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" अब मेरे समकित सावन आयो।" (पद०२१७) रहस्यवाद की चौथी दशा मोक्षलक्ष्मी से वरण होने की स्थिति है उस तक पहुँचने पर आत्मानुभूति के ये स्वर नि:सृत होने लगते हैं
"दिवि दीपक लोय बनी।" (पद०५७०) इसप्रकार उपर्युक्त पदों में रहस्यवाद का उत्तम स्वरूप उपलब्ध है। उपदेशप्रद-पद
इस श्रेणी के पदों में उपदेश-प्रधान की बहुलता है। इनमें सत्य एवं सात्विक हृदय से कही गई उपदेशप्रद-शिक्षाएँ अत्यन्त प्रभविष्णु हैं। सभी कवि बहुश्रुत होने के साथ अनुभवी भी थे। संसार का उन्हें पूर्ण अनुभव था। इसलिए व्यावहारिक सिद्धान्तों का जो निरूपण उन्होंने किया, उसमें उन्हें अत्यधिक सफलता प्राप्त हुई। सभी कवि गृहस्थ थे और गृहस्थ-जीवन में रहते हुए भी अपनी स्वानुभूति के द्वारा उन्होंने शुद्धात्मा को सम्यक् रीति से जान-परख लिया था और उसे प्राप्त करने के लिए उन्होंने सबसे अधिक बल अहिंसा, आत्मिक-शुद्धि और सरल-जीवन पर बल दिया। अनन्तकाल से यह आत्मा राग-द्वेष, माया-मोह के चंगुल में फँसी हुई है और जनम-मरण के चक्कर लगा रही है। शाश्वत-सुख प्राप्त करने में मिथ्यात्व, कषाय, माया-मोह और राग-द्वेष उसमें अवरोधक का कार्य करते आ रहे हैं। इन्हीं अवरोधकों को दूर करने के लिए उन्होंने मानव को समय-समय पर चेतावनी दी और उनसे बचने के लिए उन्होंने अपनी पद-गीतियों के माध्यम से उपदेश दिए।
कवि भूधरदास जी हंस के रूपक द्वारा मन को हितकारी शिक्षा देते हुए कहते हैं कि हे मन रूपी हंस, तू विषय वासना का त्याग कर हृदय रूपी पिंजड़े में भगवान् के चरणों में निवास क्यों नहीं करता? तु संसार रूपी स्त्री का क्यों सेवन कर रहा है? शिव रूपी सरोवर में विचरण क्यों नहीं करता? अब हमारी शिक्षा मान ले, इसी में तेरा कल्याण है
"मनहंस हमारी लै शिक्षा हितकारी ।।(पद० २९४) इसीप्रकार कवि महाचन्द्र विषय-भोगों से दूर रहने की चेतावनी देते हुए कहते
"मति भोगन राची जी। " (पद० ५२०)
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