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________________ (१०) मुद्रा नगर मोहनिद्रा बिन नासा दृग मन भाया । आसन धन्य अनन्य बन्य चित, पुष्ट(?) धूल' सम थाया' ॥ गिर. ॥ २ ॥ जाहि पुरन्दर पूजन आये सुन्दर पुण्य उपाया । 'भागचन्द' मम प्राणनाथ सों, और न मोह सुहाया ॥ गिर. ॥ ३ ॥ (३०) गीतिका तुम परम पावन देख जिन, अरि-रज-रहस्य विनाशनं । तुम ज्ञान-दृग-जलवीच त्रिभुवन कमलवत' प्रतिभासनं ॥ आनंद निजज अनंत अन्य, अचिंत संतल परनये । बल अतुल कलित स्वभावतें नहिं, खलित गुन अमिलित थये ॥ १ ॥ सब राग रुष हनि परम श्रवन स्वभाव धन निर्मल दशा । इच्छा रहित भवहित खिरत, वच सुनत ही भुमतम नशा ॥ एकान्त-सहन-सुदहन स्याल्पद, बहन मय निजपर दया । ज़ाके प्रसाद विषाद बिन, मुनिजन सपदि शिवपद लया ॥ २ ॥ भूजन वसन सुमनादिविन तन, ध्यानमय मुद्रा दियै । नासाग्र नयन सुपलक हलयन, तेज लखि खगगन छिपै ॥ पुनि वदन निरखत प्रशमजल, वरखत५ सुहरखत उर धरा । वुधि स्वपर परखत पुन्य आकर, कलि कलिल दुरखतजरा ॥ ३ ॥ इत्यादि वहिरंतर असाधरन, सुविभव निधान जी । इन्द्रादिविंद पदारविंद, अनिंद तुम भगवान जी ॥ मैं चिर दुखी पर चाहते, तुम धर्म नियत न उर धरो । परदेव सेव करी. बहुत, नहिं काज एक तहाँ सरो" ॥४॥ अब भागचन्द्र उदय भयो, मैं शरन आयो तुम तने । इक दीजिये वरदान तुम जस, स्वपद दायक वुध भने । परमाहिं इष्ट, अनिष्ट-मति-तजि, मगन निज गुन में रहों । दृगज्ञान-चर संपूर्ण पाऊं, भागचंद न पर चहों ॥५॥ N १. स्थूल २. हुआ ३. इन्द्र ४. कर्म-धूलि ५. कमल की तरह ६. प्रतिभासित होता है ७. सुंदर ८. पतिल (दुष्ट) ९. अलग हो गये १०. द्वेष, ११. नष्ट करके १२. खिरते हुए १३. एकान्त सिद्धान्त को जलाने वाला स्याद्बाद १४. शीघ्र १५. बरसने से १६. प्रसन्न होता है १७. पर द्रव्यों की चाह से १८. पूरा हुआ १९. पास । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003995
Book TitleAdhyatma Pad Parijat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanchedilal Jain, Tarachand Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1996
Total Pages306
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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