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(३१) राग - दीपचन्दी ईमन (यमन) स्वामीरूप अनूप विसाल, मन मेरे बसा || हरिगन चमरवृन्द ढोरत तहां, उज्जवल जेम' मराल' छत्रत्रय ऊपर राजत पुनि, सहित सुमुक्तामाल ' भागचन्द' ऐसे प्रभुजी को, नावत नित्य त्रिकाल
(३२)
महाकवि भूधरदास [पद ३२-५४] राग सोरठ
टेक ॥
॥ स्वामी ॥ १ ॥
स्वामी ॥ २ ॥
स्वामी ॥ ३ ॥
लगी लों नाभिनंदनसों ! जपत जेभ चकोर चकई, बन्द भरताको । लगी ॥ १ ॥ जाउ तन धन जाउ जोवन, प्रान जाउ न क्यों ।
(33) राग-काफी
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एक प्रभु की भक्ति मेरे और देव अनेक सेये', ज्ञान खोयो गांठिको, धन
रहों ज्यों की त्यों कुछ न पायो हौं करत कुबनिज ज्यों
३ ॥ लगी लों० ॥
पुत्र- मित्र- कलत्र ये सब सगे अपनी गों । नरक कूप उद्धरन श्री जिन, समझ 'भूधर 'यों ॥ ४ ॥ लगी लों. ॥
॥
११
सीमंधर स्वामी मैं चरन का चेरा ॥टेक॥ इस संसार असार में कोई, और न रच्छक' मेरा ॥ लख चौरासी जोनिमें मैं, फिरिफिरि कीनो तुम महिमा जानी नहीं प्रभु, देख्या दुःख घनेरा ॥ भाग उदय तैं पाइया अब, कीजे नाथ बेगि दया कर दीजिए मुझे, अविचल थान नाम लिये अध १३ ना कहैं, 'भूधर' चिन्ता क्या रही, ऐसा समरथ साहिब
ज्यों
ऊगे
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॥ २ ॥ लगी लों. ॥
।
वसेरा ॥
भान १४
तेरा
समीधर ॥ १ ॥
फेरा
सीमंधर ॥ २॥ निवेरा १२ 1
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॥
सीमं ॥ ३ ॥
अंधेरा ।
१. जिस प्रकार २. हंस ३. नवाते हैं ४. जाय ५. सेवा की ६. खोटा व्यापार ७. सेवक ८. रक्षक ९. बार-बार १०. भ्रमण ११. बहुत अधिक १२. निर्णय १३. पाप १४. सूर्य ।
सीमं ॥ ४ ॥
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