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________________ (१०८) (३०६) घट में परमातम ध्याइवे' हो, परम धरम धन हेत । ममता बुद्धि निवारिये हो टारिये भरम निकेत ॥ घट. ॥ १ ॥ प्रथमहि अशुचि निहारिये हो, सात धातुमय देह। काल अनन्त साहै दुख जानै ताको तजो अब नेह ॥ घट. ॥ २ ॥ ज्ञानावरनादिक जमरूपी जिनते भिन्न निहार । रागादिक परनति लख न्यारी, न्यारो सुबुध विचार ॥ घट ॥ ३ ॥ तहां शुद्ध आतम निर विकल्प है करि तिसको ध्यान । अलप काल में घाति नसत हैं उपजत केवलज्ञान ॥ घट. ।। ४ ।। चार अघाति नाशि शिव पहुँचे, विलसत सुख जु अनन्त । सम्यक दरसन की यह महिमा, ‘द्यानत' लह भव अन्त ॥ घट. ॥ ५ ॥ (३०७) कहत सुगुरू करि सुहित भविकजन ॥ टेक ॥ पुद्गल अधरम धरम गगन जग सब जड़ मम नहि यह सुमरहु मन ॥कहत. ॥ १ ॥ नर पशु नरक अमर पर पद लीख दरव करम तन करम पृथक'" मन । तुम पद अमल अचल विकलप बिन, अजर अमर शिव अभय अखय गन ॥कहत. ॥ २ ॥ त्रिभुवन पति पद तुम पद अतुल न तुल रवि शशि गन । वचन कहत मन गहन शकति नहिं, सुरत गमन निज निज गम परनत ॥कहत. ॥ ३ ॥ इह विधि बंधत खुलत इह विधि जिय, इन विकलप महि शिवपद सधत न । निर विकलप अनुभव मन सिधि करि, करम सघन वन दहत दहन२२ कन ॥कहत. ॥४॥ (३०८) जीव ! वै२३ मूढ़पना कित पायो ।टेक ॥ सब जग स्वारथ की चाहत है स्वारथ तोहि न भायो । जीव. ॥ १ ॥ अशुचि अचेत दुष्ट तनमांही, कहा जान विरमायो । परम अतिन्द्री निजसुख हरिकै२८, विषय रोग लपटायो९ ॥ जीव. ॥२॥ १.ध्यान करने को २.श्रेष्ठ धर्म रूपी धन ३.प्रम ४.प्रेम ५.यमरूपी ६.अलग ७.निर्विकल्प ८.उसका ९.थोड़ा १०.मलाई ११.भव्यलोग १२.आकाश १३.ध्यान करो १४.द्रव्य कर्म १५.अलग १६.निर्भय १७.अक्षय १८.इस प्रकार १९.इन विकल्पों में २०.सिद्ध नहीं होता २१.जंगल जलाने को २२.अग्निकण २३.निश्चय से २४.मूर्खता २५.तुझे २६.अच्छा न लगा २७.विरम गया २८.हरण करके २९.लीन हो गया। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003995
Book TitleAdhyatma Pad Parijat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanchedilal Jain, Tarachand Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1996
Total Pages306
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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