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________________ ( ७२ ) आप तर अरु पर को तारैं, निष्प्रेही निर्मल हैं | ऐसे ॥ १ ॥ तिलतुष मात्र संग नहि जाकै, ज्ञान ध्यान गुण बल हैं ॥ ऐसे ॥ २ ॥ शान्त दिगम्बर मुद्रा जिनकी कन्दिर तुल्य अचल है । ऐसे ॥ ३ ॥ 'भागचन्द्र' तिनको नित चाहैं ज्यों कमलनि को अल है ॥ ऐसे. ॥ ४ ॥ (२१०) राग सोरठ मल्हार में १ ॥ २ ॥ गिरि' वनवासी मुनिराज मन वसिया म्हारे हो ॥ टेक ॥ कारन बिन उपगारी जग के, तारन तरन जिहाज ॥गिरि ॥ जन्म जरामृत गर्द' गंजन को, करत विवेक इलाज ॥ गिरि ॥ एकाकी जिमि' रहत केसरी, निरभय स्वगुन समाज ॥गिरि ॥ निर्भषन " निर्वसन " निराकुल, सजि रत्नत्रय साज ॥ गिरि ॥ ४ ॥ ध्याना३धयन मांहि तत्पर नित भागचन्द्र शिवकाज ॥गिरि ॥ ५ ॥ ३ ॥ १ ॥ ० २ ॥ (२११) कब मैं साधु स्वभाव धरूंगा ॥टेक॥ बन्धुवर्ग से मोह त्यागकैं जनकादिक १४ जनसौं उवरूंगा । तुम जनकादिक देह संबंधी, तुमसौं मैं उपज " न मरूंगा १६ ॥ कब . ॥ श्रीगुरु निकट जाय तिन बच सुन, उभय लिंगधर वन विचरुंगा १७ । अन्तमूर्च्छा त्याग नगन है, बाहिरता " की हेति" हरूंगा ॥ कब. ॥ दर्शन ज्ञान चरन तप वीरज या विधि पंचाचार चरूंगा । ताखत निश्चिल होय आपमें पर परिणामनि २१ सौं उवरूंगा ॥ कब. ॥ ३ ॥ चाखि २२ स्वरूपानंद सुधारत चाह ३ दाह में नाहिं जरूंगा । शुक्लध्यान बल गुण श्रेणि चढ़ परमात्तम पद से न टरूंगा ॥ कब. ॥ ४ ॥ काल अनंतानं जथारथ, रह हूं फिर विमान फिरूंगा। ‘भागचन्द्र' निरद्वन्द्व निराकुल, यासों ६ नहि भव भ्रमण करूंगा ॥ कब. ॥ ५ ॥ २४ .२५ १. पार हो २. निष्पृही ३. पहाड़ के समान ४. भौंरा ५. पर्वत और वन में रहने वाले ६. वसो ७. मेरे ८. रोग नष्ट करने को ९. जिस प्रकार १०. सिंह ११. निराहार १२. निर्वस्त्र १३. ध्यान और अध्ययन १४. पिता आदि १५. पैदा होना १६. मरना १७. विचरूंगा- विचरण करूंगा १८. बहिरंगता १९. प्रेम २०. नष्ट कर दूंगा २१. पर परिणामों से २२. चखकर २३. इच्छाओं की २४. गुणस्थान २५. यथार्थ २६. इससे । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003995
Book TitleAdhyatma Pad Parijat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanchedilal Jain, Tarachand Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1996
Total Pages306
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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