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________________ (१०) सम्बन्ध जोड़ती है और यह सम्बन्ध यहाँ तक बढ़ जाता है कि दोनों में कुछ अन्तर नहीं रह जाता। महाकवि बनारसीदास के शब्दों में "रस-स्वाद सुख उपजै, अनुभौ याको नाम । (नाटक समयसार) तात्पर्य है कि रहस्य-भावना एक ऐसा आध्यात्मिक साधन है, जिसके माध्यम से साधक स्वानुभूति पूर्वक आत्म-तत्त्व से परमात्म-तत्त्व में लीन हो जाता है। इसी भावना को अभिव्यक्ति के क्षेत्र में रहस्यवाद कहा जाता है। __"अध्यात्म-पद-पारिजात' में संग्रहीत पद उपर्युक्त भावना से अनुप्राणित हैं। उनमें उच्चकोटि के रहस्यवाद के दर्शन होते हैं। अध्यात्म की चरम सीमा ही रहस्यवाद की जननी है। जैन कवियों ने शाश्वत-पद की प्राप्ति के लिए रहस्यवाद को स्थान दिया है। उनके अनुसार आत्मा अमूर्त सूक्ष्म, ज्ञान-दर्शन और अनन्त गुणों से समृद्ध एवं रहस्यमय है। इसकी उपलब्धि भेदानुभूति द्वारा ही सम्भव है। जैन दर्शन के अनुसार शुद्ध आत्मा ही परमात्मा है। इस आत्मा और परमात्मा की एकता का सुन्दर निरूपण इन पदों में हुआ है। सभी कवि आध्यात्मिक विवेचन करते हुए कहते हैं कि जिस परमात्मा को हम अन्यत्र खोजते हुए भटकते रहते है, वह अन्यत्र नहीं, अपितु, अपने घट में ही विराजमान है। वह रहस्यवाद की पहली अवस्था है। साढ़े तीन हाथ के शरीर रूपी मन्दिर में केवलज्ञान रूपी आत्मा विराजमान है। अत: सभी भ्रमों को छोड़कर इसे सावधानीपूर्वक जानने के प्रयत्न की सलाह दी गई है "देखों भाई आतमदेव विराजै। इसही हूठ हाथ देवल में केवलरूपी राजै।। -(पद०४४५) इस प्रकार द्यानतराय भी अपने घट में परमात्मा का निवास बतलाते हुए उसी की आराधना पर जोर देते हुए कहते हैं कि- “यह ज्ञान का भण्डार है उसकी उपमा किसी अन्य वस्तु से नहीं दी जा सकती। वह अनुपम है। तू उसी को प्राप्त करने का प्रयत्न कर"। यथा"घट में परमात्मा ध्याइये हो, परम धरम धन हेत ।।" (पद० ३०६) आत्मा की यथार्थ अनुभूति हो जाने पर वह उसका विश्लेषण बड़ी ही भावुकता एवं सरसता के साथ करने लगता है Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003995
Book TitleAdhyatma Pad Parijat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanchedilal Jain, Tarachand Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1996
Total Pages306
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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