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________________ (८४) 'मक्खन' क्यों तू इत उत भटके, निज आतम रस क्यों न गटके' ॥ (२४०) अपनी सुधि पाय आप, आप से लखियो ॥ टेक ॥ मिथ्यानिशि भई नाश, सम्यक् रवि' को प्रकाश । निर्मल चैतन्य भाव, सहजहि दर्शायो ॥ अपनी. ॥ १ ॥ ज्ञानावरणादिकर्म रागादि मेटि मर्म । ज्ञान बुद्धि ते अखण्ड, आप रूप पायो ॥ अपनी. ॥ २ ॥ सम्यग दृगज्ञान चरणकर्ता कर्मादिकरण । भेद भाव त्याग के अभेद रूप पायो ॥ अपनी. ॥ ३ ॥ शुक्लध्यान खड्ग धार, वसु अरि कीने संहार । लोक अग्र सुथिर बास शाश्वत सुख पायो ॥ अपनी. ॥ ४ ॥ ६-सम्यक्ज्ञान (पद २४१-२५६) कवि बुधजन (२४१) ज्ञान बिन थान न पावौगे गति गति फिरौगे अजान ॥ टेक ॥ गुरु उपदेश लह्यो नहिं उरमैं १ गह्यौ नहीं सरधान २ ॥१॥ विषय भोग मैं राचि रहे करि आरति रौद्र कुध्यान, आन आन लखि आन भये तुम परनति करि लई आन ॥ २ ॥ निपट कठिन मानुष भव पायो और मिले गुनवान । अब 'बुधजन' जिनमत को धारौ, करि आपा पहिचान ॥ ३ ॥ (२४२) कविवर द्यानत ज्ञान सरोवर सोई हो भविजन ॥ टेक ॥ भूमि छिमा" करुना मरजादा, "सम रस जल जह होई ॥ १ ॥ परहित लहर हरख जलचर बहु, नय पंकति परकारी । सम्यक् कमल अष्टदल गुण हैं, सुमन भँवर अधिकारी ॥२॥ संजम शील आदि पल्लव हैं कमला सुमति निवासी । सुजस सुवास, कमल परिचय तैं परसत भ्रम तम नासी ॥३॥ १.इधर उधर २.पिये ३.सूर्य ४.प्रम ५.हुआ ६.तलवार ७.अष्टकर्म ८.सिद्धशिला ९. स्थान १०. चारों गतियों में ११. हृदय में १२. श्रद्धा १३. दूसरे को १४. क्षमा १५. मर्यादा १६. स्पर्श करते ही । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003995
Book TitleAdhyatma Pad Parijat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanchedilal Jain, Tarachand Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1996
Total Pages306
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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