौं लौ३ लाऊंगा॥ मैं ॥१॥ मन बच काय जोग थिर४ करकै ज्ञान समाधि लगाऊंगा । कब हौ क्षिपक'५ श्रेणि चढ़ि ध्याऊं चारित मोह न गाऊंगा। मै. ॥ २ ॥ चारों करम घातियाखन, ६ करि परमातम पद पाऊंगा। १. द्रव्य २. अन्य ३. जहां सबेरा था ४. वहां रात हो गई ५. सबेरा ६. कैसे ७. पहचाना ८. पत्थर ९. कभी मृत्यु नहीं मांगता १०. नेत्र ११. वचन १२. बिल्कुल पास १३. चाह १४. स्थिर १५.क्षपक श्रेणी १६.घातिया कर्म नाश करके। For Personal & Private Use Only Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४६) ज्ञान दरश सुख बल भंडारा चार अघाति बहाऊंगा' ॥ मै. ॥ ३ ॥ परम निरंजन सिद्ध शुद्ध पद परमानंद कहाऊंगा । 'द्यानत' यह सम्पत्ति जब पाऊं, बहुरि न जग में जाऊंगा ॥ मैं ॥ ४ ॥ (४१०) आतम अनुभव कीजै हो ॥टेक ॥ जनम जरा' अरु मरन नाशकै अनंत काल लौं जीजे हो ॥आतम. ॥ १ ॥ देव धरम गुरु की सरधाकरि, कुगुरु आदि तजि दीजै हो । छहों दरब नव तत्व परख चेतन सार गहीजै हो ।आतम. ॥ २ ॥ दरब करम नो करम भिन्न करि सूक्ष्म दृष्टि धरीजै हो । भाव करमतें भिन्न जानिकै बुद्धि विलास न मरीजै हो ॥ आतम. ॥ ३ ॥ आप आप जानै सो अनुभव, 'द्यानत' शिवका दीजै हो । और उपाय वन्यो नहि बनि है करै सोदक्ष कहीजै हो ॥ आतम. ॥ ४ ॥ (४११) कर रे ! कर रे !! कर रे !! तू आतम हित कर रे ! ॥ टेक ॥ काल अनन्त गयो जग भ्रम २ भव भव के दुख हर रे ॥ आतम. ॥१॥ लाख कोटि भव तपस्या करतें जीतो३ कर्म तेरी जर रे । स्वास उस्वास मांहिं सो नासै, जब अनुभव चितधर रे॥ आतम. ॥ २॥ काहे कष्ट सहै बन मांही, राग दोष परिहर४ रे । आज होय समभाव बिना नहीं भावौ पचि पचि मर रे ॥आतम. ॥ ३ ॥ लाख५ सीख की सीख एक यह आतम निज पर पर रे । कोट ग्रन्थ का सार यही है 'द्यानत' लखभव तर रे ॥आतम. ॥ ४ ॥ राग-गौरी हमारो कारज७ ऐसें होय ॥टेक ॥ आतम आतम पर८ पर जानैं हीनो संशय खोय ॥ हमारो. ॥ १ ॥ अंत समाधि मरन अरि तन तजि, होय शक्र सुरलोय, १. बहा दूंगा २. बुढापा ३. और ४. जीवित रहे ५. श्रद्धा करके ६. परख कर ७. धारण कीजिये ८. भाव कर्म से ९. बुद्धि विलास १०. मोक्ष ११. चतुर १२. प्रमण करते हुए १३. जितने १४. त्याग दो १५. लाखों शिक्षाओं की एक शिक्षा १६. करोड़ों ग्रन्थ १७. कार्य १८. दूसरे को दूसरा जानना १९. इन्द्र २०. स्वर्ग लोक । For Personal & Private Use Only Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४७) विविध भोग उपभोग भोग, धरमतनो' फल होय ॥ हमारो. ॥ २ ॥ पूरी आयु विदेह भूपरे है राज सम्पदा भोय । कारण पंच लहै गहै दुद्धर, पंच महाव्रत जोय ॥ हमारो. ॥ ३ ॥ तीन जोग थिर सहै परिषह आठ करम मल धोय । 'द्यानत' सुख अनन्त शिव विलसै, जनमैं मरै न कोय ॥ हमारो. ॥ ४ ॥ (४१३) राग-गौरी देखो ! भाई आतम राम विराजै ।।टेक ॥ छहों दरवः नव तत्व ज्ञेय है, आप सुज्ञायक छाजै ॥१॥ अर्हत सिद्ध सूरि गुरु मुनिवर पांचों पद जिहि मांही । दरसन ज्ञान चरन तप जिहि में पटतर कोउ नाहीं ॥२॥ ज्ञान चेतना कहिये जाकी, वाकी पुद्गल केरी । केवलज्ञान विभूति जासुकै,° आन१ विभौ भ्रमकेरी ॥३॥ एकेन्द्री पंचेन्द्री पुद्गल जीव अतीन्द्री ज्ञाता । 'द्यानत' ताही शुद्ध दरब को जानपनो सुखदाता ॥४॥ __ कविवर दौलतराम (४१४) राचि २ रह्यो परमांहि तू अपनो रूप न जानै ॥ राचि. ॥ टेक ॥ अविचल चिनमूरत विनमूरत, सुखी होत तस" ठानै रे ॥१॥ तन धन भ्रात तात सुत जननी तू इनको निज जानै रे । ये पर इनहि वियोग योग में यौँ ही सुख दुख मानै रे ॥ २ ॥ चाह न पाये पाये तृष्णा, सेवत ज्ञान जघानै ८ रे । विपति खेत २°बिधि बंध हेत पै जान विषय रस खानै रे ॥३॥ नरभव जिन श्रुत श्रवण पाय अब कर निज सुहित सयानै रे। 'दौलत' आतम ज्ञान सुधारस पीवो सु गुरु बखानै २ रे ॥४॥ १. भोगने के लिए २. धर्म का ३. होकर ४. भोग कर के ५. तीन योग (मन बचन काय) ६. द्रव्य ७. जिसमें ८. उसके ९. समान १०. जिसके ११. अन्य वैभव १२. लीन हो रहा १३. चैतन्य मूर्ति १४. अमूर्त १५. वैसा ठानता है १६. बिछुड़ना १७. मिलना १८. नष्ट करता है १९. विपत्ति रूपी खेत २०. कर्म बंध का धारण २१. विषय रस की खान । For Personal & Private Use Only Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४८) कविवर जिनेश्वरदास (४१५) लावनी राग भैरवी में अपना भाव' उर धरना प्यारे जी अपना भाव सुखदान' बड़ा अपना भाव जिनने उर धारा, तिन पाया शिवथान बड़ा ॥ टेक ॥ नरभव पाय चतुर मति चूकै, यह मोका हितदान बड़ा । जो करना सो निजहित करलैं, चिंतामन समजान बड़ा॥ अपना. ॥१॥ धन जोवन बादल की छाया, को इसमें ललचाता है। इनही भावनतें सुन प्यारे, कर्म अरी" भरमाता है॥ अपना. ॥ २ ॥ धन संबंध करम की छाया, इन सबमें तू न्यारा है। ये जड़ प्रगट अचेतन प्यारे, तू सब जाननहारा है॥ अपना. ॥ ३ ॥ रागद्वेष मद मोह छोड़ कैं, वीतराग परिनाम किया । पूरन ब्रह्म परम पद पावन, आप 'जिनेश्वर' सरन लिया ॥ अपना. ॥ ४ ॥ महाकवि दौलतराम (४१६) जिया तुम चालो अपने देश, शिवपुर थारो शुभथान ॥ टेक ॥ लख चौरासी में बहु भटके, लह्यौ न सुखको २ लेश ॥१॥ मिथ्या रूप धरे बहुतेरे, भटके बहुत विदेश ॥२॥ विषयादिक बहुत दुख पाये, भुगते'३ बहुत कलेश ॥३॥ भयो तिरजंच नारकी नर सुर करि करि नाना भेष ॥४॥ दौलत राम तोड़ जगनाता, सुनो सुगुरू उपदेश ॥५॥ (४१७) अपनी सुधि भूल आप, आप दुख पायो, ज्यौं शुक" नभचाल विसरि नलिनी' लटकायो ॥ अपनी. ॥टेक ॥ चेतन अविरुद्ध शुद्ध दरशबोधमय विशुद्ध तजि-जड़ रस फरस" रूप पुद्गल अपनायौ ॥ अपनी. ॥१॥ ०१७) १.आत्म भाव २.सुख देने वाला ३.हृदय में धारण किया ४.मत चूको ५.बहुत हितकारक ६.यौवन ७.शत्रु ८.घुमाते है ९.जानने वाला १०.शरण ११.आपकी १२.तनिक सा सुख १३.बहुत दुख भोगे १४.तिर्यच १५.तोता १६.कमलिनी १७.स्पर्श For Personal & Private Use Only Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४९) इन्द्रिय सुख दुख में नित' पाग राग रूख' मे चित, दायक भव विपतिवृन्द बन्ध को बढ़ायौ ॥ अपनी. ॥२॥ चाह दाह' दाहै, त्यागौ न ताह चाहै समता सुधा न गाहै जिन, निकट जो बतायौ ॥ अपनी. ॥३॥ मानुज भव सुकुल पाय, जिनवर शासन लहाय 'दौल' निज स्वभाव भज, अनादि जो न ध्यायौ ॥ अपनी. ॥४॥ कविवर भागचंद (४१८) राग-गौरी आतम अनुभव आवै जब निज आतम अनुभव आवै । और कछु न सुहावै जब निज आतम अनुभव आवै ॥टे॥ जिन आज्ञा अनुसार प्रथम ही तत्व प्रतीति अनाव । वरनादिक रागादिकतै निज चिन्न भिन्न फिर ध्यावै ॥१॥ मतिज्ञान फरसादि विषय तजि, आतम सन्मुख ध्यावै । नय प्रमान निक्षेप सकल श्रुत-ज्ञान विकल्प नसादै ॥ २ ॥ चिदहं° शुद्धोऽहं इत्यादिक आपमाहि बुध आवै । तनपै बज्रपात गिरतें हूं नेकु न चित्त डुलावै ॥३॥ स्व संवेद' आनंद बढे अति वचन कह्यौ नहि जावै देखन२ जानन चरन तीन विच, इक स्वरूप ठहरावै ॥४॥ चितकर्ता चित कर्मभावचित परनति क्रिया कहावै । साधक साध्य ध्यान ध्येयादिक भेद कछु न दिखावै ॥५॥ आत्म प्रदेश अदृष्ट तदपि रसास्वाद१३ प्रगट दरसावै । ज्यों मिश्री दीसत न अंध को सपरस५ मिष्ट चखावै॥६॥ जिन जीवन के संसृत६ पारावार पार निकटावै 'भागचन्द' ते सार अमोलक, परम रतन वर पावै ॥७॥ १.लीन होना २.देष ३.इच्छा रूपी आग ४.उसको छोड़ता नहीं ५.ग्रहण नहीं करता, आवगाहता नही ६.अच्छा लगना ७.लाना ८.भिन्न आत्मा ९.स्पर्श आदि १०.में आत्मस्वरूपहूं ११.आत्मज्ञान १२.सम्यग्दर्शन ज्ञानचारित्र १३.रसास्वादरस का स्वाद १४.दिखाई देता है १५.स्पर्श १६.संसार समुद्र १७.अमूल्य । For Personal & Private Use Only Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नर आतमज्ञानी ॥टेक 11 ॥ १ ॥ जानत क्यों नहि रे, हे रागद्वेष पुद्गल की संपति, निहचै' शुद्ध निशानी जाय नरक पशु नरगति में यह परजाय विरानी । सिद्ध स्वरूप सदा अविनाशी, मानत विरले प्राणी ॥ २ ॥ कियो न काहू हरे" न कोई गुरू सिख कौन कहानी जनम-मरन मल रहित विमल है कीच विना जिमि पानी ॥ ३ ॥ सार पदारथ हैं तिहुँ जग में नहिं क्रोधी नहिं मानी । 'दौलत' सो घर मांहि विराजे, लखि हूजे शिवथानी ॥ ४ ॥ । महाकवि बनारसीदास (१५०) कविवर दौलतराम राग - विहागरो (४१९) विराजै रामायण” घट मांहि मूरख माने नाहिं हम बैठे अपनी मौन सौं ॥ ॥ दिन दश के महिमान जगत जन, बोल' विगारै कौन सौं ॥ १ ॥ गये विलाय' भरम" के बादल परमारथ पथ पौन ११ सौं अब अंतर गति भई हमारी, परचै १२ राधा १ ३ रौन सौ ॥ २ ॥ प्रगटी सुधा पान की महिमा, मन नहि लागै बौन १४ सौं । छिन न सुहाय और रस फीके, रुचि साहिब के लोन १५ सौं रहे अघाय पाय सुख संपति को निकरै निज भौन १६ सौं सहज भाव सद्गुरू की संगति सुरझै ७ अब गौन" सौं ॥ ४ ॥ ॥ ३ ॥ 1 .१७ (४२०) राग - सारंग (४२१) राग सारंग वृन्दावनी मरमी होय मरम सो जाने ॥ ॥टेक ॥ विराजै || १. निश्चय २.दूसरी पर्याय ३. नाश न होने वाली ४. किसी ने बनाया नहीं ५. कोई चुराता नहीं ६. शिक्षा ७. चुपचाप ८. बोलकर विगाड़ना ९. छिप गये १०. भ्रम के बादल ११. पवन से १२. परिचित होना १३. आत्म रमण से १४. एक प्रकार कामकोद्दीपक द्रव्य १५. नमक १६. भवन से १७. सुलझ गये, निकल गये १८. आगमन १९. यहां रामायण का रूपक बांधा गया है २०. मर्म जानने वाला । For Personal & Private Use Only Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५१) आतम' राम ज्ञान गुन लछमन सीता' सुमति समेत । शुभोपयोग बानर दल मंडित वर विवेक रण खेत ॥१॥ ध्यान धनुष टंकार शोर सुनि, गई विषयादिति भाग । भई भस्म मिथ्यामत' लंका, उठी धारणा आग ॥ २ ॥ जरे अज्ञान भाव राक्षस कुल करे निकांछित सूर। जूझे रागद्वेष सेनापति संशै गढ़ चकचूर ॥३॥ विलखत कुम्भकरण भवि विभ्रम पुलकित मन दरियाव । थकित उदार वीर महि रावन सेत° वंध समभाव ॥४॥ मूर्छित मंदोदरी दुराशा सजग चरन हनुमान । घटी चतुर्गति परणति सेना छूटे छपक गुणवान ॥ ५ ॥ निरखि सकति गुन चक्र सुदर्शन, उदय विभीषण दीन । फिरे कबंध मांहि रावन की प्राणभाव शिरहीन ॥६॥ इह विधि सकल साधु घट अंतर होय सकल संग्राम । यह विवहार र दृष्टि रामायण केवल निश्चय राम ॥ ७ ॥ कवि कुंजीलाल (४२२) निज रूप१३ सजो भव'४ कूप तजो, तुम काहे कुरूप बनावत हो । चित पिंड अखंड प्रचंड जिया, तुम. रत्नकरंड" कहावत हो ॥ टेक ॥ स्वर्गादिक में पछतावत हो, नर देह मिली तो करो तप को अब भूलि गये मद६ फूल गये, प्रतिकूल भये इतरावन" हो ॥१॥ दुख नर्क निगोद विलाप तहाँ, अति शीत व ऊष सहे तुमने वहाँ ताती' त्रिया° लपटाती तुम्हें फिर हू मद में लपटावत हो ॥ २ ॥ त्रस थावर त्रास सहे बंधन, वध छेदन भेदन भूख सही । सुख रंच२१ न संच२२ करो तुम क्यों परपंचन२३ में उलझावत हो ॥ ३ ॥ तेरे द्वार पै कर्म किवार लगै, तापै मोह ने ताला लगाया बड़ा । सम्यक्त्व की कुंजी से खोल भवन, 'कुंजी' क्यों देर२५ लगावत हो ॥ ४ ॥ १.आत्मारूपी राम २.सदुद्धि रूपी सीता ३.रण-क्षेत्र ४.मिथ्यामत रूपी लंका ५.संशय रूपी रोग ६.नदी ७.समभाव रूपी सेतुबंध ८.दुराशा रूपी मंदोदरी ९.धड़ मात्र १०.सिर सहित ११.अभाव में १२.व्यवहार दृष्टि ही १३.आत्म स्वरूप १४.संसार सागर १५.पिटारा १६.घमण्डी हो गये १७घमण्ड करते हो १८.गर्मी १९.गर्म २०.स्त्री २१.थोड़ा २२.संचय करना २३.प्रपंच २४.कर्मरूपी किवाड़ २५.लगाते हो। For Personal & Private Use Only Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५२) महाकवि दौलतराम (४२३) आपा' नहीं जाना तूने, कैसा ज्ञानधारी रे ॥ टेक ॥ देहाश्रित कर क्रिया आपको मानत शिवमगचारीरे ॥१॥ निज निवेदन विन घोर परीषह विफल कही जिन सारी रे ॥ २ ॥ शिव चाहै तो द्विविधकर्म तैं का निज परनति न्यारी रे ॥३॥ 'दौलत' जिन निजभाव पिछान्यों तिन भव विपति विदारी रे ॥४॥ कविवर सुखसागर (४२४) करो मन आतम वन में केल ॥ टेक ॥ होय सफल नरभव यह दुर्लभ हो शिखरमणी मेल । भववाधा' मिट जाय छिनक में, छूटे कर्मन जेल । निजानंद पावे अविनाशी, मिटि है सकल दलेल । निज राधा संग राचो हरदम, हो सुख सागर खेल ॥ करे ॥ कविवर महाचंद्र (४२५) ये ही अज्ञान पना जिवड़ा २ तूने निज पर भेद न जाना रे ॥ टेक ॥ तू तो अनादि अमर अरूपी निर्जर सिद्ध समाना रे ॥१॥ पुद्गल जड़ में राचिके'३ चेतन होय रहा मूर्ख प्रधाना रे ॥ २ ॥ कहत सबै जगवस्तु हमारी जैसे बकत" अयाना रे ॥३॥ आतम रूप सम्हारि भजो जिन बुध महाचन्द वखाना" रे ॥ ४ ॥ कविवर दौलतराम (४२६) आतमरूप अनूपम अद्भुत, याहि'६ लखे भवसिन्धु तरो ॥ टेक ॥ अल्पकाल में भरत चक्रधर, निज आलम को ध्याय" खरो । केवलज्ञान पाय भवि° बोधे, ततछिन पायो लोक शिरो ॥१॥ १.आत्मस्वरूप २.मानता है ३.आत्मज्ञान ४.घातिया अघाति या कर्म ५.पहचान ६.नष्ट किया ७.क्रीडा ८.संसार के दुख ९.क्षणभर में १०.दण्ड स्वरूप कवायद ११.आत्मा १२.जीव १३.लीन होकर १४.अज्ञानी बकता है १५.वर्णन किया १६.इस को जानकर १७.संसार पार करो १८.चक्रवर्ती ४.खरा ध्यान किया १९.भव्यजनों को ज्ञान कराया २१.मोक्ष । For Personal & Private Use Only Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५३) या विन समझे द्रव्य' लिंग मनि उग्र तपन कर भार भरो । नवग्रीवक पर्यन्त जाय चिर, फेर भवार्णव' मांहि परो ॥ २ ॥ सम्यग्दर्शन ज्ञान चरन तप, येहि जगत में सार नरो । पूरव शिव को गये जांहि अब फिर जैहें यह नियत करो ॥ ३ ॥ कोटि ग्रन्थ को सार यही है, ये ही जिनवारी उचरो। 'दौल' ध्याय अपने आतम को मुक्ति रमा तब वेग वरो ॥ ४ ॥ कवि कुंजीलाल (४२७) होली-ठेका दीपचन्दी सुमति सदा सुखकार मैं चेतन की रानी ॥टेक ॥ ज्ञान भानु मम पिता जगत में घट घट मांहि प्रचार हो, हो, हो, मैं चेतन की रानी ॥सुमति. ॥१॥ स्वपर विवेक मित्र पितु के हैं जगजीवन सुखकार हो, हो, हो, मैं चेतन की रानी॥ सुमति. ॥२॥ विषय निरोधक संवर योद्धा, सैन्य सहित तैयार । हो, हो, हो मैं चेतन की रानी ॥सुमति. ॥ ३ ॥ क्षमाशील सब मेरे भ्राता, धर्म मेरा परिवार । हो, हो, हो, मैं चेतन की रानी॥ सुमति. ॥४॥ शुभ लेश्या तीनों मम भगिनी, शांति सहेली'' हमार । हो, हो, हो, मैं चेतन की रानी ॥ सुमति. ॥५॥ चेतन राज' पति हैं मेरे मम मोक्ष महल दरवान । हो, हो, हो, मैं चेतन की रानी॥ सुमति. ॥६॥ 'कुञ्जी लाल' सुमति हियर धारो जगते हो उद्धार । हो, हो, हो, मैं चेतन की रानी॥ सुमति. ॥७॥ १.मात्र त्यागी २.संसार-सागर ३.करोड़ ४.कहा ५.मोक्ष ६.जल्दी वरण करो ७.ज्ञान-सूर्य ८.आत्मा ९.रोकने वाला १०.सखी ११.चेतन रूपी पति १२.हृदय में धारण करो। For Personal & Private Use Only Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५४) कवि सम (४२८) राग सोरठ प्रगट घट 11 टेक 11 आतम रूप निहार' अमर अनूप अरूप निरंजन निर्भय अगम अपार आतम रूप निहार प्रगट घट 1 काठ' पषाण' अगर्नि त्यौं राजत ज्यों घृत दूध मझार तेरो धनी' त्यौं तो ही में है, पर जानत नाहिं गंवार ' आतम रूप निहार प्रगट घट भेष बनाय फिरत बहु तीरथ " जप तपसंजम धार रामकृष्ण विवेक बिना सम काय" कलेश विचार आतम रूप निहार प्रगट घट कवि सुखसागर (पद ४२९-४३३) (४२९) परम कल्याण भाजन १२ मैं मैं अमृत स्वाद पाऊंगा मिटाकर अधि१३ अरु व्याधी१४ मैं आनंद हिय मनाऊंगा जगत जंजाल को तजकर मुझे रहना है निर्द्वन्द्वी मैं संकट अग्नि को समजल १५ बखूबी से बुझाऊंगा मुझे जिनराज के सुन्दर महल में जाने की रुचि है । वहीं निज रंग में रंगकर मैं बहिरंगी६ हटाऊंगा परम सुखकार सुखभाजन हे परमातम मेरे अन्दर उसे लखकर मगन होकर, मैं सुखसागर हटाऊंगा । (४३०) अरे मन करले आतम ध्यान ॥ टेक कोइ नहीं अपना इस जग में क्यों होता हैरान १७ जासै पावे सौख्य अनूपम, होवे गुण अमलान ९ .१८ ॥ १ ॥ 1 1 ॥ २ ॥ १. देखो २. जिसकी उपमा न हो ३. रूप रसादि से रहित ४. लकड़ी ५. पत्थर ६. अग्नि ७. जैसे दूध में घी ८. स्वामी ९. मूर्ख १०. तीर्थस्थान ११. शरीर को कष्ट मात्र १२. पात्र १३. मानसिक व्यथा १४. शारीरिक व्यथा १५. समता रूपी जल १६. वहिरामता १७. परेशान १८. जिससे १९. निर्मल । For Personal & Private Use Only Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५५) निज में निज को देख देख मन होवे केवलज्ञान ।। अपना लोक आपमें राजत अविनाशी सुखदान 'सुखसागर' नित वहे आपमें कर मंजन' रजहान ॥ (४३१) निज रूप को विचार निजानन्द स्वादलो। भवभय मिटाय आप में, आपो सम्हार लो ॥ टेक ॥ अपना स्वरूप शुद्ध, वीतराग ज्ञानमय निरमल फटिक समान, यही भाव धारलो ॥१॥ ये क्रोध मान आदि भाव, ये आत्मा के हैं विभाव सुख शान्तिमय स्वभाव का, रूपक चितारलो ॥२॥ नही मान आतम भाव है विकार कर्म का । मार्दव स्वभाव सार है, इसको विचारलो ॥ ३ ॥ माया नहीं निजातम है विकार मोह का । आर्जव स्वधर्म स्वच्छ यही तत्व धारलो ॥ ४ ॥ नहिं लोभ है स्वरूप है चारित्र मोहिनी । शुचिता अपार सार, इसे भी सम्हारलो ॥ ५ ॥ चारो कषाय शत्रु, निजातम के हैं प्रबल । इनके दमन के हेतु आत्मध्यान धारलो ॥६॥ सब कर्ममल निवारिये, यदि शिव की चाह है । 'सुखदधि' विशाल आप, सुखकन्द सारलो ॥७॥ (४३२) मुझे निरवान'२ पहुंचन की लगी लौ३ है अनादी से । मैं किस विध कार्य साधूंगा यही इच्छा अनादी से लिया व्यवहार का सरना न निश्चय से करी मिल्लत५ । इसी से हो रहा रुलना', चतुर्गति में अनादी से ॥२॥ परम निश्चय उमड़ आया, कि पाया आपका दर्शन मिटाया ध्यान सब पर का जो छाया था अनादी ने ॥ ३ ॥ १.स्नान २.पापों का नाश ३.संसार के भय को मिटाकर ४.स्फटिक ५.देखलो ६.पवित्रता ७.अपनी आत्मा के ८.मजबूत ९.दबाने को १०.दूर कीजिए ११.इच्छा है १२.निर्वाण-मोक्ष १३.इच्छा, चाह १४.शरण १५.घनिष्ठता १६.भटकना । For Personal & Private Use Only Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५६) लखो' निज को कि ये ही है परम आतम परम ज्ञानी । यही सुख शान्ति सागर है न जाना था अनादी से ॥ ४ ॥ मुझे निज दुर्ग में वसना' जहाँ आना न कर्मों का । ओ 'सुखसागर' नहाना है, न पाया था अनादी से ॥५॥ (४३३) आतम स्वरूप सार को जाने वही ज्ञानी । है मोक्ष पन्थ रूप वही, मोक्ष विज्ञानी ॥ टेक ॥ है यह अनेक धर्मरूप, गुणमई आतम । एकान्त नय ना देख सके आतम सुज्ञानी ॥१॥ कोई कहै वह शुद्ध है कोई कहे अशुद्ध । है शुद्ध भी अशुद्ध भी यह जैन की वानी ॥ २ ॥ है कर्मबन्ध इसलिये, अशुद्ध यह आतम। स्वभाव से है शुद्ध यही बात प्रमानी ॥३॥ कोई कहे नित्य कोई, कहता है, है अनित्य । यह नाश रहित गुणमई है, नित्य सुज्ञानी ॥४॥ पर्याय पलटता रहे हो मैल से उजला । परिणाम भई तत्व में, अनित्यता मानी ॥५॥ करता है निज स्वभाव का, पर का नहीं करता। भोगता है स्वभाव का, यह बात सुहानी ॥६॥ है मोह ने अज्ञान में इसको फँसा डाला । सुज्ञान भाव धारते हो, आतम महानी ॥७॥ भवदधि से निकलने का यही मार्ग निराला । पाता है 'सुखदधि' को, न. जिसका कोई सानी ॥८॥ ___महाकवि बुधजन (४३४) जान लियो मैं जान लियो, आपा प्रभु मैं जान लियो । परमेश्वर में सेवक को भ्रम, एक छिनक में दूर कियो ॥१॥ १.देखा २.रहना ३. अनेकान्त ४. एकान्त दृष्टि से ५. शुद्ध भी है अशुद्ध भी है ६. जिनेन्द्र देव का कथन ७. प्रामाणिक ८. महान् ९. आत्म स्वरुप १०. क्षण भर में। For Personal & Private Use Only Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५७) परमेश्वर की मूरत में ही, ज्ञान सिन्धुमय देख लियो । मरमी होय परख सो जानें, औरन को है सुन्न' हियो ॥ २ ॥ याहि जान मुनिज्ञान ध्यान वल छिन में शिवपद सिद्ध कियो । अरहत सिद्ध सूरि गुरु मुनि पद, एक आत्म उपदेश कियो ॥३॥ जो निगोद में सो अपने में, शिवथानक सोई लखियो । 'नन्द ब्रह्म' यह रंच फेर नहिं, ‘बुधजन' योग्य जो गहियो ॥४॥ काववर सुखसागर (४३५) जो आनंद निज घट में, नहीं पर में प्रगट होता । जो ज्ञानी निजानंद का, नहीं दुख सुख उसे होता ॥ टेक ॥ करोड़ों रोग अर व्याधि अगर तन मन में आता है । निराश होकर चली जाती असर घट पै नहीं होता ॥१॥ कहाँ सुवरण कहाँ लोहा, रतन अर कांच का अन्तर। कहाँ है चेतना सुखमय कहाँ जड़रूप है थोता ॥२॥ जो जड़ में मोह करते हैं वही भव में विचरते हैं। उन्हीं को राग द्वेषों में क्षणिक सुख दुख निकट होता ॥ ३ ॥ जो अपनी निधि का स्वामी है उसे क्या और धन चहिये । यह ‘सुख सागर' मगन रहके, सुज्ञानानन्द-भय होता ॥४॥ (४३६) परम रस हे मेरे घट२ में, उसे पीना कठिन सुन ले । जगत रस में जो भीगे हैं, उन्हें समरस कठिन सुन ले ॥ टेक ॥ है भव आतम दुखदाई, किसी ने चैन न पाई । जो इनके संग में उलझे उन्हें शिवसुख कठिन सुन ले ॥१॥ प्रथम पद में जो कांटे हैं, उन्हीं से छिद रहा यह तन । जो भेद ज्ञान का शस्तर,१३ उसे पाना कठिन सुन ले ॥२॥ बचाकर रखना आपे को, है सूराई१४ परम अद्भुत । जो भव छिति' नाश लेते, न निज सुख कुछ कठिन सुन ले ॥३॥ १. देख लिया २. शून्य हृदय ३, देखिये ४. थोड़ा भी ५. ग्रहण कीजिये ६. आत्मा ७. आत्मा ८. स्वर्ण ९. थोथा, व्यर्थ १०. शरीर, जड़ पदार्थ ११. संसार में भटकते हैं १२. मेरी आत्मा में १३. शस्त्र १४. वीरता १५. संसार का नाश करते हैं। For Personal & Private Use Only Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५८) जो सुखोदधि में रहे लौलीन' उन्हें बेकार कह दीजै परखना ऐसे पुरुषों का, जगत में है कठिन सुनले कविवर ज्योति (४३७) ॥ । अरे मन आतम को पहचान जो चाहत निज कल्यान ॥ टेक मिल जुल संग रहत पुद्गल के ज्यों तिल तेल मिलान । पर है आतम भिन्न पुद्गल से निश्चय नय परमान ॥ १ ॥ इन्द्रिन रहित अमूरत' आतम, ज्ञान मयी गुणखान अजर अमर अरु अलख लखै नहि, आंख नाक मुँह कान तन सम्बन्धी सुख दुख जाको करत लाभ नहि हान रोग शोक नहिं व्यापत जाको, हर्ष विषाद न आन अन्तरात्मा भाव धार कर जो पावे निर्वान 1 ज्ञान दीप की 'ज्योति' जगा लख, आतम अमर सुजान ॥ ४ ॥ ॥ २ ॥ I || 3 || । ॥ ४ ॥ 11 (४३८) चेतन अखियाँ खोलो ना, तेरे पीछे लागे चोर ॥ मोह रूप मद पान करे रे, पड़े हुए वे नयना' मीचे सो रहे रे, हित कि खोई बुद्धि ॥ याहि दशा लखि तेरी चेतन, लीनों इन्द्रिन लूटी गठरी ज्ञान की रे, अब क्यों" कीनी देर फांसी कर्मन डाल गले रे, नरक मांहि दे गेर" पड़े वहाँ दुख भोगने रे कहा ? करोगे फेर ॥ चेतन. ॥ ३ ॥ जागो चेतन चतुरा तुम, दीजो निद्रा त्याग ज्ञान खड्ग लो हाथ में रे, इन्द्रिय ठग जाय भाग उत्तम अवसर आ मिलो रे, छोड़ो विषयन १३ 'ज्योति' आतम हित करो रे, जाय न अवसर बीत ॥ चेतन. ॥ चेतन. ॥ ४ ॥ प्रीत टेक ॥ शुद्ध । चेतन. ॥ १ ॥ घेर । चेतन ॥ २ ॥ १. लवलीन २. अपनी भलाई ३. जैसे तिल में तेल ४. अलग ५. अमूर्त ६. मोक्ष ७. बेसुध ८. आंखें बन्द किये ९. इन्द्रियों ने घेर लिया १०. देर क्यों की ११. गिरा देता है १२. विषयों से प्रेम । For Personal & Private Use Only ॥ ५॥ Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५९) कवि शिवराम (४३९) जाना नहीं निज आत्मा, ज्ञानी हुये तो क्या हुये । ध्याया नहीं शुद्धात्मा ध्यानी हुये तो क्या हुये ॥ टेक ॥ ग्रन्थ सिद्धान्त पढ़ लिये, शास्त्री' महान बन गये । आत्मा रहा बहिरात्मा, पण्डित हुये तो क्या हुये ॥ जाना. ॥१॥ पंच महाव्रत आदरे घोर तपस्या भी करी । मन की कषायें ना मरीं साधु हुये तो क्या हुये ॥ जाना. ॥२॥ माला के दाने हाथ में मनुआ फिरे बाजार में । मन की नहीं माला फिरे जपिया' हुये तो क्या हुये ॥ जाना. ॥ ३ ॥ गाके बजाके नाचके पूजन भजन सदा किये । निज ध्येय को सुमरा नहीं पूजक हुये तो क्या हुये ॥ जाना. ॥ ४॥ मान बड़ाई कारने दाम हजारों खरचते । भाई तो भूखों मरें दानी हुये तो क्या हुये ॥ जाना. ॥ ५ ॥ करें न जिनवर दर्शको° सेवन करें अनभक्ष को । दिल में जरा दया नहीं, जैनी हुये तो क्या हुये ॥जाना. ॥ ६ ॥ दृष्टी२ अन्तर फेरते, औगुन ३ पराये हेरते । 'शिवराम' एकहि नाम के सायर हुये तो क्या हुये ॥ जाना. ॥ ७ ॥ कवियित्री चम्पा (४४०) आतम अनुभव करना रे भाई ॥ आतम. ॥ टेक ॥ और जगत की थोथी ५ बाते तिनके बीच न पड़ना रे । काल अनन्ते दिन यों बीते एकौ ६ काज न सरना रे ॥ आतम. ॥ १ ॥ अनुभव कारन श्री जिनवानी ताही" को उर धरना रे । या बिना कोउ हितू ना जग में दिन इक नाहिं विसरना रे ॥ आतम. ॥ २ ॥ आतम अनुभव ते शिवसुख हो फेर नहीं जहाँ मरना रे। १. शास्त्रों को जानने वाला २. आदर करना ३. क्रोध, मान, माया, लोभ ४. मन ५. जप करने वाला ६. स्मरण नहीं किया ७. पूजा करने वाला ८. के लिए ९. हजारों रुपये खर्च करते हैं १०. दर्शन ११. अभक्ष्य भक्षण करता है १२. आत्म निरीक्षण नहीं करते १३. दूसरे के अवगुण देखते १४. शेर करने वाले १५. व्यर्थ की बाते १६. एक भी काम सिद्ध न हुआ १७. उसी को १८. हितैषी १९. नहीं भुलाना। For Personal & Private Use Only Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१६०) और बात सब बन्ध करत है या रति बन्ध कतरना रे ॥ आतम. ॥ ३ ॥ पर परणति में परवश पर हैं ताते फिर दुख भरना रे ।। 'चम्पा' याते पर परणति तजि निज रचि काज सुधरना रे ॥ आतम. ॥ ४ ॥ कविवर ज्योति सिट न अन्त अनादिकर्मवश, जीवन शत पावत अ अब हम अमर भये न मरेंगे हमने आतम राम पिछाना ॥ टेक ॥ जल में गलत ना अग्नि में, असि से कहे न विष से हाना । चीर फाड़ ना पेरत कोल्हू लगत ना अग्नी बात निशाना ॥१॥ दामिन परत न हरत बज्र गिर, विषघर डस न सके इक जाना । सिंह व्याघ्र गज ग्राह' आदि पशु, मार सके कोई दैत्य न दाना' ॥ २ ॥ आदि न अन्त अनादि निधन यह नहिं जन्मा नहिं मरन सयाना । पाय पाय पर्याय कर्मवश, जीवन मरण मान दुख आना ॥ ३ ॥ यह तन नशत और तन पावत, और न नशत पावत अरु नाना । ज्यों बहु रूप धरे बहु रूपी यों बहु स्वांग धरे मनमाना ॥ ४॥ ज्यों तिल३ तेल दूध में घृत, त्यो मन में आतमराम समाना । देखत एक एक हो समुझत, कहत एक ही मनुज अजाना ॥ ५ ॥ पर पुद्गल अरु पर यह आतम नहीं एक दो तत्व प्रधाना । पुद्गले मरत जरत अरु विनसत, आतम अजर अमर गुणवाना ॥६॥ अमर रूप लख अमर भये हम, समझ भेद ओ वेद बखाना । ज्योति जगी श्रुति की घट अन्तर 'ज्योति' निरन्तर उर हर्षाना ॥ ७॥ कवि न्यामत (४४२) आप में जब तक कि कोई, आपको पाता नहीं। मोक्ष के मंदिर तलक, हरगिज कदम आता नहीं ॥ टेक ॥ वेद या कूरान९ या पूराण° सब पढ़ लीजिए । आपको जाने बिना, मुक्ती कभी पाता नहीं ॥१॥ भाव करुणा कीजिए यह ही धरम का मूल२२ है । १. पर परणति त्याग कर २. आत्मलीन होकर ३. पहचाना ४. गलता नहीं है ५. तलवार से ६. विष से हानि ७. आग नहीं लगती ८. विजली ९. सांप काट नहीं सका १०. मगर ११. दानव १२. अनेक १३. तिल में तेल १४. दूध में घी १५. अज्ञान १६. जलता १७. नष्ट होता है १८. शाम १९. कुरान २०. पुराण २१. मोक्ष २२. बड़ । For Personal & Private Use Only Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१६१) जो सतावे और को सुख वह कभी पाता नहीं ॥ २ ॥ हिरण खुशबू के लिए दौड़ा फिरे जंगल के बीच । अपनी नाभी में बसे फिर देख भी पाता नहीं ॥३॥ ज्ञान पै 'न्यामत' तेरे है, मोह का परदा पड़ा । इसलिए निज आत्मा तुझ को नजर आता नहीं ॥ ४ ॥ कवि मक्खनलाल (४४३) दुनिया में सबसे न्यारा,' यह आत्मा हमारा, सब देखन जानन हारा, यह आत्मा • ॥ टेक ॥ यह जले नहीं अग्नी में, भीगे न कभी पानी में, सूखे न पवन के द्वारा, यह आत्मा हमारा. ॥१॥ शस्त्रों से कटे न काटा, नहि तोड़ सके कोई भाटा, मरता न मरी का मारा, यह आत्मा हमारा. ॥२॥ मां बाप सुता सुत नारी झूठे झगड़े संसारी, नहिं देता कोई सहारा, यह आत्मा हमारा. ॥३॥ मत फंसे मोह ममता में, ‘मक्खन' आजा आपा में, तन धन कछु नाहि तुम्हारा, यह आत्मा हमारा. ॥४॥ (४४४) आत्मा क्या रंग दिखाता नये नये । बहुरुपिया ज्यों भेष बनाता नये नये ॥ टेक ॥ धरता है स्वांग देव का, स्वर्गों में जायके । करता किलोल' देवियों के संग नये नये ॥ आत्मा. ॥ १ ॥ गर नर्क में गया तो, रूप नार की धरा । लखि° मार पीट भूख प्यास दुख नये नये ॥ आत्मा. ॥ २ ॥ तिर्यंच में गज बाज वृषभ महिष२ मृग अजा३ । धारे अनेक भांति के, काबिल नये नये ॥ आत्मा. ॥ ३ ॥ नर नारि नपुसंक बमा, मानुष की योनि में, गर मार पीट भूख महिष नये १. दिखाई नहीं देता २. अलग ३. पत्थर ४. महामारी ५. पुत्री ६. पुत्र ७. अपने में ८. जाकर ९. क्रीड़ा १०. देखकर ११. बैल १२. मैंस १३. बकरी । For Personal & Private Use Only Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१६२) फल पुण्य पाप के उदय, पाता नये नये ॥ आत्मा. ॥ ४ ॥ 'मक्खन' इसी प्रकार भेष लाख चौरासी । धारे विगार' बार-बार फिर नये नये ॥ आत्मा. ॥ ५ ॥ कविवर भूधरदास (४४५) राग गोरी देखो भाई आतम देव विराजै ॥ टेक ॥ इसही हूठ हाथ देवल' में, केवल रूपी राजै॥ देखो भाई. ॥ अमल उदास जोतिमय जाकी, मुद्रा मंजुल छाजै । मुनिजन पूज अचल अविनाशी, गुठा' वरनत बुधि लाजै ॥देखो. ॥ १ ॥ पर संजोग अमल प्रतिभासत, निजगुण मूल न त्याजे । जैसे फटिक पाखान हेत सो, श्याम२ अरुन ३ दुति साजै ॥ देखो. ॥ २ ॥ सोऽहं पद ममता सो ध्यावत घटा ही में प्रभु पाजै । 'भूधर' निकट निवास जासु को, गुरु बिना भरम" न भाजै ॥ देखो. ॥ ३ ॥ १०. बारह-भावनाएँ महाकवि बुधजन (४४६) राग-तिताला काल ६ अचानक ही लें जायेगा, गाफिल होकर रहना क्या रे ॥ टेक ॥ छिन हूं तोकू नाहि बचावै, तो सुभटन' का रखना क्या रे ॥ काल. ॥ १॥ रंच° सवाद करिन कै काजै, नरकन में दुख भरना क्या रे ॥ काल. ॥ २ ॥ इन्द्रादिक कोउ नाहिं बचैया, और लोक का शरना क्या रे ॥ काल. ॥ ३ ॥ अपना ध्यान करत सिरर जावैं तो करमनि का हरना क्या रे ॥ काल. ॥ ४ ॥ अब हितकरि आरत तजि 'बुधजन' जन्म जन्म में जरना२३ क्या रे ॥ काल. ॥ ५ ॥ १. बार-बार बिगड़कर २. साढ़े तीन हाथ के ३. मंदिर, देवालय ४. सुन्दर ५. गुणों का वर्णन करते हुए ६. बुद्धि लजाती है ७. निर्मल ८. प्रतिभासित होता है ९. छोड़ता है १०. स्फटिक ११. पत्थर १२. काला १३. लाल १४. पाये १५. प्रम नहीं भागता १६.मृत्यु १७.वे परवाह १८.तुझको १९.योद्धा वीर २०.थोड़ा २१.स्वाद २२.खिर जाते हैं २३.जलना। For Personal & Private Use Only Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१६३) (४४७) राग-सारंग तन देख्या अथिर घिनावना ॥ तन. ॥ टेक ॥ बाहर चाम' चमक दिखलावै माहीं मैल अपावना । बालक ज्वान बुढ़ापा मरना, रोक शोक उपजावना' ।। तन. ॥१॥ अलख अमूरति, नित्य निरंजन, एक रूप निज जानना । वरन फरस रस गंध न जाके पुन्य पाप विन मानना ।। तन. ॥ २ ॥ करि विवेक उर धरि परीक्षा भेद विज्ञान विचारना । 'बुधजन' तन” ममत मेटना, चिदानंद पद धरना ॥ तन. ॥ ३ ॥ (४४८) बाबा ! मैं न काहू का कोई नहि मेरा रे॥ बाबा. ॥ टेक ॥ सुर नर नारक तिर्यक'° गति मैं मोको करमन घेरा रे ॥ बाबा. ॥ १॥ मात पिता सुत तियकुल परिजन, मोह गहल१ उरझेरा २ रे । तन धन वसन३ भवन जड़ न्यारे हूं चिन्मूरति न्यारा रे ॥ बाबा. ॥ २ ॥ मुझ विभाव जड़ कर्म रचंत हैं करमन हम को फेरा रे । विभाव चक्र तजि धारि सुभावा, अब आनंद घन हेरा रे ॥ बाबा. ॥ ३ ॥ खरच५ खेद नहि अनुभव करते निरखि चिदानंद तेरा रे । जप तप व्रत श्रुत सार यही हे, 'बुधजन' कर न अवेरा'६ रे ॥ बाबा. ॥ ४ ॥ महाकवि भूधरदास मात पिता रज वीरज सौं उपजी सब धान कुधान भरी है । माखिन ८ के पर माफिक'९ बाहर चामके° बेठन२१ वेढ़ धरी है । नाहिं तो आय लगै अब ही, वक२ बायस२३ जीव वचैन घरी है । देह दशा यह दीखत भ्रात, घिनात२४ नहीं किन२५ वुद्धि हरी है ॥ १.घिनौना २.चमड़ा ३.अन्दर ४.रोग ५.उत्पन्न करना ६.वर्ण ७.स्पर्श ८.जिसके ९.शरीर से १०.तिर्यंच गति ११.झंझट में १२.उलझना १३.वस्त्र १४.चक्कर लगवाया १५.खर्च करके १६.देर १७.उत्पन्न हुई १८.मक्खन १९.तरह २०.चमड़े का २१.वंधन से लिपटा २२.बगुला २३.कौआ २४.घृणा करना २५.किसने बुद्धि हरली। For Personal & Private Use Only Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१६४) (४५०) जोई दिन कटै सोई आव'मैं अवश्य घटे बूंद बूद बीतै जैसे अंजुली' को जल है। देह नित दीन होत नैन तेजहीन होत, जोवन मलीन होत छीन होत बल है ॥ आवै जरा नेरी तके अंतक अहेरो आवै, परभौं नजीक जात नरभौं विफल है । मिलकै मिलापी जन पूंछत कुशल मेरी, ऐसी दशामाहि° मित्र काहे की कुशल है। (४५१) देखहु जोर११ जरा भढकौ, जमराज२ महीपति को अगवानी । उज्जवल ३ फेस निसान धरें, बहु रोगन की संग फौज पलानी । कायपुरी तजि भाजि चल्यौ जिह, आबत जोबन५ भूप गुमानी'६ । लूट लई नगरी सगरी, दिन दोय मैं खोय है नाम निसानी ॥ कवियित्री चम्पा (४५२) दिन यों ही बीते जाते हैं। दिन.॥ टेक ॥ जिनके हेत- आप बहुकीने, ते कुछ काम न आते हैं। दिन ॥१॥ सजन संगाती स्वारथ साथी। तन धन तुरत नशाते है। दुख आये कोई होय न सीरी२° । पाप तेरे लपटाते हैं ॥ दिन ॥२॥ कुकथा सुनत प्रेम अति बाड़े, सुकथा सुन मुरझाते है । सप्तव्यसन सेवन में मुखिया, क्यों कर समकित पाते हैं ।दिन ॥ ३ ॥ धन को पाय मान के वश२२ है, मस्तक विकट उचाते२३ हैं । जब हम आय करे शिर वासा, अब अति ही पछताते हैं । दिन ॥ ४ ॥ क्रोध मान छल लोभ काम वश, नाना भेज बनाते हैं। ऐसे नरभव पाय गमावत', फिर क्या यह विधि पाते हैं ॥दिन ॥५॥ जिनवर अरचा२६ आगम चरचार, करत न मन हरजाते हैं। 'चम्पा' सोच भजो जिनवर पद, नातर गोते खाते हैं |दिन ॥६॥ १.आयु में २.अंजलि के पानी की तरह ३.जवानी ४.क्षीण हो जाता है ५.बुढापा पास आता है ६.मृत्यु ७.शिकारी ८.परभव ९.नरभव १०.दशा में ११.बुढापा रूपी योद्धा का बल १२.यमराज रूपी राजा १३.सफेद बाल १४.भाग गई १५.यौवन रूपी राजा १६.घंमडी १७.समस्त १८.लिए १९.नष्ट हो जाते हैं २०.साथी २१.मुरझा जाते है २२.वश में होकर २३.ऊंचा करते हैं २४.पछताना २५.नष्ट करना २६.पूजा २७. वार्ता २८.अन्यथा जिनवर अरचा जो जिनवर पद, न For Personal & Private Use Only Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - (१६५) कविवरण न्यामत (४५३) जब हंस' तेरे तन का कहीं उड़के जायगा। अय दिल बता फिर किससे तूं नाता' लगायेगा ॥ १ ॥ यह भाई बन्धु जो तुझे, करते हैं आज प्यार । जब आज बने कोई नहीं काम आयगा ॥२॥ यह याद रख सब हैं तेरे जी के जीते यार । आखिर तू एकाकी ही, यम दुख उठायेगा ॥३॥ सब मिल के जला देंगे तुझे जाके आग में । एक छिन की छिन में तेरा पता भी न पायगा ॥ ४॥ कर नाश आठ कर्म का निज-शत्रु जानकर । वे नाश किये इनके तूं मुक्ती न पायगा ॥५॥ अवसर यही है जो तुझे करना है आज कर । फिर क्या करेगा काल जब मुँह बाके आयगा ॥६॥ अथ 'न्यामत' उठ चेत क्यों, मिथ्यात्व में पड़ा । जिन धर्म तेरे हाथ यह, मुश्किल से आयगा ॥७॥ कवि मंगल (४५४) सुन चेतन प्यारे, साथ न चले तेरी काया ॥ टेक ॥ मलमल धोया चोवा चंदन, इतर फुलेल लगाया । सबरी द्रव्ये भई अपावन, कुछ भी हाथं न आया ॥ सुन. ॥१॥ रक्षा करते-करते तूने, क्यों मन को भरमाया । इसको रोते चले गये सो उसने जग भरमाया ॥ सुन. ॥ २ ॥ यह है इस धोखे की टाटी, अरु दर्पण की छाया । जिसने इससे प्रीति लगाई, अन्त समय पछताया ॥ सुन. ॥ ३ ॥ इसके पोखन' कारण पांचहुं करण विषय में धीया । जीरण२ होते-होते दुल गये ज्यों तरुवर की छाया ॥ सुन. ॥ ४ ॥ मानुज भव को सुरपति३ तरसे बड़ी कठिन से पाया । १.आत्मा २.सम्बन्ध जोड़ेगा ३.कोई मुसीबत आ जाय ४.मोक्ष ५.मुंह खोलकर ६.शरीर ७.सुंगधित द्रव पदार्थ ८.सारी ९.प्रेम किया १०.पुष्ट करने के लिए ११.पांचो इन्द्रियों के विषय १२.बूढे होते-होते १३.इन्द्र। For Personal & Private Use Only Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१६६) अबकी चूकत' फिर नहिं पाया, बार बार समझाया ॥ सुन. ॥ ५ ॥ बालपने में खेला खाया जोवन ब्याह रचाया । अर्द्धमृतक सम जरा' अवस्था यों ही जनम गंवाया ॥ सुन. ॥ ६ ॥ जिसमें ज्ञान ध्यान की समता ममता को विसराया । 'मंगल' तिस योगी चरणों में जग ने शीश नवाया ॥ सुन. ॥ ७ ॥ महाकवि भूधरदास (४५५) कैसे-कैसे बली' भूप भूपर विख्यात भये । बैरी कुल कांपै नेकु' भौहों के विकार सौं । लंघे गिरि सायर दिवायर सौं दिपै जिनौ, कायर किये हैं भट को दिन हुंकार सौं । ऐसे महामानी मौत आये हू न हार मानी, क्यों ही उतरे न कभी मानके' पहार सौं । देव सौं न हारे पुनि दाने २ सौं न हारे और, काहू सौं न हारे एक हारे होनहार३ सौं ॥ (४५६) लोह मई कोट केई कोटन की ओर करौ । कांगुरेन'४ तोप रोपि राखो पट५ भेरिफैं । इन्द्र चन्द्र चौंकायत चौकस६ है चौकी देह, चतुरंग चमू७ चहूं ओर रहौ धोरिकै ॥ तहाँ एक भौहिरा" बनाय बीच बैठो पुनि। बोलौ मति कोऊ जो बुलावै नाम टेरिकैं। ऐसें परपंच-पांति रचौ क्यों न भांति भांति । कैसे हू न छारै२० जम देख्यौ हम हेरिकै२१ ॥ १.चूकने पर २.बुढापा ३.बलवान राजा ४.शत्रु समूह ५.थोड़े से भौहें के टेढ़ा करने से ६.सागर, समुद्र ७.सूर्य की तरह ८.चमकना ९.योद्धा १०.किसी प्रकार भी ११.गर्व के पर्वत को १२.दानव से १३.भवितव्य १४.कंगूरो पर तोप लगाकर १५.किवाड़ बंद करके १६.सावधान १७.सेना १८.मोहरा १९.पुकार कर २०.छोड़ना २१.खोजकर । For Personal & Private Use Only Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१६७) कवि बाजूराय (४५७) धर्म एक शरण जिया, दूसरो न कोई ॥ टेक ॥ संपति गजराज बाज चक्रवर्ति की समाज । तात मात भ्रात सबै, स्वारथ के लोई ॥ धर्म. ॥१॥ तीन लोक सार वस्तु, आन सो मिले समस्त । ऋद्धि सिद्धि वृद्धि भला, स्वर्ग मुक्ति सोई॥ धर्म. ॥२॥ सिंह सर्प श्वान चोर, वैरी को न चलै जोर ।। अगनि मांहि जरत' नाहि बूढ़त नहि तोई ॥ धर्म. ॥ ३ ॥ भवदधि से पार-करण, अष्ट कर्म नाश करण । 'बाजूराय' धर्म शरण, भव भव में होई॥ धर्म. ॥४॥ कवि मक्खनलाल (४५८) सुख के सब लोग संगाती' हैं, दुख में कोई काम न आता है । जो सम्पति में आ प्यार करें वह विपति में आँख दिखाता है ॥ सुत मात तात चाचा ताई, परिवार नार भगिनी भाई । खुदगर्ज मतलबी यार सभी, दुनिया का झूठा नाता है ॥ धन माल खजाने महल हाट', हाथी घोड़े रथ राज पाट। सब बनी बनी के ठाट बाट, बिगड़ी में पता न आता है ॥ क्या राजा रंक फकीर मुनी, नरनारि नपुंसक मूर्ख गुनी । 'मक्खन' इमि वेद पुरान सुनी, सबही को कर्म सताता है । कवि भैया भगवतीदास (४५९) कहा परदेशी को पतियारो॥ कहा.॥ टेक ॥ मल मानें तब चले पन्थ को सांझ गिने न सकारो१ । सबै कुटुम्ब छांड इतही पुनि, त्याग चले तन प्यारो ॥ कहा. ॥१॥ दूर दिशावत'३ चलत आप ही कोउ न राखन हारो । १.लोग २. जलता नहीं ३.डूबता नही ४.जल ५.साथी ६.नाराज होता ७.स्वार्थी ८.बाजार ९.अच्छे १०.भरोसा ११.सबेरे १२.यहीं पर १३.अन्य देश । For Personal & Private Use Only Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१६८) कोऊ प्रीति करो किन कोटिन अन्त होयगा न्यारो ॥ कहा. ॥ २ ॥ धन सों राचि धरम सो भूलत झूलत' मोह मंझारो ॥ कहा. ॥ ३ ॥ इह विधि काल अनन्त गमायो, पायो नहि भव पारो॥ कहा. ॥ ४ ॥ साँचे सुखसो विमुख होत है, भ्रम मदिरा मतवारो॥ कहा. ॥ ५ ॥ चेतहु चेत सुनहु रे 'भैया', आपाहि आप संभारो ॥ कहा. ॥ ६ ॥ ११. कर्मफल महाकवि बुधजन (४६०) राग-आसावरी जगत मैं होनहार सा' होवै, सुर नृप नाहि मिटावै ॥ जगत ॥ टेक ॥ आदिनाथ से कौं भोजन में अन्तराय उपजावै । पारस प्रभुकौं ध्यान लीन लखि कमठ मेघ वरसावै ॥ जगत. ॥ १॥ लखमण से संग भ्राता जाकै सीता राम गमावै । प्रतिनारायण रावण से की हनुमत लंक जरावै ॥ जगत. ॥ २ ॥ जैसो कमावै तैसो ही पावै यों 'बुधजन' समझावै । आप आपको आप कमावौ, क्यों पर द्रव्य कमावै ॥ जगत. ॥ ३ ॥ (४६१) ___ राग-ईमन तेतालो हो विधिना १ की मोपै कही तौ न जाय ॥ हो ॥ टेक ॥ सुलट उलट उलटी३ सुलटा दे अदरस पुनि दरसाय । हो. ॥१॥ उर्वशि नृत्य करत ही सनमुख अमर परत है पाँय ।। ताही छिन मैं फूल बनायौ धूप परै कुम्हलाय॥ हो. ॥ २ ॥ नागा" पाँय फिरत घर घर जब सो कर दीनौं राय। ताही को नरकन मैं कूकर तोरि" तोरि तन खाय ॥ हो. ॥ ३ ॥ करम उदय भूलै मति आपा", पुरषारथ को ल्याय । 'बुधजन' ध्यान धरै जब मुहुरत , तब सब ही नसि जाय ॥ हो. ॥४॥ १.मोह में झूलता है २.वह ३.सरीखे को ४.बाधा उत्पन्न हुई ५.देखकर ६.पानी बरसना ७.लक्ष्मण ८.जिसके ९.खो दिया १०.हनुमानजी ने लंका जला दी ११.कर्म १२.सीधे को उल्टा १३.उल्टे को सीधा १४.अदृश्य को दृश्य करना १५.नंगे पैर १६.राजा १७.कुते १८.तोड़-तोड़ कर १९.आत्मस्वरूप २०.मुहूर्त २१.सब नष्ट हो जाता है। For Personal & Private Use Only Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१६९) महाकवि भागचंद (४६२) राग-ठुमरी जीवनि के परिणामनि की यह, अतिविचित्रता देखहुँ' दुगनी ॥ टेक ॥ नित्य निगोदमाहित कढ़िकर नर' परजय पाय सुखदानी । समकित लहि अंतर्मुहूर्त मैं केवल' पाय वरै शिवरानी ॥ जीवनि. ॥ १ ॥ मुनि एकादश गुण थानक चढ़ि गिरत तहातै चित भ्रम ठानी । भ्रमत अर्ध पुद्गल आवर्तन किंचित उन काल परमानी ॥ जिवनि. ॥ २ ॥ निज परिणामनि की संभाल में तातै गाफिल मत है प्रानी । बंध मोक्ष परिनामनि ही सो कहत सदा श्री जिनवर वानी ॥जिवनि. ॥ ३ ॥ सकल उपाधि निमित भावनि सों, भिन्न सुनिज परनति को छानी । ताहि जानि रुचि ठानि होहु थिर, 'भागचन्द' यह सीख सयानी ॥जिवनि. ॥ ४ ॥ कवि जिनेश्वरदास (४६३) राग ख्याल सुनियो भविलो को करमनि की गति वांकड़ी ॥ सुनियो॥ टेर ॥ तीरथ ईश जगत पति स्वामी रिषभ देव महाराज । एक बर्ष आहार न मिलियो, भयो असंभव काज जी ॥ सुनियो. ॥१॥ अर्क कीर्ति परनारी कारन, जय कुमार से हार । कीरति खोय दई सब छिन में कर्म उदय अनिवार°जी ॥ सुनियो. ॥ २ ॥ विधिवस रावन हरी जानकी अपजस भयो अपार । पांडव पांच भेषधर निकले, तब पायो आहार जी॥ सुनियो. ॥ ३ ॥ छप्पन कोडि यदु वंश कहावे हरि त्रिखंड पतिसार । जनमत २ मंगल भयो न जिनके मरे न रोवन ३ हार जी ॥ सुनियो. ॥ ४ ॥ कर्मनि की गति रुकै न काहू, तीनलोक मंझार । एक 'जिनेश्वर' भक्ति जगत में शिवसुख दायक सारजी ॥ सुनियो. ॥ ५ ॥ १.देखो २.मनुष्य पर्याय ३.केवल ज्ञान पाकर ४.मोक्ष प्राप्त करता है ५.बेपरवाह ६.अपनी ७.भव्यजन ८.टेढ़ी ९.परस्त्री के कारण १०.अनिवार्य ११.कर्मवश १२.जन्मते १३.रोनेवाला। For Personal & Private Use Only Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१७०) (४६४) कर्म बड़ा देखो भाई, जाकी चंचलताई ॥ कर्म बड़ा ॥ टेक ॥ राजा छिन मैं रंक' होत हैं भिक्षुक' पावै प्रभुताई ॥ जाकी. ॥ १ ॥ निर्धन धनिक होय सुख पावै, धन विन होय निधनताई ॥ जाकी. ॥ २ ॥ शत्रु मित्र सम सब दुख देवै मित्र करै फिर कुटिलाई ॥ जाकी. ॥ ३ ।। सुत त्रिय बांधव को निज जानै सो निज अहित करै भाई ॥ जाकी. ॥ ४ ॥ सुख दुख मैं परदोज न दीजै, यही 'जिनेश्वर' बतलाई॥ जाकी. ॥ ५ ॥ महाकवि भूधरदास __(४६५) अन्त कसौं न छुटै निहचै पर, मूरख जीव निरन्तर धूजै ॥ चाहत है चित मैं नित ही सुख होय न लाभ मनोरथ पूजै ॥ तो पन मूढ़ वंध्यौ भय आस, वृथा बहु दुःख दवानल भूजै । छोड़ विचच्छन ये जड़ लच्छन धीरज धर सुखी किन हूजै ॥ (४६६) जो धन लाभ लिलाट' लिख्यौ, लघु दीरघ सुक्रतकै३ अनुसारे । सो लहि है कछु फेर" नहीं मरूदेश के ढेर सुमेर सिधारै ।। घाट न बाढ़ कहीं वह होय कहा कर आवत सोच विचारै । कूप किधौ६ भर सागर मैं नर, गागर मान मिलै जल सारै ॥ कवि जिनेश्वरदास (४६७) कोई नहिं सरन७ सहाय८ जगत में भाई । मोही नहिं भानै सुगुरू वचन सुखदाई ॥ टेर ॥ ज्यों नाहर पगतर पर्यो हिरन विललावै । त्यों जीव कर्मवश पर्यो बहुत दुख पावै ॥ या जगत° विषै अतिबली, इन्द्र नश जावै । १.चंचलता २.गरीब ३.भिखारी ४.निर्धनता ५.कुटिलता ६.दूसरे को दोष न दो ७.कैसे भी ८.कांपता है ९.पूर्ण होना १०.दावानल में जलना ११.क्यों नही होता १२.भाग्य में १३.पुण्य के अनुसार १४.कुछ फर्क नहीं १५.कुआँ हो या समुद्र पानी घड़े भर ही मिलेगा १७.शरण १८.सहायक १९.बाघ के चरणों में पड़ा हिरण रोता है २०.इस संसार में। For Personal & Private Use Only Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७१) हरिहर ब्रम्हा को काल' ग्रास कर जावै 1 तब और कौन होगा जब कर्म उदय दुख होय जीव विललावै तिहिवार अनेक अनेक प्रकार जतन करवावै 11 विन पुण्य उदय के दुख का अंत न आवै । सब जंत्र मंत्र औषधी, विफल हो जावै कोई राख सकै नहिं जीव देह तजि जब आवै आयु को अंत मरन तब हो 1 मूरख मन में पछताय बहुत सा रोवै ॥ विपरीत काम कर बीज पाप का बोवै सरन सहाई ॥ मोही. ॥ १ ॥ सब देवी देव मनाय धर्म निज खोवै 11 नहिं कभी किसी ने किसी की आयु बढ़ाई ॥ मोही. ॥ ३ ॥ योगिनी माता 1 ॥ ग्रह व्यंतर भेरव जक्ष नहिं पावै मन का इष्ट दुखी विललाता तौ भी नहिं छोड़े निंद्य देव सुखदाता | जगमांहि 'जिनेश्वर' सरन सदा सुखदाई कवि न्यामत ܘ (४६८) I जाई ॥ मोही. ॥ २ ॥ मद मोह की शराब ने, आपा' आपा भुला दिया तुझे, बेसुध चेतन तेरा स्वरूप था, जड़ सा जड़ कर्मों के फंदे में है, तुझको निशदिन कुमति को संग में तेरे दामिन सुमति सी रानी को कर से छुटा दिया ॥ मद ॥ २ ॥ उपयोग ज्ञान गुन तेरा, ऐसे दबा दिया । अब न्यामत जैसे बादलों ने सूरज छिपा दिया ॥ मद ॥ ३ ॥ भुला दिया ॥मोही. ॥ ४ ॥ I बना दिया ॥ टेक ॥ बना दिया । फंसा दिया ॥ मद ॥ १ ॥ लगा दिया । १. मृत्यु २. उस समय ३. यत्न, प्रयत्न ४. बोता है ५. खोता है ६. यक्ष ७. रोता है ८. आत्मस्वरूप ९. अचेतन से १०. कुबुद्धि । For Personal & Private Use Only Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१७२) कवि जिनेश्वरदास (४६९) पद-मराठी करमवश चारों गति जावै, जीव कोई संग नही जावै', जीव कोई संग नही आवै ॥ टेर ॥ अकेलो सुरगों में जावै, अकेलो नकर धरा धावै । अकेलो गर्भ मांहि आवै, अकेलो मनुष जन्म पावै । दोहा-बूढ़ा होवै आपही थरहर कांपे देह । बल वीरज जासों रहे सजी, धरके तजै सनेह ॥ सेह तज द्वारा में ल्या₹ जीव कोई संग नहीं आवै ॥ जीव. ॥ १ ॥ उदयवस रोग जवै आपै बहुत फिर मन में पछतावै । एक छिन थिरता नहिं पावै कुटुंब सब बैठो बिललावै ॥ दोहा-चलै दवाई एक ना, बड़े बड़े उपचार । कोई काम नहिं आवई संजी गये वैद्य° सब हार ॥ विपति में वहुविधि वललावै ॥जीव. ॥ २ ॥ अकेलो मरन दुख पावै, अकेलो दूजी गति जावै । अकेलो पाप विर्षे धावै, अकेलो धर्मी कहलावै ॥ दोहा- पाप उदय नारिक बने, दुखी रहै दिनरात । पुण्य उदय सब संपदा सजी, लहै अकेलो भ्रात ॥ सुखी सुरगति में कहलावै ॥जीव. ।। ३ ।। अकेलो मिथ्या परिहारै' अकेलो समकित उरधारै । अकेलो कर्म सभी टारै, अकेलो अक्षय पद धारै॥ दोहा-यही. अकेलो जगत में यही आतमाराम । कही जिनेश्वर देव ने सजी गई सुबुधि गुणधान । स्वहित निज संपति दरसावै ॥ जीव. ॥ ४ ॥ १.जाता है २.नहीं आता ३.स्वर्ग ४.दौड़ता है ५.प्रेम ६.घर छोड़कर ७.सारा परिवार बैठ कर रोता है ८.औषधि ९.कोई काम नहिं आता १०.सभी वैद्य हार गये ११.छोड़ता है १२.सम्यक्त्व धारण करता है। For Personal & Private Use Only Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१७३) कवि मक्खनलाल (४७०) कर्मनि की गति न्यारी, किसी से कभी टरे न टारी । रामचन्द्र से नामी' राजा वन-वन फिरे दुखारी ॥ किसी. ॥ जन्मत कृष्णा न मंगल गाये मरत न रोवनहारी ॥ किसी.॥ पांचों पांडव द्रौपदी नारी, विपति भरी अतिभारी ॥ किसी. ॥ ऋषभ देव प्रभु छहों मास लों, फिरे बिना आहारी ॥ किसी. । इन्द्र धनेन्द्र खगेन्द्र चक्रधर हलधर कृष्णा मुरारी ॥ किसी.॥ 'मक्खन' जिन इन कर्मन जीता, तिन चरनन बलिहारी ॥ किसी.॥ कवि बुधमहाचंद्र (४७१) मिटत नहीं मेटें से या तो होनहार सोई होय ॥टेर ॥ माघनंद मुनिराज 3 जी गये पारण हेत । व्याह रच्यो कुमहार की धीतूं वासण घड़ि-घड़ि देत ॥ मिटत. ॥१॥ सीता सती बड़ी सतवंती जानत हैं सब कोय । जो उदियागत टलैं नहीं टाली कर्म लिखा सो ही होय ॥ मिटत. ॥ २ ॥ रामचन्द्र सो भर्ता जाके मंत्री बड़े विशेष । सीता सुख भुगतन नहीं पायो भावनि' बड़ी बलिष्ट ॥ मिटत. ॥ ३॥ कहाँ कृष्ण कहाँ जरद कुँवरजी कहाँ लोहा को तीर । मृग के धोके वन में मार्यो बलभद्र भरण२ गये नीर ॥ मिटत. ॥ ४ ॥ 'महाचन्द्र' तै नरभव पायो तू नर बड़ो अज्ञान । जे सुख भुगते भाव प्रानी भज लो श्री भगवान ॥ मिटत. ॥ ५ ॥ कवि भैया भगवतीदास (४७२) राग-रामकली जिया को मोह महा दुखदाई॥ टेर ॥ काल अनंत जीति जिहं३ सख्यो, शक्ति अनंद छिपाई । १.टालने पर भी नहीं टलती २ प्रसिद्ध ३.कुबेर ४.गरुड़ ५.विष्णु ६.होनहार ७.पारणकरने ८.पुत्री से ९.बर्तन १०.पति ११.होनी १२.भरने १३.जिसने रखा। For Personal & Private Use Only Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१७४) क्रम क्रम करके नरभव पायो तऊ न तजत लराई ॥ जिया. ॥१॥ मात, तात, सुत बांधव, बनिता, अरु परिवार बड़ाई । तिनसौ प्रीति करै निशि वासर जानत सब ठकुराई । जिया. ॥ २ ॥ चहुँगति जनम भरन के बहुदुख, अरू बहु कष्ट सहाई । संकट सहत तऊं नहिं चेतत भ्रम मदिरा अति पाई ॥ जिया. ॥३॥ इह बिन तजे परम पद नाहीं यो जिन देव बताई । ताः मोह त्याग लैं भैया ज्यो प्रगटे ठकुराई ॥ जिया. ॥४॥ राग-मारू (४७३) जो जो देखी वीतराग ने सो-सो होसी वीरा रे । अनहोनी होसी नहिं जग में काहे होत अधीरा रे ॥ जो. ॥टेक ॥ समयो एक बाडै नहि घटसी, जो सुख दुख की पीरा रे। तू क्यों सोच करै मन मूरख होय वज्र ज्यों हीरा रे ॥ जो. ॥१॥ लगै न तीर कमान वान कहुं मार सके नहि मोरा रे। तू सम्हारि पौरूष बल अपनो सुख अनंत तो तोरा रे ॥ जो. ॥ २ ॥ निश्चय ध्यान धरहु वा प्रभु को जो टारे भव' भीरा रे। 'भैया' चेत धरम निज अपनो, जो तारै भव २ नीरा रे ॥ जो. ॥ ३ ॥ कवि सुखसागर (४७४) करम जड़ है न इनसे डर परम पुरुषार्थ कर प्यारे । कि जिन भावों से बांधे हैं, उन्हीं को अब उलट प्यारे ॥ टेक ॥ शुभाशुभ पाप पुण्यों को, सदा ही बांधते जिय में । शुभाशुभ टालकर चेतन, तू शुध उपयोग धर प्यारे ॥ करम. ॥१॥ तू जैसा शाश्वता५ निर्मल, परम दीपक परम ज्योती । तू आपापरको जाने रहं, न राग द्वेष कर प्यारे ॥ करम. ॥२॥ जहां आतम अकेला है, वहीं उपयोग निर्मल है । उसी में निज चरण धरना, यही अभ्यास रख प्यारे ॥करम. ॥ ३॥ १.लड़ाई २.रात दिन ३.बडप्पन ४.सावधान होता ५.होगा ६.अधीर ७.समय बढ़ेगा घटेगा नहीं ८.पीर ९.बल पौरुष को सम्भालो १०.तेरा ११.भवदुख १२.भवसागर १३.चेतन १४.शुद्धोपयोग १५.शाश्वत, निर्मल १६.स्वपर १७.राग और द्वेष । For Personal & Private Use Only Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१७५) तू भव सागर सुखावेगा, निजातम भाव भावेगा । 'सुखोदधि' में समावेगा, सदा समता सहित प्यारे ॥करम.॥ ४ ॥ कवि न्यामत (४७५) परदा पड़ा है मोह का आता नजर नहीं । चेतन तेरा स्वरूप है, तुझको खबर नहीं ॥ टेक ॥ चारों गती मारा फिरे ना ख्वार' रात दिन । आपे में अपने आप को लखता' मगर नही । परदा. ॥१॥ तन मन विकार धारले अनुभव सचेत हो । निजपर विचार देख जगत तेरा स्वघर नही ॥ परदा. ॥२॥ तू निज स्वरूप शिवरूप, ब्रह्म रूप है । विषयों के संग से तेरी होनी कदर नहीं ॥ परदा. ॥ ३ ॥ चाहे तो कर्म काट तू, परमात्मा बने । अफसोस कि इसपै भी तू करता नजर नहीं ॥ परदा. ॥ ४ ॥ निजशक्ति को पहचान समझ, अब तो ले 'न्यामत' । आलस में पड़े रहने से, होती गुजर नहीं ॥ परदा. ॥ ५ ॥ १२. बधाई गीत महाकवि बुधजन (४७६) बधाई राजै हो, आज राजै, बधाई राजै, नाभिराय के द्वार । इन्द्र सची सुर सब मिलि आये, सजि ल्यायै गजराजै ॥ बधाई. ॥ १ ॥ जन्म सदन” सची ऋषभ ले, सोपि दये सुरराजै ।। गजपै२ धरि गये सुरगिरि१३ पै, न्हौंन करन के काजै ॥ बधाई. ॥ २ ॥ आठ५ सहस सिर कलश जु ढारे, पुनि सिंगार समाजै । ल्याय धर्यो मरुदेवी कर मैं हरि नाच्यो सुख साजै ॥ बधाई. ॥ ३ ॥ लच्छन व्यंजन सहित सुभगतन, कंचन दुति रवि लाजै । या छवि 'बुधजन' के उर निश दिन तीन ज्ञानजुत राजै ॥ बधाई. ॥४॥ १.दिखाई नहीं देता २.नष्ट .देखता ४.अपना घर ५.इज्जत ६.निर्वाह ७. सुशोभित होता है ८. आदिनाथ के पिता ९. इन्द्राणी १०. ऐरावत, हाथी ११. इन्द्र १२. हाथी पर १३. सुमेरु पर्वत १४. स्नान १५.१००८ । For Personal & Private Use Only Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१७६) (४७७) बधाई भई हो तुम निरखत जिनराज बधाई भई हो ॥ टेक ॥ पातक गये भये सब मंगल, भेंटत' चरन कमल जिनराई ॥ बधाई. ॥ १ ॥ मिटे मिथ्यात भरम के बादर, प्रगटन आतम रवि अरु नाई। दुरबुध' चोर भजे-जिय जागे, करन लगे जिन धर्म कमाई ॥ बधाई. ॥ २ ॥ दृग सरोज फूले दरसनतें तुम करुना कीनी सुख दाई । भाषि अनुव्रत महाविरत को शिवराह बताई ॥ बधाई. ॥ ३ ॥ महाकवि दौलतराम . (४७८) वामा° घर बजत बधाई, चलि देखि री माई ॥ टेक ॥ सुगुन रास जग आस भरन तिन, जाने पार्श्व जिनराई । श्री ही धृति कीरति बुद्धि लछमी, हर्ष अंग" न माई ॥ चलि. ॥१॥ वरन वरन मनि चूरि सची सब पूरत चौक सुहाई । हा हा हू हू नारद तुम्वर २ गावत श्रुति सुख दाई ॥ चलि. ॥२॥ तांडव नृत्य नटत हरिनट" तिन, नख नख सुरी नचाई । किन्नर कर-धर बीन बजावत दृगमन हर छबि छाई ॥चलि. ॥ ३ ॥ 'दौल' तासु प्रभु की महिमा सुर, गुरु पै कहिय न जाई । जाके जन्म समय नरकन में नारकि" सातापाई१६ ॥ चलि. ॥४॥ महाकवि बुधजन (४७९) बधाई चन्द्रपुरी७ मैं आज ॥ बधाई. ॥ टेक ॥ महासेनसुत कुंवर जू राज लह्यौ सुख साज ॥बधाई. ॥१॥ सन्मुख नृत्य कारिनी नाचत, होत मुंदग९ आवाज ।। भेंट करत नृप देश देश के पूरत° सबके काज ॥ बधाई. ॥२॥ सिंहासन पै सोहत ऐसो ज्यों शशि नखत२२ समाज । नीति निपुन परजा को पालक 'बुधजन' को सिरताज ॥ बधाई. ॥ ३ ।। १. देखकर २. पाप ३. मिले ४. लालिमा ५. दुर्बुद्धि ६. कमल नयन ७. कहकर (अणुव्रत) ८. पंच महावत ९. मोक्ष का मार्ग १०. पार्श्वनाथ की मां ११. फूले न समाना १२. विभिन्न वर्गों के मणि चूरकर १३. एक प्रकार का बाजा १४. इन्द्र रूपी नट १५. नारकी जीव १६. सुख १७. बनारस के समीप का एक गाँव, जहां चन्द्रप्रभु का जन्म हुआ था १८. नर्तकी १९. एक बाजा २०. पूर्ण करते हैं २१. जिस प्रकार २२. तारों के बीच २३. प्रजा। For Personal & Private Use Only Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुमार गया || देखो. ॥ २ ॥ देखो नया, आज उछाव' भया ॥ चंदपुरी में महासेन घर चंद मात लखमना सुत को गजपै हरि गिरि पै आठ सहस कलसा सिर ढारे बाजे बजत सौंपि दियो पुनि मात गोद में तांडव नृत्य सो बानिक' लखि 'बुधजन' हरषै जै जै पुर में किया ॥ देखो. ॥ ५ ॥ नया || देखो. ॥ ३ ॥ थया ॥ देखो. ॥ ४ ॥ ( १७७ ) (४८०) देखो. ॥ है जया (४८१) राग - सोरठ टेक नाभिद्वार ॥ आज. ॥ टेक ॥ जनमै ऋषभ कुमार ॥ आज. ॥ १ ॥ आज तो बधाई हो मरुदेवी माता के उर मैं, सची इन्द्र सुर सब मिलि आये, नाचत हैं सुखकार । हरषि - हरषि पुर के नर नारी गावत मंगलचार ॥ आज. ॥ २ ॥ ऐसौ बालक हूवो ताकै गुन कौ नाहीं पार । तन मन बचतै बंदत 'बुधजन' है भव - तारनहार ॥ आज. ॥ ३ ॥ कवि द्यानतराय (४८२) राग - परज भाई ! आज आनंद कछु कहै न बनै ॥ टेक ॥ नाभिराय मरुदेवी नंदन, व्याह उछाह त्रिलोक भनै ॥ भाई. ॥ १ ॥ सीस मुकुट अनूपम भूषन बरनन को बरनै ॥ भाई ॥ २ ॥ गृह सुखकार रतनमय कीनो चौरी मंडप सुरगननै 'द्यानत' धन्य सुनंदा कन्या, जाको ॥ भाई ॥ ३ ॥ आदीश्वर परनै ॥ भाई ॥ ४ ॥ (४८३) राग - परज या ॥ ॥ देखो. ॥ १ ॥ ० भाई आज आनंद १. उत्साह २. लक्ष्मण ३. हुआ ४. रूप ५. कुछ कहते नहीं बनता ६. उत्साह ७. गले में ८. कौन वर्णन कर सकता है ९. देवताओं ने १०. विवाह किया। नगरी ॥ टेक ॥ For Personal & Private Use Only Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१७८) गज-गमनी' शशि-वदनी,२ तरुनी, मंगल गावत है सिगरी ॥ भाई. ॥ १ ॥ नाभिराय घर पुत्र भयो है, कियो है अजाचक' जाचक ॥ भाई. ॥ २ ॥ 'द्यानत' धन्य कूख मरुदेवी, सुर सेवत जाके पगरी ॥ भाई. ॥ ३ ॥ (४८४) कवि दौलतराम चलि सखि देखन नाभिराय घर नाचत हरि नटवा ॥ टेक ॥ अद्भुत लाल मान शुभ लय युत चवत राण' पटवा ॥ टेक ॥ चलि. ॥ १ ॥ मनिमय नूपुरादि भूषन दुति, युत सुरंग पटवा । हरिकर नखन नखन पै सुरतिय पग फेरत कटवा" ॥ चलि. ॥ २ ॥ किन्नर कर धर वीन बजावत लावत लय झटवा२ । 'दौलत' ताहि लखें चख तृपते ३ सूझत शिव पटवा ॥ चलि. ॥ ३ ॥ (४८५) बुध महाचन्द्र सिद्धारथ राजा दरबारै बजत बधाई रंग भरी हो॥ टेक ॥ त्रिसला देवी नै सुत जायो वर्द्धमान जिनराज वरी५ हो । कुण्डलपुर में घर द्वार होय रही आनंद घरी हो ॥ सिद्धारथ. ॥१॥ रत्नन की वर्षा को होते पन्द्रह मास भये सगरी हो । आज गगन दिश निरमल दीखत पुष्ट बृष्टि गंधोद झरी हो ॥ सिद्धारथ. ॥ २ ॥ जनमत जिनके जग सुख पाया दूरि गये सब दुक्ख टरी हो । अन्तर मुहूर्त नार की सुखिया ऐसो अतिशय जन्म धरी हो ॥ सिद्धारथ. ॥ ३ ॥ दान देय नृप ने बहुतेरो जाचिक जनमन हर्ष करी हो । ऐसे वीर जिनेश्वर चरणौ 'बुध'महाचन्द्र जु सीस धरी हो । सिद्धारथ. ॥ ४ ॥ (४८६) धन्य घड़ी याही धन्य घड़ी री । आज दिवस याही धन्य घड़ री॥ टेक ॥ पुत्र सुलक्ष्मण महासैन घर जायो चन्द्रप्रभु चन्द्रपुरी री ॥ धन्य. ॥ १ ॥ १. हाथी जैसी चाल २. चन्द्रमा जैसा मुख ३. युवतियाँ ४. सब ५. अयाचकों को याचक बना दिया ६. पैर ७. इन्द्र रूपी नट ८. बहती है ९. छहरस १०. वस्त्र ११. कमर का (थिरकना) १२. शीघ्र ही १३. तृप्त होना १४. बजना १५. श्रेष्ठ १६. घड़ी १७. दिखाई देता है। For Personal & Private Use Only Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७९ ) । गज के बदन' शत वदन रदन े वसु रदन पै तरवर एक करी सरवर सत पणवीस' कमलिनी- कमलिनी कमल पचीस खरी री ॥ धन्य. ॥ २ ॥ कमल पत्र शत आठ पत्र प्रति नाचत अपसरा रंग भरी री ॥ कोडि" सत्ताइस गज सजि ऐसो आकर सुरपति प्रीतिधरी री ॥ धन्य ॥ ३ ॥ ऐसो जन्म महोत्सव देखत दूरि होत सब पाप टरी री 'बुध' महाचन्द्र जिके' भवमांहि देखे उत्सव सफल परी री ॥ धन्य ॥ ४ ॥ (४८७) 1 1 I ॥ ३ ॥ बधाई आली नाभिराय घर आज ॥ टेक ॥ मरुदेवी सुत ऊपजो है आदि जिनेन्द्र कुमार इन्द्रपुरी" तैं हू भली है आज अयोध्या द्वार || बधाई. ॥ १ ॥ जन्मत सुरपति आइये हैं ले ले सब परिवार मेरुशिखर पै न्हवन कियो है क्षीरोदधि जलधार ॥ बधाई. ॥ २ ॥ रूप जिनेन्द्र निहार के है तृप्त" न हुवो सुरराय सहस्र १२ नयन तब ही रचे हैं देखन को जिनराय ॥ बधाई. नाम दियो तब इन्द्र ने हैं ऋषभ देव महाराज ॥ सौपि'३ नृपति कौं नाचिके हैं निज निज स्थान विराज ॥ बधाई. ॥ ४ ॥ बीन बांसुरी नोवत्यो" है बाजत सुन झन्कार ॥ नर नारी सब ही चले हैं देखन को जिन द्वार ॥ बधाई. ॥ ५ ॥ आधि व्याधि सबही तजे हैं तज दिये घर के काज । बालक छोड़े रोवते हैं देखन को महाराज ॥ बधाई. ॥ ६ ॥ जाचक जब बहु पोषिये हैं दान देय राजेन्द्र दी अशीस यों जिनवंद्यो ज्यों दोयज" को महाचन्द्र ॥ बधाई. ॥ ७ ॥ (४८८) रंगभीनी १६ हो ॥ देखो देखो आज बधाई समदविजै१७ शिवादेवी ने सुत नेमीश्वर प्रभू कीनी हो ॥ । इन्द्र ही नाचत इन्द्र बजावत बीन वंसी सुर झीनी हो कई सचि नाचत कई सचि गावत कई करताल बजीनी १९ हो । १. मुख २. दांत ३. हाथी ४. सौ ५. पच्चीस ६. खड़ी है ७. सत्ताइस करोड़ ८. पाप टल गये ९. जिसके १०. इन्द्रपुरी से ११. संतुष्ट १२. हजार १३. राजा को सौंपकर १४. मंगलवाद्य १५. दूज का चांद १६. आनंद युक्त १७. विजय १८. इन्द्राणी १९. बजाई । ॥टेक॥ देखो. ॥ १ ॥ देखो. ॥ २ ॥ देखो. ॥ ३ ॥ For Personal & Private Use Only Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१८०) जादव कुल आकास चन्द्रसम उपजे हर्ष नवीनी' हो ॥ देखो. ॥ ४ ॥ ऐसे हर्ष देखन में बुध महाचन्द्र मति दीणी' हो ॥ देखो. ॥ ५ ॥ १३.उत्तम नरभव (४८९-५०६) राग-कनड़ी (४८९) महाकवि बुधजन उत्तम नरभव पायकै', मति भूलै रे रामा ॥ मति भूलै ॥ टेक ॥ कीट पशू का तन जब पाया, तब तू रह्या निकामा । अब नरदेही पाय सयाने क्यों न भजै प्रभुनामा ॥ मति. ॥१॥ सुरपति याकी चाह करत उर, कब पाऊं नरजामा । ऐसा रतन पायकै भाई क्यों खोवत बिन कामा॥ मति. ॥ २ ॥ धन जोवन तन सुन्दर पाया, मगन भया लखि° भामा । काल अचानक झटक खायगा परे रहैगे ठामा ॥ मति. ॥ ३ ॥ अपने स्वामी के पद पंकज २ करो हिये विसरामा३ । मैंटि कपट भ्रम अपना 'बधजन' ज्यौं पावौ शिवधामा ॥ मति. ॥ ४ ॥ कवि भागचन्द्र राग-खमाज (४९०) सारौ५ दिन निरफल ६ खोयबौ करै छै। नरभव लहिकर प्रानी विन ज्ञान, सारौ दिन निर. ॥ टेक ॥ परसंपति लखि निज चितमाही, विरथो मूरख रोयवो"करै छै । सारौ. ॥१॥ कामानलतें जरत सदा ही, सुन्दर कामिनी जोयवो करै छै ॥ सारौ. ॥ २ ॥ जिनमत तीर्थस्थान न ठाने, जलसौं पदगल धोयवो° करै छै॥ सारौ. ॥ ३ ॥ 'भागचन्द' इमि धर्म बिना शठ. मोहनींद सोयवो२१ करै छै॥ सारौ. ॥४॥ १. नवीन २. बुद्धि ही ३.पाकर ४.भगवान ५.निकम्मा ६.मनुष्य शरीर ७.भगवान का नाम ८.इसकी ९.मनुष्य शरीर १०.स्त्री देखकर ११.स्थान, जगह १२.चरण कमल १३.विश्राम १४.दूर करके १५.सारा दिन १६.व्यर्थ १७.व्यर्थ १८.रोया करता है १९.देखा करता है २०.धोया करता है २१.सोया करता है। For Personal & Private Use Only Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१८१) (४९१) कवि भूधरदास ऐसो श्रावक कुल तुम पाय व्रथा क्यों खोवत हो ॥ टेक ॥ कठिन कठिन कर नरभव पाई, तुम लेखी' आसान । धर्म विसारि विषय में राचौ मानी न गुरू की आन || वृथा. ॥ १ ॥ चक्री एक मतंगज' पायो, तापर' ईधन ढोयो । बिना विवेक बिना मति ही को, पाय सुधा' पग धोये ॥ वृथा. ॥ २ ॥ काहू शठ चिन्तामणि पायो, मरम न जानो ताय । वायस देखि उदधि में फैंक्यो, फिर पीछे पछताय ॥ वृथा. ॥ ३ ।। सात विसन आठो मद त्यागों, करुना चित्त विचारो। तीन रतन हिरदै में धारो, आवागमन निवारो ॥ वृथा. ॥ ४ ॥ 'भूधरदास' कहत भविजनसों, चेतन अबतो. सम्हरो। प्रभु को नाम तरण तारण जपि कर्मफन्द निरवारो ॥ वृथा. ॥ ५ ॥ राग-सोरठ (४९२) भलो चेत्यो वीर नर तू भलो चेत्यो वीर ॥ टेक ॥ समुझि प्रभु के शरण आयो, मिल्यो ज्ञान बजीर ॥ तू. ॥ १ ॥ जगत में यह जन्म हीरा, फिर कहां थो४ धीर । भली वार विचार छाड्यो, कुमति५ कामिनि सीर ॥ तू. ॥ २ ॥ धन्य धन्य दयाल श्रीगुरू सुमिरि गुण गंभीर । नरक पर ६ राखि लीनो, बहुत कीनी - भीर ॥ तू. ॥ ३ ॥ भक्ति नौका लही भागनि, किलक ९ भवदधि नीर ।। ढील° अब क्यों करत, 'भूधर' पहुँच पैली तीर ॥ तू. ॥ ४ ॥ राग-ख्याल (४९३) अरे ! हां चेतो रे भाई ॥ टेक ॥ १.आसन समाया २.विषयों में लीन रहा ३.हाथी ४.उस पर ५.अमृत से पैर धोये ६.उसका ७.कौआ ८.समुद्र में ९.सात व्यसन १०.रत्नत्रय ११.जपकर १२.सावधान हुआ १३.ज्ञानरूपी मंत्री मिला १४.था १५.कुबुद्धि रूपी स्त्री का साथी १६.गिरने से १७.बचा लिया १८.भाग्य से १९.कितना २०.शिथिलता २१.पहले। For Personal & Private Use Only Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८२ ) मानुज देह लही दुलही', सुधरी उधरी सतसंगति पाई ॥ जे करनी वरनी करनी नहिं, ते समझी करनी समझाई ॥ यों शुभ थान जग्यो उर ज्ञान, विषै विषपान तृषा न बुझाई || पारस पाय सुधारस 'भूधर' भीख के मांहि सुलाज' न आई || (४९४) बालपनै न सँभार सक्यौ कछू, जानत जाहिं हिताहित ही को यौवन वैस' बसी बनता उर, कै नित राग रह्यो लक्षमी को 11 ' दोई विगोई दयो नर, डारत क्यौं नरकै निज जी को । आये हैं से" अज शठ चेत गई सुगई अब राख रही को 11 (४९५) को ११ सार नर देह सब कारज यह तौ विख्यात बात वेदन मैं तामैं तरुनाई ३ धर्म सेये तब विषै, मोहमद भोये १६ जैसे जोग बँचै १२ सेवन की मधु माखी १५ रामाहित' रामाहित१७ रोज रोये यौं ही दिन खोये अरे सुन बौरे १९ सावधान हो रे नरं नरक सौं अब समै१४ भाई धन खाय को दौ जिम १८ मैच है येह रचै हैं ! आये सीस धौरे २० बचे है है ॥ उर अंतर तगाहित अौं । (४९६) .२४ - २५ बाय२१ लगी की बलाय लगी, मदमत्त २ भयौ नर भूलत त्यौं ही । बृद्ध भयै न भजै२३ भगवान विषै-विष सीस भयौ बगुला सम सेत रह्यो मानुष २८ भौ मुकताफलहार २९ खात अघात न क्यों ही २६ २७ गवाँर अरे. ॥ १ ॥ अरे. ॥ २ ॥ अरे. ॥ ३॥ ॥ ४ ॥ अरे For Personal & Private Use Only श्याम अजौं ही । तोरत यौं ही ॥ १.दुर्लभ २.कही ३.वह करनी नहीं है ४. भिक्षा में ५. शर्म ६. उम्र ७.स्त्री ८.बालपन और यौवन ९.नष्ट कर दिये १०. अवसर, मौका ११. कार्य के योग्य १२. बढ़ा है १३. जवानी १४. समय १५. मधुमक्खी १६. भूल गये १७. धन और स्त्री के लिए १८. जिस प्रकार १९. बावले २०. सफेद २१. वायु, हवा २२. मतवाला २३. भजन करना २४. विषय रूपी विष २५ . तृप्त नहीं होता २६. सिर वगुला की तरह सफेद हो गया २७ हृदय आज भी काला है २८. मनुष्य भव २९. मोतियों का हार ३०. धागा के लिए । Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१८३ ) (४९७) से जाकौं इन्द्र चाहैं अहमिंद्र जीव मुक्त माहैं जाय भौमल ऐसौ नरजन्म पाय विषैरे विष जैसे काच सांटें मूढ़ मानक' माया नदी बूड़ भींजा काया बल तेज छीजा गमावै है अब कहा बनि आवै है ॥ नीचे नैन किये डोले. बदन दुरावै" है आया पन तीजा' तानै निज सीस ढोलै कहावदि बोलै बृद्ध उमाहै' जासौ, वहावै है खाय खोयौ, (४९८) महाकवि द्यानतराय नहिं ऐसा जनम बार बार ॥ टेक ॥ कठिन" कठिन लह्यो मनुज भव, विषय भजि मतिहार ॥ नहिं ॥ १ ॥ पाय चिन्तामन रतन शठ १४, छिपत उदधि मँझा अंध हाथ बटेर आई तजत ताहि गँवार ॥ नहिं. ॥ २ ॥ कबहुँ नरक तिरजंच कबहुं कबहुं सुरगविहार । जगतमाहिं चिरकाल भमियो", दुलभ नर अवतार ॥ नहीं. ॥ ३ ॥ पाय अमृत पांये १६ धोवै, कहत सुगुरू पुकार । तजो विषय कषाय 'द्यानत', ज्यों लहो भवपार ॥ नहिं ॥ ४ ॥ (४९९) नहिं वृथा गमावे, सहसा नहि पावे मनुज जन्म को ॥ टेक मानुज जन्म निरोगी काया, उर विवेक चतुराई धर्म अधर्म पिछान किये बिन काम कछू नहि आई जी जिनवर धर्म दिगम्बर ताको, यदि उर धरनो भाई तो आगम अनुसार देव गुरू तत्व परखि" सुखदाई 11 १. उमंगित होना २. भव का मैल ३. विषय रूपी विष ४. चिपकाता है ५. मणि खो देता है ६. भीग गया ७.छय हो गया ८. बुढ़ापा ९. व्यंग्य वाण १०. छिपाता है ११. मुश्किल से १२. विषयों का सेवन करे १३. बुद्धि भ्रष्ट होना १४. मूर्ख १५. भटका १६. पैर धोता है १७. पहचान १८. परख । For Personal & Private Use Only ॥ नहिं ॥ १ ॥ 1 ॥ नहिं ॥ २ ॥ Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१८४) कवि जिनेश्वरदास (५००) रेखता जिनधर्म रत्न पायके, स्वकाज ना किया। नर जन्म पायके वृथा, गमाय' क्यों दिया ।।टेक ॥ अरहंत देव सेव सर्व सुक्ख की मही', तजके बुधी कुदेव की आराधना गही। पण अक्ष तो परतच्छ, स्वच्छ ज्ञान को हरैं । इनमें रचे कुजीव जे, कुजोनि' मैं परै ॥ जिनधर्म. ॥१॥ परसंग के परसंगतै० परसंग ही किया । तजके सुधा स्वरूप को जलक्षार२ ही पिया । जिन धर्ममद मोह काम लोभ की झकोर में परो । तज इनको ये बैरी बड़े लखि ३ दूर से डरो ॥जिनधर्म. ॥ २ ॥ हिरदै४ प्रतीत कीजिए, सुदेव धर्म की । तजि राग द्वेष मोह, ओ कुटेव कर्म की ॥ सजि वीतराग भाव जो स्वभाव आपना । विधि५ बंध फंद के निकंद भाव आपना ॥ जिनधर्म. ॥ ३ ॥ मन का६ मता निरोध, बोध७ सोध लीजिए। तजि पुण्य पाप बीज , आप खोज कीजिए । सधर्म का यह भेव श्री गुरु देव ने कहा । शिववास काज यों ‘जिनेशदास' ने गला ॥ जिनधर्म. ॥ ४ ॥ रेखता (५०१) रत्नत्रय धर्म हितकारी, सुगुरु ने यो बताया है । मिलै ना दाव' फिर ऐसा वक्त यह हाथ आया है ॥ टेक ॥ सुकुल° नर जन्म मुश्किल है, नहीं हर बार पाता है । सुसंगति ज्ञान उत्तम क्या हमेशा हाथ आता है ॥रत्नत्रय. ॥ १ ॥ १.अपना काम २.खोकर ३.पृथ्वी ४.बुद्धि ५.ग्रहण की ६.पांचों इन्द्रिया ७.प्रत्यक्ष ८.खोटीयोनि ९.परिग्रह १०.प्रसंग को ११.दूसरों का साथ १२.खाराजल १३.देखकर १४.हृदय में १५.कर्मबंध १६.मर की चंचलता १७.ज्ञान प्राप्त कीजिए १८.भेद १९.मौका २०.अच्छा कुल । For Personal & Private Use Only Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१८५) सुभग' जिनदेव का पाना, सुरुचि जिनधर्म की आना । स्वपर विज्ञान मनमाना मिलै यह मुसकिल से बाना ॥ रत्नत्रय. ॥ २ ॥ अरे नर दाव यह पाया, कहा विषयनि मैं ललचाया । सुधारस छोड विष खाया, रतन तजि कांच' मनभाया । गमाओ वक्त मत प्यारे, तजो ये भोग अहितकारे । जिनेश्वर वचन ये धारे, जिन्हों को मिलते सुख सारे ॥ रत्नत्रय. ॥ ४ ॥ (५०२) पद-ख्याल श्रावक कुल पायो, अपने क्यों इष्ट गमायो' धर्म को ॥ टेर ॥ श्रावक धर्म पंचं परमेष्ठी इष्ट कह्यो भगवान । जिनको नाम धाम बिन जाने, मूरख करन गुमान जी ॥ श्रावक. ॥ १॥ अपने अपने इष्ट देव को सबही पूजै ध्यावै । इष्ट तज्यौ सो नर या जग में, पापी ही कहलावैं जी ॥ श्रावक. ॥२॥ परम सुगुरू उपदेश शास्त्र को, हिरदै मैं नहि आयो । बाल ख्याल मदमोह जाल में, यो ही जन्म गुमायो जी ॥ श्रावक. ॥ ३ ॥ मूल बिना फल फूल लगै ना, यो सतगुरू समझावे । जो वेश्या का पूत होय सो, बाप किसे बतलावै जी ॥ श्रावक. ॥ ४ ॥ शीलवती पतिवरता१ नारी, निज पति ही को चावै२ । कैसो ही दुख क्यों न परै वह व्रत अपनो न गमावै जी ॥ श्रावक. ॥ ५ ॥ ये दृष्टांत जानकर अपने मन में आप विचारो। राग द्वेष को त्याग 'जिनेश्वर' आज्ञा उर में धारो जी ॥श्रावक. ॥ ६॥ (५०३) पद-राग ख्याल मति वृथा गमावै, सहसा नहि पावै, मानुज जन्म को ॥ टेर ॥ मानुज जन्म निरोगी काया, उर विवेक चतुराई । धर्म अधर्म पिछान किये विन काम कछू नहि आई जी ॥ मति. ॥ १ ॥ जिनवर धर्म दिंगवरता को, यदि उर धरनो भाई । १.सुन्दर २.कांच मन को अच्छा लगा ३.हानि कारक ४.बहुत से सुख ५.खोता है ६.घमंड ७.आराध्य ८.अज्ञानतावश ९.इस प्रकार १०.पुत्र ११.पतिव्रता १२.चाहती है १३.पहचान १४.दिगंबरत्व । For Personal & Private Use Only Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१८६) तौ आगम' अनुसार देवगुरू तत्व पर सुखदाई जी॥ मति. ॥ २ ॥ खान पान अरु विषय भोग के सेवन की चतुराई । कूकर' शूकर पशु भी करते यामें कहा बड़ाई जी ॥ मति. ॥ ३ ॥ क्षण भंगुर विषयनि के काजै निर्भय पाप कमावै । हे नर करत कहा अनरथ यह शुभ शिक्षा न सुहावै जी ॥ मति. ॥ ४ ॥ बहुविधि पाप करत हरखावै सब कुटुंब मिल खावै । दुख पावै जप नरक धारा में कोईय न काम जु आवैजी ॥ मति. ॥ ५ ॥ मानुज देह रतन समपाकर जो निजहित करवावै । कहत 'जिनेश्वर' सो नरभव के, धारन को फल पावै जी ॥मति. ॥ ६ ॥ श्रीमद् राजचंद्र (५०४) राग-यमन कल्याण अमूल्य तत्त्व विचार ! वह पुण्य-पुंज'-प्रसंग से शुभ देह मानव का मिला । तो भी अरे ! भवचक्र'' का फेरा न एक भी टला २ । सुख प्राप्ति हेतु प्रयत्न करते सुक्ख जाता दूर है । तू क्यों भयंकर-भाव मरण-प्रवाह में चकचूर है ॥ लक्ष्मी ३ बढ़ी अधिकार भी, पर बढ़ गया क्या बोलिए। परिवार और कुटुम्ब है क्या बुद्धि? कुछ नहि मानिये ॥ १ ॥ संसार का बढ़ना अरे ! नरदेह की यह हार है । नही एक क्षण तुझको अरे ! इसका विवेक विचार है । निर्दोष सुख निर्दोष आनंद लो जहां भी प्राप्त हो । यह दिव्य अन्तस्तत्व' जिससे बंधनों से मुक्त हो ॥२॥ परवस्तु में मूर्च्छित न हो, इसकी रहे मुझको दया । वह सुख सदा ही त्याज्य रे ! पश्चात् जिसके दुख भरा ॥ मैं कौन हूं आया कहाँ से और मेरो रूप क्या ? सम्बन्ध दुखमय कौन है ? स्वीकृत करूं परिहार" क्या ? ॥३॥ १.शास्त्रों के अनुसार २.कुत्ता ३.सूअर ४.अनर्थ ५.अच्छा लगना ६.प्रसन्न होता है ७.पृथ्वी पर ८.करवाता है ९.मनुष्य भव धारण करने का फल पाता है १०.पुण्योदय से ११.संसार चक्र १२.दूर होना १३.धन बढ़ा १४.पराजय १५.आत्मा १६.बाद में १७.स्वरूप १८.त्याज्य । For Personal & Private Use Only Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१८७) इसका विचार विवेक पूर्वक शांत होकर कीजिए । तो सर्व आत्मिक ज्ञान में, सिद्धांत का रस पीजिए । किसका क्या उस तत्व की उपलब्धि में शिवभूत' है । निर्दोष नर का वचन रे ! वह स्वानुभूति प्रसूत है ॥४॥ तरो अरे तारो निजात्मा' शीघ्र अनुभव कीजिए । सर्वात्म में समदृष्टि द्यो, यह बच हृदय लिख लीजिये ॥ ५ ॥ (५०५) जगत में आयो न आयो, नाहक जन्म गमायो ॥ टेक ॥ मात उदर नव मास वस्यो तें, अंग सकुच दुख पायो । जठर' अग्नि की ताप सही नित, अधो शीश लटकायो । निकसि अति रुदन करो ॥ जगत. ॥१॥ बालपने में बोध विवर्जित', मात पितादि लड़ायो । तरुण भयो तरुणी रस राच्यो काम भोग ललचायो ॥ दुख संचै को धायो॥ जगत. ॥२॥ बिरध भयो बल पौरुष थाक्यो, बाढ्यो मोह सवायो २ ।। दृष्टि ३ घटी पलटी तन की छवि, डो डों बिलखायो कुटुम न काम में आयो ॥ जगत. ॥ ३ ॥ देव धरम, गुरू भेद न जान्यो, अमृत तज बिष खायो । कौड़ी एक कमाई नाही, गांठ'४ को मूल गमायो । चेत, चित लेख सुनायो ॥ जगत. ॥४॥ कवि द्यानतराय (५०६) राग-विहागरा जिया तें आतम५ हित नहिं कीना॥ टेक ॥ रामा ६ धन धन कीना, नरभव फल नहिं लीना ॥ जिया तै. ॥ जप तप करके लोक रिझाये, प्रभुता के रस मीना । अन्तर्गत परिणाम न साधे, एको गरज सरीना ॥ जिया तै. ॥१॥ १.कल्याणकारी २.अपने अनुभवों से उत्पन्न ३.अपनी आत्मा ४.व्यर्थ ५.पेट की आग ६.नीचे सिर करके लटका ७.रोना ८.रहित ९.धनजमा करने दौड़ा १०.वृद्ध हुआ ११.थक गया १२.सवा गुना १३.आंख की ज्योति कम हो गई १४.गांठ का मूल धन खो दिया १५.आत्मकल्याण १६.स्त्री १७.धन सम्पति १८.खुश किये १९.हृदय के। For Personal & Private Use Only Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१८८) बैठि सभा में बहु उपदेशे, आप भये पर वीना। ममता डोरी तोरी नाही उत्तम तैं भय हीना' ॥जिया तै. ॥ २ ॥ 'द्यानत' मन बच काय लायकै निज अनुभव चितदीना ।। अनुभव-धारा ध्यान विचारा, मंदिर कलश नवीना ॥ जिया तै. ॥ ३ ॥ १४. होली (पद ५०७-५१९) (५०७) राग-असावरी जोगिया जल्द तेतालो चेतन खेल सुमति संग होरी ॥ चेतन ॥ टेक ॥ तोरि' आनि की प्रीति सयाने भली बनी या जौरी ॥ चेतन. ॥ १॥ डगर डगर डोले है यौँ ही, आव आपनी पौरी । निज रस फगुवा क्यों नहि बांटो नातर ख्वारी तोरी ॥ चेतन. ॥ २ ॥ छार१ कषाय त्यागि या गहिलै१२ समकित केसर घोरी । मिथ्या पाथर१३ डारि" धारि लै,५ निज गुलाल की झोरी ॥ चेतन. ॥ ३ ॥ खोटे भेष धरै डोलत है दुख पावै बुधि भोरी६ । 'बुधजन' अपना भेष सुधारो ज्यों विलसो शिवगोरी ॥ चेतन. ॥ ४ ॥ (५०८) और सबै मिलि होरि रचावें हूं काके ८ संग खेलौगी होरी ॥ टेक ॥ कुमति हरामिनि ज्ञानी पियापै लोभ मोह की डारी ठगौरी२° । भोरै झूठ मिठाई खबाई खोसि२१ लये गुन करि बरजोरी२२ ॥ काके. ॥१॥ आपहि तीन लोक के साहिब कौन करै इनके सम जोरी । अपनी सुधि कबहूं नहिं लेते, दास भये डोले पर पोरी ॥ काके ॥ २ ॥ गुरु 'बुधजन तें' सुमति कहत है, सुनिये अरज२२ दयाल सु मोरी । हो हा करत हूं पांय परत हूं चेतन पिय कीजे मो ओरी ॥ काके ॥ ३ ॥ (५०९) निजपुर आज मची होरी ॥ निजपुर ॥ टेक ॥ १.नीच २. होली ३. तोड़कर ४. जोड़ी ५. गली-गली ६. ड्योढ़ी ७. फाग ८. अन्यथा ९. वरवादी १०. तोड़ी ११. छोड़कर १२. ग्रहण करले १३. पत्थर १४. डाल कर फेंककर १५. धारण कर ले १६. भोली १७. मोक्ष १८. किसके १९. हरामी २०. ठगाई २१. छीन लिये २२. जबरदस्ती २३. प्रार्थना २४. मेरी तरफ । For Personal & Private Use Only Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१८९) उमंगि चिदानंद जी इत' आये इत आई सुमती गोरी ॥ निजपुर. ॥ १ ॥ लोक लाज कुलकानि' गमाई ज्ञान गुलाल भरी झोरी ॥ निजपुर. ॥२॥ समकित केसर रंग बनायो, चारित की पिचुकी छोरी" ॥ निजपुर. ॥ ३ ॥ गावत अजपा ज्ञान मनोहर अनहद झरसौ वरस्यो री ॥ निजपुर. ॥ ४ ॥ देखन आये 'बुधजन' भीगे, निरख्यो ख्याल अनोखो री ॥ निजपुर. ॥ ५ ॥ (५१०) अब घर आये चेतनराय, सजनी खेलौंगी मैं होरी ॥ टेक ॥ आरसं सोच कानि कुल हरिकै, धरि धीरज बरजोरी । अब. ॥ १ ॥ बुरी कुमति की बात न बूझै, चितवत है मो ओरी ॥ बा गुरुजन की बलि बलि जाऊँ दूरि करी मति भोरी ॥ अब. ॥ २ ॥ निज सुभाव जल हौज भराऊं घोरं निजरंग कोरी । निज़'२ ल्यों ल्याय३ शुद्ध पिचकारी थिरकन" निज मति दोरी ॥ अब. ॥ ३ ॥ गाय५ रिझाय आप वश करिकै, जावन धौ नहि पोरी । 'बुधजन' रचि मंचि रहूं निरंतर शक्ति अपूरव मोरी ॥ अब. ॥ ४ ॥ कवि भागचंद (५११) जे सहज ६ होरी के खिलारी, तिन जीवन की बलिहारी ॥टेक ॥ शांत भाव कुंकुम रस चन्दन भर ममता पिचकारी । उड़त गुलाल निर्जरा संवर अंवर पहरै भारी ॥ जे. ॥ १ ॥ सम्यक दर्शनादि संग लैके,८ परम सुखकारी । भींज रहे निज ध्यान रंग में सुमति सखी प्रिय नारी ॥ जे. ॥ २ ॥ कर स्नान ज्ञान जल में पुनि, विमल गये शिवचारी ।। 'भागचन्द' तिन प्रति नित वंदन भाव समेत हमारी ॥जे. ॥ ३ ॥ (५१२) । सहज अबाध२° समाध२१ धाम तहाँ, चेतन सुमति खेलै होरी ॥ टेक ॥ निज गुन चंदन मिश्रित सुरभित२२ निर्मल कुंकुम रसघोरी२३ । १. इधर २. कुल की इज्जत ३. झोली ४. पिचकारी ५. छोड़ी ६. न - जपा अजपा ७. अद्भुत ८. आत्मा ९. आलस १०. भोली ११. घोलूं १२. अपने तक १३. लाकर १४. छिड़कना १५. गाकर १६. स्वाभाविक, सरल १७. वस्त्र १८. लेकर १९. मोक्ष गामी २०. बिना बाधा २१. समाधि २२. सुगंधित २३. रस घोला । For Personal & Private Use Only Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१९०) समता पिचकारी अति प्यारी भर जु चलावत चहुँ ओरी ॥ चेतन. ॥१॥ शुभ संवर सु अबीर आडंबर' लावत भर भर कर जोरी । उड़त गुलाल निर्जरा निर्भर, दुखदायक भवथिति होरी ॥ चेतन. ॥ २ ॥ परमानंद मृदंगादिक धुनि, विमल विराग भाव घोरी । 'भागचंद' दृग-ज्ञान-चरन भय परिनत अनुभव रंग बोरी ॥ चेतन. ॥ ३ ॥ कवि द्यानतराय __ (५१३) चेतन खेलै होरी ॥ टेक॥ सत्ता भूमि छिमा बसन्त' में समता प्रान प्रिया संग गोरी ॥ चेतन. ॥ १ ॥ मन को माट प्रेम को पानी तामे करुणा केसर घोरी । ज्ञान ध्यान पिचकारी भरि भरि आपमें छौरै होरा होरी ॥ चेतन. ॥ २॥ गुरु के वदन मृदंग बजत है, नय दोनों डफ ताल टकोरी । संजम अतर विमल व्रत चोवा,२ भाव गुलाल भरै भर झोरी ॥ चेतन. ॥ ३ ॥ धरम मिठाई तप बहु मेवा, समरस आनंद अमल कटोरी । ‘द्यानत' सुमति कहै सखियन सों चिरजीवो यह जुग जोरी ॥ चेतन. ॥ ४ ॥ (५१४) आयो सहज वसन्त खेलें सब होरी होरा ॥ टेक ।। उत३ बुधि दया छिमा बहु ठाढी इत जिय रतन सजै गुनजोरी ॥ आयौ. ॥ १ ॥ ज्ञान ध्यान डफ ताल बजत है अनहद शब्द होत घनघोरा" ॥ धरम सुराग गुलाल उड़त है, समता रंग दुहुने घोरा ॥ आयो. ॥२ ।। परसन ८ उतर भरि पिचकारी, छोरत दोनों अरि करि° जोरा । इततै२९ कहै नारि तुम काकी,२२ उतसै कहै कौन को छोरा२३ ॥ आयो. ॥ ३ ॥ आठ काठ अनुभव पावक में जल बुझ शांत भई सब ओरा । 'द्यानत' शिव आनंद चन्द छवि देखें सज्जन नैन चकोरा ॥ आयो. ॥ ४ ॥ १. ढोंग २. सम्यक्दर्शन ज्ञान चारित्र ३. क्षमा रूपी वसन्त ४. बड़ी मटकी ५. उसमें ६. छोड़ता है ७. मुख ८. व्यवहार नय निश्चय नय ९. डफली १०. चोट ११. इत्र १२. चंदन १३. उधर १४. गुणों की जोड़ी १५. भयंकर १६. अच्छा राग १७. घोला १८. स्पर्श १९. छोड़ते हैं २०. जोर लगाकर २१. इधर को २२. किसकी २३. लड़का २४. अष्टकर्म । For Personal & Private Use Only Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१९१) (५१५) राग - काफी होरी मेरो मन ऐसी खेलत होरी ॥ टेक ॥ मन मदंग साज कर त्यारी, तन को तमूरा बनोरी । सुमति सुरंग सरंगी बजाई ताल दोउ कर जोरी ॥ राग पांचौं पद कोरी ॥ मेरो. ॥१॥ समकित रूप नीर भरि झारी' करुणा केशर घोरी । ज्ञानमयी लेकर पिचकारी दोउ कर मांहि सम्होरी। इन्द्रिय पांचौ सखि बोरी ॥ मेरो. ॥२॥ चतुर दान' को है गुलाल सों, भरि-भरि मूठ चलो री तप मेवा की भरि निज झोरी यश को अबीर उड़ोरी रंग जिनधाम मचौ री ॥ मेरो. ॥३॥ 'दौलत' बाल खेलें ऐसी होरी भव-भव दुख टलौरी । शरणा ले इक जिनवर को री जग में लाज हो तोरी। मिले फगुवा शिवगोरी ॥ मेरो. ॥४॥ (५१६) राग काफी ज्ञानी ऐसी होरी मचाई राग कियो विपरीत विपत घर कुमति कुसौति सुहाई ॥ टेक ॥ धार दिगंवर कीन्ह सुसंवर' निज-पर भेद लखाई । घात'२ विषयनि की बचाई ॥ ज्ञानी. ॥१॥ कुमति सखा भजि ध्यान भेद सम तन में तान उड़ाई । कुम्भक'३ ताल मृदंग सौं पूरक रेचक' बीन बजाई । लगन५ अनुभौ६ सौ लगाई॥ ज्ञानी. ॥२॥ कर्म बलीता रूप नाम अरि वेद सु इन्द्रि गनाई । दे तप अग्नि भस्म करि तिन को धूल अघाति उड़ाई ॥ करि शिवतिय की मिलाई१९॥ ज्ञानी. ॥३॥ १. तम्बूरा (एक वाद्य यन्त्र), २. सम्यक्त्व ३. जल का बर्तन (सुराही, घड़ा) ४. सम्हाली ५. दान रूपी गुलाल ६. यश रूपी अबीर ७. बालक ८. मोक्ष ९. प्रेम १०. खोटी सौत ११. कर्मों का आगमन रोकना १२. चोट १३-१४. प्राणायाम की क्रियायें १५. प्रेम १६. अनुभव १७. बत्ती १८. इन्द्रियों गिनाई १९. मिलना। For Personal & Private Use Only Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १९२ ) ज्ञान को फाग भाग वश आवै, लाख करो चतुराई । गुरु दीनदयाल कृपा करि 'दौलत' तोहि बताई 11 नहिं चित से विसराई II ज्ञानी. 118 11 (५१७) कवि बनारसीदास रंग भयो जिन द्वार चलो सखि खेलन होरी ॥ टेक ॥ सुमति सखि सब मिलकर आओ, कुमति न देऊ' निकार केशर चंदन और अरगजा, समता भाव धुपाय भयो. समता भाव धुपाय ॥ चलो सखि ॥ रंग दया मिठाई तप बहु मेवा सत ताँबूल' अष्ट कर्म की डोरि बंधी है ध्यान अग्नि सु जलाय ॥ ध्यान अग्नि सु जलाय चलो सखि || रंग भयो . गुरु के वचन मृदंग बजत हैं ज्ञान क्षमा डफ ' ताल । कहत ‘बनारसि' या होरी खेलो मुक्तिपुरी को राज मुक्तिपुरी को राज || चलो सखि ॥ रंग भयो. ॥ २ ॥ 11 ॥ ३ ॥ चवाय । (५१८) कवि कुंजीलाल राग पीलू ठेका दीपचंदी खेलत फाग' महामुनि वन में स्वातम रंग सदा सुख दाई ॥ टेक ॥ अष्ट कर्म की रचत होलिका, ध्यान धनंजय' ताहि जराई राग द्वेष मोहादिक कंटक भस्म किये चिर शांति उपाई " खेलत फाग महामुनि. .१२ मार्दव आर्जव, सत्यादिक मिल दया क्षमा संग होरी मचाई मन मृदंग तम्बूरा तन का, डुलन" डोरि" कसि तंग कराई खेलत फाग महामुनि. सुरति सरंगी की धुनि गाजै, १३ मधुर बचन बाजत शहनाई ज्ञान, गुलाल भाल पर सोहै, परम अहिंसा अबीर उड़ाई 1 ॥ ॥ १ ॥ For Personal & Private Use Only 11 ॥ १ ॥ 1 11 2 11 1 १. निकाल दो २. धूप देना ३. पान ४. चबाकर ५. डफली ६. होली ७. अपनी आत्मा ८. आग ९. जला दिया १०. उत्पन्न की ११. डोलना १२. रस्सी १३. गूंजना १४. मस्तक । 11 Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१९३) ॥४ ॥ खेलत फाग महामुनि. क्षमा रंग छिड़कत भविजन पर प्रेम रंग पिचकारी चलाई मोक्ष महल के द्वार फाग लखि, सेवक 'कुंज' रहे हंसाई' खेलत फाग महामुनि. __ (५१९) राग - काफी होली चेतन राज किशोरी, सुमति संग खेलत होरी । लोभ लाख के कुयश कुंकुमा' अपरे अबीर भरि कोरी ॥ मिथ्यात्वन के मुख पर मारत, कीच कालिमा घोरी ॥ वासना विषय मरोरी ॥ चेतन. ॥१॥ ज्ञान गुलाल भाल पर राजत सुगुन कुसुम रंग घोरी । प्रेम भई पिचकारी में भर छिरंक रहे चहुँ ओरी ॥ करे आनंद किलोरी ॥ चेतन. ॥२॥ मन मृदंग धुनि मधुर दुंदुभी, बाजत वीन बसोरी । शांति क्षमा दीक्षा मिलि गावत स्वातम रंग सवोरी ॥ मोक्ष मंदिर के ओरी॥ चेतन. ॥३॥ सुगुन सुधारक रिमिझिमि बरसे शीतल पवन झकोरी । 'कुंज' भये हर्षित सब मन में, चेतन समता गोरी ॥ शांति छाई चहुँ ओरी ॥ चेतन. १५. भोग-विलास (पद ५२०-५२९) महाकवि बुधजन (५२०) राग - सोरठ मति' भोगन २ राचौ ३ जी, भव-भव में दुख देत घना ॥ मति. ॥ टेक ॥ इनके कारन गति-गति मांही, नाहक'५ नाचौ जी ।। झूठे सुख के काज धरममैं पाडौ खांचो'६ जी ॥ मति. ॥ १॥ ॥४ ॥ १. प्रसन होना २. कुंकुम ३. पाप ४. मरोड़ दी ५. चारों तरफ ६. किल्लोल ७. बांसुरी ८. हवा के झकोरे ९. प्रसन्न १०.रों तरफ ११. मत १२. भोगों में १३. लीन होओ १४. बहुत अधिक १५. व्यर्थ १६. अन्तर । For Personal & Private Use Only Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१९४) पूरब कर्म उदय सुख आया राजौ' माचौ जी । पाप उदय पीड़ा भोगन मैं क्यों मन काचौ' जी ॥ मति. ॥ २ ॥ सुख अनन्त के धारक तुम ही, पर क्यों जांचौ जी। 'बुधजन' गुरु का वचन हिया मैं जानो सांचो जी ॥ ३ ॥ __ (५२१) राग - सोरठ मौगांरा लोभीड़ा, नरभव खोयो रे अजान । मौगांरा. ॥ टेक ॥ धर्म काज कौ कारन थौ यौ सो भूल्यों तू बान । हिंसा अनृत परितय चोरी, सेवत निजकरि जान ॥मौगांरा. ॥१॥ इन्द्रिय सुख सै मगन हुवौ तू परको आतम मान । बंध नवीन पड़े छै या” होवत मोटी हान ॥ मौगांरा. ॥२॥ गयौ न कछु जो चेतौ 'बुधजन' पावो अविचल थान । तन है जड़ तू दृष्टा ज्ञाता, करलै यों सरधान ॥मौगांरा. ॥ ३ ॥ कवि भागचंद (५२२) राग - सोरठ आवै न भोगन में तोहि गिलान३॥ टेक ॥ तीरथ ४ नाथ भोग तजि दीने, तिन” मन भय आन । तू तिनतै कहुं डरपत" नाहीं, दीसत अति बलवान ॥ आवै. ॥१॥ इन्द्रिय तृप्ति काज तू भोगै, विजय महा अघखान" । सो जैसे घृतधारा" डारै पावक ज्वाल बुझान ॥ आ. ॥२॥ जे सुख तो तीछन दुख दाई, ज्यों मधु लिप्त-कृपान । तातें भागचन्द' इनको तजि आत्म स्वरूप पिछान ॥ आ. ॥३॥ कवि जिनेश्वर (५२३) सुगुरु कृपा कर यों समझावै, १. खुश हुआ २. कच्चा ३. मांगना ४. हृदय ५. भोगों का भोगी ६. अज्ञानी ७. था ८. यह ९. पर स्त्री १०. अपना समझना ११. नया कर्म बंध होता है १२. बड़ा नुकसान होता है १३. ग्लानि १४. तीर्थकर १५. डरना १६. दिखाई देता है १७. पापों की खान १८. घी की धारा १९. तीक्ष्ण २०. शहद लिपटी हुई तलवार २१. पहचान । For Personal & Private Use Only Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१९५) इन विषयन में मत राचैं ये चहुँगति भरमावै ॥ सुगुरु. ॥ टेक ।। सपरस वस गज मीन रसनवस कंटक' कंठ छिदावै । नासा बस अलि कमल बंध में परत महादुख पावै ॥ सुगुरु. ॥ १ ॥ चक्षु विषय बस दीप शिखा में अंग पतंग तपावै । करन विषय वस हिरन अरन में नाहक प्राण गमावै ॥ सुगुरु. ॥ २ ॥ विषयन के वस हिंसा चोरी, झूठ कुशील कहावै । परधन परकामिनि लोभी परिग्रह में चित लावै ॥ सुगुरु. ॥ ३ ।। इनही के वस मिथ्या परनति, करत महादुख पावै। याही २ नै जगमांहि ‘जिनेश्वर' मिथ्या विषय छुड़ावै ॥ सुगुरु. ॥ ४ ॥ कवि दौलतराम (५२४) विषयोंदा३ मद मानै, ऐसा है कोई वे॥ टेक ॥ विषय दुःख अर दुःखफल तिनको, यौं नितचित न ठानै ॥ विषयोंदा. ॥ १ ॥ अनुपयोगि उपयोगि स्वरूपी, तन चेतन को मानै ॥ विषयोंदा. ॥ २ ॥ वरनादिक'४ रागादिक भावः भिन्न रूप तिन जानै ॥ विषयोंदा. ॥ ३ ॥ स्वपर जान रूप राग हान, निजमैं निज परिनति सानै ॥ विषयोंदा. ॥ ४॥ अन्तर बाहर को परिग्रह तजि, 'दौल' वसै शिवथानै ॥ विषयोंदा. ॥ ५ ॥ कवि भागचंद (५२५) हरी ६ तेरी मति नर कौन हरी तजि चिन्ता ममत कांच गहत शठ ॥ टेक ॥ विषय कषाय रुचत तोकौं नित, जे दुख करन अरी ॥ हरी ॥१॥ सांचे मित्र सुहितकर श्रीगुरु, तिनकी सुधि विसरी॥ हरी. ॥ २ ॥ पर परनति में आपो मानत, जो अति विपति भरी॥ हरी. ॥ ३ ॥ 'भागचन्द' जिन राज भजन कहुँ करत न एक घरी ॥ हरी. ॥ ४ ॥ १. लीन मत होओ २. भ्रमण करता है ३. स्पर्श ४. रसना, जीभ ५. कांटा ६. भौरा ७. कर्ण, कान ८. जंगल ९. व्यर्थ १०. कहलाता है ११. पर स्त्री १२. इसी से १३. विषयों का १४. वर्ण आदि १५. द्वेष १६. हरण करती १७. अच्छी लगती है १८. भुलदी १९. घड़ी। For Personal & Private Use Only Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१९६) कवि भूधरदास (५२६) तू नित चाहत भोग नये नर पूरव पुन्य बिना किम पै है । कर्म संयोग मिलै कहिं जोग, गहै तब रोग न भोग सकै है ॥ जो दिन चार को व्योंत बन्यौ कहुँ तो परि दुर्गति में पछित है । यौं हित यार सलाह यही कि “गईकर जाहु" निवाह न है ॥ (५२७) गुरु कहत सीख इमि बार-बार, विषसम विषयन को टार टारं ॥ टेक ॥ इन सेवत अनादि दुख पायो, जनम मरन बहु धार धार ॥ गुरु. ॥१॥ कर्माश्रित बाधाजुत फांसी, बन्ध बढ़ावन द्वन्दकार ॥ गुरु. ॥ २ ॥ ये न इन्द्रि के तृप्ति हेतु जिमि, तिसन बुझावत क्षार २ बार ॥ गुरु. ॥ ३ ॥ इनमें सुख कलपना अबुध के 'बुधजन' मानत दुख प्रचार ॥ गुरु. ॥४॥ इन तजि ज्ञान पियूष ३ चख्यौ तिन, 'दौल' लही भववार" पार ॥ गुरु. ॥ ५ ॥ कवि बुध महाचंद्र (५२८) विषय रस खारे, इन्हें छाड़त क्यों नहि जीव । विषय रस खारे ॥ टेक ॥ मात तात नारी सुत बांधव मिल तोकू५ भरमाई । विषय भोग रस जाय नर्क तूं तिलतिल६ खण्ड लहाई ॥ विषय. ॥१॥ मदोन्मत्त वस मरने कू कपट की हथनी बनाई । स्पर्शन इन्द्रिय बसि होके आय पड़त गज खाई॥ विषय. ॥ २॥ रसना के बसि होकर मांछल८ जाल मध्य उलझाई । भ्रमर कमल२° बिच मृत्यु लहत है विषय नासिका पाई ॥ विषय. ॥ ३ ॥ दीपक लोय जरत, नैनूर बसि मृत्यु पतंग लहाई । कानन२२ के बसि सर्प हाय के पीजर मांहि रहाई ॥ विषय. ॥ ४ ॥ विष२३ खायें ते इक भव मांहि दुख पावै जीवाई । विषय जहर खाये तैं भव भव दुख पावै अधिकाई ॥ विषय. ॥ ५ ॥ १. कैसे पायेगा २. योग ३. पछतायेगा ४. शिक्षा ५. इस प्रकार ६. टाल दो ७. धारण करके ८. बन्ध बढाने वाली ९. द्वंद्व करने वाली १०. जिस प्रकार ११. तृष्णा १२. खारा पानी १३. अमृत १४. संसार को पार १५. तुझको १६. तिल के बराबर टुकड़े १७. हाथी गड़े में गिर जाता है १८. मछली १९. भौरा २०. कमल में २१. नयन, नेत्र २२. कानों के वश २३. जहर। For Personal & Private Use Only Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१९७) एक एक इन्द्री तैं यह दुख सबकी कौन कहाई यह उपदेश करत है पंडित 'महाचन्द्र' सुख दाई | विषय. कवि दौलतराम । ॥६॥ (५२९) मत कीजो यारी, ये भोग भुजंग सम जानके ॥टेक ॥ भुजंग डसै इकबार नसत है, ये अनंत मृतुकारी। तृष्णा तृषा बढ़े इन सेये, ज्यों पीये जलखारी ॥ मत. ॥१॥ रोग वियोग शोक बनिता धन, समता-लता कुठारी । केहरि करि अरीन देख ज्यों, त्यों ये दे दुखभारी ॥ टेक. ॥ २ ॥ इनमें रचे देव तरु थाये,° पाये श्वध्र १ मुरारी २ । जे विरचे ३ ते सुरपति अरचे,१४ परचे सुख अधिकारी ॥ मत. ॥ ३ ॥ पराधीन छिन मांहि छीन है, पाप बन्ध कर नारी । इन्हें गिने सुख आक" मांहि तिन आमतनी बुध धारी ॥ मत. ॥ ४ ॥ मीन मतंग पतंग ,ग८ मृग,९ इन वश भय दुखारी। सेवत ज्यों किम्पाक ललित,° परिपाक समय दुखकारी ॥ मत. ॥ ५ ॥ सुरपति नरपति खगपति हूंकी, भोग आश न निवारी२२ । 'दौल' त्याग अब भज विराग सुख, ज्यों पावे शिवनारी२२ ॥ मत. ॥ ६ ॥ १६. संसार - असार कवि बुधजन (५३०) राग-सोरठ हमको कछू भय ना रे, जान लियो संसार ॥ हमको ॥ टेक ॥ जो निगोद में सोही मुझमैं, सोही मोख२५ मँझार । निश्चय भेद कछू भी नाहीं, भेद गिनै संसार ॥ १ ॥ परवश है आपा२६ विसारिक, रागदोष कौं धार । जीवन मरत अनादि कालौं यौँ ही है उरझार२७ ॥ २ ॥ १. दोस्ती २. सर्प ३. अनंत मृत्यु करने वाले ४. सेवन करने को ५. खारा जल ६. स्त्री ७. सिंह ८. हाथी ९. जंगल १०. हुये ११. नरक १२. कृष्ण १३. विरक्त हो गये १४. पूजा करते हैं १५. अकोआ १६. आम की १७. हाथी १८. भोरा १९. हिरण २०. सुन्दर २१. फल देने के समय २२. दूर करना २३. मोक्ष २४.कुछ २५.मोक्ष २६.आत्मस्वरूप भुलाकर २७.उलझना । For Personal & Private Use Only Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१९८) जाकरि' जैये जाहिर समय में, जो हो तब जा द्वार । सो बनि है टरि' है कछु नाही, करि लीनौं निरधार ॥३॥ अगनि जरावै पानी बोवै विछुरत मिलत अपार । सो पुद्गल रूपी मैं 'बुधजन' सबको जाननहार ॥४॥ (५३१) राग-मालकोस अब तू जान रे चेतन जान, तेरी होवत है नितहान । रथ बाजि करी" असवारी, नाना विधि भोग तयारी ॥ टेक ॥ सुंदर तिय सेज सँवारी, तन रोग भयो या ख्वारी ॥१॥ ऊंचे गढ़ महल बनाये, बहु तोप सुभट रखवाये । जहाँ रुपया मुहर धराये, सब छोड़ि चले जम' आये ॥ २ ॥ भूखा है खानो लागै, छाया पदभूषण पागै । सत२ भये सहस२ लखि मांगै या तिसना नांही भागै ॥ ३ ॥ ये अथिर सौंज४ परिवारौ, थिर चेतन क्यों न सम्हारौ ।। 'बुधजन' ममता सब टारौ, सब आपा आप सुधारौ ॥४॥ कवि भूधरदास (५३२) राग-विहाग जगत जन जूवा५ हारि चले॥ टेक ॥ काम कुटिल संग बाजी मांडी उनकरि कपट छले ॥ज. ॥१॥ चार कषायमयी जहँ चौपरि६ पांसे जोग रले । इतसरबस उत" कामिनी कौंडी, इह विधि झटक चले ॥२॥ कूर खिलार ९ विचार न कीन्हों है ख्वार° भले ।। बिना विवेक मनोरथ करकै, 'भूधर' सफल फले ॥३॥ १.जिसके २.जाता है ३.टलना ४.निश्चय ५.होता है ६.सदैव नुकसान ७.घोड़ा ८.हाथी ९.सवारी १०.बरबादी ११.मौत आई १२.सौ १३.हजार १४.सामग्री १५.जुआ १६.चौपड़ १७.इधर १८.उधर १९.खिलाड़ी २०.बरबाद । For Personal & Private Use Only Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १९९ ) (५३३) वे कोई अजब तमासा देख्या' बीच जहान वे जोर तमासा सुप कासा ॥ टेक 11 एक के घर मंगल गावैं, पूगी' मन की आ एक वियोग मरे बहु रोवैं, भरि भरि नैन निरासा तेज तुरंगनि पै चढ़ि चलते, पहिरे मलमल खासा ॥ वे कोई. ॥ १ ॥ 1 १२ एक भये नागे अति डोलैं ना कोई देय दिलासा " ॥ वे कोई. ॥ २ ॥ तरकैं? राजतखत पर बैठा, या खुशवक्त खुलासा । ठीक दुपहरी मुद्दत१३ आई, जंगल कीनो ब तन धन अथिर निहायत जग में, पानी माहिं पतासा 'भूधर' इनका गरव करैं जे धिक तिनका जनमासा ॥ वे कोई. ॥ ३ ॥ .१४ (५३४) राग - सोरठ .१५ टेक ॥ १७ .१८ भगवन्त भजन क्यों भूला रे ॥ यह संसार रैन ६ का सुपना तन धन वारि" बबूला रे ॥ भगवन्त ॥ १ ॥ इस जीवन का कौन भरोसा, पावक में तृणपूला रे । काल कुदार लिये सिर ठाड़ा क्या समझै मन फूला रे ॥ भगवन्त ॥ २ ॥ स्वारथ साधै पांव १९ पांव तू परमारथ को लूला रे । कहु कैसे थैहै२१ प्राणी काम करे दुख सुख रे मोह पिशाच छल्यो मति मारै, निज कर कंध बसूला रे । भज श्री राम मतीवर 'भूधर' दो दुरमति ४ सिर धूला रे ॥ भगवन्त ॥ ४ ॥ २२ भुला ॥ भगवन्त ॥ ३ ॥ २३ (५३५) काहू घर पुत्र जयो काहू के वियोग आयो काहू राग २५ रंग का हू रोआ २६ रोई करी है। जहां भान २७ ऊगत उछाह २८ गीत गान देखे | सांझ समैं ताही थान हाय-हाय परी है । ऐसी जगरीति को । न देखि भय भीत होय, हा हा नर मूढ़ तेरी मति कौन १९ हरी है । मानुष जनम पाय सोवत विहाय जाय खोवत कोरन की एक एक धरी है । ॥ वे कोई. ॥ ४ ॥ १. देखा २. संसार में ३. स्वप्न जैसा ४. एक के यहां ५. पूरी हुई ६. नेत्र ७.घोड़ी पर ८. अच्छा ९. नंगे १०. सान्त्वना ११. सबेरे १२. खुशी का समय १३. समय १४. बताशा १५. जन्म १६. रात्रि का स्वप्न १७. पानी का बबूला १८ घास का गट्ठर १९. पग पग पर २०. लंगड़ा २१ पायेगा २२. दुख का कारण २३. बुद्धि नष्ट करता है २४. मूर्ख २५. मौज मस्ती २६. रोना-धोना २७. सूर्य २८. उत्साह २९. किसने हर ली है ३० करोड़ों की । For Personal & Private Use Only Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५३६) अपार । भवदुख कारज लेश न े दाम उधार 11 कानी' कौड़ी विषय सुख बिना देयै नहिं छूटि है दश दिन विषय विनोद फेर बहु विपति पंरपर । अशुचि गेह यह देह, नेह' जानत न मित्र बन्धु सनमंध और परिजन जे अरे अंध सब धंध जान स्वारथ के परतिन, अकाज अपनौ न कर मूढ़ राज अब समझ उर तजि लोक लाज निज काज कर, आज दाव है कहत गुर ॥ संगी ॥ पौरूष थकैंगे फेर पीछै१६ अहो आग आयै जब कुआ के खुदायै तब (५३७) 11 जोलौँ देह तेरी काहू रोग से न घेरी, जोलौं जरा नाहिं नेरी जासो" पराधीन परी है जोलौं जभनामा ११ बैरी देय न दमामा१२ जोलों मानै कान रामा १३ बुद्धि जादू १४ ना विगरि है ॥ तोलौं मित्र मेरे निज १५ कारज संवार । ले रे, सौ बरष आयु ताका आधी तो अकारथ १९ आधी में अनेक रोग और हु संजोग केते बाकी अब कहा?? रही की बात यही खातिर २४ में आवै तो कारज ( २०० ) कहा करि झोंपरी १७ लेखा ही कौन काज १८ आप पर || अंगी बाल वृद्ध ऐसे बीत जरन ताहि तू नीके २३ खलासी २५ (५३८) करि देखा सब, सोवत २० है ॥ लागी, सरि है ॥ विहाय रे दशा भोग, जाय २९ रे । विचार सही, लाय रे । मन कर इतने में, १. महत्वहीन २. कारण ३. थोड़ा भी ४. विषय भोग ५. अपने पर 'आत्मा' प्रेम नही जानता ६. अंग है ७. साथी ८. जब तक ९. बुढ़ापा नजदीक नहीं आया १०. जिससे पराधीन हो जाता है ११. मृत्यु रूपी शत्रु १२. नगाड़ा १३. स्त्री १४. बुद्धि बिगड़ न जाय १५. अपना काम संभाल ले १६. फिर क्या करेगा १७. झोपड़ी १८. काम बनेगा १९. व्यर्थ २०. सोकर बिता दिया २१. बीत जाते हैं २२. शेष कितनी बची है २३. अच्छी तरह २४. भरोसा, विश्वास २५. छुटकारा, मुक्ति । For Personal & Private Use Only Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२०१) भावै फांसि फन्द बीच दीनो समुझाय रे । (५३९) बाल प. बाळ रह्यौ पीछे गृहभार' बह्यौ, लोक लाजरे काज बंध्यौ पापन को ढेर है। अपनो अकाज कीनौं लोकनमें जस लीनौं परभौ विसार दीनौ विसैव जेर है । ऐसे ही गई विहाय अलपसी रही आय, । नर परजाय यह अंधे की वटेर है । आये सेत° भैया अब काल है अबैया १ अहो जानी रे सयानैं तेरे अजों हू अंधेर है ॥ (५४०) चाहत है धन होय किसी बिध२, तौ सब काज सरै१३ जियरा जी । गेह चिनाय करूं गहना५ कछु, व्याहि सुता सुत बांटिये भाजी ॥ चिन्तत यौं दिन जाहि चले, जभ आनि अचानक देत दगाजी ६ ॥ खेलत खेल खिलारि गये, रहि जाय रूपी८ शतरंज की बाजी ॥ (५४१) तेज तुरंग' सुरंग भले रथ, मत्त मतंग° उतंग२१ खरे ही। दास२ खवास२३ अवास अटार, धनजोर करोर न कोश भरे ही । ऐसे बदै तो कह्या भयो हे नर, छोरि चके उठि अंत छरेही धाम खरे२५ रहे काम परे रहे, दाम डरे रहे ढाम२६ धरेही ॥ (५४२) दृष्टि घटी पलटी तन की छवि, बंक भई गति लंक" नई है । रूज रही परनी धरनी अति, रंक भयौ परियक° लई है ॥ कांपत नार बहै मुख लार, महामति संगति छारि गई है अंग उपंग पुराने परे, तिशना३३ उर और नवीर भई है ॥ १.घर का बोझ २.लोक लज्जा वश ३.हानि ४.संसार में यश प्राप्त किया ५.परभव ६.विषयों के कारण तंग है ७.छोड़कर ८.थोड़ी सी ९.संयोग से प्राप्त १०.श्वेत, सफेद ११.आनेवाला १२.किसी तरह १३.काम सिद्ध हो १४.घर बनवाकर १५.गझे बनवाऊं १६.धोखा १७.खिलाड़ी १८.मढ़ी हुई १९.घोड़ा २०.हाथी २१.ऊंचे २२.नौकर २३.नाई २४.अटारी २५.मकान खड़े रहे २६. स्थान पड़े रह गये २७.ज्योति कम हो गई २८.कमर झुक गई २९.परस्त्री में लीन ३०.पलंग पकड़ लिया ३१.गर्दन ३२.बुद्धि ३३.तृष्णा । For Personal & Private Use Only Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २०२ ) (५४३) रूप कौ खोज' रह्यो तरू ज्यों तुषार दह्यौ, भयौ पतझर किधौं रही डार दूबरी' कूबरी भई है कटि ऊबरी इतेक आयु आयु जोबनतै" बिदा लीनी जरा' ने सेर" - मांहि सूनी सी । भई है देह, पूनी जुहार कीनी, सबै वाम ऊनी सी । सी ॥ हानी भई सुधि बुधि तेज घट्यो ताव घट्यौ जीतव' को चाव घट्यो, और सब घट्यो एक तिस्ना" दिन दूनी सी ॥ (५४४) अहो इन आपने अभाग" उदै नाहि जानी, वीतराग-वानी सार दयारस - भीनी है । जोबन के जारे थिर जंगम अनेक जीव, जानि जे सताये कछु करुना न कीनी ॥ तेई अल४ जीव रास आ परलोक पास, लेंगे बैर देंगे दुख भाई ना नवीनो है । उन्ही के भयकौ भरोसो जान कांपत है, याही डर डाकरानै " लाठी हाथ लीनी ॥ कवि द्यानतराय (५४५) ॥ राग हार ॥ मन. ॥ २ ॥ मन ! मेरे राग भाव निवार १६ || टेक राग चिक्कन१७ तैं लगत है कर्मधलि अपार ॥ मन. ॥ १ ॥ आश्रव मूल" है वैराग्य संवर धार I जिन न जान्यो भेद यह वह गयो नरभव" दान पूजा शील जप तप भा विविध २० राग बिन शिव सुख करत है राग तैं संसार ॥ मन. ॥ ३ ॥ वीतराग कहा कियो, यह बात सोइ कर सुखहेत 'द्यानत', प्रकार 1 प्रगट निहार २१ शुद्ध अनुभव सार ॥ मन. 118 11 १. पता २. तुषार ने जला दिया ३. पतझड़ ४. कुबड़ी ५. दुबली ६. सेर में पूनी की तरह ७. जबानी ने विदा ली ८. बुढापे ने जुहारू की अर्थात् आया ९. जीने की इच्छा १०. तृष्णा ११. दुर्भाग्य १२. जबानी के जोश में १३. जिनको सताया १४. सम्पूर्ण जीव राशि १५. बूढे ने लाठी पकड़ी है १६. दूर कर १७. चिकनाहट १८. कारण १९. मनुष्य भव २०. अनेक प्रकार हुआ २१. स्पष्ट देखो । For Personal & Private Use Only Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२०३) (५४६) राग-रामकली हम न किसी के कोई न हमारा, झूठा है जग का व्योहार ॥ टेक ॥ तन सम्बन्धी सब परिवारा, सो तन हमने जाना न्यारा ॥१॥ पुन्य उदय सुख का बढ़वारा, पाप उदय दुख होत अपारा । पाप पुन्य दोऊ संसारा, मैं सब देखन हारा ॥ हम. ॥ २ ॥ मैं तहुँ जग तिहुँ काल अकेला, पर संजोग भयो' बहुमेला थित पूरी करी खिर खिर जांही, मेरे हर्ष शोक कछु नाहीं ॥ ३ ॥ राग भावतें सज्जन माने, दोष भावते दुर्जन जानैं । राग दोष दोऊ मम नाहीं, 'द्यानत' मैं चेतन पद माहीं ॥ ४ ॥ कवि दौलतराम (५४७) मत राचो धीधारी , भव रंभ थंम सम जानके ॥ मत. ॥ टेक ॥ इन्द्र जाल को ख्याल मोह ठग, विभ्रम पास' पसारी । चहुँगति विपतमयी जामें जन, भ्रमत भरत दुख भारी ॥१॥ रामा२, मां वांमा३, सुत, पितु, सुता श्वसा४ अवतारी । को अचंभ जहाँ आपके पुत्र दशा विसतारी ॥२॥ घोर नरक दुख ओर न छोर, न लेश न सुख विस्तारी। सुरनर प्रचुर विषय जुर५ जारे, को सुखिया संसारी ॥ ३ ॥ मंडल' है आखंडल" छिन में, नृप कृमि सघन भिखारी । जासुत८ विरहमरी है बाघिन ता सुत - देह विदारी ॥४॥ शिशु न हिताहित ज्ञान तरुण उर, मदन दहन परजारी । बृद्ध भये विकलांगी थाये, कौन दशा सुखकारी ॥ ५ ॥ यौं असार लख छार२२ भव्य झट, भये मोख२३ मगचारी । यातें होक उदास 'दौल' अब, भज निज पति जगतारी ॥६॥ १.व्यवहार, बर्ताव २.अलग ३.वृद्धि ४.देखने वाला ५.हुआ ६.स्थिति ७.लीन हुआ ८.बुद्धिमान ९.संसार १०.केले का धंभ ११.जाल १२.स्वी १३.स्त्री १४.बहिन १५.ज्वर १६.राजा १७.इन्द्र १८.उस पुत्र के लिए १९.कामदेव २०.जला दिया २१.हुये २२.छोड़ २३.मोक्ष मार्ग में चलने वाला। For Personal & Private Use Only Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२०४) कवि सुखसागर (५४८) जगत में कोई नहीं रे मेरा सब संशय को टाल देखलो, आप शुद्ध डेरा ॥ टेक ॥ क्यों शरीर में आपा' लाखकर, होत कर्म चेरा। वृथा मोह में फँसकर करता है मेरा तेरा ॥१॥ है व्यवहार असत्य स्वप्न सम नश्वर उलझेरा । कर निश्चय का ध्यान कि जिससे होवे सुलझेरा ॥२॥ जीव जीव सब एक सारखे, शुद्ध ज्ञान ढेरा । नहीं मित्र नहीं अरी जगत में, हैं खूबहि हेरा ॥ ३ ॥ बैठ आपमें आपो भजलो वही देव तेरा ।। 'सुख सागर' पावेगा क्षण में, होत न जग फेरा ॥४॥ (५४९) जगत जंजाल से हटना, सुगम भी है कठिन भी है । परम सुख सिन्धु में रमना, सुगम भी है कठिन भी है ॥ टेक ॥ है कायरता बड़ी जामें, इसे वशकर सुवीरज से । निजातम भूमि में जमना, सुगम भी है कठिन भी है ॥१॥ परम शत्रु है रागादी, इन्हें वश कर सुवीरज से। सुसमता का अनूभवना' सुगम भी है कठिन भी है ॥२॥ करोड़ों भाव आ आकर मनोहरता बता जाते । न इनके मोह में पड़ना, सुगम भी है कठिन भी है ॥ ३ ॥ करम जड़ है न कुछ करते, चले जाते स्वमारग' से । अबन्धक शाश्वता रहना, सुगम भी है कठिन भी है ॥ ४ ॥ कषायों की जलन जिसको, वही तनको जलाती है । चिदानन्द 'सुखसागर' सुगम भी है कठिन भी है ॥५॥ १. अपना समझकर २. सेवक ३. उलझन ४. सुलझना ५. समान ६. शुद्ध ज्ञान का पिण्ड ७. खूब ही देखा ८. सरल ९. जिसमें १०. अनुभव करना ११. अपने रास्ते से। For Personal & Private Use Only Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२०५ ) कवि ज्योति (५५०) संसार ॥ ॥ २ ॥ समझ मन स्वारथ का हरे वृक्ष पर पक्षी बैठा गावे राग सुखा वृक्ष गयो उड़ पक्षी, तजकर' दम े में बैल वही मालिक घर आवत तावत बांधो द्वार बृद्ध भयो तब नेह' न कीन्हों, दीनो तुरत विसार पुत्र कमाऊ सब घर चाहे, पानी पीवे वार । भयो निखट्टू दुर दुर पर पर, होवत बारम्बार ॥ ३ ॥ ताल पाल पर डेरा कीनों, सारस नीर निहार I सूखा नीर ताल को तज गये, उड़ गये पंख पसार ॥ ४ ॥ जब तक स्वारथ सधे तभी तक अपना सब परिवार । ० ११ टेक मल्हार नातर बात न पूछे कोई, सब बिछड़े संग छार ॥ ५ ॥ स्वारथ तज निज गह परमारथ किया जगत उपकार । 'ज्योती' ऐसे अमर देव के गुण चिन्तै १३ हरबार १४ ॥ ६ ॥ कवि शिवराम नहीं 11 I प्यार ॥ १ ॥ (५५१) 11 समझकर देख ले चेतन जगत बादल की छाया । कि जैसे ओस का पानी, या सपने में मिली माया ॥ टेक कहाँ है राम औ लछमन, कहाँ सीता सती रावन कहाँ हैं भीम और अर्जुन, सभी को काल जमाये ठाट यहाँ भारी, बनाये बाग महल यह संपति छोड़ गये सारी नहीं रहने कोई क्यों करता तूं मेरी तेरी, नहीं मेरी ने किसने है कोई कोई हो पल की पल में सब ढेरी, तुझे किसी का तू नहीं साथी, न तेरा यूं ही दुनिया चली जाती, न कोई महा दुर्लभ है ये नरभव, रहा है काम कुछ मुफ्त में क्यों खो । 1 खाया ॥ १ ॥ वारी१५ । पाया ।। २ ।। तेरी । बहकाया ॥ ३ ॥ संगाती १६ । आया ॥ ४ ॥ १. छोड़कर २. क्षण भर में ३. आता है ४. तब तक ५. प्रेम ६. भुलाकर ७. दूर हो, तिरस्कार ८. पराया ९. तालाब १०. सिद्ध होना १९. अन्यथा १२. छोड़कर १३. चिन्तवन कर १४. बार-बार १५. बाड़ी, बगीचा १६. साथी । For Personal & Private Use Only Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२०६) अरे 'शिवराम' ना अब सो कि अवसर तेरा बन आया॥ ५ ॥ कवि कुमरेश (५५२) यह जग झूठा सारा रे मन, नाहक क्यों ललचाया ॥ टेक ॥ तन धन यौवन पर गुमान क्या, यह चपला की छाया। सचमुच क्षण में विनशि जायगी, तेरी कंचन काया ॥१॥ मात पिता परिवार पुत्र सब, नारी अरु समुदाया । देखत के नीके लागत हैं, वक्त पै काम न आया ॥ २ ॥ धर्म अमर है अमर रहेगा, याकी सांची छाया । विफल गमावत क्यों मानुष भव, कठिन कठिन ते पाया ॥ ३ ॥ वीर प्रभु का ध्यान निरन्तर, करले मन शुध भावा । समय निकल ‘कुमरेश' जायगा, रह जैहे पछतावा ॥ ४ ॥ कवि चुन्नी (५५३) करो कल्याण आतम का, भरोसा है न इक पलका ॥टेक ॥ ये काया कांच की शीशी, फूल मत देखकर इसको । छिनक में फूट जायेगी, कि जैसे बुद-बुदा' जल का ॥१॥ यह धन दौलत मकां मंदिर जो तू अपना बताता है । कभी हरगिज नहीं तेरे छोड़ जंजाल सब जग का ॥२॥ स्वजन सुन मात पितु दार,१२ सबै परिवार अरु ब्रादर । खड़े सब देखते रहेंगें, कूच होगा जभी दमका३ ॥३॥ बड़ी अटवी" यह जग रूपी फंसो मत देखकर इसको। कहे 'चुन्नी' समझ दिल में सितारा ज्ञान का चमका ॥ ४ ॥ (५५४) कर कर जिनगुन पाठ, जात अकारथ५ रे जिया । आठ पहर में साट घरो घनेरे६ मोल की ॥ कानी कौड़ी काज कोरि को लिख देत खत । १. व्यर्थ २. घमंड ३. चंचला ४. नष्ट हो जायेगी ५. सोने सा शरीर ६. अच्छे ७. मुश्किल से ८. शुद्ध भाव से ९. रह जायगा १०. शरीर ११. पानी का बुलबुला १२. स्त्री १३. प्राणों का १४. जंगल १५. व्यर्थ १६. बहुत मूल्य की। For Personal & Private Use Only Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२०७) ऐसे मूरख राज जगवासी जिय देखिये ॥ कवि कुन्दन (५५५) तन नहीं छूता कोई, चेतन निकल जाने के बाद ।। फेंक देते फूल ज्यों, खुशबू निकल जाने के बाद ॥१॥ आज जो करते किलोले', खेलते हैं साथ में । कल डरेंगे देख तन, निरजीव हो जाने के बाद ॥ २ ॥ बात भी करते नहीं जो, आज धन की ऐंठ में । मंगते नजर आये वही, तकदीर' फिर जाने के बाद ॥ ३ ॥ पाँव भी धरती पै जिनने, हैं कभी रक्खे नहीं । वन में भटकते वो फिरे, आपत्ति आ जाने के बाद ॥४॥ बोलते जबलौं सगे, हैं चार पैसा पास में।। नाम भी पूंछे नहीं, पैसा निकल जाने के बाद ॥ ५ ॥ स्वार्थ प्यारा रह गया, असली मुहब्बत उठ गई । भूल जाता माँ को बछड़ा, पय निकल जाने के बाद ॥६॥ भाग जाता हंस भी, निर्जल सरोवर देखकर । छोड़ देते वृक्ष पक्षी, पत्र झड़ जाने के बाद ॥७॥ लोक ऐसे मतलबी, फिर क्यों करें विश्वास हम। बाल डरता आग से, इकबार जल जाने के बाद ॥८॥ इस अथिर संसार में, क्यों मग्न 'कुंदन' हो रहा । देख फिर पछतायेगा, असमर्थ हो जाने के बाद ॥ ९ ॥ कवि जिनेश्वरदास (५५६) जगत की झूठी सब माया, अरे नर चेत वक्त पाया ॥ टेक ॥ कंचन' वरनी कामिनी, जोवन में भरपूर । अन्तर दृष्टि निहारते, मलमूरत मशहूर ॥ कुधी नर इसमें ललचाया ॥ अरे नर. ॥१॥ १. सिलवाड़ २. किस्मत बदल जाने पर ३. जब तक ४. दूध ५. पत्ते ६. बच्चा ७. अस्थिर ८. समय ९..सोने सा रूप १०. मल मूत्र भरी हुई। For Personal & Private Use Only Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२०८) लक्ष्मी तो चंचल बड़ी, बिजली के उनहार' । याके फन्दे में बचोजी, अपनी 'करो सम्हार ॥ विवेकी मानुष भव पाया॥ अरे नर. ॥२॥ स्वच्छ सुगंध लगाय के, करके सब श्रृंगार । तिस तनमें तू रती' करै जी, सो शरीर है छार ॥ वृथा क्यों इसमें ललचाया ॥ अरे नर. ॥३॥ तन धन ममता छाड़के, राग द्वेष निरवार । शिव मारग पग धारिये धर्म जिनेश्वर सार ॥ सुगुरु ने ऐसा बतलाया॥ अरे नर. ॥४॥ (५५७) हे जियरा अन्तर के पट खोल ॥ टेक ॥ दुनिया क्या है एक तमाशा, चार दिना की झूठी आशा । पल में तोला पल में मासा, ज्ञान तराजू हाथ में लेकर। तौल सके तो तोल ॥ हे जियरा. ॥१॥ मतलब की है दुनियादारी, मतलब के हैं सब संसारी। तेरा जग में को हितकारी, तन मन का सब जोर लगाकर॥ नाम प्रभू का बोल ॥ हे जियरा. ॥२॥ अगर इस वक्त न चेतर सका तो, फेर न अवसर होगा ऐसा। इससे आतम हितकर मूरख, क्यों करता है देर ॥ हे जियरा ॥ ३ ॥ कवि भागचन्द (५५८) राग-दादरा चेतन निज भ्रमतें भ्रमत३ रहै ॥ टेक ॥ आप अभंग तथापि अंग के संग महादुख पुंज बहै। लौह पिंड संगति पावक ज्यों दुर्धर घन की चोट सहै ॥१॥ नाम कर्म के उदय प्राप्त नर नरकादिक परजाय८ धरै ।। तामे" मान अपनपौ विरथा जन्म जरा मृतु पाय डरै ॥ २ ॥ १. तरह २. प्रेम ३. राख ४. छोड़कर ५. मोक्षमार्ग ६. जिय ७. हृदय ८. तौलने का बॉट ९. तौलने बांट (आठ रत्ती) १०. स्वार्थ ११. भलाई करने वाला (गरह मासा) १२. सावधान १३. भटकता १४. अखण्ड १५. ढोता है १६. आग १७. कठोर १८. पर्याय १९. उसमें। For Personal & Private Use Only Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२०९) कर्ता होय राग रुष' ठानै पर को साक्षी रहत न यहै । व्याप्य सुव्यापक भाव बिना किमि परको करता होत न यहै ॥३॥ जब भ्रम नींद त्याग निजमें निज हित हेत' सम्हारत है। बीतराग सर्वज्ञ होत तब ‘भागचन्द' हित सीख कहै ॥४॥ (५५९) है यह संसार असार दुख का घर रे । ये विषय भोग दुख खान, इनसों तू डर रे ॥ टेक ॥ इनमें दुख मेरु' समान, सौख्य ज्यों राई । सो भी सब आकुल तामय पड़त दिखाई ॥ इसकी उपमा इस भांति गुरु समझाई । सो सुनो सकल दे कान कहं समझाई ॥ इसके सुनने में सुधी ध्यान अब धर रे ॥ ये वि. ॥ इक पथिक महावन मांहि, फिरे था भटका । ता पर गज दौड़ा एक तभी वह सटका ॥ सो कुएँ में तरु की मूल पकड़ कर लटका । ता तरु क्रोध वश जा हाथी ने झटका । तरु से मधुमाखी उड़ीं शोर अति कर रे ॥ ये विषय. ॥ पंथी को मखियाँ चिपट गई अति प्यारे । जड़ काटे मूसे११ दोय स्वेत२ अरु कारे३ । चौ नाग४ एक अजगर कुये में मुख फारे । देखें ऊपर को गिरे पथिक किस वारे ॥ तहां टपकी मधु की बूंद पथिक मुख पर रे ॥ ये विषय. ॥ शठ चांटत मधु का स्वाद, सभी दुख भूला । कर आशा लखे ऊपर को, जड़ से झूला । तहाँ से खग५ दम्पत्ति जाते थे गुण मूला । तिन देख दया कर कहे, वचन अनुकूला । निकले तो लेय निकाल, तुझे ऊपर रे ॥ ये विषय. ॥ बोला पंथी इक बूंद, शहद मुख आवे १. द्वेष २. किस प्रकार ३. प्रेम ४. दुख की खान ५. मेरु पर्वत के समान बड़े ६. राई के समान छोटा ७. बड़ा जंगल ८. चला गया ९. पेड़ १०. झटका दिया ११. दो चूहे १२. सफेद १३. काले १४. चार सांप १५. विद्याधर दम्पत्ति । For Personal & Private Use Only Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २१० ) यही मन भावे शठ मुंह' बाये टंगा जो पावे ॥ नर रे ॥ ये विषय. ॥ तब चल तुम्हारे साथ सो एक बूंद को देखो, ना लखे वेदना घोर, सो ही गति संसारी, जीवों की भव वन में पंथी जीव, काल े गज जाने । कुल कुआँ कुटुम जन मधुमक्खी पहचानो 1 चहुंगति चारों अहि, निगोद अजगर अजगर मानो 1 जड़ आयु रातदिन काटत मूष खो | है विषय स्वाद मधुबिन्दु होत तरुवर रे । ये विषय. विद्याधर सतगुरु शिक्षा देत दयाकर माने तो दुख से छूट जाय संसार में सुख है शहद बिन्दु से लघुतर । दुख कूप पथिक से गुणा संसार दुःख सूं डरो, सुधी थर खलकाल बली से सुर हरि हली ये विषय भोग 11 आतम नर 1 असुरादिक चक्रपति याने याने क्षणभर में विषधर हैं जिये जगत इनका काय न इनके त्यागे भये. 'नाथूराम' अनन्ता अक्सर थर रे ॥ ये विषय. ॥ हारे । मारे । दारुण में क्या अमर रे ॥ कवि भूधरदास (५६०) राग - जंगला ये कारे । करे सुधि टेक 11 आया रे बुढ़ापा मानी, विसरानी ॥ श्रवन की शक्ति घटी, चाल चले अटपटी, देह' लटी भूख घटी । लोचन" झरत पानी ॥ आया रे बुढ़ापा. दांतन की पंक्ति टूटी, हाडन" की संधि ? छूटी, काया की । नगरि लूटी, जात नहि पहिचानी || आया रे बुढापा. ॥ १ ॥ ॥ २॥ विषय. ॥ १. मुँह खोले हुए २. हाथी - मृत्यु है ३. मधुमक्खी कुटुम्बीजन ४. चारों सांप-चार गतियाँ ५. दो चूहे - रात-दिन ६. शहद की बूंद छोड़ा ७. हलधर ८. कान ९. शरीर कमजोर हो गया १०. आँखें ११. हड्डियों १२. जोड़ । For Personal & Private Use Only Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२११) बालों ने वरन फेरा, रोग ने शरीर घेरा, पुत्र हू न आवै । नेरा' औरों की क्या कहानी ॥ आया रे बुढापा. ॥ ३ ॥ 'भूधर' समझ अब स्वहित करैगो कब, यह गति है है जब । तब पछितैहै प्रानी ॥ आया रे बुढापा. ॥ ४ ॥ १७.सप्त व्यसन कवि बुधजन (५६१) छप्पय सकल'-पापसंकेत, आपदाहेत कुलच्छन कलहखेत, दारिद्र देत, दीखत निज अच्छन ॥ गुन समेत जस सेत', केत रवि रोकत जैसें । आगुन' -निकर-निकेत, लेत लखि बुधजन ऐसे ॥ जुआ समान इह लोक मैं, आन अनीतिन पेखिये। उस विसनराय के खेलको, कौतकहू नहिं देखिये ॥ कवि भूधरदास (५६२) छप्पय जंगम२ जियको नास, होय तब मांस कहावै । सपरस आकृति नाम, गन्ध उर घिन उपजावै ॥ नरक जोग निरदई, खहि५ नर नीच अधरमी । नाम लेत तज देत, असन'६ उत्तम कुल करमी ॥ यह निपट निंद्य अपवित्र अति कृमिकुल रास निवास नित । आमिष अभच्छ'" याको सदा, सरजौ८ दोष दयालचित्त ।। (५६३) सवैया कृमिरास९ कुवास° सराप२१ दहैं शुचिता सब छीनत जात सही । १. रंग २. नजदीक ३. होगी ४. पछतायगा ५.समस्त ६.आपत्ति का कारण ७.कलह (लड़ाई) का क्षेत्र ८.पवित्र ९.सफेद १०.अवगुणों का समूह ११.देखिये १२.चलने फिरने वाले जीव १३.स्पर्श १४. अवगुणों का समूह १५.खाते हैं १६.भोजन १७.अभक्ष्य १८.बनाया १९.कीड़ों की राशि २०.बुरी गंध २१.शराब । For Personal & Private Use Only Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२१२) जिहिं पान किर्यै सुधिजात हिये, जननी जन जानत नार यही । मदिरा समआन निषिद्ध कहा, यह जान भले कुल' में न गही । धिक है उनको वह जीभ जलौ , जिनमूढ़न के मतलीन कही ॥ (५६४) सवैया धनकारन पापनि प्रीत करै, नहि तोरत नेह जथा' तिनको लव चाखत नीचन की मुँह की शुचिता सब जाय छियै जिनको मद मांस बजारनि खाय सदा, अंधलै बिसनी न करें धिनकौ गनिका संग जे सठलीन भये, धिक है, धिक है, धिक है तिनको । (५६५) सवैया ए विधि भूल भई तुम , समुझै न कहाँ कसतूरि बनाई । दीन, कुसंगन के तन मैं, तुन दैत धरै करुना किन आई ॥ क्यों न करी तिन जीभन जे, रस काव्य करें परकौं दुख दाई । साधु अनुग्रह दुर्जन दंड, दोऊ साधवे विसरी चतुराई ॥ कविन्त (५६६) कानन५ वसै६ आन७ न गरीब जीव । प्रानन सो प्यारौ प्रान पूंजी जिस यहैं८ है ॥ कायर सुभाव धरै काहू सों न द्रोह करें । सबही सों डरे दांत लिये तृन रहे है ॥ काहू सौं न रोष° पुनि काहू पै न पोष१ चहैं, काहू के परोष२२ परदोष२३ नाहि कहै है । नेकु स्वाद सारिवे४ कों ऐसे मृग मारिवेकौं,, हा हा रे कठोर तेरो कैसे कर बहै६ है। १.जिसको २.मां को स्त्री समझ बैठता है ३.अच्छे कुल के लोग ४.जल जाय ५.पापिनी ६.प्रेम ७.जिस प्रकार ८.ओंठ ९.व्यसनी १०.वेश्या ११.तुमसे १२.क्यो १३.दूसरे को १४.भूली १५.जंगल १६.रहता है १७.दूसरा १८.यही १९.दातों में घास दबाये २०.द्वेष २१.पोषण चाहता है २२.पड़ोस २३.दूसरे के दोष २४.सिद्ध करने को २५.मारने को २६.हाथ उठता है। For Personal & Private Use Only Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२१३) - (५६७) छप्पय चिंता तजै न चोर, रहत चौकायत' सारै । पीटै धनी विलोक, लोक निर्दई मिलि मारै । प्रजापाल करि कोप, तोप सों रोप उडावै । मरै महा दुख पेखि अंत नीची गति पावै । अति विपतिमूल चोरी विसन प्रकट त्रास आवै नजर । परिवत्त अदत्त अंगार गिन नीति निपुन परसै न कर ॥ (५६८) छप्पय कुगति बहन गुन गहन, दहन दावानलसी है । सुजस चन्द्र धन घटा, देह कृशा करन खई है ॥ धन-सर-सोखन धूप, धरम दिन सांझ समानी । विपति भुजंग निवास, बांबई१२ वेद वखानी ॥ इह विधि अनेक औगुन भरी, प्रान हरन-फांसी प्रबल मत करहु मित्र यह जान जिय परवनिता सौ प्रीति पल ॥ (५६९) सवैया कंचन कुंभन की उपमा, कह देत उरोजन को कवि वारे । ऊपर श्याम विलोकत कै मनि नीलम की ढंकनी ढंकि छोरा ॥ यौं सतबैन कहैं न कुपंडित, ये जुग आमिष पिंड उघारे । साधन झार दई मुँह छार, भये इतहि हेत किंधौ कुच कारे । १.सावधान २.मारता है ३.देखकर ४.क्रोध ५.देखकर ६.व्यसन ७.दूसरे का धन ८.बिना दिया ९.छूना १०.क्षय ११.धन रूपी तालाब को सुखाने को १२.कामी १३.प्राणों का हरन करने वाली १४.पर स्त्री। For Personal & Private Use Only Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२१४) (५७०) सवैया दिवि दीपक' लोय बनी बनिता, जड़ जीव पतंग जहाँ परते । दुख पावत प्रान गंवावत' है, वरजे न रहैं हठसौं जरते ॥ इह भांति विचच्छन अच्छन' के वश होय अनीति नहीं करते । परती लखि जे धरनी निरखें, धनि है, धिनि है धनि हैं नर ते ॥ (५७१) छप्पय प्रथम पांडवा भूप, खेलि . जूआ सब खोयौ । मांस खाय वक राय, पाय विपदा बहु रोयौ ॥ बिन जानै मद पान जोग, जादौगन'° दझै । चारुदत्त दुख सह्यो वेसवा २-विसन अरुज्झै ॥ नृप ब्रह्मदत्त आखेटे१३ सौं द्विज शिवभूति अदत्तरति । पर रमनिराचि" रावन गयौ सातों६ सेवत कौन गति ॥ कवि जिनेश्वरदास (५७२) लावनी रंगत लंगड़ी पर नारी से दूर रहो, परनारी नागन कारी है । नरक निशानी धर्म का पंथ विगारन हारी है ॥ टेक ॥ अत्र सुगंध फुलेल लगाकर, अंग दिखावन हारी है। ऊपर चमक दमक अति सुंदर मोह जगावन' हारी है ॥ दीपशिखा सी अधमनर जंतु जराने २ वारी है । संत जिनों से दूर रहैं सो हजार२२ पुरुष की नारी है ॥१॥ ऊपर कोमल वचन सुधासम बोल बोल मन ललचावै उर अंतर२५ में किसी की कभी नहीं खातिर ल्यावै । मूरख मोही सरबथा मन लगा लगाकर बतलावै । १.दीपक की लौ २.खोता है ३.मना करने पर ४.जलते है ५.इन्द्रियों के वश ६.परस्त्री देखकर ७.जमीन की तरफ देखते है ८.वक- राजा ९.बहुत रोया १०.यादव कुल ११.जल गये १२.वेश्या व्यसन में उलझे १३.शिकार १४.पर स्त्री १५.लीन होकर १६.सातों व्यसनों के सेवन से क्या हाल होगा १७.काली १८.बिगाड़ने वाली १९.इत्र २०.दिखाने वाली २१.जगाने वाली २२.जलाने वाली २३.हजारों पुरूषों की स्त्री २४.अमृत के समान २५.हृदय २६.विश्वास २७.सर्वथा। For Personal & Private Use Only Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२१५) धरम गुमावन' पावै इष्ट दुखी हो विललावै ॥ परनारी' की प्रीत सबनन को दाग लगाने वारी है ॥२॥ चितवन वकसम फनी विषधरी विष की, बुझी कटारी है । लागै दूर चोट ओट फिर खून सुखावन हारी है । घायल हो कै हरीहर ब्रह्मा बुद्धि विसारी है । कठिन कटारी अजस की फांसी सज्जन ने परिहारी है ॥ ३ ॥ परवस दीन बनै जस खोवै ज्ञान ध्यान धन नाहि रहो जोवन छीजै बुद्धि बल रूप चतुर पन नाहिर है । धीरज साहस अरु उदारता सुविद धर्म मन नाहि रहै । एक शील बिन सुगुण सब दूर सूरपन नाहि रहै। कहै 'जिनेश्वर दास' सरबथा दुख समुद्र परनारी है ॥ ४ ॥ __कवि बुधमहाचन्द (पद ५७३-५७५) (५७३) सीता सती कहत है रावण सुन रे अभिमानी । तुम कुल काष्ट' भस्म के कारण हमे आगि आनी ॥ टेर ॥ कहा दिखावत हमको तेरी लंका रजधानी तेरा राज्य विभो हम दीसे २ जू जीर्णतृण समानी ॥सीता. ॥ १ ॥ शीलवंत पुरषन के दारिद सोहू सुखदानी ॥ शीलहीन तुमसे पापिन के सम्पत्ति दुखदानी ॥ सीता. ॥२॥ हमरे भरता३ रामचन्द्र देवर लक्ष्मण जानी महा बलवंत जगत में नामी तोसे नहीं छानी ॥ सीता. ॥३॥ चन्द्रनखा तेरी बहिन तास को पुत्र रहित ढानी । खरदूषण हति रंडा कीनी सोतें नहीं मानी ॥ सीता. ॥ ४ ॥ जो तूं कहै हम हैं विद्याधर चलत गगन पानी । काग कहा नहीं गगन चलत है सौ औगुन' खानी ॥ सीता ॥५॥ प्रतिनारायण नकभूमि'६ में कहती जिनवानी । 'बुधमहाचन्द्र' कहत हैं भावी मिटै न मेटानी ॥ सीता ॥६॥ १.गुमाने वाली २.रोता है ३.पर स्त्री ४.कलंक लगाने वाली ५.बगुला के समान ६.विषधर सर्प ७.सुखाने वाली ८.अयश ९.नष्ट होता १०.वीरता ११.कुलरूपी काठ १२.दिखाई देता १३.स्वामी, पति १४.विधवा १५.अवगुण की खान १६.नरक भूमि। For Personal & Private Use Only Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२१६) (५७४) रावण कहत लंकापति राजा सुन सीता राणी । काम अग्नि भस्मित हमको तूं दे सरीर पानी ॥ टेर ॥ देख हमारी तीन खंड की लंका राजधानी । भूमि गौचरी अरु विद्याधर रहत बंदिखानी' ॥ रावण ॥१॥ राज हमारो तीन खंड मंदोदरी सी रानी । इन्द्रजीत से पुत्र विभीषण से भाई ज्ञानी ॥रावण ॥२॥ इन्द्र आदि विद्याधर हमने जीते सब जानी । छत्र फिरत इक हमरे ऊपर और नहीं ठानी ॥ रावण ॥ ३ ॥ रंक कहाँ तेरो भर्ता हमसे रामचन्द्र मानी माहदुर्बल वनवासी दीस हमसे रहे छानी ॥ रावण ॥४॥ इत्यादिक मानी नहीं सीता शीलरत्न खानी । 'बुधमहाचन्द्र' कहत रावण की सुधि बुधि विसरानी ॥५॥ (५७५) भवि' तुम छाड़ि परत्रिया भाई निश्चय विचार कारो मन मेरे ॥ टेर ।। जप तप संजम नेम आकड़ी ध्यान धरत मुसानन मेरे । परत्रिय संगत से सब निष्फल ज्यों गज जल डारे तन मेरे ॥ १ ॥ पूज्यपना अरु मानपना फुनि धन्यपनार बड़ापन मेरे । परत्रिय संगत से सब नासे गगन में धनुष पवन थकि तेरे ॥ २ ॥ सिंह बघेरी और सर्पणी इनही की संगत दुख गिन तेरे । इनहू की संगत दुख हैं थोड़े परत्रिय संग लगे धन मेरे ॥ ३ ॥ परत्रिय संगत रावण कीनी सीता हरलायो बन मेरे । तीन खंड को राज गमायो अपजस ले गयो नर्कन मेरे ॥ ४ ॥ ज्यों ज्यों परत्रिया संगति की हैं त्यों त्यों काम बढ़ा अंग मेरे 'बुधमहाचन्द्र' जानिये दूखण परत्रिय संग तजो छिन मेरे ॥ ५ ॥ ज्यान खंड को राज कीनी सीताजय संग लगे न १.कैदी २.भविजन For Personal & Private Use Only Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२१७) कवि भूधरदास (५७६) सवैया दिढशील शिरोमनि कारज मैं, जग में जस आरज तेइ लहैं । तिनके जुगलोचन वारज हैं इह भांति अचारज आप कहै ॥ परकामनि को मुखचंद्र चितै, मैंद जाहिं सदा यह टेक गहै । धनि जीवन है तिन जीवन को धनि माय उनै उरनाय वहै ॥ (५७७) सवैया जे परनारि निहारि' निलज्ज, हँसे विगसैं बुधिहीन बड़े रे । जूठन की जिमि पातर पेखि, खुशी उर कूकर होत घने रे ॥ है जिनकी यह टेव वहै तिनको इस भौ अपकीरति है रे । है परलोक विषै दृढ दंड, करै शतखंड सुखा चल केरे॥ बुध महाचन्द्र (५७८) लावनी मरहठी तजो भवि व्यसन सात सारी । लगे निज कुल कै' अतिकारी ॥ टेर ॥ जुवात सरव द्रव्यनाशे ॥ करै नर मिल तांकी' हांस ॥ सबन में नहीं प्रतीत तां सै" । जुवारी घलै राज फांसै१ ॥ दोहा-पांडव से हो गये बली जूवाते अतिख्वार२ । बाराबरस तक राज हार के भ्रमें महा३ बनचार ॥ तजो जूवा बहु दुखकारी ॥ तजो. ॥१॥ मांस तैं जीव घातते हैं। जीभ के लम्पट'५ सेवै हैं ॥ नर्क में दुक्ख लहेव हैं। पिंड अघको मुख लेबें हैं ॥ दोहा—बक राजा बहु पुरुष हते" मांस भक्षण के काज । पांडव भीम बाली से पाये मरण नर्क दुख पाज ॥ मांसते दुख पावै भारी ॥ तजो. ॥ २ ॥ १.देखना २.वंश को ३.अतिचार ४.सब ५.उसकी ६.हंसी ७.विश्वास ८.उससे ९.जुआड़ी १०.नष्ट होता ११.फंसता है १२.बहुत वरबादी १३.महावन में भटके १४.मारते है १५.जीभ के लालची १६.पाते है १७.पाप को १८.मारके । For Personal & Private Use Only Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२१८) होत मदिरा से मति' हानी। मात अरु' युवती समजानी । वस्त्र की भी न शुद्धिठानी। कहो वृष की सुधि क्यों मानी ॥ दोहा—जादव कुल मद्य पीयके दीपायण के योग । भश्म भये हैं सहित द्वारिका फेर नहीं संयोग । मद्य सब सुधि नाशकारी ॥ तजो. ॥३॥ नीच कुकर खप्पर ज्यों है ॥ रजक की शिला होत त्यों है ॥ नीच अर उच्च सेय यों है। तजौं वैश्या बहु दुख को हैं ॥ दोहा- -चारुदत्त से सेठ हुये वेश्या” दुखरूप । सब धन खोय होय अति फीका पड़े गुंथगृह कूप ॥ तजो तातै शनि का यारी ॥ तजो. ॥४॥ रोज मृग आदि जीव धात् । शिकारी कहैं लोग तारौं । हो तबहु पाप खानि यातैं। पापकरि जाय नर्क सातै ॥ दोहा—ब्रह्मदत्त नृप खेट” दण्ड लहे विधि पंच । परभव में अति दुक्ख भोगिकै लह्यो खेट'° फल संच ॥ खेटते होत बहुत ख्वारी१ ॥ तजो. ॥५॥ लोभ के लम्पट जीव ज हैं। कपट की खनि सदा तैं हैं । करें चोरी पर गृहते हैं। खाय परिवार सहित वे हैं । दोहा—सत्यघोष मंत्री लहे चोरिरल शुभ पंच । मल्ल मुष्टि गौमय हराधन दंड तीन लहै खैच २ ॥ होय यही दुक्ख भयकारी ॥ तजो. ॥६॥ पर त्रिया सेवन दुख कारी। बिचारी ना कछु अविचारी । पति निज संग विचारण हारी। कहो कैसे होय तिहारी ॥ दोहा-रावण से बलवंत महा तीन खंड के ईश४ । पर त्रिया बांछे", दुख भोगे नर्कमांहि बहुरीश ।। पराई नारि तजो प्यारी ॥ तजो. ॥७॥ जुवातैं पांडव बक पलतें। मद्य से जादव बहुत गिलतै । वैश्या चारुदत्त मलतें। ब्रह्मदत्त नृप खेट बलतें ॥ दोहा- चोरी तैं शिवभूति दुखी रावण परत्रिय संग । १.बुद्धि नाश २.मां और स्त्री को समान मानता है ३.जल गये ४.धोबी ५.वासना के गृह रूप में ६.वेश्या का प्रेम ७.मारते है ८.सात ९.शिकार से १०.शिकार का फल ११.बरवादी १२.खींचकर १३.तुम्हारी १४.स्वामी १५.बांछा, For Personal & Private Use Only Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२१९) एक एक से हो अति दुखिया सातन को कहा रंग । कहा 'बुध महाचन्द्र' हारी ॥ तजो. ॥८॥ १८. मन कवि बुधजन (५७९) रे मन मेरा, तू मेरो कह्यो' मान मान रे॥ रे मन ॥ टेक ॥ अनंत' चतुष्टय धार के तू ही, दुःख पावत बहुतेरे ॥ रे मन. ॥ १ ॥ भोग विषय का आतुर है कै, क्यों होता है चेरा ॥ रे मन. ॥ २ ॥ तेरे कारन गति गति मांही जनम लिया है घनेरा ॥ रे मन. ॥ ३ ॥ अब जिन चरन शरन गहि 'बुधजन' मिटि जावै भवफेरा ॥ रे मन. ॥ ४ ॥ कवि भूधरदास (५८०) राग - सोरठ मेरे मन सूवा जिनपद पीजरे बसि यार लाव न वार रे ॥ टेक ॥ संसार सेंबल वृच्छ सेवत गयो काल अपार रे ॥ विषय फल तिस१ तोड़ि२ चाखे१३ कहा देख्यो सार रे॥ मेरे. ॥१॥ तू क्यों निचिन्तो४ सदा तोको तकत५ काल मजार ६ रे । दावै अचानक आन तब तुझे कौन लेय उवार रे॥ मेरे. ॥ २ ॥ तू फस्यो कर्म कुफन्द भाई छुटै८ कौन प्रकार रे । तै मोह पंछी-वधक -विद्या लखी नाहि गंवार रे॥ मेरे. ॥ ३ ॥ है अजौं एक उपाय 'भूधर', छटै जो नर धार रे । रटि नाम राजुल रमन को पशुबंध छोड़न हार रे ॥ मेरे. ॥ ४ ॥ (५८१) राग - धनासरी सो मत१ सांचो है मन मेरे ॥ टेक ॥ जो अनादि सर्वज्ञ प्ररूपित,२२ रागादिक बिन जेरे ॥१॥ १. कहा हुआ २. अनन्त दर्शन, ज्ञान, सुख, वीर्य ३. उत्सुक ४. दास ५. बहुत ६. भव चक्र ७. सुआ ८. पिंजड़ा ९. देर मत करो १०. सेमर का वृक्ष ११. उसका १२. तोड़कर १३. चखा १४. निश्चिन्त १५. देखता है १६. काल रूपी विलाप १७. पार लगायेगा १८.छुटे १९. मोहरूपी पक्षी २०. शिकारी की विद्या २१. सिद्धान्त, धर्म २२.कहा हुआ। For Personal & Private Use Only Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२२०) पुरुष प्रमान प्रमान बचन तिस कलपित' जान अनेरे । राग दोष दूषित तिन वायकर सांचै हैं हित तेरे ॥ २ ॥ देव अदोष धर्म हिंसा बिन लोभ बिना गुरु घेरे । आदि अन्त अविरोधी आगम चार रतन जहँ येरे ॥ ३ ।। जगत भर्यो पाखंड परख बिन खाइ खता बहु तेरे । 'भूधर' कोरि निज सुबुधि कसौटी धर्म कनक कसि लेरे ॥ ४ ॥ (५८२) कवित्तढईसी सराय काय पंथी . जीव वस्यो आय, रत्नत्रय निधि जापै मोख जाकौ° घर है । मिथ्या निशिकारी जहां मोहरे अंधकार भारी, कामादिक तस्कर१३ समूहन को घर है ॥ सोवै जो४ अचेत सोई, खोवै५ निज संपदा को, वहाँ गुरु पाहरू१६ पुकारै दया कर है ॥ गाफिल न हूजै भ्रात ऐसी है अंधेरी रात, "जाग रे बटोही७ यहां चोरन को डर है" ।। कवि द्यानतराय (५८३) राग-मल्हार काहे को सोचत अति भारी, रे मन ॥टेक ॥ पूरव ८ करमन की थिति बांधी, सो तो टरत न टारी ॥ काहे. ॥१॥ सब दरबनि° की तीन काल की, विधि न्यारी की न्यारी । केवल ज्ञान विषै प्रतिभासी,२१ सो२२ सो है है सारी ॥ काहे. ॥ २ ॥ सोच किये बहु बंध बढ़त है, उपजत है दुख ख्वारी२२ । चिंता चिता समान बखानी, बुद्धि करत है कारी ॥काहे. ॥ ३ ॥ रोग सोग५ उपजत चिन्ता तै, कहो कौन गनवारी । १. कल्पना किया हुआ २. झूठ ३. कहने वाले ४. धोखा ५. सुबुद्धि रूपी कसौटी ६. धर्मरूपी सोना ७. कस लो ८. ढह जायेगी ९. मोक्ष १०. जिसका ११. मिथ्या रूपी काली रात १२. मोह रूपी अंधकार १३. चोर १४. जो अचेत होकर सोता १५. अपनी संपत्ति खोता है १६. पहरेदार १७. राहगीर १८. पूर्व कर्म १९. टालने से भी नहीं टलता २०. द्रव्यों की २१. प्रतिभासित हुआ २२. वह सब होगा २३. बरबादी २४. काली २५. शोक २६. गुणवाली । For Personal & Private Use Only Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२२१) 'द्यानत' अनुभव करि शिव पहुँचे, जिन चिन्ता सब जारी ॥काहे. ॥४॥ (५८४) कहिवे को मन सूरमा'. करवे को काचा ॥ टेक॥ विषय छुड़ावै और पै, आपन अति माचा ॥१॥ मिश्री मिश्री के कहैं, मुंह होय न मीठा । नीम कहैं मुख कटु हुआ कहुँ सुना ना दीठा ॥ २ ॥ कहने वाले बहुत है करने को कोई । कथनी लोक रिझावनी, करनी हित होई ।। ३ ।। कोड़ि जनम कथनी कथै, करनी बिनु दुखिया। कथनी बिन करनी अरै, 'द्यानत' सो सुखिया ॥ ४ ॥ ___ कवि जिनेश्वरदास (५८५) दुर्लभ पायो जिनवर धरम को कर ले अपनो काज ॥ टेक ॥ मानुष भव में मन मेरा आयके, नहि देख्यो निज रूप । तिन जीवन को मन मेरा जीवनो, बिन पानी को कूप ॥ १ ॥ एक कंचन और मन मेरा कामिनी जग जाहिर वट२ मार । इनके बस जग मन मेरा डूबियो, अपनी कीज्यो सम्हार ॥ २ ॥ विषय बासना मन मेरा त्यागके, करले तत्व विचार । जिनवर वच उर मन मेरा धार के जी, जिनको कीज्यो २ विचार ॥ ३ ॥ पांचो इन्द्री मन मेरा बस करो जी, पालो संजम संत । राग द्वेष को मन मेरा परिहरो जी, यही 'जिनेश्वर' पंथ ॥४॥ कवि दौलतराम (५८६) हे मन तेरी को"कुटेव' यह करन विषय में धावै है ॥टेक ॥ इनही के वश तू अनादितै निज स्वरूप न लखावै८ है। पराधीन छिन छीन समाकुल, दुर्गति विपति चखावै९ है ॥ १ ॥ १. जला दी २. वीर ३. कच्चा ४. आसक्त ५. देखा ६. रिझानेवाली ७. काम ८. देखा ९. आत्म स्वरूप १०. कुआं ११. संसार प्रसिद्ध १२. लुटेरे १३. विचार करो १४. त्यागो १५. कौन सी १६. बुरी आदत १७. इन्द्रिय १८. दिखाई देना १९. चखता है। For Personal & Private Use Only Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२२२) फरस' विषय में कारन वारन,' गरत' परत दुख. पावै है। रसना इन्द्रीवश झष जल में कंटक कंठ छिदावै है॥ हे. ॥ २ ॥ गंध लोभ पंकज मुद्रित में, अलि निज प्राण खपावै है । नयन विषय वश दीप शिखा में, अंग पतंग जरावै° है ॥ हे. ॥ ३ ॥ करन१ विषय वश हिरन अरन २ में, खलकर३ प्रान लुनावै है । 'दौलत' तज इनको जिन भज, यह गुरु सीख सुनावै है ॥ ४ ॥ कवि भूधरदास (५८७) राग - सारंग दुबिधा कब जैहै५ या मन की ॥ टेक ॥ कब निज नाथ निरंजन सुमिरौ,१६ तज सेवा जन जन की ॥ कब रुचि सौं पीवें दृग" चातक, बूंद अखय पद घन की। कब शुभ ध्यान धरौं समता गंहि, करूं न ममता तन की ॥१॥ कब घट अंतर रहे निरंतर दृढ़ता सुगुरु बचन की । कब सुख लहौ भेद परमारथ मिटै धारना' धन की ॥२॥ कब घर छोड़ होहु एकाकी २ किए लालसा२३ बन की। ऐसी दशा होय कब मेरी हो बलि-बलि वा छन की ॥ ३ ॥ कवि नयनानन्द (५८८) राग-असावरी अरे मन पापन२५ सों नित डरिये ॥ टेक ॥ हिंसा झूठ बचन अरु चोरी परनारी नहि हरिये६ । निज पर को दुख दायन डायन तृष्णा बेग विसरिये । अरे मन पापन सो नित डरिये ॥१॥ जासों पर भव बिगड़े वीरा ऐसो काज न करिये२८ । क्यों मधु बिन्दु विषय के कारण अंध कूप में परिये। १. स्पर्श २. हाथी ३. गिरता ४. पड़ता ५. दुःख पाता है ६. मछली ७. गले में कांटा छिदता है ८. कमल ९. भौरा १०. जलाता है ११. कर्ण-कान १२. जंगल १३. दुष्ट के हाथ में १४. नष्ट करवाता है १५. जायगा १६. स्मरण करो १७. पीना १८. आंख रूपी चातक १९. अक्षय २०. शरीर की २१. धन की इच्छा (धारण) २२. अकेला २३. इच्छा २४. क्षण की २५. पापों से २६. हरण मत कीजिए २७. दुख देने वाला २८. कीजिए २९. पड़िये। For Personal & Private Use Only Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२३ ) अरे मन पापन सो नित र यहँते बेगि निकरिये ' गुरु उपदेश विमान बैठके 'नयनानंद' अव्वल पद पावे, भवसागर सों तिरिये ' अरे मन पापन सो नित so ॥ २ ॥ 1 कवि नैनसुख (५८९) क्यों नहि रे ॥ टेक ॥ मूढ़ मन मानत पर द्रव्यन को डोलत रहता, फिरै गांठ की सम्पत्ति खोता । डूब रसातल मारन गोता, सुख चाहत अर करत कुकर्म ॥ १ ॥ चिर अभ्यास कियो जिन शासन, बैठे मार मार कर आसन । तदपि भयो विज्ञान प्रकाशन, मगन भयो लख तन को चर्म ॥ २ ॥ अरे 'नैनसुख' हियके अन्धे मत कर नाम जतिन के गंदे । अब तो त्याग जगत के धन्धे, कर सुकृत कर जतन धर्म ॥ ३ ॥ कवि नन्दब्रह्म (५९०) चले ॥ टेक ॥ मन उलटी चाल पर संगति में भ्रमतो' आयो, पर संगतबन्ध' फूले ॥ रे मन. ॥ हित को छंड अहित सों राचै, मोह पिशाच झले उठ उठ अन्ध सम्हार देख अब, भाव सुधार चले ॥ रे मन. 11 आओ अन्तर आतम के ढिग पर को चपल टले । परमातम को भेद मिलत ही भव को भ्रमण गंले १ ॥ रे मन. ॥ मन को साथ विवेक धरो मित सिद्ध स्वभाव वरे १२ । बिना विवेक यही मन छिन में नरक निवास करे ॥ रे मन. 11 भेद ज्ञान में परमातम पद, आप आप उछरे १३ 1 'नन्द ब्रह्म' पर पद नहिं परसै, ज्ञान स्वभाव छरे ॥ रे मन. ॥ 11 ॥ ३ ॥ १. निकलिये २.पार होइये ३. निज की सम्पत्ति ४. खोटा कर्म ५. चमड़ा ६. यतियों के ७. पुण्य ८. भटकता ९. दूसरी की संगति में बंधकर १०. समीप ११. गलता है १२. वरण करना १३. उछलना । For Personal & Private Use Only Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२२४) (५९१) छप्पय मनरूप हाथी ज्ञान महावत डारि, सुमति' संकल' गहि खंडै । गुरु अंकुश नहिं गिनै, ब्रह्मव्रत-विरख विहडै ॥ करि सिधंत सर न्हौन,' कलि अघ रज सौं ठाने । करन चपलता धरै, कुमति करनी रति मानै ॥ डोलत सुछंद मदमत्त अति गुन पथिक न आवत उरै । वैराग्य खंभतै बांध 'नन्द' मन मतंग विचरत बुरै ॥ १९. कषाय राग- मल्हार कवि भागचन्द (५९२) मान न कीजिए हो परवीन ॥ टेक॥ जाय पलाय. चंचला१ कमला २ तिष्ठै१३ दो दिन तीन ॥ धन जोवन छनभंगुर सबही, होत सुछिन५-छिन छीन'६॥ मान. ॥ १॥ भरत नरेन्द्र खंड पटनायक, तेहु भये मद हीन । तेरी बात कहा है भाई, तू तो सहज हि दीन ॥ मान. ॥ २ ॥ 'भागचन्द' मार्दव रससागर माहिं होहु रसलीन । तातें जगत जाल में फिर कहुं जनम न होय नवीन ॥ मान. ॥ ३ ॥ कवि भूधरदास (५९३) कवित्त कंचन भंडार भरे मोतिन८ के पुंज९ परे घने लोग द्वार घरे मारग निहारते । जानि२१ चढ़ि डोलत झीने सुर बोलत हैं, काहु की हू२२ और नेक नीके न२३ चितारते । १. सुबुद्धि २. सांकल ३. तोड़ता है ४. विखंडित ५. स्नान ६. पाप रूपी धूल से ७. पास में ८. खंभा से ९.प्रवीण १०.भागकर ११.चंचल १२.लक्ष्मी १३.टहलती है १४.क्षण भंगुर १५.क्षण-क्षण में १६.क्षीण १७.मार्दव धर्म १८.मोतियों के १९.टेक २०.मार्ग २१.सवारी पर २२.किसी की भी २३.अच्छी तरह नहीं देखते। For Personal & Private Use Only Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२५ ) यौं न लांगे ३ तेई, पर पग झारते । पाय, रहे विभो धर्म ना संभार ॥ कौलों' धन खांगे कोऊ कहै फिरै पाँय नांगे कागे एतै पै अयाने गरबा धिक है समझ ऐसी ' (५९४) दीसत १४ को पुत्र को वियोग आयौ, नारी१२ काल १३ मग में यान १५ ही पै पनही १६ न पग में देखो भर जोवन में पुत्र तैसे " ही निहारी" निज जे-जे पुण्यवान जीव रंक भये फिरैं तेऊ एते पै अभाग १७ धन जीतव" सौ धरे राग १९ होय न विराग - जानै २० आंखिन विलोकि२१ अंध सूसे की अंधेरी करे, ऐसे राज रोग को इलाज कहा जग में ॥ रहूंगो अलग मैं कवित्त है (५९५) सवैया " २७ || छेम निवास छिमा २२ धुवनी २३ बिन क्रोध पिशाच २४ उरै२५ न टरैगो २६, कोमल भाव उपाव बिना, यह मान महामद कौन हरेगौ २८ आर्जव सार कुठार २९ बिना छलबेल निकंदन कौन करेगौ । " तोष ३२ ३२ शिरोमनि मंत्र पढ़े बिन, लोभ फणी ३३ विष क्यो उतरेगौ३४ कवि द्यानतराय (५९६) रे जिय क्रोध काहे करे ॥ टेक ॥ देख कैं अविवेकी ३५ प्रानी, क्यों विवेक न धरै ॥रे जि. ॥ १ ॥ जिसे ३६ जैसी उदय आवै सो क्रिया आचरै३७ । १. कब तक २. खायेंगे ३. भूखे ४ नंगे पैर ५. दूसरे के पैर झाड़ते ६. इतने पर ७. अज्ञानी ८. घमंडी ९. सम्पत्ति पाकर १०.वैसे ११.देखी १२. अपनी स्त्री १३. मृत्यु के मार्ग में १४. दिखाई देता है १५. सवारी पर ही १६. जूता १७. अभागा १८. धन और जीवन से १९. राग, प्रेम करते है २०. समझे २१. देखकर २२. क्षमा २३. धूनी २४. भूत २५. हृदय से २६. टलेगा नहीं २७. उपाय २८. हरण करेगा २९. परसा ३०. कपट रूपी लता ३१. नष्ट करना ३२. संतोष ३३. सर्प ३४. कैसे उतरेगा ३५. मूर्ख ३६. जिसके ३७. आचरण करता है। For Personal & Private Use Only Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२२६) सहज तू अपनो बिगारै', जाय दुर्गति परै ॥ रे जि. ॥ २ ॥ होय संगति गुन सबनि कों सरबरे जग उच्चरै । तुम भले कर भले सबको, बुरे लखि मति जरै ॥रे जि. ॥३॥ वैद्य परविष हर सकत नहिं, आप भीख को भरै । बहु कषाय निगोद-वसा, छिमा ‘द्यानत' तेरे ॥ रे जि. ॥ ४ ॥ द्या. (५९७) जिय को लोभ महा दुख दाई, जाकी शोभा (?) बरनी न जाई । लोभ करै मूरख संसारी, छांडै पंडित शिव अधिकारी ॥१॥ तजि घरवास फिरै बनमांही, कनक कामिनी छाडै नाही । लोक रिझावत' को व्रत लीना व्रत न होय गई१२ सा कीना ॥२॥ लोभ वशात३ जीव हत" डारै, झूठ बोल चोरी नित धारै । नारि गहै परिग्रह विसतारै, पांच पाप कर नरक सिधारे ॥ ३ ॥ जोगी जती गृही बनवासी, वैरागी दरवैश६ संन्यासी । अजस खान जिसकी नहीं रेखा, धानत' जिनके लोभ विशेष ॥ ४ ॥ कवि भूधरदास (५९८) राग-ख्याल गरव९ नहिं कीजै रे, ऐ नर निपट गँवार° ॥ टेक ॥ झूठी काया झूठी माया, छाया ज्यों लखि लीजै रे ॥ गर. ॥१॥ कै दिन२२ सांझ सुहागरू जोबन, कै दिन जग में जीजै२३ रे॥ २ ॥ वेगा" चेत विलम्ब तजो नर, बंध बढ़े तिथि२५ छीजै रे ॥ ३ ॥ 'भूधर' पल-पल हो है भारी, ज्यों ज्यों कमरी भीजै रे२६॥ ४ ॥ भू. १.बिगाड़ता है २.पड़ता है ३.सर्व ४.उच्चारण करता है, बोलता है ५.जलना ६.दूसरे का जहर ७.दूर कर सकना ८.मोक्ष ९.सोना १०.स्त्री ११.दुनिया को खुश करने १२.ठगी सी १३.लोभ के वश होकर १४.मार डालता है १५.चला जाता है १६.भिखारी १७.अयश १८.सीमा १९. घमण्ड २०. मूर्ख २१. देख २२. क्षण २३. जीयेगा २४. घमण्ड २५. दिन २६. समय व्यतीत होता है। For Personal & Private Use Only Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२२७) २०. भाव (परिणाम) कवि भागचन्द (५९९) परनति सब जीवन को तीन भांति वरनी' । एक पुण्य एक पाप, एक राग हरनी ॥ पर ॥ टेक ॥ तामैं शुभ अशुभ अंध दोय करै कर्म बंध, वीतराग परनति ही, भवसमुद्रतरनी ॥१॥ जावत शुद्धोपयोगि, पावत नाहीं मनोग, तावत' ही मरन जोग, कही पुण्य करनी ॥२॥ त्याग शुभ क्रिया कलाप, करो मत कदाच पाप, शुभ में न मगन होय, शुद्धता विसरना ॥३॥ ऊंच-ऊंच दशा धरि चित प्रमाद को विडार, ऊंचली१ दशाते मति, गिरे अधो धरनी१२ ॥४॥ 'भागचन्द' या प्रकार जीव लहै सुख अपार, याके तिरधारि स्याद्वाद की उचरनी ॥५॥ (६००) ऐसे विमल'२ भाव जब पावै, तब हम नरभव सुफल कहावै ॥ टेक ।। दरश बोधभय निज आतम लखि, पर द्रव्यनि को नहिं अपनावै । मोह राग रूष अहित जान तजि, झटित दूर तिनको छिटकावै ॥१॥ कर्म शुभाशुभ बंध उदय में हर्ष विषाद चित नहिं ल्यावै । निज हित हेत विराग ज्ञान लखि, तिनसौं अधिक प्रीति उपजावै ॥ २ ॥ विषय चाह तजि आत्मवीर्य सजि, दुखदायक विधिबंध५ सिरावे'६ । 'भागचन्द' शिवसुख सब सुखमय, आकुलता बिन लखि चित चावै ॥ ३ ॥ बुध महाचन्द्र (६०१) राग-धमाल धरमी के धर्म सदा मन में ॥ धरमी के ॥ टेक ॥ १.रही है २.वीतराग ३.पुण्य ४.पाप ५.शुद्ध ६.संसार से पार उतारने वाली नौका ७.जब तक ८.तब तक ९.भुलाना १०.दूर करके ११.ऊंची १२.नीचे जमीन पर १३.निर्मल १४.विषयों की इच्छा छोड़कर १५.कर्मबंध १६.खिराता है। For Personal & Private Use Only Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२२८) रामचन्द्र अरु सीता राणी जाय बसे दंडक वन में ॥१॥ द्वाराक्षेपण' ताहूं कीनूं मुनिवर एक मिले क्षण में ॥ २ ॥ मास एक उपवासी मुनि लखि हरणे दोउ मन बच तन में ॥ ३ ॥ दोष रहित मुनिदान निरखके पक्षी जटायु अनुमोदन में ॥४॥ 'बुध महाचन्द्र' कहा हूँ जावो धरमी के धरम सदा मन में ॥ ५ ॥ कवि दौलतराम (६०२) मेरे कब है वा दिन की सुधरी ॥ मेरे. ॥ टेक ॥ तन बिन वसन असन विन वन में, निवसो नासा दृष्टि धारी ॥ मेरे. ॥ १ ॥ पुण्य पाप पर सौं° कब विरचो, परचों२ निजनिधि चिर३ विसरी । तज उपाधि सजि सहज समाधि सहों घाम हिम मेघ झरी ॥ मेरे. ॥ २ ॥ कब घिर जोग धरों ऐसो मोहि, उपल'५ जान मृग खाज६ हरी । ध्यान कमान तान अनुभव शर छेदौं किहि दिन मोह" अरी ॥ मेरे. ॥ ३ ॥ कब तन९ कंचन२° एक गनो१ अरु, मनि जड़ितालय शैल दरी२२ । 'दौलत' सत गुरू वचन सैव जो पुरवो आशा यही हमारी ।मेरे. ॥ ४ ॥ (६०३) चित चित्त कैं विदेश कब अशेष पर वमू२३ दुखदा अपार विधि दुचारकी चमू दमू ॥ चित. ॥ टेक॥ तजि पुण्य पाप थाप आप आप में रमू८ कब राग९ आग शय-वाग दागिनी शमू ॥ चित. ॥ १ ॥ दृग ज्ञान मानतै° मिथ्या, अज्ञान तम दमू१, कब सर्वजीव प्राणी भूत सत्व को छमू२ ॥ चित. ॥ २ ॥ जल मल्ल लिप्त कल सुकल सुबल परिनमू दलके२३ त्रिशल्ल कब अटल्ल पद प{५ ॥चित. ॥ ३ ॥ १.पडगाहना २.प्रसन्न होता है ३.देखकर ४.कही भी जाओ ५.उसदिन ६.अच्छी घड़ी७.बिना वस्त्र ८.भोजन ९.नासादृष्टि धारणकर १०.पर पदार्थो से ११.विरक्त होऊ १२.पहचानूं १३.चिरकाल से भुलाई हुई १४.वर्षा १५.पत्थर १६.खुजली दूर करना १७.बाण १८.मोहरूपी दुश्मन १९.घास २०.सोना २१.एक समान गिनूं २२.पहाड़ की गुफा २३.चूंक दूं २४.दुखदायक २५.कमों की २६.सेना का २७.दमन करूं २८.रमण करूं २९.शान्ति रूपी बाग को जलाने वाली राग रूपी आग को शान्त करूं ३०.सूर्य ३१.दमन करूं ३२.क्षमा करूं ३३.नष्ट करके ३४.तीन शल्य रूपी योद्धा को ३५.पाऊँ। For Personal & Private Use Only Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२२९) कब ध्याय अज अमर को फिर न भव वियन' भमू जिन पूर कौल 'दौल' को यह हेतु ही नमूं ॥ चित. ॥ ४ ॥ कवि नरेन्द्रब्रह्म . (६०४) जिया ऐसा दिन कब आय है ॥ टेक ॥ सफल विभाव अभाव रूप है चित विकलप मिट जाय है ॥ १॥ परमातम में निज आतम में, भेदाभेद विलाय है। औरों की तो चले कहाँ फिर भेद विज्ञान पलाय' है ॥ २ ॥ आप आपको आपा जानत, यह व्यवहार लजाय है ॥ नय परमान निक्षेप कही ये, इनको औसर जाय है ॥३॥ दरसन ज्ञान भेद आतम के अनुभव मांहि पलाय है । 'नरेन्द्र ब्रह्म' चेतनमय पद में नहि पुद्गल गुण भाय" है ॥ ४ ॥ * * * १.जंगल में २.प्रमण करूं ३.विकल्प ४.नष्ट हो गया ५.भाग जाता है ६.मौका ७.अच्छा लगता है। For Personal & Private Use Only Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ For Personal & Private Use Only Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६४ २९४ १०३ ४१५ १४८ २४० ८४ ४१७ १४८ 0 पदानुक्रमणिका क्रम सं० पदानुमक्रमणिका पद सं० पृ०सं० १. अघ अंधेरे आदित्य नित्य (भूध०) १०६ २. अज्ञानी पाप धतूरा न बोय (भूध०) ३. अजित बिन बिनती हमारी (भूध०) ४. अजितनाथ सों मन लागो रे (धान) ५. अजी हो जीवा जी थाने श्री गुरु (बुध) ६. अन्त कसौं छुटै निहचे पर मूरख (भूध०) ७. अन्तर उज्जवल करना रे भाई (भूध०) ८. अपना भव उर धरना (जिने०) ९. अपनी सुधि पाये आप (अज्ञात) १०. अपनी सुधि भूलि आप दुख पायो (दौल०) ११. अब अघ करत लजाये रे भाई! (बुध०) १२. अब घर आये चेतनराय (बुध०) १३. अब तू जान रे चेतन जान (बुध०) १४. अब थे क्यों दुख पावो रे (बुध०) १५. अब नित नेम भजो (भूध०) १६. अब मेरे समकित सावन आयो (भूध०). १७. अब मोहि जान परि भवोदधि (दौल०) १८. अम मोहि तारि लेहु महावीर (द्यान०) १९. अब हम अमर भए न मरेंगे (द्यान०) २०. अब हम अमर भए न मरेंगे (ज्योति) २१. अब हम आतम को पहिचान्चान्यों (धान) २२. अब हम आतम को पहिचाना (द्यान०) २३. अब हम नेमिजी की शरण (द्यान०) ___ ५५ २४. अमूल्य तत्त्व विचार (श्रीमद्) ५०३ १८५ २५. अमृत झर झुरि-झुरि आये (महा०) १७९ ६१ ० 3 ५३० - १६८ ४४० ४०२ For Personal & Private Use Only Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ م ३५५ ३८१ ३४९ ७१ १२५ १३४ १२३ २३ ९५ له سه m م १५७ له ३२२ ४३६ ५८७ ५८९ ४९२ २५९ २२२ २२३ १८१ سه १८१ २७४ ९५ r २६. अरज करूँ तसलीम करूँ (बुध०) २७. अरज मोरी एक मान जी (महा०) २८. अरज म्यारी मानों जी (बुध०) २९. अरहन्त सुमर मन वावरे (द्यान०) ३०. अरिरज हंस हनन प्रभु अरहन्त (दौल०) ३१. अरे जिया जग धोखे की टाटी (दौल०) ३२. अरे मन आतम को पहचान (ज्योति) ३३. अरे मन करले आतम ध्यान (सुख०) ३४. अरे ! मन पापन सों नित डरिये (नयना० ) ३५. अरे ! हाँ चेतो रे भाई (भूध०) ३६. अरे हाँ रे तो सुधरी बहुत बिगारी (बुध०) ३७. अरे हो जियरा धर्म में चित्त (भाग०) ३८. अहो ! इन आपने अभाग उदै (भूध०) ३९. अहो ! जगत-गुरु एक सुनियो अरज (भूध०) ४०. अहो ! देखों केवलज्ञानी (बुध०) ४१. अहो ! मेरे तुमसौं बीनती (बुध०) ४२. अहो ! यह उपदेश मांहि (भाग०) ४३. आकुल रहित हो इमि निशि दिन (भाग०) ४४. आगम अभ्यास होहु सेवा (भूध०) ४५. आगे कहा करसी भैया आ जासी जब (बुध०) । ४६. आज गिरिराज निहारा, धन भाग हमारा (दौल०) ४७. आज तो बधाई हो नाभि द्वार (बुध०) ४८. आज मनरी बनी छै जिनराज (बुध०) ४९. आज मैं परम पदारथ पायौ (दौल०) ५०. आतम अनुभव आवै जब जिन (भाग०) ५१. आतम अनुभव करना रे भाई (द्यान०) u ५४३ ३८६ २ ३६० २७५ or १२७ ३ १२७ ९६ ३९४ १४० ० ० १२२ २६३ १४० ४८० ० ० ० ० ० ७ १३५ ३९३ ४०१ ४६ १४० १४२ For Personal & Private Use Only Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४० ४१० १४६ १४५ ४०८ ४०५ १४४ ४२५ ४०३ ४२८ ४३३ ४४४ ہ ہ ہ w. ५२. आतम अनुभव करना रे भाई (चम्पा०) १५९ ५३. आतम अनुभव कीजै हो (द्यान०) ५४. आम जान रे जान रे जान रे (द्यान०) ५५. आतम जानो रे भाई (द्यान०) ५६. आतम रूप अनूपम (दौल०) ५७. आतम रूप अनूपम है (द्यान०) ५८. आतम रूप निहार (राम०) १५४ ५९. आतम स्वरूप सार को जाने (सुख०) १५६ ६०. आत्मा क्या रंग दिखाता नए-नए (मक्खन०) ६१. आदिनाथ तारन तरन (द्यान०) ८२ २७ ६२. आनन्द मंगल आज हमारे (जिने०) १४७ ५० ६३. आपके हिरदै सदा सुविचार (जिने०) ३१५ १११ ६४. आप में जब तक कोई आपको पाता नहीं (न्यामत०) ४४१ ६५. आपा नहीं जाना तूने, कैसा ज्ञानधारी रे (दौल०) ४२३ । १५२ ६६. आपा प्रभु जाना मैं जाना (द्यान०) १४२ ६७. आया रे बुढ़ापा मानी (भूध०) २९१ १०२ ६८. आया रे बुढ़ापा मानी (भूध०) ५६० २१० ६९. आयो सहज वसन्त खेलें सब होरी (द्यान०) ५१४ १९० ७०. आयो है अचानक भयानक असाता (भूध०) ३०२ १०६ ७१. आयौ जी प्रभु थांपै करमांरो (बुध०) २०६ ७२. आवै न भोगन में तोहि गिलान (भाग०) ५२२ ७३. इक योगी असन बनावें (नयना०) २१२ ७३ ७४. उत्तम नरभव पायकै (बुध०) ४८९ १८० ७५. उरग सुरग नरईश शीश जिस (दौल०) ९४ ३१ ७६. ऋषभ जिन आवता (महा०) ९७ ३३ ७७. ए जी मोहि तारिये (भूध०) ہ ४०० ہ २९१ ہ ہ ५१४ ہ १९४ س ४८९ ہ مر ४० or For Personal & Private Use Only Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२ १०२ __ ७० ० स ० ० स ० ० २६५ ८ ४९१ १८१ ३११ ३८० १३३ ३८७ १२८ १४२ ४८ २९५ १०४ १७० ५७ ७८. ए विधि भूल तुम” (भूध०) ५६५ ७९. ऐसी समझ के सिर धूल (भूध०) ८०. ऐसे मुनिवर देखे वन में (बना०) ८१. ऐसे विमल भाव जग पावै (भाग०) ८२. ऐसे साधु सुगुरु कब मिलि है (भाग०) ८३. ऐसो ध्यान लगावो भव्य जासों (बुध०) ८४. ऐसो श्रावक कुल तुम पाय (भूध०) ८५. ऐसो सुमरन कर मोरे भाई (द्यान०) ८६. ओर निहारो मोर दीनदयाल (महा०) ८७. और ठौर क्यों हेरत प्यारा तेरे ही (बुध०) ८८. और निहारो जी श्री जिनवर स्वामी (महा०) ८९. और सब थोथी बातें (भूध०) और सबै जग द्वन्द्व मिटायो (दौल०) और सबै मिलि होरी रचा (बुध०) ९२. कंचन कुंभन की उपमा (भूध०) ९३. कंचन दुवि व्यञ्जन लच्छन जुत (बुध०) ९४. कञ्चन भण्डार भरे मोतिन के पुञ्ज परे (भूध०) ५९३ ९५. कब मैं साधु स्वभाव धरूँगा (भाग०) ९६. कर-कर जिनगुण पाठ जात अकारथ रे जिया(अज्ञात) ५५४ ९७. करनौं कहु न करनतें (भूध०) ९८. कर पद दिढ़ हे तेरे पूजा तीरथ सारो (द्या०) ९९. करम जड़ है न इनसे डर (सुख०) १००. करम देत दुख जोर हो (बुध०) १०१. करम वश चारों गति जावे (जिने०) ४६९ १०२. कर रे! कर रे! कर रे! तू आतम हित कर रे (द्यान०)४११ १०३. कर लै हो सुकृत का सौदा (बुध०) ५०८ १८८ २१३ ४ २२४ २११ २०६ ४८ १०९ १७४ ४७४ ३४३ १२२ १७२ १४६ २७१ For Personal & Private Use Only Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२४ १५२ ९८ ४७० १७३ ४६४ १७० १०८ १६७ ५८३ २२० २२१ ४७ کتنا 3 ur m २१२ २०० ५३६ २४३ ८५ १०४. करो कल्याण आतम का भरोसा है न (चुत्री०) ५५३ १०५. करो मन आतम वन में केल (सुख) १०६. करौ रे भाई तत्त्वारथ सरधान (भाग०) २८१ १०७. कर्मनि की गति न्यारी (मक्खन०) १०८. कर्म बड़ा देखो भाई! जाकी चंचलताई (जिने०) १०९. कहत सुगुरु करि सुहित भविक जन (द्यान०) ३०७ ११०. कहा परदेशी को पतियारो (भैया भग०) ४५९ १११. काहे को सोचत अति भारी रे (द्यान०) ११२. कहिवे को मन सूरमा (द्यान०) ५८४ ११३. काउसग्गमुद्रा धरि वन में (भूध०) ११४. कानन वसै ऐसो आन न गरीब जीव (भू०ध०) । ५६६ ११५. कानी कौड़ी विषय सुख (भूध०) ११६. कारज एक ब्रह्म ही सेती (द्यान०) ११७. काल अचानक ही ले जायगा (बुध०) ११८. काहू घर पुत्र जायो (भूध०) ११९. काहे को बोलतो बोल बुरे नर (भूध०) १२०. की पर कराँ जी गुमान थे (बुध०) १२१. कीजिए कृपा मोहि दीजिए स्वपद (भाग०) ३६६ १२२. कुगति बहन गुन गहन दहन दावानल सी (भूध०) ५६८ १२३. कुन्थन के प्रतिपाल कुंथु जग तार (दौल०) १२४. कुमति को कारज कूडाँ हो जी (बुध०) २४५ १२५. कुमति को छाड़ो भाई हो (महा०) २३३ १२६. कृमिरास कुवास सराप दहैं शुचिता सब (भूध०) १२७. केवल ज्योति सुजागी जी (भाग०) १५८ १२८. कैसी छवि सोहे मानो सांचे में ढारी (जिने०) १२८ १२९. कैसे करि केतकी कनेर एक कही जाय (भाग०) १६३ ४४६ १६२ ५३५ १९९ १०६ ३०१ २७२ ९५ १२९ یہ مر १०६ سہ ८५ ८१ ५६३ ५३ ४४ ५५ For Personal & Private Use Only Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३०. कैसे-कैसे बली भूप भूपर (भूध० ) १३१. कोई नहिं सरन सहाय जगत में भाई (जिने ० ) १३२. खेलत फाग महामुनि वन में (कुञ्जी ० ) १३३. गरव नहीं कीजे रे नर निपट गँवार (भूध० ) १३४. गरब नहीं कीजे रे ऐ नर निपट गँवार (भूध० ) १३५. गिरनारी पै ध्यान लगाया (भाग ० ) १३६. गिरि वनवासी मुनिराज (भाग ० ) १३७. गुरु कहत सीख इमि बार - बार (दौल०) १३८. गुरु दयाल तेरा दुख लखि कै (बुध० ) १३९. गुरु ने पिलाया जी ज्ञान पियाला (बुध ० ) १४०. गुरु समान दाता नहिं कोई (द्यान० ) १४१. ज्ञान जिहाज बैठ गनधर (भूध० ) १४२. ज्ञान बिन थान न पावौगे (बुध ० ) १४३. ज्ञान महावत डारि सुमति (नन्दब्रह्म०) १४४. ज्ञान सरोवर सोई हो भविजन (द्यान० ) १४५. ज्ञान स्वरूप तेरा तू अज्ञान (सुख० ) १४६. ज्ञानी ऐसी होरी मचाई (दौल०) १४७. ज्ञानी ज्ञानी नेमिजी तुम ही हो ज्ञानी (द्यान० ) १४८. ज्ञानी जीव दया नित पालैं (द्यान० ) १४९. ज्ञानी जीव निवार भरम (दौल०) १५०. ज्ञानी जीवन के भय होय न (भाग ०) १५१. ज्ञानी थारी रीति रे ! अचम्भौ (बुध ० ) १५२. ज्ञानी मुनि छै ऐसे स्वामी (भाग ० ) १५३. घट में परमातम ध्याइवे हो (द्यान० ) १५४. घड़ी दो घड़ी मंदिर जी में जाया करो (जिने ० ) १५५. चन्द जिनेसुर नाथ हमार, महासेन सुत लागत प्यारा (बुध ० ) For Personal & Private Use Only ४५५ ४६७ ५१८ २८५ ५९८ २९ २१० ५२७ १८३ १८४ १९५ ४६ २४१ ५९१ २४२ २५५ ५१६ ६२ २५१ ३३५ २४६ २४८ १९० ३०६ ३१२ १६६ १७० १९२ १०० २२६ ९ ७२ १९६ ६२ ६३ ६६ १५ ८४ २२४ ८४ ८९ १९१ २० ८८ ११८ ८६ ८७ ६५ १०८ ११० १ Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७ . १९ १७८ २०१ ک ५६७ २८८ १०१ ६०३ ___ २६८ ४३८ १५६. चन्दाप्रभु देव देख्या दुख भाग्यौ (बुध०) १५७. चन्द्रानन जिन चन्द्रनाथ (दौल०) १०७ १५८. चल देखे प्यारी नेमि नवल (द्यान०) ५९ १५९. चलि सखि देखन नाभिराय घर नाचत हरि (दौल०) ४८४ १६०. चाहत है धन होय किसी विध (भूध०) ५४० १६१. चिन्ता तजै न चोर रहत चौकायत (भूध०) १६२. चित! चेतन की यह विरियां रे (भूध०) १६३. चितवन वदन अमल चन्द्रोपम (भूध०) १६४. चित्त-चित्त कै विदेश कब अशेष पर (दौल०) १६५. चिदानन्द भूलि रह्यो सुधिसारी (महा०) २२९ १६६. चिन्मूरति दिग्धारी की मोहि रीति (दौल०) २०१ १६७. चुप रे मूढ़ अजान (बुध०) १६८. चेतन अखियाँ खोलो ना (ज्योति०) १६९. चेतन कौन अनीति गही री (दौल०) ३२५ १७०. चेतन खेल सुमति संग होरी (बुध०) १७१. चेतन खेले होरी (द्यान०) ५१३ १७२. चेतन तैं याही भ्रम ठान्यो (दौल०) ३२७ १७३. चेतन तेहि न नेक संभार (बना०) १७४. चेतन निज भ्रमतें भ्रमत रहै (भाग०) १७५. चेतन भ्रमत अधीर हो (कुञ्जी०) १७६. चेतन यह बुधि कौन सयानी (दौल०) १७७. चेतन राग किसोरी (कुञ्जी०) ५१९ १७८. छवि जिनराई राजै छै (बुध०) १७९. छांड़त क्यों नहि रे नर (दौल०) ३३६ १८०. छोड़ि दे अभिमान जियरे (भैया भग०) १८१. छोड़ि दे या बुधि भोरी (दौल०) ३२० १५८ ११५ ५०७ १८८ 2 r o or m 9 १९० ११५ m ک ك m ३३८ و 0 २०८ १२१ ہ مر ३४० ل م o १९३ ک سه ० سه m ११९ م m m م ३३९ १२० و ० ११३ سه For Personal & Private Use Only Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १११ ५९५ ५६२ ३१३ २११ ११० . 7°) ५४९ २०४ १९८ १८७ २०४ ५३२ ५०५ ५४८ २४७ ५४९ १७९ / २१८ २३७ ८२ १८२. छिन न विसारां चित सौं (बुध०) १८३. छेम निवास छिमा धुवनी बिन (भूध०) १८४. जंगम जिय को नास होय (भूध०) १८५. जगउ की झूठी सब माया (जिने०) १८६. जगत जंजाल से हटना (सुख०) १८७. जगत जन जूवा हारि चले (भूध०) १८८. जगत में आयो न आयो (अज्ञात) १८९. जगत में कोई नहीं मेरा (सुख०) १९०. जगत में सम्यक उत्तम भाई (द्यान०) १९१. जगत में होनहार सो होवे (बुध०) १९२. जग में जगती जिनवाणी (महा०) १९३. जग में श्रद्धानी जीव (भूध०) १९४. जड़ता बिन आप लखें (नयना०) १९५. जनम जलधि जलजान जान (भूध०) १९६. जब हंस तेरे तन का कहीं (न्यामत०) १९७. जम आन अचानक दावेगा (दौल०) १९८. जय जय जग भरम तिमिर हरन (दौल०) १९९. जय जय नेमिनाथ परमेश्वर (द्यान०) २००. जय जिन वासुपूज्य (दौल०) २०१. जय शिवकामिनी कंतवीर (दौल०) २०२. जय श्री ऋषभ जिनेन्द्रा (दौल०) २०३. जय श्री वीर जिनेन्द्र चन्द्र (दौल०) २०४. जयवंतो जिनविंब जगत मैं (जिने०) २०५. जयौ नाभि भूपाल बाल (भूध०) २०६. जब लैं आनन्द जननि दृष्टि परी भाई (दौल०) । २०७. जाउँ कहाँ तज शरण तिहारे (दौल०) ५३ ४५३ م G که ८१ १०८ १०४ १०३ १२६ ४९ १७४ ३७५ १३२ For Personal & Private Use Only Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९७ १५९ २३४ २३४ ८१ ४३४ १५६ ५ .. १३९ ४७ १३८ ४७ ० ० १८४ ३ w २०३ ० v २०८. जाकौ इन्द्र चाहे अहमिन्द्र चाहें (भूध०) २०९. जानके सुज्ञानी, जैनवानी (भाग०) २१०. जान-जान अब रे हे नर आतम ज्ञानी (नन्द०) २११. जानत क्यों नहिं रे (दौल०) २१२. जान लियो मैं जान लियो (बुध०) २१३. जाना नहीं निज आतमा ज्ञानी हुए तो (शिव०) २१४. जिनके हिरदै प्रभु नाम नहीं (द्यान०) २१५. जिन छवि तेरी यह धन जग तारन (दौल०) २१६. जिन छवि लखत यह बुधि भयी (दौल०) २१७. जिनधर्म रतन पाय कै (जिने०) २१८. जिननाम सुमर मन! बावरे (द्यान०) २१९. जिन राग द्वेष त्यागा वह सतगुरु (दौल०) २२०. जिनराज चरन मन मति विसारै (भूध०) २२१. जिनराज न विसारो मति (भूध०) २२२. जिनराज शरण में तेरी सुन पुकार (भूरा०) २२३. जिनवर आनन भान निहारत (दौल०) २२४. जिनवाणी के सुन से मिथ्यात मिटे (बुध०) २२५. जिनवाणी गंगा जन्म मरण हरणी (महा०) २२६. जिनवाणी सदा सुखदानी (महा०) २२७. जिनवानी जान सुजान रे (दौल०) २२८. जिन वैन सुनत मोरी भूल भगी (दौल०) २२९. जिन स्वपर हिताहित चीना (भाग०) २३०. जिय को लोभ महासुखदाई (द्यान०) २३१. जिया ऐसा दिन कब आय है (नन्द०) २३२. जिया का मोह महा दुख दाई (भैया० भग०) २३३. जिया तुम चालो अपने देश (दौल०) ० १०० ३४ ४४ ० m १५३ ५२ 9 ur १७७ १७२ १७१ ५८ ५ ॥ १४० m २२६ ५९७ ६०४ २२९ ४७२ १७३ ४१६ १४८ For Personal & Private Use Only Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३४ ५०६ ११८ १८७ १११ ११८ m ३१६ ३३३ m m २७६ m r २३० ४६२ ४६२ १६९ ३०८ २७७ __ ९७ ५७७ २१७ १८९ 3 3 " " ४३५ १५७ ४५० १६४ २३४. जिया तूने लाख तरह समझायो (महा०) २३५. जिया तैं आतम हित नहीं चीना (धान) २३६. जीव तू अनादि ही तैं भूलो (दौल०) २३७. जीव तू भ्रमत भ्रमत भव खोयो (महा०) २३८. जीव तू भ्रमत सदीव (भाग०) २३९. जीव निज-रस राचन (महा०) २४०. जीवनि के परिणामनि की यह अति (भाग०) २४१. जीव! वै मूढ़पना कित्त पायो (द्यान०) २४२. जे दिन तुम विवेक बिन खोये (भाग०) २४३. जे परनारि निहारि निलज्ज (भूध०) २४४. जे सहज होरी को खिलारी (भाग०) २४५. जो आनन्द निज घर में (सुख०) २४६. जोई दिन कटे सोई आव में (भूध०) २४७. जो जग वस्तु समस्त (भूध०) २४८. जो जो देखी वीतराग ने (भैया भाग०) २४९. जो धन लाभ लिलाट लिख्यौ (भूध०) २५०. जौलौ देह तेरी काहू रोग से (भूध०) २५१. ढईसी सराय काय (भूध०) २५२. तजो भवि व्यसन सात सारी (महा०) २५३. तन के मवासी हो अयाना (बुध०) २५४. तन देख्या अथिर घिनावना (बुध०) २५५. तन नहीं छूता कोई चेतन (कुन्दन०) २५६. तहाँ लै चल री ! जहाँ जादौपति (भूध०) २५७. तारौ क्यों न तारो जी (बुध०) २५८. तुम गुनमनि निधि हौ अरहन्त (भाग०) २५९. तुम त्यागो जी अनादि भूल (जिने०) ४१ ४७३ १७४ ४६५ १७० ५३७ ० ५८२ ० ५७८ ० २५८ ० ४४७ m ५५४ 9 ४४ १५ ३४७ १२३ G २३ ३१४ ११० For Personal & Private Use Only Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११ २६०. तुम परम पावन देख जिन अरि रज रहस्य विनासनं ३० (भाग ० ) २६१. तुम प्रभु कहियत दीनदयाल (द्यान० ) २६२. तुम सुनिये श्री जिननाथ (दौल०) २६३. तुम हो दीनन के बन्धु (कुञ्जी ० ) २६४. तुम्हें देखि जिन हर्ष हुवो (महा० ) २६५. तू कोई चाले लाग्यो रे लोभीड़ा (बुध ० ) २६६. तू काहे को करत रति (दौल० ) २६७. तू जिनवर स्वामी मेरा, मैं सेवक (द्यान० ) २६८. तू तो समझ रे भाई (द्यान० ) ३६९. तू नित चाहत भोग नए (भूध० ) २७०. तू मेरा कह्या मान रे (बुध० ) २७१. तू स्वरूप जाने बिन दुखी (भाग ० ) २७२. तेज तुरंग सुरंग भले रथ (भूध० ) २७३. तेरी बुद्धि कहानी सुनि मूढ़ अज्ञानी ( बुध ० ) २७४. तेरो करि लै काल बखत फिरना (बुध ० ) २७५. तेरे ज्ञानावरन दा परदा तातैं (भाग ० ) २७६. तैं क्या किया नादान ( बुध) २७७. तो कौं सुख नाहीं होगा लोभीड़ा (बुध) २७८. तोहि समझायो सौ-सौ बार (दौल०) २७९. त्रिदश पंथ उरधार चतुर नर ( जिने ० ) २८०. त्रिभुवन नाथ हमारो हो (बुध ० ) २८१. थांका गुण गास्या जी आदि जिणंदा (बुध० ) २८२. थांका गुण गास्या जी जिनवी राज (बुध० ) २८३. थांकी कथनी म्हानै प्यारी लागे (भूध० ) २८४. थांकी तो वानी में जो जिन (बुध ० ) For Personal & Private Use Only ३७२ ३७९ ३८५ १४३ २६२ २२६ ५७ ३०४ ५२६ २७० ३९८ ५४१ २६.९ २५७ २४४ २६७ २६१ ३२१ १६६ १२ १० १३ १६१ १८० १० १३१ १३३ १३६ ४८ ९२ ७८ १९ १०७ १९६ ९४ १४१ २०१ ९४ ९० ८५ ९३ ९१ ११३ ५६ ४ ४ ४ ५४ ६१ Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ २८५. थारा तो वैना में सरधान ( दौल०) २८६. थे ही मोनै तारो जी ( बुध ० ) २८७. दरसन तेरा मन भावे (द्यान० ) २८८. दिढ़ शील शिरोमनि कारज मैं (भूध० ) २८९. दिन यों ही बीते जाते हैं (चम्पा० ) २९०. दिवि दीपक लोय बनी (भूध० ) २९१. दीठा भागन तैं जिनपाला (दौल०) २९२. दुनिया में सबसे न्यारा ( मक्खन ० ) २९३. दुर्लभ पायो जिनवर धरम (जिने ० ) २९४. दुविधा कब जैहैं या मन की (बना० ) २९५. दृष्टि घटी पलटी तन की छवि ( भूध० ) २९६. देखने को आई लाल मैं तो (भूध० ) २९७. देखहु जोर जरा भटकौ ( भूध० ) २९८. देखि जिनरूप द्वे नयना ( महा० ) २९९. देखि नया आज उछाव (बुध० ) ३००. देखे जगत के देव राग रिससौ भरे ( बुध ० ) १७३ ३५० १२४ ५७६ ४५२ ५७० १३४ ४४३ ५८५ ५८७ ५४२ ४३ ४५१ १४५ ४८० ११६ २२० ४८८ ३०३. देखो गरब गहेली रे हेली जादोपति की नारी (भूध०) ३९ ३०४. देखो पुद्गल का परिवारा (महा० ) २२८ ३०५. देखो भर जोवन में पुत्र को वियोग (भूध० ) ५९४ ४४५ ३०६. देखो भाई आतमदेव विराजै (भूध० ) ३०७. देखो भाई आतम राम विराजै (द्यानं ० ) ३०८. देखो भाई श्री जिनराज विराजै (द्यान० ) ४१३ ७९ ३०९. देखो भूल हामरी ( बुध ० ) २३१ ३१०. देखो भेक फूल लै निकस्यो (द्यान० ) १२५ ३०१. देखे सुखी सम्यकवान (द्यान० ) ३०२. देखो आज बधाई रंग भीनी हो ( महा० ) For Personal & Private Use Only ५८ १२४ ४२ २१७ १६४ २१४ ४६ १६१ २२१ २२२ २०१ १४ १६४ ४९ १७७ ४० ७६ १७९ १३ ७९ २२५ १६२ १४७ २६ ८० ४३ Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३ ३११. देख्या मैंने नेमि जी प्यारा (द्यान० ) ३१२. देख्यो री कहीं नेमिकुमार (भूध० ) ३१३. देव गुरु साचें मन सीचो (भूध ० ) ३१४. धन कारन पापनि प्रीति करे (भूध० ) ३१५. धन-धन जैनी साधु (भाग ० ) ३१६. धनि चन्द्र प्रभ देव ऐसी सुबुधि उपाई (बुध) ३१७. धनि ते प्रानि जिनके तत्वारथ श्रद्धान (भाग १ ) ३१८. धनि धनि ते मुनि गिरिवन वासी (द्यान० ) ३१९. धनि मुनि आतम हित कीना (दौल० ) ३२०. धनि मुनि जिनकी लगी लौ शिव ओर (दौल०) ३२१. धनि मुनि जिन यह भाव पिछाना (दौल०) ३२२. धनि सरधानी जग में (बुध ० ) ३२३. धनि ते साधु रहत वन मांहि (द्यान० ) ३२४. धन्य घड़ी याही धन्य घड़ी री ( महा० ) ३२५. धन्य धन्य है घड़ी आज की (भाग ० ) ३२६. धरमी के धर्म सदा मन में (महा० ) ३२७. धर्म एक शरण जिया दूसरो न कोई (बाजू०) ३२८. धर्म बिना कोई नहीं अपना (बुध) ३२९. धिक-धिक! जीवन समकित बिना (द्यान० ) ३३०. ध्यान कृपान प्रति गहि नासो ( दौल) ३३१. नहिं ऐसा जनम बार - बार (द्यान० ) ३३२. नहिं वृथा गमावे सहसा नहिं पावे ( सुख ० ) ३३३. नाथ भए ब्रह्मचारी सखी घर में न रहूँगी (भाग ० ) ३३४. न मानत यह जिय निपट अनारी (दौल०) ३३५. निज कारज काहे न सारे (भाग ० ) ३३६. निजघर नाय पिछान्या रे (महा० ) For Personal & Private Use Only ६३ ३६ २९९ ५६४ १८९ १४ २१६ १९७ २०५ २०३ २०४ २१३ १९६ ४८५ १६० ६०१ ४५७ २६४ २३८ ९१ ४९८ ४९९ २८ ३२४ २७९ २३२ २१ १२ १०५ २१२ ६४ ७४ ६७ ७० ६९ ७० ७३ ६७ १७८ ५४ २२७ १६७ ९२ ८३ ३० १८३ १८३ ९ ११४ ९८ ८० Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ ३३७. निजपुर आज मची होरी (बुध०) ५०८ १८८ ३३८. निजरूप को विचार निजानन्द स्वाद लो (सुख०) १५५ ३३९. निजरूप सजो भव कूप तजो (कुञ्जी०) ४२२ १५१ ३४०. निजहित कारज करना भाई (दौल०) ___३२९ ११६ ३४१. नित पज्यिो धी-धारी जिनवाणी (दौल०) १८२ ३४२. निरखत जिन चन्द्रवदन स्वपर सुरुचि आई (दौल०) १३१ ३४३. निरखत सुख पायो जिनमुखचन्द (दौल०) १३७ ३४४. निरखे नाभिकुमार जी मेरे नैन सफल भए (बुध०) ३४५. नेमि नवल देखें चल रही (द्या०) ३४६. नेमि प्रभु की श्याम वरन छवि (दौल०) ३४७. नेमि बिना न रहे मेरा जियरा (भूध०) ३४८. नेमि रमते बाल ब्रह्मचारी (महा०) ९९ ३३ ३४९. नैननि बान परी दरसन की (भूध०) ११८ ३५०. नैन शान्त छवि देखि के दोऊ (बुध०) ३४५ ३५१. पद्म सद्म पद्मा मुक्ति परम दरसावन है (दौल०) १०५ ३५२. परदा पड़ा है मोह का आता नजर नहीं (न्या०) ४७५ १७५ ३५३. परनति सब जीवनि की तीन भाँति बरनी (भाग०) ५९९ ३५४. परनारी से दूर रहो परनारी नागन कारी है (जिने०) ५७२ २१४ ३५५. परम कल्याण भाजन में अमृत (सुख०) ३५६. परम गुरु बरसत ज्ञान झसे (द्यान०) ३५७. परम रस है मेरे घर में (सुख०) ४३६ १५७ ३५८. पूजा रचाउँ जो पूजन फल पाऊँ (महा०) १४१ ४८ ३५९. प्रथम पाण्डवा भूप खेलि जुआ सब खोयौ (भूध०) ५७१ ३६०. प्रभु अब हमको होहु सहाय (द्यान०) ३६९ __ १३० ३६१. प्रभु गुन गाये रे यह औसर (भूध०) २९७ १०५ ३६२. प्रभु जी अरज हमारी उर धारी (बुध०) .. ४२९ __ १५४ १९४ ४८ २१४ ३५१ १२४ For Personal & Private Use Only Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८४ ११२ ७५ ७४ ७३ ३४८ ३७७ द २२४ १५ ३६३. प्रभु तुम आतम ध्येय करो (चम्पा०) ३६४. प्रभु तुम मूरत दृग सों निरखें (भाग०) ३६५. प्रभु तुम सुमरन ही में तारे (द्यान०) ३६६. प्रभु तेरी महिमा कहिय न जाय (द्यान०) ३६७. प्रभु तेरी महिमा किहि मुख गावैं (द्यान०) ३६८. प्रभु थांको लखि मम चित हरसायो (भाग०) ३६९. प्रभु थांसू अरज हमारी हो (बुध०) ३७०. प्रभु मोरी ऐसी बुधि कीजिए (दौल०) ३७१. प्रभु मैं किहि विधि थुति करौ तेरी (द्यान०) ३७२. प्रभु म्हांकी सुधि करुना करी लीजे (भाग०) ३७३. प्रानी समकित हो शिवपंथा (भाग०) ३७४. प्रेम अब त्यागहु पुद्गल का (भाग०) ३७५. प्यारी लगै म्हाने जिन छवि थारी (दौल०) ३७६. प्यारी लगै म्हाने जिन छवि थारी (दौल०) ३७७. फूली बसन्त जहँ आदीसुर शिवपुर गए (द्यान०) ३७८. बधाई आली नाभिराय घर (म०च०) ३७९. बधाई चन्द्रपुरी में आज (बुध०) ३८०. बधाई भई हो तुम निरखत (बुध०) ३८१. बधाई राजै हो आज बधाई राजै (बुध०) ३८२. बन्दौं अद्भुत चन्द्र वीर (दौल०) ३८३. बन्दौं जगतपति नामी (जिने०) ३८४. बन्दौं नेमि उदासी मद मारिने को (द्यान०) ३८५. बरसत ज्ञान सुनीर हो (भाग०) ३८६. बसि संसार में पायो दुःख (द्यान०) ३८७. बाबा! मैं न काहू का (बुध०) ३८८. वामा घर बजत बधाई (दौल०) ६८ ४७९ ४७९ ४७७ ४७६ MONG . ४४८ ४७८ १७६ For Personal & Private Use Only Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८२ ४९५ ४९४ / ___ १८२ २०१ ५३९ ___m . ० १०३ १२६ ३५८ ५३४ 9 on o छ ur I m o or ४९२ १८१ ३८९. बाय लगी कि बलाय लगी (भूध०) ३९०. बालपनैं संभार सक्यौ कछु (भूध०) ३९१. बालपनै बाल रह्यौ पीछे (भूध०) ३९२. बिन काम ध्यान मुद्राभिराम (भाग०) ३९३. बीरा! थारी बान बुरी परी (भूध०) ३९४. बेगि सुधि लीज्यौ म्हारी (बुध०) ३९५. भगवन्त भजन क्यों भूला रे (भूध०) ३९६. भज जिन चतुर्विंशति नाम (बुध०) ३९७. भज ऋषिपति ऋषभेश (दौल०) ३९८. भज श्री आदिचरन मन मेरे (द्यान०) ३९९: भजन बिन यौँ ही जनम गंवायो (सुख) ४००. भला होगा तेरा यों ही जिनगुन (बुध०) ४०१. भलो चेत्यो वीर नर तू भलो (भूध०) ४०२. भवदधि तारक नवकार जगमांहि (बुध) ४०३. भववन में नहीं भूलिये (भाग०) ४०४. भवि तुम छोड़ि परत्रिया भाई (महा०) ४०५. भवि देखि छवि भगवान की (भूध०) ४०६. भविन सरोरुह सूर भूरि (दौल०) ४०७. भाई ! अब मैं ऐसा जाना (द्यान०) ४०८. भाई ! कौन धर्म हम पालें (द्यान०) ४०९. भाई ! ज्ञान की राह सुहेला (द्यान०) ४१०. भाई ज्ञानी सोई कहिये (द्यान०) ४११. भाई ! चेतन चेत सके तो चेत (महा०) ४१२. भोर भयो भज श्री जिनराज (द्यान०) ४१३. भ्रम्यो जी भ्रम्यो संसार महावन (धान) ४१४. मगन रहु रे ! शुद्धातम में मगन रहु (द्यान०) I ० 0 ० 9 3 ११७ ____w २९ ४०७ १४५ १९८ ६७ ३३२ ७७ २५ ८७ २४९ ४०६ १४४ For Personal & Private Use Only Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७ ४१५. मत कीज्यो री यारी (दौल०) ४१६. मत राचो धीधारी (दौल०) ४१७. मति कीजो यारी ये भोग भुजंग समान (दौल०) ४१८. मति भोगन राचौ जी ( बुध ० ) ४१९. मति वृथा गमावै सहसा नहिं पावै (जिने ० ) २३५ ५४७ ५२९ ५२० ५०३ ४२०. मद मोह की शराब ने आपा भुला दिया (न्यामत०) ४६८ १४९ ४२१. मन कैं हरष अपार चित्त कैं हरष अपार (बुध० ) ४२२. मन मूरख पंथी उस मारग मति जाय ( भूध० ) ४२३. मन रे ! मेरे राग भाव निवार (द्यान ० ) २८७ ५४५ ४२४. मन वैरागी जी नेमीश्वर स्वामी (महा ० ) ९८ २९४ ४२५. मन हंस हमारी लै ! शिक्षा हितकारी (भूध० ) ४२६. महाराज थांनै सारी लाज ( बुध ० ) २१ ४२७. महाराज श्री जिनवरजी (भाग ० ) ११५ ४२८. महिमा है अगम जिनागम की (भाग ० ) १५५ ४२९. माई आज आनन्द कछु कहै न बने (द्यान० ) ४८२ ४३०. माई आज आनन्द है या नगरी (द्यान० ) ४८३ ३५ ५९२ ३१८ ४४९ ४७१ २२२ २५४ ४३२ २०७ १८७ ४३१. माँ विलम्ब न लाव पठाव तहाँ री ( भूध० ) ४३२. मान न कीजिए हो परवीन (भाग ० ) ४३३. मान लो या सिख मोरी (दौल० ) ४३४. मात पिता रज वीरन सौं (भूध० ) ४३५. मिटत नहीं मेरे से या तो होनहार (महा० ) ४३६. मिथ्याभाव मत रखना प्यारे (जिने ० ) ४३७. मुझे ज्ञान शुचिता सुहाई है ( सुख० ) ४३८. मुझे निखान पहुँचन की लगी लौ है (सुख) ४३९. मुनिजन जग जीव दयाधारी (महा० ) ४४० मुनि बन आए बना (बुध० ) For Personal & Private Use Only ८१ २०३ १९७ १९३ १८५ १७१ ५१ १०१ २०२ ३३ १०३ ७ ३९ ५२ १७७ १७७ १२ २२४ ११२ १६३ १७३ ७७ ८९ १५५ ७१ ६३ Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ ५८९ २२३ १५७ ५३ १३९ ३९२ ३५७ ३७४ १२६ ३८ १३ ३६८ १३० ६०२ २२८ १०४ २९६ ५८० ०. orm ११० ५१५ ३७६ ४४१. मूढ़ मन मानत क्यों नहिं रे (नैन०) ४४२. मेघ घटासम श्री जिनवानी (भाग०) ४४३. मेरा सांई तो मोमैं (बुध०) ४४४. मेरी अरज कहानी (बुध०) ४४५. मेरी जिनवर सुनो पुकार (जिने०) ४४६. मेरी जीभ आठों जाम (भूध०) ४४७. मेरी बेर कहा ढील करी जी (द्यान०) ४४८. मेरे कब है वा दिन की सुधरी (दौल०) ४४९. मेरे चारों शरन सहाई (भूध०) ४५०. मेरे मन सूवा जिनपद पीजरे बसि (भूध०) ४५१. मेरो मनवा अति हरषाय (बुध०) ४५२. मेरो मन ऐसी खेलत होरी (दौल०) ४५३. मैं आयो जिन शरन तिहारी (दौल०) ४५४. मैं कैसे रूप निहारूँ हाँ (कुञ्जी०) ४५५. मैं कैसे शिव जाऊँ रे डगर भुलावनी (महा०) । ४५६. मैं तुम शरन लियो तुम सांचे (भाग०) ४५७. मैं तेरा चेरा प्रभु मेरा (बुध०) ४५८. मैं देखा अनोखा ज्ञानी वै (बुध०) ४५९. मैं देखा आतम रामा (बुध०) ४६०. मैं निज आतम कब ध्याऊँगा (द्यान०) ४६१. मैं नेमिजी का बन्दा (द्यान०) ४६२. मैं हरख्यो निरख्यो मुख तेरो (दौल०) ४६३. मो सम कौन कुटिल खल कामी (भाग०) ४६४. मौंकों तारो जी किरपा करि के (बुध०) ४६५. मौगांरा लोभीड़ा नरभव खोयो रे अजान (बुध०) । ४६६. मोहि आपनाकर जान ऋषभ जिन (बुध०) १४६ ४९ مر 9 १७५ ३६५ ३६५ ___ ५९ १२८ १२५ ९३ سه ३५३ २६६ ur سه ३८९ १३८ ४०९ ४०२ १४५ 9 م ३८२ १३३ ३८२ ३५५ ५२० ४५ १३४ १२५ سه For Personal & Private Use Only Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९९ or १४२ १३१ ८३ ه २३९ १ ه ३५९ ک ه ३५६ ३५२ १८१ ३६१ ३६३ سه سه १२७ १२६ १२४ ६१ १२७ १२८ १२८ ___ ४३ १२२ २०६ १४१ ३६२ ४६७. मोहि कब ऐसा दिन आय है (द्यान०) ४६८. मोहि तारो हो देवाधिदेव (द्यान०) ४६९. मोहि सुन-सुन आवे हाँसी (मक्खन०) ४७०. मोही जीव भरमतम ते नहिं (दौल०) ४७१. म्हारी कौन सुने थे (बुध०) ४७२. म्हारी भी सुणि लीज्यो (बुध०) ४७३. म्हारी सुनिए ज्यों परमदयालु (बुध०) ४७४. म्हाकै घट जिन धुनि (भाग०) ४७५. म्हारों मन लीनौ छै थे (बुध०) .४७६. म्हे तो ऊभा राज थाने (बुध०) ४७७. म्हे तो थांका चरणां लागां (बुध०) ४७८. म्हे तो थांपर वारी जी जिनंद (जिने०) ४७९. म्हे तो थापर वारी, वारी वीतराग जी (बुध०) ४८०. यह जग झूठ सारा रे मन (कु०) ४८१. यह मोह उदय दुख पावै (भाग०) ४८२. यही एक धर्म मूल है मीता (भाग०) ४८३. याही मानौ निश्चय मीनौ (भाग०) ४८४. याद प्यारी हो म्हांने थांकी (बुध०) ४८५. या नित चितवो उठि कै भोर (बुध०) ४८६. ये ही अज्ञान पना जिवड़ा तूने (महा०) ४८७. रंग भयो जिनद्वार चल सखि (बना०) ४८८. रत्नत्रय धर्म हितकारी सुगुरु ने (जिने०) ४८९. रटि रसना मेरी रिषभ जिनन्द (भूध०) ४९०. रहौ दूर अंतर की महिमा (भूध०) ४९१. राचि रह्यो परमांहि (दौल०) ४९२. रावण कहत लंकापति राजा (महा०) १२७ ३४२ ५५२ ३९६ ____७४ ७४ ७७ २ ३८८ १३८ ४२५ १५२ 12, ३७ ५४ १८ ४१४ १४७ २१६ ५७४ For Personal & Private Use Only Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६७ १२९ ५४३ २०२ ov २२५ کم ک ک ० १०७ ० २३ २१९ ११४ ३९ १६६ ६८ १०७ १५० ४९३. रुल्यो चिरकाल जगजाल (द्यान०) ४९४. रूप को खोज रह्यो तरु (अज्ञात) ४९५. रे जिय क्रोध काहे करे (द्यान०) ४९६. रे जिय जनम लाहौ लेह (द्यान०) ४९७. रे मन उल्टी चाल चले (नन्द०) ४९८. रे मन भज-भज दीनदयाल (पान०) ४९९. रे मन मेरा तू मेरो को (बुध०) ५७९ ५००. लखिमैं स्वामी रूप को (भाग०) ५०१. लगी लो नाभिनन्दन सौं (भूध०) ५०२. लोह मई कोट केई कोटन की (भूध०) ४५६ ५०३. वन में नगन तन राजै (जिने०) २०० ५०४. विपत्ति में धर धीर रे नर! विपत्ति में धर धीर (द्यान०)३०५ ५०५. विराजै रामायण घट मांहि (बना०) ४२१ ५०६. विषय रस खारे इन्हें छाड़त क्यों नहि (महा०) ५०७. विषयोंदा मद मानै ऐसा है कोई (दौल०) ५०८. वीर-भजन मन माओ (भूरा०) ५०९. वीर हिमाचल मैं निकसी (भूध०) १६२ ५१०. वे कोई अजब तमासा देख्या (भूध०) ५११. वे मुनिवर कब मिलि हैं उपगारी (भूध०) ५१२. शान्ति जिनेश जयौ जगतेश (भूध०) ५१३. शांतिवरन मुनिराई वर लखि (भाग०) ५१४. शामरिया के नाम जपें तै (दौल०) ५१५. शिवधानी निशारानी जिनवानी हो (बुध०) ५१६. शिवपुर की डगर समरस सौं भरी (दौल०) ५१७. शिवमग दरसावन रावरो दरस (दौल०) ५१८. शीत रितु जोरै अंग सब ही सकोरे (भूध०) - ہ १९६ १९५ ५२४ १०२ و یہ ३४ سہ mm سہ or سہ مہ 1 १८८ م २२५ سه 2 م ६६ For Personal & Private Use Only Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११९ ४१ on - - or w o ५२ ५०२ ३१७ १९१ ७६ १०९ २२ ३४४ १२९ m ३८ १२२ ४४ १०१ ३४ ११ ५६१ ६७ in ५१९. शेष सुरेश नरेश रहैं तोहि पार (भूध०) ५२०. शोभित प्रियंग अंग देखें (भूध०) ५२१. श्रावक कुल पायो अपने (जिने०) ५२२. श्री गुरु यों समझाई (जिने०) ५२३. श्री गुरु हैं उपगारी (भाग०) ५२४. श्री जिननाम आधार सार भजि (द्यान०) ५२५. श्री जिनपूजन को हम आये (बुध०) ५२६. श्री जिनवर पद ध्या_ (भाग०) ५२७. श्री जी तरनहारा थे तो (बुध०) ५२८. श्री जी तो आज देखो भाई (जिने०) ५२९. श्री वीर की धुन में जब तक (भूरा०) ५३०. सकल पाप संकेत आपदा हेत (बुध० ) ५ ३१. सखि पूजों मन वच श्री जिनंद (द्यान०) ५३२. सतगुरु सहज स्वभाव सुझायों (भंवर) ५३३. सत्ता रंगभूमि में नटत ब्रह्म नर राय (भाग०) ५३४. सब मिलि देखो हेली म्हारी (दौल०) ५३५. सब विधि करन उतावला (भूध०) ५३६. सम आराम विहारी साधजन सम (भाग०) ५३७. समझ कर देख ले चेतन (शिव०) ५३८. समझ मन स्वारथ का (ज्योति०) ५३९. समझत क्यों नहीं वानी (द्यान०) ५४०. समझाओं जी आज कोई करुनाधरन (भाग०) ५४१. सम्यक्ज्ञान बिना तेरा जनम (अज्ञात) ५४२. सहज अबाध समाध धाम (भाग०) ५४३. सांची तो गंगा यह वीतराग वानी (भाग०) ५४४. सांचों देव सोई जामैं दोष को न लेश (भूध०) २३६ ८२ १४१ ३९७ ८९ ३० २८९ १०१ 4 २०८ ५५१ ५५० २०५ २०५ १६४ २७ २५६ ५१२ १५४ ९० १८९ १८९ ५२ ॥ लश (भूध०) १२० ४१ For Personal & Private Use Only Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ or ४९५ ५१ १८२ १८० १७८ ४९० ४८५ m m 9 m I १६७ ५२३ १९४ ३८३ १३५ १८९ ५४५. सारद! तुम परसाद तै (बुध०) १५२ ५४६. सार नर देह सब कारज को (भूध०) ४९५ ५४७. सारौ दिन निरफल खोय कै (भाग०) ५४८. सिद्धारथ राजा दरबारै (महा०) ५४९. सीख सुगुरु नित्य उरधरौ (महा०) ५५०. सीता सती कहत हे रावण सुन रे (महा०) ५५१. सीमंधर स्वामी मैं चरन का चेरा (भूध०) ५५२. सुख के सब लोग संगाती हैं (मक्खन) ५५३. सुगुरु कृपाकर या समझावैं (जिने०) ५५४. सुणिल्यों जीव सुजान सीख सुगुरु हित की कही १८५ (बुध०) ५५५. सुधि लीज्यो जी म्हारी (दौल०) ५५६. सुन जिन बैन श्रवन सुख पायो (दौल०) ५५७. सुन मन नेमि जी के बैन (द्यान०) ५५८. सुनि अज्ञानी प्राणी श्री गुरु (भूध०) ५५९. सुनिए सुपारस आज हमारी (जिने०) ५६०. सुनियो भविलोको कर्मनि की गति (जिने०) ४६३ ५६१. सुनियो हो प्रभु आदि जिनदा दुख पावत है (बुध०) ७ ५६२. सुनि सुजान ! पाँचो रिपु वश (भूध०) २८९ ५६३. सुफल घड़ी याही देख जिनदेव (महा०) ५६४. सुमति सदा सुखकार मैं चेतन की रानी (कुञ्जी०) ४२६ ५६५. सुमति हित करनी सुखदाय (जिने०) ५६६. सैली जयवंती यह हूजो (द्यान०) ५६७. सो ज्ञाता मेरे मन माना (द्यान०) ५६८. सो मत साँचो है मन मेरे (भूध०) ५८१ ५६९. सौ बरस आयु ताका लेखा करि देखा (भूध०) ५३८ ५८ २८४ ३७३ २१९ २०० For Personal & Private Use Only Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३ ५७०. स्वामी रूप अनूप विसाल मन मेरे बसा (भाग ० ) ५७१. स्वामी जी तुम गुन अपरंपार (भाग ० ) ५७२. स्वामी जी सांची सरन तुम्हारी (भूध० ) ५७३. स्वामी मोही अपनो जानि तारौ (भाग ० ) ५७४. स्व सम्वेदन सुज्ञानी जी ( सुख० ) ५७५. हमको कछु भय ना रे (बुध० ) ५७६. हम न किसी के कोई न हमारा ( द्यान० ) ५७७. हम बैठे अपनी मौन सों (बना० ) ५७८. हम लागे आतमराम सों (द्यान० ) ५७९. हमको प्रभु श्रीपास सहाय (द्यान० ) ५८०. हम तो कबहू न निज गुन भाए (दौल० ) ५८१. हम तो कबहुँ न निज घर आये (दौल० ) ५८२. हमारी वीर हरो भव पीर (दौल०) ५८३. हमारो कारज ऐसें होय (द्या० ) ५८४. हरना जी जिनराज मोरी पीर ( बुध ० ) ५८५. हरी तेरी मति नर कौन (भाग ० ) ५८६. हूँ कब देखूँ ते मुनिराई हो ( शिव ० ) ५८७. हे आतमा! देखी दुति तोरी रे (बुध०) ५८८. हे जिन मेरी ऐसी बुधि कीजे (दौल०) ५८९. हे जियरा अन्तर के पट खोल ( अज्ञात ० ) ५९०. हे नर भ्रम नींद क्यों न छांड़त (दौल० ) ५९१. हे मन तेरी कौन कुटेब (दौल०) ५९२. है यह संसार असार ( नाथू० ) ५९३. हो चेतन वे दुख बिसरि गए (भैया भग० ) ५९४. हो जिनवाणी जू तुम मोकौं तारोगी ( बुध ० ) ५९५. हो जी म्हें निशिदिन ध्यावो (बुध ० ) For Personal & Private Use Only ३१ २४ ४५ ३६४ २५३ ५३० ५४६ ४१९ ४०४ ६१ २२७ ३१९ ८७ ४१२ ३४६ ५२४ १८६ ३९१ ८८ ५५७ ३२३ ५८६ ५५९ ३४१ १४८ १८ ११ ८ १५ १२८ ८८ १९७ २०३ १५० १४४ २० ७८ ११२ २९ १४६ १२३ १९५ ६३ १३९ २९ २०८ ११४ २२१ २०९ १२१ ५० ६ Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ ३७८ ५९६. हो तुम त्रिभुवन तारी हो (दौल०) ५९७. हो तुम शठ अविचारी (दौल०) ५९८. हो भैया मोरे कहु कैसे सुख होय (द्यान०) ५९९. हो विधिना की मोपै कही तो न जाय (बुध०) ६००. हो स्वामी जगत जलधि तें तारो (द्यान०) ३३० ३०९ १३३ ११६ १०९ १६८ १३० ४६१ ३७० For Personal & Private Use Only Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इन पदों के लेखक वे कवि हैं, जिन्होंने पूर्ववर्ती प्राकृत, अपभ्रंश एवं संस्कृत के मूल जैन साहित्य का गहन अध्ययन कर उनका दीर्घकाल तक मनन एवं चिन्तन किया, तत्पश्चात्, युग की माँग के अनुसार अपने चिन्तन को विविध संगीतात्मक स्वर-लहरी में उनका चित्रण किया है । इन पदों की गेयता, शब्द गठन, आरोह-अवरोह तथा वह इतना सामान्य जनानुकूल, सुव्यवस्थित एवं माधुर्य रस समन्वित है कि उन्हें भौगोलिक सीमाएँ बाँध सकने में असमर्थ रहीं । राजस्थान, गुजरात, हरियाणा, पंजाब, महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश, दक्षिणभारत एवं आसाम बंगाल आदि में उन्हें समान स्वर लहरी तथा आरोह-अवरोह के साथ गाया-पढ़ा जाता है । वर्तमान में तो विदेशों में भी ये पद लोकप्रिय हो रहे हैं। For Personal & Private Use Only Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूल्य m3u 250.00 75.00 श्री गणेश वर्णी दिगम्बर जैन संस्थान _ के महत्त्वपूर्ण प्रकाशन पुस्तक का नाम लेखक/संपादक/अनुवादक 1. मेरी जीवन गाथा, भाग-१ श्री गणेशप्रसाद वर्णी 70.00 2. मेरी जीवन गाथा, भाग-२ श्री गणेशप्रसाद वर्णी 50.00 3. वर्णी वाणी, भाग-२ डॉ० नरेन्द्र विद्यार्थी 30.00 4. जैन साहित्य का इतिहास, भाग-१ पं० कैलाशचन्द्र शास्त्री 70.00 5. जैन साहित्य का इतिहास, भाग-२ पं० कैलाशचन्द्र शास्त्री 70.00 6. जैन साहित्य का इतिहास (पूर्व पीठिका) __पं० कैलाशचन्द्र शास्त्री 7. जैन दर्शन (संशोधित संस्करण) पं० महेन्द्रकुमार न्यायाचार्य / 8. तत्त्वार्थसूत्र (संशोधित संस्करण) पं० फूलचन्द्र शास्त्री (पु०सं०) 70.00 " " " वि०सं० 50.00 9. मंदिरवेदी प्रतिष्ठा एवं कलशारोहण विधि डॉ० पन्नालाल जैन साहित्याचार्य 30.00 10. अनेकान्त और स्याद्वाद प्रो० उदयचन्द्र जैन अप्राप्य 11. कल्पवृक्ष : एकांकी श्रीमती रूपवती किरण 12. आप्तमीमांसातत्त्वदीपिका प्रो० उदयचन्द्र जैन 70.00 13. तत्त्वार्थसार डॉ० पन्नालाल जैन साहित्याचार्य अप्राप्य 14. वर्णी अध्यात्म-पत्रावली, भाग-१ श्री गणेशप्रसाद वर्णी 15.00 15. आदिपुराण में प्रतिपादित भारत डॉ० नेमिचन्द्र शास्त्री अप्राप्य 16. सत्य की ओर प्रथम कदम श्री दयासागर 5.00 17. समयसार (प्रवचनसहित) श्री गणेशप्रसाद वर्णी अप्राप्य 18. श्रावक धर्म-प्रदीप पं० जगन्मोहन लाल शास्त्री अप्राप्य 19. पंचाध्यायी (संशोधित संस्करण) पं० देवकीनन्दन सिद्धान्तशास्त्री 100.00 20. लघुतत्त्वस्फोट डॉ० पन्नालाल साहित्याचार्य अप्राप्य 21. भद्रबाहु-चाणक्य-चन्द्रगुप्त प्रो० राजाराम जैन 30.00 22. आत्मानुशासन पं० फूलचन्द्र शास्त्री 50.00 23. योगसार (भाषावचनिका) डॉ. कमलेश कुमार जैन 40.00 24. जैनन्याय, भाग-२ पं० कैलाशचन्द्र शास्त्री (प्र०सं०)६५.०० " " " " वि०सं० 40.00 5. स्वयम्भूस्तोत्र - तत्त्वदीपिका प्रो० उदयचन्द्र जैन 70.00 6. देवीदास विलास श्रीमती डॉ० विद्यावती जैन 200.00 27. अध्यात्म पद-पारिजात डॉ० कन्छेदीलाल जैन 90.00 28. सर्वज्ञ (संस्थान की शोधपत्रिका) प्रकाश्यमान 29. धवल-जयधवल सार पं० जवाहरलाल शास्त्री 25.00 30. जैनधर्म दर्शन के सिद्धान्तों की वैज्ञानिकता m. - चन्द्र जैन 20.00 Serving Jin Shusan 31. सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र। 151.00 32. सिद्धान्ताचार्य पं० कैलाशच 101.00 33. अकिंचित्कर : एक अनुशीर / स्त्री 6.00 134614 34. प्राच्य भारतीय ज्ञान के महyammandirkobatirth.org राजाराम जैन 16.00 __ सभी प्रकार के पत्र व्यवहार करने एवं ड्राफ्ट भेजने का पता : श्री गणेश वर्णी दिगम्बर जैन संस्थान, नरिया, वाराणसी - 221005 For Personal & Private Use Only ____