SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 299
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३९९ or १४२ १३१ ८३ ه २३९ १ ه ३५९ ک ه ३५६ ३५२ १८१ ३६१ ३६३ سه سه १२७ १२६ १२४ ६१ १२७ १२८ १२८ ___ ४३ १२२ २०६ १४१ ३६२ ४६७. मोहि कब ऐसा दिन आय है (द्यान०) ४६८. मोहि तारो हो देवाधिदेव (द्यान०) ४६९. मोहि सुन-सुन आवे हाँसी (मक्खन०) ४७०. मोही जीव भरमतम ते नहिं (दौल०) ४७१. म्हारी कौन सुने थे (बुध०) ४७२. म्हारी भी सुणि लीज्यो (बुध०) ४७३. म्हारी सुनिए ज्यों परमदयालु (बुध०) ४७४. म्हाकै घट जिन धुनि (भाग०) ४७५. म्हारों मन लीनौ छै थे (बुध०) .४७६. म्हे तो ऊभा राज थाने (बुध०) ४७७. म्हे तो थांका चरणां लागां (बुध०) ४७८. म्हे तो थांपर वारी जी जिनंद (जिने०) ४७९. म्हे तो थापर वारी, वारी वीतराग जी (बुध०) ४८०. यह जग झूठ सारा रे मन (कु०) ४८१. यह मोह उदय दुख पावै (भाग०) ४८२. यही एक धर्म मूल है मीता (भाग०) ४८३. याही मानौ निश्चय मीनौ (भाग०) ४८४. याद प्यारी हो म्हांने थांकी (बुध०) ४८५. या नित चितवो उठि कै भोर (बुध०) ४८६. ये ही अज्ञान पना जिवड़ा तूने (महा०) ४८७. रंग भयो जिनद्वार चल सखि (बना०) ४८८. रत्नत्रय धर्म हितकारी सुगुरु ने (जिने०) ४८९. रटि रसना मेरी रिषभ जिनन्द (भूध०) ४९०. रहौ दूर अंतर की महिमा (भूध०) ४९१. राचि रह्यो परमांहि (दौल०) ४९२. रावण कहत लंकापति राजा (महा०) १२७ ३४२ ५५२ ३९६ ____७४ ७४ ७७ २ ३८८ १३८ ४२५ १५२ 12, ३७ ५४ १८ ४१४ १४७ २१६ ५७४ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003995
Book TitleAdhyatma Pad Parijat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanchedilal Jain, Tarachand Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1996
Total Pages306
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy