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४६७. मोहि कब ऐसा दिन आय है (द्यान०) ४६८. मोहि तारो हो देवाधिदेव (द्यान०) ४६९. मोहि सुन-सुन आवे हाँसी (मक्खन०) ४७०. मोही जीव भरमतम ते नहिं (दौल०) ४७१. म्हारी कौन सुने थे (बुध०) ४७२. म्हारी भी सुणि लीज्यो (बुध०) ४७३. म्हारी सुनिए ज्यों परमदयालु (बुध०) ४७४. म्हाकै घट जिन धुनि (भाग०) ४७५. म्हारों मन लीनौ छै थे (बुध०) .४७६. म्हे तो ऊभा राज थाने (बुध०) ४७७. म्हे तो थांका चरणां लागां (बुध०) ४७८. म्हे तो थांपर वारी जी जिनंद (जिने०) ४७९. म्हे तो थापर वारी, वारी वीतराग जी (बुध०) ४८०. यह जग झूठ सारा रे मन (कु०) ४८१. यह मोह उदय दुख पावै (भाग०) ४८२. यही एक धर्म मूल है मीता (भाग०) ४८३. याही मानौ निश्चय मीनौ (भाग०) ४८४. याद प्यारी हो म्हांने थांकी (बुध०) ४८५. या नित चितवो उठि कै भोर (बुध०) ४८६. ये ही अज्ञान पना जिवड़ा तूने (महा०) ४८७. रंग भयो जिनद्वार चल सखि (बना०) ४८८. रत्नत्रय धर्म हितकारी सुगुरु ने (जिने०) ४८९. रटि रसना मेरी रिषभ जिनन्द (भूध०) ४९०. रहौ दूर अंतर की महिमा (भूध०) ४९१. राचि रह्यो परमांहि (दौल०) ४९२. रावण कहत लंकापति राजा (महा०)
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