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________________ (१५४) कवि सम (४२८) राग सोरठ प्रगट घट 11 टेक 11 आतम रूप निहार' अमर अनूप अरूप निरंजन निर्भय अगम अपार आतम रूप निहार प्रगट घट 1 काठ' पषाण' अगर्नि त्यौं राजत ज्यों घृत दूध मझार तेरो धनी' त्यौं तो ही में है, पर जानत नाहिं गंवार ' आतम रूप निहार प्रगट घट भेष बनाय फिरत बहु तीरथ " जप तपसंजम धार रामकृष्ण विवेक बिना सम काय" कलेश विचार आतम रूप निहार प्रगट घट कवि सुखसागर (पद ४२९-४३३) (४२९) परम कल्याण भाजन १२ मैं मैं अमृत स्वाद पाऊंगा मिटाकर अधि१३ अरु व्याधी१४ मैं आनंद हिय मनाऊंगा जगत जंजाल को तजकर मुझे रहना है निर्द्वन्द्वी मैं संकट अग्नि को समजल १५ बखूबी से बुझाऊंगा मुझे जिनराज के सुन्दर महल में जाने की रुचि है । वहीं निज रंग में रंगकर मैं बहिरंगी६ हटाऊंगा परम सुखकार सुखभाजन हे परमातम मेरे अन्दर उसे लखकर मगन होकर, मैं सुखसागर हटाऊंगा । (४३०) अरे मन करले आतम ध्यान ॥ टेक कोइ नहीं अपना इस जग में क्यों होता हैरान १७ जासै पावे सौख्य अनूपम, होवे गुण अमलान ९ .१८ Jain Education International ॥ १ ॥ 1 1 ॥ २ ॥ १. देखो २. जिसकी उपमा न हो ३. रूप रसादि से रहित ४. लकड़ी ५. पत्थर ६. अग्नि ७. जैसे दूध में घी ८. स्वामी ९. मूर्ख १०. तीर्थस्थान ११. शरीर को कष्ट मात्र १२. पात्र १३. मानसिक व्यथा १४. शारीरिक व्यथा १५. समता रूपी जल १६. वहिरामता १७. परेशान १८. जिससे १९. निर्मल । For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003995
Book TitleAdhyatma Pad Parijat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanchedilal Jain, Tarachand Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1996
Total Pages306
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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