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________________ (१३) इन अभिव्यक्तियों से यह स्पष्ट है कि आन्तरिक वृत्तियों के विश्लेषण में उक्त कवियों को महारत प्राप्त है। अपनी एक-एक आन्तरिक वृत्ति की गणना एवं उनके अवगुणों को दर्शाकर उनसे बचने की चेतावनी सभी ने दी है। मान और मोह दोनों ही मानव-जीवन के शत्रु हैं। जिस प्रकार शराब पीने वाला व्यक्ति अपना अस्तित्व भूलकर ओछी हरकतें करने में लग जाता है, उसी प्रकार मद और मोह के वशीभूत होकर मानव अपने आत्मिक गुणों को पूरी तरह भूल जाता है। इसका सुन्दर विश्लेषण कवि न्यामतसिंह के निम्न पद में किया है "मद मोह की शराब ने आपा भुला दिया।।" (पद० ५६८) कवि का कथन है कि यह मानव-जन्म अत्यन्त दुर्लभ है। इसलिए इसे प्राप्त कर आत्म-कल्याण हेतु प्रभु का भजन कर लेना ही उपयुक्त है। क्योंकि मनुष्य गति ही एक ऐसी गति है, जिसमें शाश्वत-पद की प्राप्ति हो सकती है। प्रभु के गुणों का स्मरण करके अपने अन्तस् के गुणों को उसी माध्यम से प्राप्त किया जा सकता है और उसी से शुद्धात्मा की प्राप्ति सम्भव है__ "प्रभु गुन गाये रे वह औसर फेर न आये रे। (पद०२९७) कवि के अनुसार इस दुर्लभ मानव-शरीर को प्राप्त कर अपने अन्तस् का यदि अवलोकन नहीं किया और नाना आसक्तियों को हृदय से नहीं निकाला, तो इस शरीर को प्राप्त करना निरर्थक है। इसलिए उन्होंने क्रोध, मान आदि विकारी भावों का विश्लेषण करने के लिए मानव को उद्बोधन दिया "रे जिय क्रोध काहे करें। देखि कै अविवेक प्रानी क्यों विवेक न घरे।।" (पद०५९६) प्रज्ज्वलित अग्नि में ईधन डाले जाने के सदृश मानव की तृष्णा भौतिक साधनों की प्राप्ति से उत्तरोत्तर वृद्धि को प्राप्त होती है। इसका मूल कारण अज्ञानता ही है। इसलिए निम्न पद में कुमति को छोड़ने का आग्रह किया गया है "कुमति को छाड़ो भाई हो।"(पद०२३३) एक अन्य पद में कुमति और सुमति का रूपक उपस्थित कर अपने-आप को सम्बोधित किया गया है Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003995
Book TitleAdhyatma Pad Parijat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanchedilal Jain, Tarachand Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1996
Total Pages306
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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