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________________ (२०४) कवि सुखसागर (५४८) जगत में कोई नहीं रे मेरा सब संशय को टाल देखलो, आप शुद्ध डेरा ॥ टेक ॥ क्यों शरीर में आपा' लाखकर, होत कर्म चेरा। वृथा मोह में फँसकर करता है मेरा तेरा ॥१॥ है व्यवहार असत्य स्वप्न सम नश्वर उलझेरा । कर निश्चय का ध्यान कि जिससे होवे सुलझेरा ॥२॥ जीव जीव सब एक सारखे, शुद्ध ज्ञान ढेरा । नहीं मित्र नहीं अरी जगत में, हैं खूबहि हेरा ॥ ३ ॥ बैठ आपमें आपो भजलो वही देव तेरा ।। 'सुख सागर' पावेगा क्षण में, होत न जग फेरा ॥४॥ (५४९) जगत जंजाल से हटना, सुगम भी है कठिन भी है । परम सुख सिन्धु में रमना, सुगम भी है कठिन भी है ॥ टेक ॥ है कायरता बड़ी जामें, इसे वशकर सुवीरज से । निजातम भूमि में जमना, सुगम भी है कठिन भी है ॥१॥ परम शत्रु है रागादी, इन्हें वश कर सुवीरज से। सुसमता का अनूभवना' सुगम भी है कठिन भी है ॥२॥ करोड़ों भाव आ आकर मनोहरता बता जाते । न इनके मोह में पड़ना, सुगम भी है कठिन भी है ॥ ३ ॥ करम जड़ है न कुछ करते, चले जाते स्वमारग' से । अबन्धक शाश्वता रहना, सुगम भी है कठिन भी है ॥ ४ ॥ कषायों की जलन जिसको, वही तनको जलाती है । चिदानन्द 'सुखसागर' सुगम भी है कठिन भी है ॥५॥ १. अपना समझकर २. सेवक ३. उलझन ४. सुलझना ५. समान ६. शुद्ध ज्ञान का पिण्ड ७. खूब ही देखा ८. सरल ९. जिसमें १०. अनुभव करना ११. अपने रास्ते से। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003995
Book TitleAdhyatma Pad Parijat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanchedilal Jain, Tarachand Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1996
Total Pages306
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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