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जगे अनादि कालिमा तेरे दुरत्यज मोहन' मल ही वे ॥ ३ ॥ मोह नसै भासत' है मूरत पंक नसै ज्यों अलकी वे ‘भागचन्द' मो मिलत ज्ञान सों स्फूर्ति अखण्ड स्वबल' की वे
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महाकवि द्यानतराय (पद ३९९-४१३) (३९९)
राग - सारंग
आय है
॥ टेक
।
मोहि कब ऐसा दिन सकल विभाव ै अभाव होंहिगे, विकलपता' मिट जाय है |मोहि ॥ १ ॥ यह परमातम यह मम आतम, भेद बुद्धि न रहाय है ओरन की का बात चलावै, भेद विज्ञान पलाय है ॥ मोहि जानैं आप आपमैं आपा, सो व्यवहार विलाय है 1 नय-परमान' निखेपन" मांही, एक न औसर" पाय है ॥ मोहि ॥ ३ ॥ दरसन ज्ञान चरन के विकलप, कहो कहाँ ठहराय है । 'द्यानत' चेतन चेतन ह्वै है, पुद्गल पुद्गल थाय है ॥ मोहि ॥ ४ ॥
॥ २ ॥
(४००) राग - काफी
जाना ॥
सेवक, ऐसो भर्म १२
आपा प्रभु जाना मैं परमेसुर यह मैं इस जो परमेसुर सो मम मूरति जो मरमी १४ होय सोइ तो जानै जानै नाही
मम
आतम
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जाको ध्यान धरत हैं मुनिगन, पावत अर्हत सिद्ध सूरि गुरु मुनिपद, आतम रूप जो निगोद में सो मुझ मांहीं सोई 'द्यानत' निहचै" रंच २१ फेर नहिं जानै सो
है
(४०१)
टेक ॥
रे
पलाना ९३ ॥ आपा. ॥ १ ॥
सो भगवाना 1
भाई ॥
आना १५ ॥ आपा. ॥ २ ॥
है निरवाना १६
टेक ॥
अनुभव करना
१. मोह-मल २. प्रकाशित होता है ३. आत्मबल की ४. विभाव नष्ट हो गये ५. विकल्प ६. भेद बुद्धि नहीं रहती ७. दूसरों की ८. आत्म स्वरूप में ९. प्रमाण १०. निक्षेप ११. अवसर १२. भ्रम १३. भाग गया १४. मर्म को जानने वाला १५. अन्य १६. निर्वाण, मोक्ष १७. आचार्य १८. उपाध्याय १९. मोक्ष २०. निश्चय २१. थोड़ा भी अंतर नहीं ।
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बखाना || आपा. ॥ ३॥ शिवथाना " 1 मतिवाना | आपा. ॥ ४ ॥
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