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________________ (८५) भव मल जात न्हात भविजन का, होत परम सुख साता । 'द्यानत' यह सर और न जानें, जानें विरला ज्ञाता ॥ ४ ॥ (२४३) कारज एक ब्रह्म ही सेती ॥ टेक ॥ अंग संग नहि बहिर भूत सब, धन दारा' सामग्री तेती' ॥ १ ॥ सोल' सुरग नवग्रैविक में दुख सुखित सात में ततका वेती । जा शिव कारन मुनिगन ध्यावें सो तेरे घर आनंद खेती ॥ २ ॥ दान शील जप तप ब्रत पूजा अफल ज्ञान विन किरिया केती । पंच दरव तोते नित न्यारे न्यारी राग द्वेष विधि जेती ॥ ३ ॥ तू अविनाशी जग पर कासी ‘द्यानत' भासी सुक्ला वेति । ते जौ लाल मन के विकलप सब, अनुभव मगन सुविद्या एती ॥ ४ ॥ (२४४) पहाकवि भागचंद राग दीपचन्दी तेरे ज्ञानावरनदा परदा, तारौं सूझत नहिं भेद स्वरूप ॥ टेक ॥ ज्ञान विना भव दुख भोगे तू,° पंछी ज्यों बिन परदा ॥ तेरे. ॥१॥ देहादिक में आपो मानत' विभ्रम मदवश परदा ॥ तेरे. ॥ २ ॥ ‘भागचन्द' भव विनसे वासी होय त्रिलोक उपरदा २ ॥ तेरे. ॥ ३ ॥ (२४५) महाकवि बुधजन राग - कलिंगड़ा कुमती को कारज कूडाँ३ होती ॥कुमती ॥टेक ।। थांकी ४ नारि सयानो सुमती मतो कहै छै रुड़ौजी५ ॥कुमती. ॥ १॥ अनन्तानुबंध की जाई१६ क्रोध लोभ मद भाई । माता बहिन पिता मिथ्यामत्त, या कुल कुमती पाई जी ॥कुमती. ॥ २ ॥ घर को ज्ञान धन वादि लुटावै राग दोष उपजावै । १. स्त्री २. उतनी ३. सोलह स्वर्ग ४. ध्यान करते हैं ५. किसकी ६. द्रव्य ७. तुझसे ८. अलग ९. विकल्प १०. भोगने से ११. मानता है १२. ऊपर का १३. कचरा १४. आपकी १५.श्रेष्ठ अच्छा १६. पैदा की हुई १७. ज्ञान रूपी धन १८. व्यर्थ १९. लुटाता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003995
Book TitleAdhyatma Pad Parijat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanchedilal Jain, Tarachand Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1996
Total Pages306
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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