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________________ (५८) कमला' चपला', यौवन धनु' सुर स्वतजन पथिक जन क्यों रतिजोरी ॥१॥ विषय कषाय दुखद दोनो ये, इनतें तोर नेह की डोरी, परद्रव्यन को तू अपनावत, क्यों न तजै ऐसी बुधि भोरी ॥ २ ॥ बीत जाय सागर तिथि सुर की, नरपरजाय तनी अति थोरी । अवसर पाय 'दौल' अब चूको, फिर न मिलै मणि सागर बोरी ॥ ३ ॥ (१७१) जिन वैन सुनत मोरी भूल भगी ॥ जिन वैन. ॥ टेक ॥ कर्म स्वभाव चेतन को, भिन्न पिछानन' सुमति जगी ॥१॥ जिन अनुभूति सहज ज्ञायकता सो चिर रुष तुष" मैल-पगी। स्याद्वाद धुनि-निर्मल जलतें, विमल भई समभाव लगी ॥२॥ संशय मोह भरमता विप्पटी",प्रगटी आतम सोंज सगी । 'दौल' अपूरव मंगल पायो, शिवसुख लेन होंस उमगी ॥ ३ ॥ (१७२) जिनवानी जान सुजान रे ॥जिनवानी. ॥टेक ॥ लाग रही चिरते ८ विभावता ताको कर अवसान ९ रे ॥१॥ द्रव्य क्षेत्र अरु काल भाव की कथनी को पहिचान रे । जाहि पिछाने स्वपर भेद सब जाने परत निदान रे ॥२॥ पूरव° जिन जानी तिनही ने भानी संसृतिवान रे । अबजानैं२ अरु जानेंगे जे, पावै शिवथान रे ॥जिनवानी ॥ ३ ॥ कह 'तुजभाज' मुनी शिवभूति, पायो केवलज्ञान रे । यौं लखि दौलत सतत करो भवि, चिद्वचनामृत पान रे ॥ ४ ॥ (१७३) थारा२३ लौ वैना में सरधान२४ घनो२५, म्हारे छवि निरखत हिय२६ सरसावै। तुम धुनि धन परचहन-दहनहर२९, बर समता-रस-झरवरसावै ॥१॥ रूप निहारत ही बुधि है सो निजपर चिल जुदे दरसावे । मैं चिंदक° अकलंक अमल थिर, इन्द्रियसुख दुख जड़ फरसावै ॥२॥ १.लक्ष्मी २.बिजली ३.इन्द्रधनुष ४.प्रीति ५.तोड़ना ६.भोली ७.व्यतीत होना ८.अत्यल्प ९.समुद्र में १०.भाग गई ११.पहचानने की १२.बुद्धिजागी १३.क्रोध १४. भूसा १५.नष्ट हो गई १६.स्वरूप १७.इच्छा १८.बहत दिन १९.समाप्ति २०.पहले २१.संसार स्वरूप २२.अब तो जानेंगे २३.आपका २४.श्रद्धा २५.अत्यधिक २६.हृदय २७.आनन्दित होना २८.दूसरे को चाहना २९.जलन को दूर करने वाला ३०.चिद्रूप। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003995
Book TitleAdhyatma Pad Parijat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanchedilal Jain, Tarachand Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1996
Total Pages306
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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