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________________ (१२३) (३४६) राग-पूरवी जल्द तितालो हरना जी जिनराज मोरी' पीर ॥ हरना.. ॥ टेक ॥ आन देव सेये जगवासी सरयौ' नहीं मोर काज ॥ हरना. ॥१॥ जग में बसत अनेक सहज ही प्रनवत विविध समाज ॥ तिन पै इष्ट अनिष्ट कल्पना मैंटोगे महाराज ॥ हरना. ॥२॥ पुद्गल रचि अपन' पौ भूल्यौ विरथा करत इलाज । अबहि यथाविधि बेगि बतावो ‘बुधजन' के सिरताज ॥ हरना.॥ ३ ॥ (३४७) राग-पूरवी तारौ क्यों न तारो जी म्हें तो थाकें शरना आया ॥ टेक ॥ विधान मोकौं चहुंगति फेरत, बड़ भाग तुम दरशन पाया ॥ १ ॥ मिथ्यामत जल मोहे मुकुरजुत' भरम भौंर २ में गोता खाया । तुम मुख बचन अलंबन पाया, अब ‘बुधजन' उर में हरषाया३ ॥ २ ॥ (३४८) राग-धनासरी धीमो तितालो प्रभु थासू४ अरज हमारी हो ॥ प्रभु. ॥टेक ॥ मेरो हित५ न कोउ जगत मैं तुम ही हो हितकारी हो ॥ प्रभु. ॥ १ ॥ संग लग्यौ मोहि नेकु न छांडे देत मोह दुख भारी । भवन मांहि नचावत मोको तुम जानत हौ सारी हो ॥ प्रभु. ॥ २ ॥ थांकी महिमा अगम अगोचर कहि न सकै बुधि म्हारी। हाथ जोर कै पाय परत हूं, आवागमन निवारी हो ॥ प्रभु. ॥ ३ ॥ (३४९) राग-असावरी अरज म्हारी मानो जी, याही म्हारो मानो, भवदधि हो तारना म्हारा जी ॥ अरज. ॥टेक ॥ १.मेरा दुख २.दूसरे देवता ३.पूरा नही हुआ ४.पुद्गल में लीन होकर ५.स्वयं को भूला ६.व्यर्थ ७.आपकी ८.कर्म ९.मुझको १०.घुमाते हैं ११.मगरयुक्त १२.भँवर १३.प्रसन्न हुआ १४.आपसे १५.हितेषी१६.आपका १७.बुद्धि १८.दूर Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003995
Book TitleAdhyatma Pad Parijat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanchedilal Jain, Tarachand Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1996
Total Pages306
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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