SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 79
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (२९) (८६) भविन-सरोरुह सूर भूरि गुन पूरित अरहंता । दुरित दोष मोख पथघोषक, करन कर्म अन्ता ॥ भविन. ॥टेक ॥ दर्श बोधः युगपत लखि, जाने जु भाव अनन्ता । विगताकुल जुत सुख अनन्त बिना, अन्तशक्ति वन्ता ॥ भविन. ॥ १ ॥ जा तनजोत उदोत थकी रवि, शशिदुति लाजन्ता । तेज थोक अवलोक लगत है, फोक सचीकन्ता ॥ भविन. ॥ २ ॥ जास अनूप रूप को निरखत, हरखत° है सन्ता" । जाकी धुनि सुनि मुनि निजगुनमुन, परगर उगलंता ॥भविन. ॥ ३ ॥ दौल तौल बिन जस तस वनरत, गुरु गुरु अकलंता। नामाक्षर सुन कान स्वान से, रांक'३ नाक गंता ॥ भविन. ॥४॥ (८७) हमारी वीर हरो भवपीर ॥ हमारी. ॥टेक ॥ मैं दुख तपित दयामृतसर" तुम लखि आयो तुम तीर। तुम परमेश मोख मग दर्शक, मोह दवानल नीर ॥हमारी.॥ १ ॥ तुम बिन' हेत जगत हितकारी शुद्ध चिदानंद धीर । गनपति ज्ञान समुद्र न लंघे तुम गुन सिंधु गहीर ॥ हमारी. ॥२॥ याद नहीं मैं, विपति सही जो, घर घर अमित शरीर । तुम गुन चिंतत नशत तथा भय, ज्यो घन चलत समीर ॥हमारी. ॥ ३ ॥ कोटवार की अरज यही है, मैं दुख सहूं अधीर । हरहु वेदना फन्द दौलको, कतर२° कर्म जंजीर ॥ हमारी. ॥ ४ ॥ (८८) हे जिन मेरी, ऐसी बुधि२१ कीजै ॥हे जिन. ॥टेक ॥ राग द्वेष दावानलतें बचि,२२ समतारस में भीजै ॥हे जिन. ॥ १॥ परकों त्याग अपनपो निजमें, लाग न कबहूं छीजै२२ ॥ हे जिन. ॥ २ ॥ १. भव्य रूपी कमलों के सूर्य २. अनेक गुणों से भरे हुये ३. नष्ट करके ४. मोक्ष ५. दर्शन और ज्ञान से ६. आकुलता रहित ७. अनन्त शक्ति यक्त ८. लज्जित होती है ९. फीका १०. प्रसन्न होता है. हर्षित होता है ११. सन्त पुरुष १२. दूसरों के लिए उगलना (बोलना) १३. गरीब रंक १४. स्वर्ग गये १५. दया रूपी अमृत के तालाब १६. समीप १७. अकारण १८. गंभीर १९. अपरिमित, अगणित २०. काटकर २१. बुद्धि २२. बच कर २३. नष्ट होता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003995
Book TitleAdhyatma Pad Parijat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanchedilal Jain, Tarachand Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1996
Total Pages306
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy