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(२५९)
राग - गौड़ी ताल अरे हां रे तैं तो सुधरी बहुत बिगारी ॥ अरे. ॥टेक ॥ ये गति मुक्ति महल की पौरी पाय रहत क्यों पिछारी ॥१॥ परकौं जानि मानि अपनो पद, तजि ममता दुखकारी । श्रावक कुल भवदधि तट आयो बड़त क्यों रे अनारी ॥२॥ अबहूं चेत गयो कछु नाहीं राख' आपनी वारी । शक्ति समान त्याग तप करिये, तब 'बुधजन' सिरदारी ॥ ३ ।।
(२६०)
राग - काफी कनड़ी - ताल पसतो अब अघ करत लजाय रे भाई ॥ अब. ॥ टेक ॥ श्रावक घर उत्तम कुल आयो, मेटै श्री जिनराय ॥ अब. ॥१॥ धन वनिता आभूषन परिगह, त्याग करो दुखदाय । जो अपना तू तजि न सकै पर सेयां नरक न जाय ॥ अब. ॥ २ ॥ विषय काज क्यों जनम, गुमावै, नरभव कब निलि जाय । हस्ती चढ़ि जो ईंधन ढोबे, बुधजन कौन बसाय ॥ अब. ॥३॥
(२६१)
राग - काफी कनड़ी तोकौं सुख नहि होगा लोभीड़ा क्यों भूल्या रे पर भावन मैं ॥ तोकौं ॥ टेक ॥ किसी भांति कहुँ का धन आवै डोलत है इन दावन मैं ॥१॥ व्याह करुं सुत जस जग गावै, लग्यौ२ रहै या भावन मैं ॥ २ ॥ दरब२ परिनमत अपनी गौते,"तू क्यों रहित उपायन मैं ॥ ३ ॥ सुख तो है सन्तोष करन५ मैं, नाहीं चाह बढ़ावन मैं ॥ताकौ. ॥ ४ ॥ कै सुख है 'बुधजन' की संगति, कै सुख शिवपद पावन मैं ॥ ५ ॥
१. बिगाड़ी २. सीढ़ी ३. पीछे ४. अनाड़ी ५. अपनी बाते रख लो ६. पाप ७. निले ८. हाथी पर चढ़कर ईधन ढोना ९. लोभी १०. दाव में ११. यश १२. लगा रहा १३. द्रव्य १४. अपने ढंग से १५. करने में १६. इच्छा बढ़ाने में १७. मोक्ष पद पाने में।
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