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________________ ३६७ १२९ ५४३ २०२ ov २२५ کم ک ک ० १०७ ० २३ २१९ ११४ ३९ १६६ ६८ १०७ १५० ४९३. रुल्यो चिरकाल जगजाल (द्यान०) ४९४. रूप को खोज रह्यो तरु (अज्ञात) ४९५. रे जिय क्रोध काहे करे (द्यान०) ४९६. रे जिय जनम लाहौ लेह (द्यान०) ४९७. रे मन उल्टी चाल चले (नन्द०) ४९८. रे मन भज-भज दीनदयाल (पान०) ४९९. रे मन मेरा तू मेरो को (बुध०) ५७९ ५००. लखिमैं स्वामी रूप को (भाग०) ५०१. लगी लो नाभिनन्दन सौं (भूध०) ५०२. लोह मई कोट केई कोटन की (भूध०) ४५६ ५०३. वन में नगन तन राजै (जिने०) २०० ५०४. विपत्ति में धर धीर रे नर! विपत्ति में धर धीर (द्यान०)३०५ ५०५. विराजै रामायण घट मांहि (बना०) ४२१ ५०६. विषय रस खारे इन्हें छाड़त क्यों नहि (महा०) ५०७. विषयोंदा मद मानै ऐसा है कोई (दौल०) ५०८. वीर-भजन मन माओ (भूरा०) ५०९. वीर हिमाचल मैं निकसी (भूध०) १६२ ५१०. वे कोई अजब तमासा देख्या (भूध०) ५११. वे मुनिवर कब मिलि हैं उपगारी (भूध०) ५१२. शान्ति जिनेश जयौ जगतेश (भूध०) ५१३. शांतिवरन मुनिराई वर लखि (भाग०) ५१४. शामरिया के नाम जपें तै (दौल०) ५१५. शिवधानी निशारानी जिनवानी हो (बुध०) ५१६. शिवपुर की डगर समरस सौं भरी (दौल०) ५१७. शिवमग दरसावन रावरो दरस (दौल०) ५१८. शीत रितु जोरै अंग सब ही सकोरे (भूध०) - ہ १९६ १९५ ५२४ १०२ و یہ ३४ سہ mm سہ or سہ مہ 1 १८८ م २२५ سه 2 م ६६ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003995
Book TitleAdhyatma Pad Parijat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanchedilal Jain, Tarachand Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1996
Total Pages306
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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